कांग्रेस में चुनाव से पहले अजीब होड़ लगी है। चुनाव न लड़ने की होड़। कई दिग्गज नेताओं ने अलग-अलग कारण बताते हुए चुनाव लड़ने से इनकार कर दिया। ताज़ा नाम सूचना और प्रसारण मंत्री मनीष तिवारी का है जिनका स्वास्थ्य ठीक नहीं है और इस कारण वो संभवतः लुधियाना से चुनाव नहीं लड़ सकेंगे।
कांग्रेस में चुनाव से पहले एक और होड़ लगी है। पार्टी के ख़िलाफ़ बने माहौल का ठीकरा प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह पर फोड़ने की। सरकार पर लगे भ्रष्टाचार के आरोपों का ठीक से जवाब न देने के लिए उन्हें ज़िम्मेदार ठहराया जा रहा है। टूजी घोटाले की जाँच कर प्रधानमंत्री और वित्त मंत्री पी चिदंबरम को क्लीन चिट देने वाली विवादास्पद संयुक्त जाँच समिति यानी जेपीसी के अध्यक्ष रहे पी सी चाको ने सार्वजनिक रूप से कहा भी है कि प्रधानमंत्री सरकार की कामयाबियों के बारे लोगों को ठीक से नहीं बता सके।
ये संभवतः पहली बार है जब चुनाव होने से पहले ही सत्तारूढ़ दल हथियार डालता दिख रहा है। चुनाव के परिणामों की प्रतीक्षा किए बग़ैर ही संभावित हार के लिए बलि का बकरा भी ढूँढा जाने लगा है। प्रधानमंत्री पर धीरे-धीरे शुरू हुए इन हमलों के पीछे यही वजह मानी जा सकती है। लेकिन कांग्रेस की समस्या ये है कि वहाँ समस्याओं का ईमानदारी से विश्लेषण नहीं होता।
इसमें कोई शक नहीं कि 2004 की जीत का सेहरा सोनिया गांधी के सिर बँधता है। उन्होंने 1999 में पार्टी को मिली सबसे कम सीटों के झटके से पार्टी को उबार कर सत्ता तक पहुँचाया। गठबंधनों के प्रति पार्टी की झिझक को तोड़ा। ख़ुद प्रधानमंत्री बनने के बजाए साफ़ छवि के मनमोहन सिंह को ये ज़िम्मेदारी देकर सबको हैरान कर दिया। ये भी सही है कि 2009 में मिली जीत का सेहरा सोनिया गांधी नहीं बल्कि मनमोहन सिंह के सिर बँधता है। आर्थिक मंदी से देश को उबार कर और अमेरिका के साथ परमाणु समझौता कर शहरी मिडल क्लास का दिल जीता। किसानों के क़र्ज़ माफ़ कर और मनरेगा जैसी लोकलुभावन योजनाओं से ग्रामीण इलाक़ों में पार्टी को मज़बूत किया।
लेकिन 2009 के बाद से ही कांग्रेस और सरकार की लोकप्रियता ढलान पर है। एक के बाद एक सामने आए घोटालों ने छवि धूमिल कर दी। कमरतोड़ महँगाई, घटती विकास दर, बढ़ती महँगाई दर, लचर विदेश नीति जैसी नाकामियों से लोगों का भरोसा टूटने लगा है।
पर इस सबके लिए अकेले मनमोहन सिंह को ज़िम्मेदार ठहरा कर कांग्रेस अध्यक्ष के वफ़ादार नेता अन्याय कर रहे हैं। मीठा मीठा गप और कड़वा कड़वा थू नहीं हो सकता। ऐसे कई नेता मिल जाते हैं जो कहते हैं कि मनमोहन सिंह को बदल दिया जाना चाहिए था। सत्ता के दो केंद्रों के प्रयोग को नाकाम बताने वाले कुछ नेताओं के बयान यही इशारा करते हैं। कुछ कांग्रेसी मनमोहन सिंह पर संवादहीनता का आरोप भी लगाते हैं। पर यूपीए एक में भी प्रधानमंत्री कम ही बोलते थे।
कुल मिला कर कोशिश ये दिखती है कि यूपीए टू की नाकामियों से सोनिया और राहुल गांधी को बचा कर अलग दिखा जाए। ये कोशिश भी कि अगर 2014 में नतीजे ख़िलाफ़ हों तो कांग्रेस प्रचार की अगुवाई कर रहे राहुल को दोष न दिया जाए। लेकिन कांग्रेस को अगर पटरी पर रहना है तो उसे अपनी असली समस्या की ओर ध्यान देना होगा।
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