Friday, September 13, 2019

गड़करी विवाद- नेक इरादा, ख़राब तरीका


इससे कौन इनकार करेगा कि हर जान बेशकीमती है। फिर भी अगर जान की कीमत रुपए-पैसों में लगानी हो तो आप जान कर हैरान होंगे कि भारत की 3 प्रतिशत जीडीपी सड़क दुर्घटनाओं में मारे गए लोगों की वजह से कम हो जाती है। हैरानी की बात यह भी है कि सड़क दुर्घटनाओं के कारण हर साल भारत की आबादी से दार्जिलिंग या रुड़की जैसा एक शहर कम हो जाता है। प्रति वर्ष करीब डेढ़ लाख लोग सड़क दुर्घटनाओं में मारे जाते हैं। हर व्यक्ति की मौत के साथ ही एक परिवार का सपना-सहारा दम तोड़ जाता है। मरने वालों में युवाओं की संख्या ज़्यादा है जो और भी गंभीर बात है। मरने वालों में 65 प्रतिशत 18 से 35 वर्ष के लोग हैं। इससे आप अंदाजा लगा सकते हैं कि परिवारों पर कितनी बड़ी विपत्ति लाती है सड़क दुर्घटनाएँ।

भारत ने 2015 में ब्रासीलिया घोषणापत्र पर दस्तखत कर यह तय किया था कि वह 2022 तक देश में होने वाली सड़क दुर्घटनाओं में पचास प्रतिशत की कमी लाएगा। इसके लिए नई सड़कें बनाना, मौजूदा सड़कों को ठीक करना, यातायात कानूनों को कड़ा करना, लोगों को जागरुक करना, वाहनों में चालकों और यात्रियों की सुरक्षा के अधिक कड़े प्रावधान करना जैसे कदम उठाने की बात कही गई थी। लेकिन क्या वाकई ऐसा हो पा रहा है?

आंकड़ें बताते हैं कि तमाम कदम उठाने के बावजूद भारत में सड़क दुर्घटनाओं की संख्या पर नियंत्रण या कमी नहीं लाई जा सकी है। टाइम्स ऑफ इंडिया में अक्तूबर 2018 में छपी एक रिपोर्ट के मुताबिक 2016 की तुलना में 2017 में सड़क दुर्घटनाओं ेमें सिर्फ 3.27% की ही कमी आई है। 2016 में जहां देश भर में 4,80,652 सड़क दुर्घटनाएँ हुईं थीं वहीं 2017 में 4,64,919 सड़क दुर्घटनाएं हुईं। इन दुर्घटनाओं में मरने वालों की संख्या में भी मामूली अंतर ही आया और सिर्फ दो प्रतिशत की ही कमी आई।

तो ऐसा क्यों हो रहा है कि तमाम कदम उठाए जाने के बावजूद सड़क दुर्घटनाएं और उनसे होने वाली मौतों पर अंकुश नहीं लगाया जा सका है। बढ़ती आबादी और वाहनों की बढ़ती संख्या के अनुपात में आधारभूत ढांचा बनाने में कमी इसका एक बड़ा कारण है। पीआरएस के एक अध्ययन के अनुसार सन् 2000 से भारत में सड़कों के जाल में 39% की बढोत्तरी हुई जबकि इसी दौरान वाहन की संख्या में 158% की वृद्धि हुई है। सड़कों पर बढ़ती वाहनों की भीड़ और पर्याप्त सुरक्षा उपाय न होना सड़क दुर्घटनाओं के सबसे बड़े कारणो में से एक है। वैसे तो देश के राष्ट्रीय और प्रादेशिक राजमार्ग सड़कों का सिर्फ पांच प्रतिशत हैं लेकिन भारत में होने वाली आधे से अधिक यानी करीब 52% सड़क दुर्घटनाएँ इन्हीं राजमार्गों पर होती हैं। इसका  प्रमुख कारण राजमार्गों पर तीव्र गति से वाहन चलाना और वहां वाहनों की संख्या अधिक होना है। इसके साथ ही गलत तरीके से ओवरटेक करना, शराब पीकर गाड़ी चलाना, उल्टी दिशा में गाड़ी चलाना, रेड लाइट जंप करना, गाडी चलाते समय मोबाइल का प्रयोग करना, हेलमेट और सीट बेल्ट का प्रयोग न करना जैसे कारणों से सड़क दुर्घटनाओं में बड़ी संख्या में लोगों की मौत होती है।

चालकों और यात्रियों की सुरक्षा के लिए यातायात के नियमों को अधिक कड़ा करने की मांग लंबे समय की जाती रही है। यह तर्क दिया गया कि अगर नियमों के उल्लंघन पर जुर्माने और सजा कड़े होंगे तो इससे लोग नियमों का पालन करेंगे और इससे सड़क सुरक्षा मजबूत करने में मदद मिलेगी। यही वजह है  कि लंबे विरोध के बावजूद मोटर व्हीकल ऐक्ट संशोधन बिल को आखिरकार सत्रहवीं लोक सभा से पारित कराया गया और एक सितंबर से देश भर में यातायात कानून के नए नियम लागू किए गए। इसके पीछे मंशा सही है। खुद सड़क परिवहन यातायात मंत्री  नितिन गडकरी इस बिल को पेश करते समय भावुक हो गए थे। उन्होंने लोक सभा में जानकारी दी थी कि वे खुद सड़क दुर्घटना का शिकार हो चुके हैं और उनके एक पैर में आई स्थाई चोट इसी कारण है। सूत्रों का यह भी कहना है कि नए प्रावधानों का इसलिए भी विरोध किया गया गया क्योंकि भ्रष्टाचार का अड्डा बन चुके आरटीओ से लूट का एक हिस्सा राजनीतिक दलों को मिलता रहा है। लेकिन बिल पारित कराते समय यह अंदाजा नहीं रहा होगा कि नए नियमों का इतना तीखा विरोध होगा और खुद बीजेपी शासित राज्य ही इनमें परिवर्तन कर जुर्माने की रकम कम करने की पहल करेंगे। इन राज्यों की दलील है कि नए जुर्माने जनता पर बोझ है। उनका मानना है कि जुर्माना बढ़ाना सड़क दुर्घटनाओं को रोकने का तरीका नहीं है बल्कि इसके लिए धीरे धीरे जनता को जागरुक करना चाहिए।

हकीकत तो यह भी है कि सड़क दुर्घटनाओं को रोकने में सरकारें भी कदम उठाने में नाकाम रही हैं। सड़कों की खराब हालत, ट्रैफिक लाइट न होना, नियमों के पालन कराने के लिए सख्ती न होना, राजमार्गों पर बने अंधे मोड़ आदि दुरुस्त कराने की जिम्मेदारी सरकारों की है जिसमें वे नाकाम रही हैं। सड़कों के गड्डों से भी बड़ी संख्या में सड़क दुर्घटनाएं और मौतें होती हैं।  सुप्रीम कोर्ट के निर्देश पर सड़क सुरक्षा को लेकर बनी के एस राधाकृष्णन समिति ने सुप्रीम कोर्ट को बताया था कि 2013 से 2017 के बीच सड़कों पर बने गड्डों के कारण हुई दुर्घटनाओं के चलते 14,926 लोगों को जान से हाथ धोना पड़ा था। सुप्रीम कोर्ट ने इस पर नाराजगी जताते हुए कहा था कि यह संख्या तो आतंकवादियों के हमले में मारे गए लोगों की संख्या से भी अधिक है। यह भी कष्टदायक है कि ऐसे मामलों में पीड़ितों के परिवारवालों को कोई मुआवजा नहीं मिलता। सुप्रीम कोर्ट ने आदेश दिया था कि ऐसे मामलों में भी मुआवजा दिया जाए।

अगर सड़कों पर बने अंधे मोड़ या ब्लाइंड स्पॉट की बात की जाए तो ऐसा सड़कों की खराब डिज़ाइन या भूमि अधिग्रहण के विवाद को लेकर होता है। साथ ही राजमार्गों पर भी ऐसे स्थान हैं जहां दुर्घटनाएँ होती हैं। 2016 में ऐसे 726 स्थानों की पहचान कर उन्हें ठीक करने के लिए 11, 000 करोड़ रुपयों का आवंटन किया गया था। लेकिन सरकार दो साल में सिर्फ 189 स्थान ही ठीक करा सकी। इसके लिए मंत्रालय ने एक ऐप भी लांच किया था जिसमें लोगों से कहा गया था कि वे ऐसे ब्लाइंड या ब्लैक स्पॉट के फोटो खींच कर भेजें।

गडकरी के बनाए कानून की मंशा बिल्कुल ठीक है। अगर 2022 तक सड़क दुर्घटनाओं की संख्या में कमी लाना है तो कड़े कानून के बिना ऐसा कर पाना संभव नहीं है। लेकिन लोगों को इस बात से दिक्कत हुई कि अचानक से जुर्माने की रकम बढ़ा दी गई। दरअसल, लोगों को कानून पर तो विश्वास है लेकिन कानून लागू करने वालों पर नहीं। सड़क पर खड़ा ट्रैफिक कांस्टेबल सरकार का चेहरा है। जब लोगों को लगता है कि जुर्माने के नाम पर उन्हें परेशान किया जाएगा या उनसे वसूली की जाएगी तो वे उखड़ जाते हैं। पिछले दिनों ऐसे कई वीडियो वायरल हुए जिनमें ट्रैफिक नियमों के नाम पर आम लोगों को परेशान किया जा रहा है या उन्हें पीटा तक जा रहा है। अगर नया कानून लागू करने से पहले यह सुनिश्चित किया जाता कि इन्हें लागू कराने में मानवीय दखल कम होगा, तो शाय़द लोग इसे बेहतर ढंग से लेते। आखिर सड़कों पर मौजूद ट्रैफिक कांस्टेबल की वर्दी में कैमरा लगाने और उसका सीधा संपर्क कंट्रोल रूम से करने में कितना खर्च होगा? इससे पारदर्शिता आएगी और भ्रष्टाचार में कमी भी। इसी तरह ओवरस्पीडिंग के लिए स्पीड कैमरे लगाना एक बेहतरीन उपाय है जो सिस्टम में पारदर्शिता लाता है और सभी नागरिकों को कानून के सामने बराबर करता है। दिल्ली जैसे शहर जहां हर गाड़ी वाला ट्रैफिक कांस्टेबल पर यह कह कर धौंस जमाता है कि "तू जानता नहीं, मैं कौन हूं"; वहां कैमरों से चालान काटना नियमों को कड़ाई से लागू करने की दिशा में बड़ा कदम होगा।

इसी तरह एनएचएआई, राज्य सरकारें और स्थानीय प्रशासन सड़कों के हालत दुरुस्त करने या रखने की अपनी जिम्मेदारी से मुंह नहीं मोड़ सकतीं। सड़कों पर गड्डे या ब्लाइंड स्पॉट ठीक किए बिना सिर्फ लोगों से ही कानून के पालन करने की अपेक्षा करना ठीक नहीं होगा। अगर रेड लाइट काम नहीं कर रही है तो इसके लिए कौन जिम्मेदार है, यह भी देखना जरूरी है।

नितिन गडकरी के लिए भी फिलहाल यही ठीक होगा कि वे इस कानून को अपनी प्रतिष्ठा का प्रश्न बनाए बिना इसे चरणबद्ध ढंग से लागू कराने का प्रयास करें। जिस तरह से उन्होंने संसद में इसे लेकर आम राय बनाने का प्रयास किया, ठीक वैसे ही राज्यों से भी बात करनी होगी। यह हो सकता है कि शायद ब्रासीलिया घोषणापत्र के तहत 2022 तक सड़क दुर्घटनाओं में पचास प्रतिशत कमी लाने का हमारा लक्ष्य पूरा करने में कठिनाई आए लेकिन ऐसे कड़े प्रावधानों में सरकार को अपना मानवीय चेहरा भी जनता के सामने रखना चाहिए।