उत्तर भारत की
पार्टी कही जाने वाली भारतीय जनता पार्टी ने कर्नाटक में सरकार बना कर इस मिथक को
तोड़ा था वो व्यापक जनाधार वाली पार्टी नहीं है। लेकिन केरल, तमिलनाडु और आंध्र
प्रदेश जैसे अन्य दक्षिण भारतीय राज्यों में संगठन होने के बावजूद बीजेपी चुनावी
कामयाबी नहीं मिली हैं।
इस बार कर्नाटक में
बी एस येदुरप्पा को वापस लाकर बीजेपी ने खोई ताकत पाने की कोशिश की है। तमिलनाडु
में एमडीएमके और डीएमडीके के साथ बातचीत पूरी हो चुकी है। पीएमके के साथ सीटों के
बंटवारे पर बात हो रही है। वहां एआईएडीएमके और डीएमके के मुकाबले बीजेपी एक मजबूत
तीसरे मोर्चे की नींव रखने जा रही है। जबकि आँध्र प्रदेश में तेलुगु देशम पार्टी
(टीडीपी) से उसके गठबंधन की घोषणा अब सिर्फ एक औपचारिकता है।
पिछले लोक सभा चुनाव
में आँध्र प्रदेश की वजह से ही कांग्रेस ने दो सौ का आंकड़ा पार किया। वाईएसआर
रेड्डी के रूप में मिले एक ताकतवर नेता ने कांग्रेस को ये कामयाबी दिलाने में बड़ी
भूमिका निभाई। लेकिन अब हालात बदले हुए हैं। वाईएसआर की मृत्यु के बाद उनके बेटे
जगनमोहन कांग्रेस से अलग होकर अपनी पार्टी बना चुके हैं। आँध्र प्रदेश का विभाजन
हो गया है। दो जून को अलग तेलंगाना और सीमांध्रा राज्य अस्तित्व में आ जाएंगे।
बीजेपी और तेलुगु
देशम पार्टी (टीडीपी) के बीच गठबंधन होना करीब-करीब तय माना जा रहा है। कहा जा रहा
है कि सीमांध्रा में नरेंद्र मोदी की 25 मार्च के आसपास संभावित रैली के दौरान
दोनों ही पार्टियों में गठबंधन की घोषणा की जा सकती है। 11 मार्च को अपनी हैदराबाद
यात्रा के दौरान पार्टी अध्यक्ष राजनाथ सिंह और वरिष्ठ नेता अरुण जेटली ने राज्य
नेताओं को यह कह भी दिया है कि वे टीडीपी के साथ गठबंधन को तैयार रहें। दोनों ही
पार्टियों के नेताओं में सीटों के बंटवारे के लिए बातचीत चल रही है। टीडीपी को
उम्मीद है कि तेलंगाना और सीमांध्रा दोनों जगहों पर बीजेपी से तालमेल करने से मोदी
के नाम पर बीजेपी को मिल रहे वोट उसे ट्रांसफर हो सकेंगे। जबकि बीजेपी को लगता है
कि टीडीपी के व्यापक जमीनी आधार और संगठन का फायदा लेकर वो दोनों हिस्सों के कुछ बड़े
शहरों में चुनावी कामयाबी हासिल कर सकती है।
ऐसा होना बीजेपी के
लिए एक बड़ी कामयाबी मानी जाएगी। न सिर्फ एनडीए को टीडीपी के रूप में एक मजबूत
सहयोगी दल मिलेगा बल्कि दक्षिण भारत में कर्नाटक के बाद आँध्र प्रदेश में भी उसे
पैर पसारने का एक बड़ा मौका फिर मिलेगा। बीजेपी ने टीडीपी के साथ गठबंधन में 1999
में लोक सभा की सात सीटें जीती थीं और विधानसभा में उसे चार फीसदी वोट मिले थे। जबकि
1998 के लोक सभा चुनाव में बीजेपी ने टीडीपी के साथ गठबंधन में चार लोक सभा सीटें
जीती थीं।
दिक्कत ये है कि
बीजेपी ने जिस तरह से संसद में तेलंगाना बिल का समर्थन किया उससे सीमांध्रा में उसके
खिलाफ माहौल बना हुआ है। टीडीपी को इस बात का एहसास है और इसीलिए अभी तक गठबंधन का
एलान नहीं हो सका है। बल्कि बीच में टीडीपी की नाराजगी इस हद तक थी कि उसने गठबंधन
की बातचीत भी बंद कर दी थी। कोशिश ये की जा रही है कि नरेंद्र मोदी की सीमांध्रा
में एक के बाद एक ताबड़तोड़ रैलियां कराई जाएं और इनमें वे ये आश्वासन दें कि
एनडीए की सरकार आने के बाद सीमांध्रा के लिए विशेष पैकेज देंगे। बीजेपी इसके लिए
तैयार भी है।
राम विलास पासवान की
ही तरह चंद्रबाबू नायडू का भी साथ आना व्यक्तिगत तौर पर नरेंद्र मोदी के लिए बेहद
सुकून देने वाला होगा। पासवान की ही तरह चंद्रबाबू भी अपने मुस्लिम वोटों को
नाराज़ नहीं करना चाहते थे। दोनों ही नेता खुद को सेक्यूलर बताते हैं और ये तीसरे
मोर्चे के साथ रहे हैं। चंद्रबाबू गैर कांग्रेसवाद के नाम पर बीजेपी के साथ जुड़े
थे। लेकिन 2002 के दंगों के बाद भी बीजेपी के साथ बने रहे क्योंकि पार्टी ने अलग
तेलंगाना न बनने देने का वादा किया था।
वैसे अटल बिहारी
वाजपेयी के समय बीजेपी के पास दक्षिण भारत से टीडीपी के अलावा तमिलनाडु में
पीएमके, एमडीएमके, डीएमके या एआईएडीएमके, कर्नाटक में राम कृष्ण हेगड़े जैसे
सहयोगी रहे हैं। लेकिन वाजपेयी और मोदी की छवि का अंतर्विरोध सामने ला कर मोदी के
बारे में हमेशा ये कहा जाता रहा कि बीजेपी को सरकार बनाने के लिए नए सहयोगी नहीं
मिल पाएंगे। मगर पहले पासवान और अब चंद्रबाबू नायडू जैसे नेताओं से चुनाव पूर्व
गठबंधन कर मोदी ने इस मिथक को तोड़ने की कोशिश की है। जाहिर है इस उम्मीद में कि
इन्हें देखते हुए चुनाव के बाद ममता बनर्जी, जयललिता या नवीन पटनायक जैसे सहयोगी
साथ आने से नहीं घबराएंगे।
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