हर चुनाव की तरह इस
बार भी राजनीतिक पार्टियों ने फिल्मी सितारों और बड़े क्रिकेट खिलाड़ियों को चुनाव
मैदान में उतारा है। कुछ खुल कर प्रचार कर रहे हैं तो कई अलग-अलग पार्टियों के लिए
चुनाव लड़ रहे हैं। पहले भी कई फिल्मी सितारे चुन कर लोक सभा में पहुँचते रहे हैं।
मगर संसद में उनके प्रदर्शन के बारे में अगर बात करें, कुछ सितारों को छोड़ बाकी
सब ने निराश ही किया है।
संसद में उपस्थिति
हो, क्षेत्र की समस्याओं को उठाना, सांसद निधि का ठीक से इस्तेमाल या फिर क्षेत्र
के दौरे कर लोगों से संपर्क रखना, अधिकांश फिल्मी सितारे इसमें नाकाम रहते हैं। 2004
के लोक सभा चुनाव में मैदान में उतरे गोविंदा और धर्मेंद्र इसके उदाहरण हैं।
गोविंदा ने कांग्रेस के टिकट पर बीजेपी के दिग्गज राम नाईक को मुंबई उत्तर से
हराया। इसी तरह बीजेपी के टिकट पर धर्मेंद्र ने बीकानेर में चुनाव जीता। लेकिन कुछ
समय बाद हालात ये बने कि मुंबई उत्तर और बीकानेर दोनों जगहों के लोगों को अपने
प्रतिनिधियों की तलाश के लिए पोस्टर लगाने पड़े।
उत्तर भारत के
फिल्मी सितारों के साथ ये ज्यादा बड़ी समस्या है। दक्षिण भारत में फिल्मी सितारे
राजनीति में घुल-मिल जाते हैं। एन टी रामाराव, एम जी रामचंद्र, जयललिता और हाल ही
में राजनीति में आए चिरंजीवी। ये तमाम फिल्मी सितारे जनता के बीच जाकर जनता के ही
हो जाते हैं। जबकि बॉलीवुड के सभी सितारों के साथ ऐसा नहीं है। उत्तर भारत में
जनता का दिल जीतने वाला एक ही बड़ा सितारा लोगों को याद है वो है सुनील दत्त और वो
इसलिए क्योंकि राजनीति में आने के बाद वो लोगों के ही होकर रह गए।
इस बार बीजेपी ने
हेमा मालिनी, किरन खेर, बप्पी लाहिरी, बाबुल सुप्रियो, परेश रावल, मनोज तिवारी,
शत्रुघ्न सिन्हा और जॉय बनर्जी को लोक सभा चुनाव में उतारा है। कांग्रेस ने राज
बब्बर, नगमा, रवि किशन को टिकट दिया है। आम आदमी पार्टी ने गुल पनाग को मैदान में उतारा
है तो तृणमूल कांग्रेस ने फिल्मी सितारों की लाइन लगा दी है। कांग्रेस ने क्रिकेटर
मोहम्मद अज़हरूद्दीन और मोहम्मद कैफ को भी टिकट दिया है। किरण खेर पर चंडीगढ़ में
बाहरी होने का आरोप लग रहा है। बीजेपी के कार्यकर्ता ही उनके खिलाफ प्रदर्शन कर
रहे हैं। वहीं हेमा मालिनी को अभी तक अपने चुनाव क्षेत्र मथुरा जाने की फुर्सत
नहीं मिली है। गाजियाबाद में राज बब्बर को भी बाहरी उम्मीदवार होने की वजह से
दिक्कतें आ रही हैं। वहीं मेरठ से उतरीं नगमा को कांग्रेसी कार्यकर्ता और विधायक
ही परेशान कर रहे हैं।
फिल्म अभिनेत्री रेखा
भी एक बड़ा उदाहरण है जिन्हें सचिन तेंदुलकर के साथ राज्य सभा में मनोनीत किया गया
था। रेखा और सचिन दोनों ही एक या दो बार ही संसद आए हैं। दोनों की सांसद निधि का
कोई इस्तेमाल नहीं हुआ है।
रूपहले पर्दे पर
दिखने वाले सितारे जब लोगों को अपने बीच दिखते हैं तो उनके प्रति एक स्वाभाविक
आकर्षण पैदा होता है। गाहे-बगाहे ये सितारे प्रचार करते हुए भी दिख जाते हैं और
लोग इन्हें देखने के लिए जमा हो जाते हैं। मुंबई में बाकायदा ऐसी कई एजेंसियां हैं
जो राजनीतिक दलों से पैसे लेकर प्रचार के लिए फिल्मी सितारों का इंतज़ाम करती हैं।
इंडिया शाइनिंग के वक्त 2004 में बीजेपी ने ऐसे ही ढेरों फिल्मी सितारों का
इस्तेमाल प्रचार में किया था और कांग्रेस ने 2009 में। राजनीतिक दलों की दिक्कत ये
है कि उन्हें हर हाल में चुनाव जीतना है। उन्हें लगता है कि फिल्मी सितारों की
चकाचौंध से प्रभावित होकर लोग उन्हें वोट देंगे। इसके चक्कर में राजनीतिक दल
वर्षों से अपने लिए काम करते आ रहे समर्पित कार्यकर्ताओं की भी उपेक्षा कर देते
हैं।
लेकिन हकीकत यही है
कि राजनीतिक दलों की विचार धारा और मुद्दों से दूर, जनता की समस्याओं से कटे ये
सितारे प्रवासी पक्षियों की तरह ही होते हैं जो पाँच साल में एक बार नजर आते हैं।
जोश में आकर लोग इन्हें वोट देते हैं और फिर पाँच साल पछताते हैं। इसीलिए राजनीतिक
विश्लेषक पिछले अनुभवों को ध्यान में रख कर ये भी कहते हैं कि उस क्षेत्र की जनता
के लिए फिल्मी सितारों को चुनने से बेहतर यही होगा कि वो खांटी नेताओं को ही
चुनें।
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