देश भर में हो रही
रैलियों में घंटे-घंटे भर बोलने वाले नरेंद्र मोदी पार्टी की अहम बैठकों में चुप रहते
हैं। लोक सभा चुनावों में उम्मीदवार चुनने के लिए भारतीय जनता पार्टी की केंद्रीय
चुनाव समिति की अब तक तीन बैठकें हो चुकी हैं। मगर अधिकांश सीटों पर उम्मीदवारों
के चयन में मोदी न तो अपनी राय रखते हैं और न ही फैसले में दखल देते हैं। पार्टी
के उम्मीदवारों के चयन में राज्य इकाइयों की राय को सबसे ज़्यादा तवज्जोह दी जा
रही है। ऐसा कम ही हुआ है जब मोदी ने किसी विशेष सीट या विशेष उम्मीदवार के बारे
में कुछ कहा हो। दिन-दिन भर चलने वाली इन बैठकों में मोदी के अलावा लाल कृष्ण
आडवाणी और अरुण जेटली भी ज़्यादा समय चुप ही रहते हैं।
नरेंद्र मोदी को
करीब से जानने वाले पार्टी नेता कहते हैं कि मोदी पार्टी के अंदरूनी फैसलों की
प्रक्रिया में कम बोलने में ही विश्वास रखते हैं। समय से पहले अपने पत्ते न खोलना,
मोदी की कार्यशैली का एक महत्वपूर्ण लक्षण है। न ही वे अपनी सोच के बारे में किसी
को अंदाज़ा लगाने का मौका देते हैं। उनके चुनाव लड़ने का फैसला भी ऐसा ही एक बड़ा
कदम है, जिसके बारे में वो खुद ही फैसला करेंगे और इसका एलान भी आखिरी वक्त तक रोक
कर रखेंगे। वो चाहे पार्टी के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार हों और उम्मीदवारों के
चयन की महत्वपूर्ण प्रक्रिया उनकी इस महत्वाकांक्षा के पूरे होने के रास्ते का एक
बड़ा पड़ाव हो, मगर मोदी इसमें दखल देते हुए नहीं दिखना चाह रहे हैं। कहा जा रहा
है कि ये सोची-समझी रणनीति का हिस्सा है।
दरअसल, राष्ट्रीय
स्वयंसेवक संघ के शीर्ष नेतृत्व में बीजेपी के केंद्रीय नेताओं के प्रति एक विशेष
किस्म का अविश्वास घऱ कर गया है। 2004 के चुनाव में बीजेपी की करारी हार के बाद से
पिछले दस साल में पार्टी अधिकांश समय आपसी झगड़ों में ही व्यस्त रही है। दूसरी
पीढ़ी के नेताओं को आपस में झगड़ने से फुर्सत नहीं मिली और पार्टी के सबसे बड़े
नेता होने के बावजूद लाल कृष्ण आडवाणी बजाए इन झगड़ों को सुलझाने के, इनमें एक
खेमे के साथ नज़र आने लगे। यही वजह रही है कि पार्टी से इन नेताओं का असर कम करने
के लिए आरएसएस ने पहले एक बाहरी व्यक्ति नितिन गडकरी को पार्टी की कमान सौंपी और
अब नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार बनाया है।
मोदी दिल्ली की
सत्ता के गलियारों से अपरिचित नहीं हैं। संगठन महामंत्री रहते हुए उन्होंने
हस्तिनापुर की दुरुभिसंधियों को नजदीक से देखा है। वो इस बात से भी अंजान नहीं हैं
कि उनकी उम्मीदवारी से पार्टी के कई नेता खुश नहीं हैं। वे ये भी जानते हैं कि कई
नेता अब भी इस उम्मीद में हैं कि अगर बीजेपी को 170 के करीब सीटें आईं तो मोदी के
बजाए कोई और प्रधानमंत्री बन सकता है। मोदी को ये अंदाज़ा भी है कि गठबंधन और
उम्मीदवारों के फैसलों में किस तरह से जान-बूझकर पार्टी के भीतर ही टाँग अड़ाई जा रही
है ताकि दो सौ सीटें पार करने के बीजेपी का मकसद पूरा न हो सके।
मुरली मनोहर जोशी को
ये नाराज़गी है कि उन्हें किसी ने ये क्यों नहीं कहा कि नरेंद्र मोदी बनारस से चुनाव
लड़ना चाहते हैं और वो उनके लिए सीट खाली कर कानपुर चले जाएँ। लालजी टंडन इस बात
से नाराज़ हैं कि उन्हें कोई ये कहने नहीं आया कि राजनाथ सिंह लखनऊ आना चाहते हैं।
कैलाश जोशी अपनी भोपाल सीट बचाने के लिए आडवाणी को वहां से लड़ने का आमंत्रण दे
रहे हैं। सबको उम्मीद थी कि मोदी उनसे कहेंगे, लेकिन ऐसा नहीं हुआ। मोदी चुप रहे।
दरअसल, नरेंद्र मोदी
सोची समझी रणनीति के तहत खुद को दिल्ली के नेताओं से दूर रख रहे हैं। मोदी का मानना
है कि बीजेपी को बेहतरीन कामयाबी दिलाने का एक ही नुस्खा है और वो है जनता से सीधा
संवाद। 11 अशोक रोड पर बैठे रहने से ये कामयाबी नहीं मिल सकती। मोदी का कहना है कि
उनके और लोगों के बीच कोई और नहीं आएगा। महत्वपूर्ण मुद्दों पर वे अपनी राय पार्टी
अध्यक्ष राजनाथ सिंह को बता देते हैं। लेकिन सब कुछ उनकी इच्छा के मुताबिक ही हो,
या हो रहा है, ऐसा संदेश वो नहीं देना चाहते। बतौर प्रधानमंत्री उम्मीदवार चाहे
उन्हें बराबरी के लोगों में पहला (फर्स्ट अमंग इक्वलस) माना जा रहा हो, लेकिन अगर
वो प्रधानमंत्री बनते हैं तो पार्टी के सर्वोच्च नेता बन जाएंगे। तब ये देखना
दिलचस्प होगा कि पार्टी के अंदरूनी मामलों पर भी चुप ही रहेंगे या पार्टी फोरम पर
खुल कर अपनी बात रखेंगे।
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