80 के दशक की यादें ताज़ा हो गईं.
तब गांव में एक बड़े हॉल में एक टीवी पर वीडियो फिल्में देखने जाता था.
चाहे शक्ति कपूर हो, अमरीश पुरी या फिर कोई दूसरा ऐसा ही विलन.
पंद्रह रील तक हीरो पिटता था और आखिरी रील में जैसे ही हीरो के हाथ चलने लगते थे तब हॉल में लोग सीटियां और तालियाँ बजाते थे.
आज पीपली लाइव देखी तो फिर वो पुराने दिन सामने आ गए.
इस फिल्म में न कोई हीरो है न कोई हीरोइन. कोई है तो वो है विलन जो कई शक्लों में दर्शकों के सामने आता है.
लेकिन हाल की फिल्मों में विलन के किरदार निभाते रहे नेता, अफसर और पुलिस इस फिल्म में हाशिए पर दिखाए देते हैं.
विलन नंबर 1 है इलैक्ट्रॉनिक मीडिया. 24 घंटे के न्यूज़ चैनल. नाक फुलाते, गुस्से में गुर्राते उनके संपादक और दुनिया भर की बकवास कर 24 घंटे के न्यूज़ चैनलों का पेट भरते रिपोर्टर.
हॉल में जब-जब तालियां बजीं वो तब बजीं जब कुमार दीपक ने बकवास की.
यानी दर्शकों को भी समझ में आने लगा है कि वो टीवी पर जो देखते हैं उसके पीछे किस तरह टीआरपी बढ़ाने का षडयंत्र है, कैसे विरोधी चैनल की स्टोरीज़ से होड़ लगी है और न्यूज़रूम में आखिर क्या होता है.
गिरती टीआरपी के बीच एक चालू पुर्ज़ा रिपोर्टर आइडिया लेकर आता है.... सैफ अली खान ने एक छोटी बच्ची को किस किया.
फिर देखिए न्यूज़ रूम में कैसे इस खबर को तानने के लिए एक के बाद एक आइडियाज़ सामने आते जाते हैं.
करीना कपूर से शुरू हो कर बात शर्मिला टैगोर तक पहुँच जाती है. लेकिन इससे पहले कि इस ऐतिहासिक ख़बर पर काम शुरू हो, पीपली गांव में नत्थे का ड्रामा शुरू हो जाता है.
मुख्यमंत्री के इलाके में पड़ता है पीपली गांव और वहां उप चुनाव की तैयारियां हैं.
मुख्यमंत्री के दिल्ली आने पर उसकी बाइट के लिए स्टार रिपोर्टर कुमार दीपक की पेशकश... मुख्यमंत्री के गाड़ी से निकलते ही रिपोर्टर का उनका पैर छूना और फिर एक बाइट के लिए पहला सवाल ही प्रायोजित सा.
दूसरी तरफ़, अंग्रेज़ी चैनलों के भीतर चल रहा ड्रामा भी बेहद सटीक ढंग से पेश किया गया है.
पहली हेडलाइन शिल्पा शेट्टी की... दूसरी कोई और और तीसरी किसानों की आत्महत्या की.
स्टुडियो में ब्रेक में कृषि मंत्री का आना. एंकर से अपने घर पार्टी में न आने की बात पूछना. एंकर का मुंह बना कर कहना कि तबीयत खराब थी और मंत्री का ये कहना कि तुम दूसरे की पार्टी में तो गई थी. फिर एंकर का कहना उसी के बाद हुई तबीयत खराब.
अनुषा रिज़वी टीवी में कई साल तक काम कर चुकी हैं. आज के इलैक्ट्रॉनिक मी़डिया की बिल्कुल सटीक तस्वीर खींची है.
इसीलिए इस फिल्म में विलन नंबर 1 है खबरिया चैनल.
याद कीजिए वो दृश्य. नत्था गायब है. कुमार दीपक जबरन अपने कैमरामैन को टॉवर पर चढ़ाता है. देश भर के दर्शकों को ये दिखाने के लिए कैसे आज भी देश की 70 फीसदी आबादी पखाने के लिए खेतों में जाती है.
आज के चैनलों में ऐसे रिपोर्टरों की भरमार है. खुद गांव से आते हैं. लेकिन गांव को शहरी दर्शकों को बेचने की कला में माहिर हो गए हैं.
फिर, कैमरामैन को दिखता है नत्था पखाना करते हुए. वो हकबकाते हुए नीचे उतारा जाता है और फिर सारे कैमरे भागते हैं खेतों की ओर. दिशा मैदान के लिए नहीं बल्कि दिशा मैदान करते हुए नत्था को कैमरे में कैप्चर करने के लिए.
और नत्था के गायब होने के बाद कुमार दीपक ने नत्थे के पखाने का जो मनोविश्लेषण किया है उसे देख कर शायद बड़े से बड़ा मनोचिकित्सक भी शर्म से डूब कर मर जाए.
कुमार दीपक कहता है पखाना देख कर अंदाज़ा लगाया जा सकता है कि मरीज़ के दिल में क्या चल रहा है. अगर एक ही रंग का हो तो समझ सकते हैं कि मन में एक ही भाव है. लेकिन नत्था का पखाना कई रंगों का है.
पूरा हॉल रिपोर्टर के इस विश्लेषण से पहले तो चकित सा दिखा. फिर ज़ोर की हँसी जिसमें हास्य रस से अधिक वीभत्स रस का भाव और रिपोर्टर के इस अनूठे विश्लेषण के प्रति अवज्ञा और व्यंग्य दिखा.
इस फिल्म में लोग तालियां तब नहीं बजाते हैं जब जिलाधिकारी या बीडीओ मूर्खों जैसी बात करते हैं. या फिर नेता अपनी रोटियां सेंकने के लिए नत्था का अपने-अपने ढंग से इस्तेमाल करते हैं. हाँ एक बार तब सारे लोग ज़ोर से ज़रूर हँसे जब कृषि सचिव बार-बार यही रट लगता है कि हमें हाई कोर्ट के निर्देश का इंतज़ार है.
लेकिन तालियाँ तब बजती हैं जब चैनलों के रिपोर्टर पीपली गाँव से लाइव रिपोर्टिंग करते हैं. जब नत्था के पड़ोसी, उसके दोस्तों यहाँ तक की बकरियों से बाइट लेने की कोशिश करते हैं. इन तालियों में गूंज वही है जो मैं बचपन में गाँव में वीसीआर पर फिल्में देखते वक्त शक्ति कपूर, अमरीश पुरी या प्राण को पिटते वक्त सुना करता था.
और, इंग्लिश चैनल की रिपोर्टर स्ट्रिंगर विजय के बारे में पूछती है कि वो दिख नहीं रहा. फिर जब आखिर में उसकी गाड़ी रवाना होती है तब नत्था के घर के बाहर मेला उठ चुका होता है. इधर-उधर बिखऱी मिनरल वॉटर की बोतलें, पेप्पी, कॉफी के खाली ग्लास ये कहानी कह चुके होते हैं कि पीपली की त्रासदी सिर्फ एक मनोरंजन का ज़रिया था. वो भी उस हिंदुस्तान के लिए जिसे अपने ड्राइंग रूम में बैठ कर एक किसान की आत्महत्या की कहानी में उतनी ही दिलचस्पी थी जितनी की किसी सीरियल में कि आगे क्या होगा.
तो क्या इलैक्ट्रॉनिक मीडिया नया विलन है? इससे पहले रामगोपाल वर्मा की फिल्म देखी थी रण. तब भी हॉल में कुछ ऐसा ही नज़ारा था.
प्रजातंत्र में जनता का भरोसा पहले नौकरशाहों से उठा तो नेताओं पर टिक गया. नेताओं से उठा तो न्यायपालिका पर टिक गया. और न्यायपालिका से भरोसा उठने के बाद ताकतवर मीडिया में लोगों को उम्मीद की किरण नज़र आई. पर अब मी़डिया भी विलन बनता जा रहा है. प्रजातंत्र के चारों खंबे अगर हिल गए तो आगे क्या होगा... मैं इस पर कुछ नहीं कह सकता... आप क्या कहते हैं....
Monday, August 23, 2010
Thursday, August 05, 2010
इस खेल को कामयाब करो!
तो क्या भारत की नाक कटनी तय है?
अगर ऐसा हुआ तो कम से कम एक इंसान तो बहुत खुश होगा. उसका नाम है मणिशंकर अय्यर.
आखिर वो सार्वजनिक रूप से बोल भी चुके हैं कि अगर कॉमनवेल्थ गेम्स नाकाम होते हैं तो इससे उन्हें बहुत खुशी होगी.
लगता है हालात उसी दिशा में जा रहे हैं. सिर्फ साठ दिन बचे हैं कॉमनवेल्थ गेम्स होने में. अखबार-टीवी भ्रष्टाचार, घपलों और घोटालों की ख़बरों से भरे पड़े हैं.
अय्यर की बददुआयें रंग ला रही हैं. अय्यर का श्राप पूरा होता दिख रहा है.
लेकिन इससे फायदा किसे है.
आप पूछ सकते हैं गेम करवाने से किसे फायदा है. क्यों करोड़ों रुपए खर्च कर कॉमनवेल्थ गेम कराये जा रहे हैं जबकि भारत की आधी आबादी अब भी भूखी सोती है.
क्यों बदसूरत दिल्ली की प्लास्टिक सर्जरी कर उसकी शक्ल बदली जा रही है. वो भी ऐसी सर्जरी जिसका प्लास्टर कुछ दिनों बाद उखड़ जाएगा और दिल्ली पहले से भी ज्यादा बदसूरत नज़र आएगी.
मुझे तो लगता है कि गेम्स होने चाहिएं और बिल्कुल कामयाब भी होने चाहिएं.
मैं अय्यर की बातों से इत्तफाक नहीं रखता. बल्कि मुझे तो लगता है कि यूपीए-1 में बतौर खेल मंत्री खुद अय्यर ने गेम्स को कामयाब बनाने के लिेए कोई दिलचस्पी नहीं दिखाई और इसी का नतीजा है कि आज सबके मन में शंका है कि आखिर ये गेम्स कामयाब हो पाएंगे या नहीं.
सुरेश कलमाड़ी और उनके गुर्गों के भ्रष्टाचार की कहानियां तो गेम्स खत्म होने के बाद भी चलती रहेंगी.
लेकिन अभी सबकी जिम्मेदारी ये है कि गेम्स को कामयाब बनाने के लिए जी-तोड़ मेहनत करें.
प्रधानमंत्री और सोनिया गांधी की चुप्पी से मुझे हैरानी है. ये कोई नीतिगत फैसला नहीं है कि अगर सब तरफ आलोचना हो तो बाद में कांग्रेस पार्टी कह दे कि सोनियाजी की ये राय नहीं थी और उससे उन्हें अलग कर ले.
गेम्स अगर नाकाम होते हैं तो सबकी नाक कटेगी. आखिर पश्चिमी देशों के मीडिया में तो अब भी यही बात होती है कि भारत चाहे विकसित देश बनने की दिशा में कदम आगे बढ़ा रहा हो लेकिन उसके पैरों में वो ताकत नहीं है जो उसे इस मैराथन को पूरा करने के लायक बना सके.
मुझे नहीं लगता है कि गेम्स कामयाब हो भी गए तो पश्चिमी मीडिया की भारत के बारे में ये सोच बदलेगी.
लेकिन अगर नाकाम रहे तो समझ लें कि ये हमला और तेज़ होगा.
तो अब तो नाक का सवाल है. चाहे आपको ये गेम्स पसंद हों या न हों, लेकिन अब इसके अलावा कोई चारा नहीं है कि इन्हें हर हाल में कामयाब बनाया जाए.
अगर ऐसा हुआ तो कम से कम एक इंसान तो बहुत खुश होगा. उसका नाम है मणिशंकर अय्यर.
आखिर वो सार्वजनिक रूप से बोल भी चुके हैं कि अगर कॉमनवेल्थ गेम्स नाकाम होते हैं तो इससे उन्हें बहुत खुशी होगी.
लगता है हालात उसी दिशा में जा रहे हैं. सिर्फ साठ दिन बचे हैं कॉमनवेल्थ गेम्स होने में. अखबार-टीवी भ्रष्टाचार, घपलों और घोटालों की ख़बरों से भरे पड़े हैं.
अय्यर की बददुआयें रंग ला रही हैं. अय्यर का श्राप पूरा होता दिख रहा है.
लेकिन इससे फायदा किसे है.
आप पूछ सकते हैं गेम करवाने से किसे फायदा है. क्यों करोड़ों रुपए खर्च कर कॉमनवेल्थ गेम कराये जा रहे हैं जबकि भारत की आधी आबादी अब भी भूखी सोती है.
क्यों बदसूरत दिल्ली की प्लास्टिक सर्जरी कर उसकी शक्ल बदली जा रही है. वो भी ऐसी सर्जरी जिसका प्लास्टर कुछ दिनों बाद उखड़ जाएगा और दिल्ली पहले से भी ज्यादा बदसूरत नज़र आएगी.
मुझे तो लगता है कि गेम्स होने चाहिएं और बिल्कुल कामयाब भी होने चाहिएं.
मैं अय्यर की बातों से इत्तफाक नहीं रखता. बल्कि मुझे तो लगता है कि यूपीए-1 में बतौर खेल मंत्री खुद अय्यर ने गेम्स को कामयाब बनाने के लिेए कोई दिलचस्पी नहीं दिखाई और इसी का नतीजा है कि आज सबके मन में शंका है कि आखिर ये गेम्स कामयाब हो पाएंगे या नहीं.
सुरेश कलमाड़ी और उनके गुर्गों के भ्रष्टाचार की कहानियां तो गेम्स खत्म होने के बाद भी चलती रहेंगी.
लेकिन अभी सबकी जिम्मेदारी ये है कि गेम्स को कामयाब बनाने के लिए जी-तोड़ मेहनत करें.
प्रधानमंत्री और सोनिया गांधी की चुप्पी से मुझे हैरानी है. ये कोई नीतिगत फैसला नहीं है कि अगर सब तरफ आलोचना हो तो बाद में कांग्रेस पार्टी कह दे कि सोनियाजी की ये राय नहीं थी और उससे उन्हें अलग कर ले.
गेम्स अगर नाकाम होते हैं तो सबकी नाक कटेगी. आखिर पश्चिमी देशों के मीडिया में तो अब भी यही बात होती है कि भारत चाहे विकसित देश बनने की दिशा में कदम आगे बढ़ा रहा हो लेकिन उसके पैरों में वो ताकत नहीं है जो उसे इस मैराथन को पूरा करने के लायक बना सके.
मुझे नहीं लगता है कि गेम्स कामयाब हो भी गए तो पश्चिमी मीडिया की भारत के बारे में ये सोच बदलेगी.
लेकिन अगर नाकाम रहे तो समझ लें कि ये हमला और तेज़ होगा.
तो अब तो नाक का सवाल है. चाहे आपको ये गेम्स पसंद हों या न हों, लेकिन अब इसके अलावा कोई चारा नहीं है कि इन्हें हर हाल में कामयाब बनाया जाए.
Monday, July 19, 2010
खुल गई, खुल गई पत्रकारिता की नई दुकान!
मित्रों,
मुझे यह बताते हुये बहुत हर्ष हो रहा है कि मेरी जानकारी में पत्रकार बनाने की एक नई दुकान आई है. यह दुकान रातों-रात किसी को भी इलैक्ट्रॉनिक मीडिया का पत्रकार बना सकती है. दुकानदारों ने मुझे इस संस्था की जानकारी डाक से भेजी थी. मैं आपसे इस जानकारी को बाँटना चाहता हूँ.
चिरकुट मीडिया संस्थान
हर सप्ताह कुछ अखबारों में न्यूज चैनलों का टीआरपी चार्ट छपता है. आप उनमें से कुछ आला चैनलों का चुनाव करें. अगले एक महीने तक इन चैनलों को देखने का बीड़ा उठाएँ. हम पक्के तौर पर आपसे वादा करते हैं कि हमने ऊपर जिन भी विषयों का जिक्र किया है वे सब आपको इन चैनलों में देखने को मिल जाएँगे. तो बस हो गई तैयारी पूरी.
बस तो अब देर किस बात की है. हो जाइए शुरू. चिरकुट मीडिया संस्थान आपका स्वागत करता है. ध्यान रहे आप आज हमारे काम आएँगे कल हम आपके काम आएंगे.
मुझे यह बताते हुये बहुत हर्ष हो रहा है कि मेरी जानकारी में पत्रकार बनाने की एक नई दुकान आई है. यह दुकान रातों-रात किसी को भी इलैक्ट्रॉनिक मीडिया का पत्रकार बना सकती है. दुकानदारों ने मुझे इस संस्था की जानकारी डाक से भेजी थी. मैं आपसे इस जानकारी को बाँटना चाहता हूँ.
चिरकुट मीडिया संस्थान
- देश के प्रतिष्ठित मीडिया संस्थानों में से एक.
- हमारे यहाँ रातों-रात पत्रकार बनाने की गारंटी दी जाती है.
- संस्थान में भर्ती होने के लिये किसी भी तरह की शैक्षणिक योग्यता की आवश्यकता नहीं.
- अगर संभव हो तो अपना या फिर अपने माता-पिता का पिछले तीन साल का आयकर रिटर्न, बैंक अकाउंट, क्रेडिट कार्ड स्टेटमेंट जमा करायें. अगर आपके माता-पिता की आमदनी एक लाख रुपये से कम है तो कृपया हमारे संस्थान के लिये एप्लाई न करें.
- अपना पुलिस रिकॉर्ड ज़रूर दें. ध्यान रहे अगर आप पर गंभीर आपराधिक मामले चल रहे हैं तो आपका चिरकुट मीडिया संस्थान में भर्ती होना बिल्कुल तय माना जायेगा.
- अपने दोस्तों, सहयोगियों से एक चरित्र प्रमाणपत्र ले कर आयें. ये ज़रूर लिखवायें कि वो आपको चमचई की कला में निपुण मानते हैं या नहीं. अगर हाँ, तो समझिये चिरकुट मीडिया संस्थान आपके लिये ही बना है.
- संस्थान में एडमिशन के लिए प्रवेश परीक्षा होगी.
- इसकी तैयारी के लिए आपसे यह अपेक्षा है कि आप सत्य कथा, कच्ची कलियां, बेशर्म आबरू, मैं सबका बाप- मेरा कोई बेटा नहीं, नाजुक जवानी, सच्ची कहानियां और फुटपाथ पर मिलने वाली दूसरी इसी तरह की उत्कृष्ट साहित्यिक पत्रिकाओं का गहन अध्ययन करें. ध्यान रहे आपके कुछ मित्र आपको यह कह कर बहका सकते हैं कि ये बाजारू पत्रिकायें हैं. लेकिन आप बहकावे में न आयें. आज की टीवी पत्रकारिता की असली कसौटी यही है कि आप इन पत्रिकाओं से कितना ज्ञान आत्मसात कर सकते हैं.
- इन साहित्यिक पत्रिकाओं की लेखन शैली और खासतौर से शीर्षकों पर खास ध्यान दें. जैसे मैंने अपना ही खून किया, मेरी बीवी को वो ले भागा, मेरा दोस्त बना मेरी सौतन, स्वर्ग यहां, नर्क पड़ोसी के वहां, ये किसकी औलाद, बेटा बना बाप का बाप आदि. याद रहे चिरकुट मीडिया संस्थान में इस तरह के अनोखे, बिल्कुल अलग तरह के और समाज से सरोकार रखने वाले शीर्षक देने वालों को वरीयता दी जाएगी.
- फिल्मी पत्रिकाओं का भी रट्टा लगा लें. ध्यान रहे प्रवेश परीक्षा में नकल करने की अनुमति नहीं है. इसलिए यह जरूर पता कर लें कि धोनी की शादी होने का बाद अब दीपिका पादुकोण किसके साथ पींगे लड़ा रही हैं, बिपाशा बसु के अंग वस्त्रों की साइज़ क्या है, वो जो चुंबन करते हुए दृश्य छपा है, उसमें हीरो-हीरोइन कौन हैं वगैरह. ध्यान रहे न सिर्फ चिरकुट मीडिया संस्थान में भर्ती के लिए ये सब जानकारी आपके लिए अति आवश्यक है बल्कि संस्थान से निकलने के बाद जब देश के प्रतिष्ठित न्यूज चैनलों में जाएँगे तब वहां की प्रवेश परीक्षाओं में भी आपसे यही सारे सवाल पूछे जाएँगे.
- चिरकुट मीडिया संस्थान में भर्ती के लिए एक अहम आवश्यकता है - विज्ञान का ज्ञान. आपसे यह अपेक्षित है कि आप उड़नतश्तरियों के मूवमेंट पर नज़र रखें. आपके इलाके में कौन सी गाय या भैंस को एलीयंस उठा कर ले गए थे. उस घटना के बाद से उनके दूध देने की क्षमता में क्या तब्दीली आई. क्या एलीयंस ने आपके किसी जान-पहचान वाले के साथ यौन दुराचार तो नहीं किया है. आपके इलाके या उसके आसपास कौन सा पेड़ है जो दूध पीकर खून उगलने की ताकत रखता है आदि.
- आपसे यह भी अपेक्षित है कि आपकी धर्म, अध्यात्म, ज्योतिष, तंत्र-मंत्र में न सिर्फ आस्था हो बल्कि उनका गहन ज्ञान भी हो. स्वर्ग की सीढ़ियां कहां से जाती हैं इस प्रश्न का उत्तर आपके जुबां पर हमेशा रहना चाहिए. कौन सा बाबा किस कन्या की इज्जत लूट रहा है. अगर शनि शुक्र में घुस जाए और उसके सिर पर राहु-केतु डिस्को करें तो जातक के भविष्य पर क्या असर होगा, ये सामान्य ज्ञान आपसे अपेक्षित है.
- क्रिकेट को आप पूरी तरह से चाट लें. डरिए मत. आपसे ये नहीं पूछा जाए कि फील्डिंग पोजीशन क्या होती है या फिर गुगली या दूसरा क्या बला है. लेकिन आपको ये पता होना चाहिए कि किस क्रिकेटर का किस हीरोइन के साथ टांका भिड़ा है, कौन सा क्रिकेटर मैच फिक्सिंग में फंसा है, या कल रात नाइट क्लब में किस क्रिकेटर ने टल्ली होकर अपने दोस्त की बीवी के गालों पर चुम्मी ले ली थी.
हर सप्ताह कुछ अखबारों में न्यूज चैनलों का टीआरपी चार्ट छपता है. आप उनमें से कुछ आला चैनलों का चुनाव करें. अगले एक महीने तक इन चैनलों को देखने का बीड़ा उठाएँ. हम पक्के तौर पर आपसे वादा करते हैं कि हमने ऊपर जिन भी विषयों का जिक्र किया है वे सब आपको इन चैनलों में देखने को मिल जाएँगे. तो बस हो गई तैयारी पूरी.
बस तो अब देर किस बात की है. हो जाइए शुरू. चिरकुट मीडिया संस्थान आपका स्वागत करता है. ध्यान रहे आप आज हमारे काम आएँगे कल हम आपके काम आएंगे.
Saturday, July 17, 2010
हो गई बात!!!
बड़ी धूम धाम से हमारे विदेश मंत्री पाकिस्तान गए थे.
अमन की आशा में.
मुंबई के ज़ख्म अब भी हरे हैं.
पाकिस्तान ने मुंबई के गुनहगारों के खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं की. उल्टे वो समय-समय पर सबूत मांगता रहता है.
फिर भी, सैम अंकल के कहने पर हमारी सरकार हर बार घुटने टेकती है. हर बार बातचीत की पहल करती है.
अब हो गई तसल्ली. कैसे-कैसे झूठ बोले पाकिस्तान ने. जैसे बातचीत को सार्थक और सफल बनाने का जिम्मा सिर्फ भारत का है पाकिस्तान की शर्तों पर ही होगी बातचीत.
क्या बहाना बनाया है. कहा कृष्णा इस्लामाबाद में जितने वक्त रहे, पूरे वक्त भारत में अपने हुक्मरानों से फोन पर बतियाते रहे कि क्या करना है, क्या कहना है वगैरह-वगैरह.
शुक्र है, कुरैशी ने ये नहीं कहा कि कृष्णा नई दिल्ली के साथ-साथ वॉशिंगटन से भी फोन पर निर्देश लेते रहे. वो शायद इसलिए नहीं कहा क्योंकि वॉशिंगटन की लाइन व्यस्त रही होगी उनके फोन से. बीच-बीच में आईएसआई और पाकिस्तानी सेना के मिस्ड कॉल भी आते रहे होंगे. इन्हीं मिस्ड कॉल में से किसी एक का जवाब दिया होगा तो सेना ने बोला होगा बहुत हो गई बातचीत. सुना नहीं गृह सचिव जी के पिल्लई ने क्या कहा है. वो कहते हैं मुंबई हमलों के पीछे आईएसआई का हाथ है. फिर भी, बात कर रहे हो विदेश मंत्री से... छोड़ो ये बातचीत और उन्हें खाली हाथ दिल्ली रवाना करो.
यहां दिल्ली में तो लोग बड़ी उम्मीदें लगाए बैठे थे. अमन की आशा में बड़ी-बड़ी बातें भी हो गईं. हर बार बातचीत शुरू होने पर इ्न्हें लगता है बस साठ साल का रंजिश भरा इतिहास अब दफ्न हो चुका है. अब तो अमन की नई इबारत लिखी जानी है. इस बार तो पक्का ही पाकिस्तान अपना रवैया बदल देगा. रही बात भारत की.... तो वो तो हम वाघा बॉर्डर पर इतनी मोमबत्तियां जलाएंगे कि उनकी लौ की आँच दिल्ली की कुर्सी तक पहुँच जाएगी. आखिर यही हमारा दबाव तो है असली वजह. जिसके चलते बार-बार दुत्कारे जाने के बाद भी भारत हर बार शांति का हाथ बढ़ा कर पहुँच जाता है इस्लामाबाद.
मुंबई हमले के गुनहगारों को पूरी पनाह दो. कश्मीर में पत्थर फेंको गैंग को पूरा समर्थन दो. माओवादियों को भी असला-बारूद पहुँचाओ. फिर हमारी कनपटी पर पिस्तौल लगा कर कहो चलो करो बातचीत... हर बार की तरह पहले कश्मीर और बलूचिस्तान पर कर लो बात.. आतंकवाद-आतंकवाद क्या होता है. हम भी तो हैं आतंकवाद को भुक्तभोगी. ये है पाकिस्तान का रवैया.
तो हमारी क्या मति मारी गई है. क्यों बार-बार पहुँच जाते हैं हमारी सरकार के आला लोग पाकिस्तान. देख लो चिदंबरम भी तो गए थे. लेकिन उनका विवेक शायद फिर भी ठीक रहा. दो टूक सुना आए पाकिस्तान को. कृष्णा के सामने भी कुरैशी की बकवास के बाद ज्यादा विकल्प नहीं बचे. वर्ना तो शायद फिर से कोई साझा बयान जारी कर देते बलूचिस्तान के ज़िक्र वाला जैसे शर्म अल शेख में करवाया था.
तो कब तक करेंगे हम ये अमन की पहल. क्या इस इलाके में शांति बनाए रखने का ठेका भारत ने ही ले रखा है. क्यों हम कमजोर दिखते हैं. अगर पाकिस्तान जैसे पिद्दी से मुल्क के सामने हमारी हवा खिसकती है तो किस बूते पर हम दुनिया का सरताज बनने का सपना पाल रहे हैं.
दस साल सोच कर देखो कि पाकिस्तान नाम का मुल्क इस दुनिया में है ही नहीं. सब बंद कर दो. बातचीत भी. और ज़रा पूरब की तरफ नज़र उठा कर देखो जहाँ बैठा है असली चुनौती देने वाला. सारी नीतियां चीन के बारे में हों, दोस्ती हो दोस्ती, दुश्मनी हो तो दुश्मनी.. लेकिन असली खेल वहीं से शुरू होगा.. या शायद हो भी चुका है.
अमन की आशा में.
मुंबई के ज़ख्म अब भी हरे हैं.
पाकिस्तान ने मुंबई के गुनहगारों के खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं की. उल्टे वो समय-समय पर सबूत मांगता रहता है.
फिर भी, सैम अंकल के कहने पर हमारी सरकार हर बार घुटने टेकती है. हर बार बातचीत की पहल करती है.
अब हो गई तसल्ली. कैसे-कैसे झूठ बोले पाकिस्तान ने. जैसे बातचीत को सार्थक और सफल बनाने का जिम्मा सिर्फ भारत का है पाकिस्तान की शर्तों पर ही होगी बातचीत.
क्या बहाना बनाया है. कहा कृष्णा इस्लामाबाद में जितने वक्त रहे, पूरे वक्त भारत में अपने हुक्मरानों से फोन पर बतियाते रहे कि क्या करना है, क्या कहना है वगैरह-वगैरह.
शुक्र है, कुरैशी ने ये नहीं कहा कि कृष्णा नई दिल्ली के साथ-साथ वॉशिंगटन से भी फोन पर निर्देश लेते रहे. वो शायद इसलिए नहीं कहा क्योंकि वॉशिंगटन की लाइन व्यस्त रही होगी उनके फोन से. बीच-बीच में आईएसआई और पाकिस्तानी सेना के मिस्ड कॉल भी आते रहे होंगे. इन्हीं मिस्ड कॉल में से किसी एक का जवाब दिया होगा तो सेना ने बोला होगा बहुत हो गई बातचीत. सुना नहीं गृह सचिव जी के पिल्लई ने क्या कहा है. वो कहते हैं मुंबई हमलों के पीछे आईएसआई का हाथ है. फिर भी, बात कर रहे हो विदेश मंत्री से... छोड़ो ये बातचीत और उन्हें खाली हाथ दिल्ली रवाना करो.
यहां दिल्ली में तो लोग बड़ी उम्मीदें लगाए बैठे थे. अमन की आशा में बड़ी-बड़ी बातें भी हो गईं. हर बार बातचीत शुरू होने पर इ्न्हें लगता है बस साठ साल का रंजिश भरा इतिहास अब दफ्न हो चुका है. अब तो अमन की नई इबारत लिखी जानी है. इस बार तो पक्का ही पाकिस्तान अपना रवैया बदल देगा. रही बात भारत की.... तो वो तो हम वाघा बॉर्डर पर इतनी मोमबत्तियां जलाएंगे कि उनकी लौ की आँच दिल्ली की कुर्सी तक पहुँच जाएगी. आखिर यही हमारा दबाव तो है असली वजह. जिसके चलते बार-बार दुत्कारे जाने के बाद भी भारत हर बार शांति का हाथ बढ़ा कर पहुँच जाता है इस्लामाबाद.
मुंबई हमले के गुनहगारों को पूरी पनाह दो. कश्मीर में पत्थर फेंको गैंग को पूरा समर्थन दो. माओवादियों को भी असला-बारूद पहुँचाओ. फिर हमारी कनपटी पर पिस्तौल लगा कर कहो चलो करो बातचीत... हर बार की तरह पहले कश्मीर और बलूचिस्तान पर कर लो बात.. आतंकवाद-आतंकवाद क्या होता है. हम भी तो हैं आतंकवाद को भुक्तभोगी. ये है पाकिस्तान का रवैया.
तो हमारी क्या मति मारी गई है. क्यों बार-बार पहुँच जाते हैं हमारी सरकार के आला लोग पाकिस्तान. देख लो चिदंबरम भी तो गए थे. लेकिन उनका विवेक शायद फिर भी ठीक रहा. दो टूक सुना आए पाकिस्तान को. कृष्णा के सामने भी कुरैशी की बकवास के बाद ज्यादा विकल्प नहीं बचे. वर्ना तो शायद फिर से कोई साझा बयान जारी कर देते बलूचिस्तान के ज़िक्र वाला जैसे शर्म अल शेख में करवाया था.
तो कब तक करेंगे हम ये अमन की पहल. क्या इस इलाके में शांति बनाए रखने का ठेका भारत ने ही ले रखा है. क्यों हम कमजोर दिखते हैं. अगर पाकिस्तान जैसे पिद्दी से मुल्क के सामने हमारी हवा खिसकती है तो किस बूते पर हम दुनिया का सरताज बनने का सपना पाल रहे हैं.
दस साल सोच कर देखो कि पाकिस्तान नाम का मुल्क इस दुनिया में है ही नहीं. सब बंद कर दो. बातचीत भी. और ज़रा पूरब की तरफ नज़र उठा कर देखो जहाँ बैठा है असली चुनौती देने वाला. सारी नीतियां चीन के बारे में हों, दोस्ती हो दोस्ती, दुश्मनी हो तो दुश्मनी.. लेकिन असली खेल वहीं से शुरू होगा.. या शायद हो भी चुका है.
Friday, May 14, 2010
कुत्ते की पाती गडकरी के नाम
आदरणीय श्री गड़करीजी.
सादर प्रणाम. आशा है आप प्रसन्न होंगे.
सबसे पहले आपका धन्यवाद कि आपने मेरी प्रजाति के सदस्यों को भारत के महान लोगों के दिलो-दिमाग पर दोबारा ला दिया. वर्ना तो लोग हमें भूल ही चुके थे. आज से पहले टेलीविज़न और अखबारों में हमारा नाम शायद इतनी बार पहले कभी नहीं लिया गया था.
अब हर चैनल पर बार-बार कुत्ता-कुत्ता चल रहा है. एक नहीं दस-दस बार चैनलवाले हमारा नाम ले रहे हैं. जिस चैनल पर देखिए कुत्ता पुराण के नए-नए अध्याय सुनाए जा रहे हैं. कुछ दूसरे जानवरों के नाम भी मनुष्यों के मुँह से सुनने में आए हैं. जैसे शेर, छछूंदर, गधा आदि.
लेकिन इस पत्र के माध्यम से मैं अपनी समस्त प्रजाति की ओर से विरोध दर्ज कराना चाहता हूं. सबसे पहली बात तो ये है कि आपने हमें तलवे चाटने वाला कहा. आपने कहा कि लालू-मुलायम कुत्ते की तरह तलवे चाटने लगे. फिर अपनी सफाई में कह डाला कि आप तो सिर्फ हिंदी का मुहावरा प्रयोग कर रहे थे.
माफ कीजिएगा सर. लेकिन हिंदी में मुहावरा कुत्ते की तरह तलवे चाटना नहीं बल्कि सिर्फ तलवे चाटना है. आपने कुत्ते अपनी ओर से घुसा दिया. शायद आपको लगा होगा कि लोग कुत्ते का नाम सुन कर तालियां बजाएंगे. ऐसा हुआ भी. लेकिन आपने जबरन बखेड़ा खड़ा कर दिया.
लालू-मुलायम की पार्टी ने जबर्दस्त विरोध किया. आपके पुतले जलाए गए. समाजवादी पार्टी के प्रवक्ता मोहन सिंह ने कहा कि आप आरएसएस के स्वयंसेवक हैं. आरएसएस कहता है कि वो भारतीय संस्कारों की शिक्षा देता है. तो ऐसे में आपको क्या संस्कार दिए गए हैं. उन्होंने ये भी पूछा कि झारखंड में शिबू सोरेन से समर्थन वापस लेने का बावजूद अभी तक कौन कुत्ते की तरह उनके तलवे चाट रहा है.
मुझे इस बात पर घोर आपत्ति है कि आपने मनुष्यों का अपमान करने के लिए हमारी प्रजाति का नाम लिया. मुझे लगता है कि इससे उन दो मनुष्यों का नहीं बल्कि हमारी पूरी प्रजाति का अपमान हुआ है क्योंकि हम सबसे वफादार जानवरों में माने जाते हैं. आपको उन प्राणियों से जो भी शिकायत रही हो लेकिन उन्हें अपशब्द कहने के लिए आपको कोई दूसरा जानवर ढूंढना चाहिए था. मैं आपको इस बारे में कोई सुझाव नहीं दूंगा क्योंकि आप स्वयं दादा कोंडके से प्रभावित हैं. आपका मराठी शब्दकोष अपरिमित है. आप हिंदी और मराठी दोनों के शब्दों में आपस में घालमेल करने में माहिर हैं. लिहाज़ा आपको जो ठीक लगे आप उस जानवर का प्रयोग अपनी शब्दावली में कर सकते हैं. लेकिन सर प्लीज़ हम कुत्तों को बख्श दीजिए.
आपने कहा कि वो हमारी तलवे चाटने लगे. आपको शायद पता नहीं कि हमें जब कोई प्यार से आवाज़ दे तो हम दुम भी हिलाने लगते हैं. इसलिए एक मुहावरा कुत्ते की तरह दुम हिलाना भी है. आप चाहें तो अगली बार इसका इस्तेमाल कर सकते हैं लेकिन मौजूदा संदर्भ में हमारी प्रजाति को घसीटना बेहद आपत्तिजनक है.
वैसे लगता है कि आपको हम कुत्तों से कुछ खासी ही समस्या है. इससे पहले आप अपने भाषणों में ये कहते रहे हैं कि चिदंबरम जब वित्त मंत्री थे तब उन्होंने कुत्तों के बिस्किट पर टैक्स कम कर दिया था. महंगाई पर आपके भाषण में आप इस बात का बार-बार जिक्र करते हैं. अब अगर हम कुत्ते बिस्किट नहीं खाएंगे तो क्या खाएंगे.. आपको क्या समस्या है अगर हम कुत्तों को खाने के लिए बिस्किट कुछ सस्ते दामों पर मिल जाएं.
कृपया कुत्तों को अकेला छोड़ दीजिए. उन्हें राजनीति में मत घसीटिए. क्योंकि वैसे भी पहले से ही कई किस्म के जानवर राजनीति कर रहे हैं. हमें शांति से घरों की चौकीदारी करने दीजिए.
आपके उत्तर की प्रतीक्षा में
आपका प्रिय
कुत्ता
सादर प्रणाम. आशा है आप प्रसन्न होंगे.
सबसे पहले आपका धन्यवाद कि आपने मेरी प्रजाति के सदस्यों को भारत के महान लोगों के दिलो-दिमाग पर दोबारा ला दिया. वर्ना तो लोग हमें भूल ही चुके थे. आज से पहले टेलीविज़न और अखबारों में हमारा नाम शायद इतनी बार पहले कभी नहीं लिया गया था.
अब हर चैनल पर बार-बार कुत्ता-कुत्ता चल रहा है. एक नहीं दस-दस बार चैनलवाले हमारा नाम ले रहे हैं. जिस चैनल पर देखिए कुत्ता पुराण के नए-नए अध्याय सुनाए जा रहे हैं. कुछ दूसरे जानवरों के नाम भी मनुष्यों के मुँह से सुनने में आए हैं. जैसे शेर, छछूंदर, गधा आदि.
लेकिन इस पत्र के माध्यम से मैं अपनी समस्त प्रजाति की ओर से विरोध दर्ज कराना चाहता हूं. सबसे पहली बात तो ये है कि आपने हमें तलवे चाटने वाला कहा. आपने कहा कि लालू-मुलायम कुत्ते की तरह तलवे चाटने लगे. फिर अपनी सफाई में कह डाला कि आप तो सिर्फ हिंदी का मुहावरा प्रयोग कर रहे थे.
माफ कीजिएगा सर. लेकिन हिंदी में मुहावरा कुत्ते की तरह तलवे चाटना नहीं बल्कि सिर्फ तलवे चाटना है. आपने कुत्ते अपनी ओर से घुसा दिया. शायद आपको लगा होगा कि लोग कुत्ते का नाम सुन कर तालियां बजाएंगे. ऐसा हुआ भी. लेकिन आपने जबरन बखेड़ा खड़ा कर दिया.
लालू-मुलायम की पार्टी ने जबर्दस्त विरोध किया. आपके पुतले जलाए गए. समाजवादी पार्टी के प्रवक्ता मोहन सिंह ने कहा कि आप आरएसएस के स्वयंसेवक हैं. आरएसएस कहता है कि वो भारतीय संस्कारों की शिक्षा देता है. तो ऐसे में आपको क्या संस्कार दिए गए हैं. उन्होंने ये भी पूछा कि झारखंड में शिबू सोरेन से समर्थन वापस लेने का बावजूद अभी तक कौन कुत्ते की तरह उनके तलवे चाट रहा है.
मुझे इस बात पर घोर आपत्ति है कि आपने मनुष्यों का अपमान करने के लिए हमारी प्रजाति का नाम लिया. मुझे लगता है कि इससे उन दो मनुष्यों का नहीं बल्कि हमारी पूरी प्रजाति का अपमान हुआ है क्योंकि हम सबसे वफादार जानवरों में माने जाते हैं. आपको उन प्राणियों से जो भी शिकायत रही हो लेकिन उन्हें अपशब्द कहने के लिए आपको कोई दूसरा जानवर ढूंढना चाहिए था. मैं आपको इस बारे में कोई सुझाव नहीं दूंगा क्योंकि आप स्वयं दादा कोंडके से प्रभावित हैं. आपका मराठी शब्दकोष अपरिमित है. आप हिंदी और मराठी दोनों के शब्दों में आपस में घालमेल करने में माहिर हैं. लिहाज़ा आपको जो ठीक लगे आप उस जानवर का प्रयोग अपनी शब्दावली में कर सकते हैं. लेकिन सर प्लीज़ हम कुत्तों को बख्श दीजिए.
आपने कहा कि वो हमारी तलवे चाटने लगे. आपको शायद पता नहीं कि हमें जब कोई प्यार से आवाज़ दे तो हम दुम भी हिलाने लगते हैं. इसलिए एक मुहावरा कुत्ते की तरह दुम हिलाना भी है. आप चाहें तो अगली बार इसका इस्तेमाल कर सकते हैं लेकिन मौजूदा संदर्भ में हमारी प्रजाति को घसीटना बेहद आपत्तिजनक है.
वैसे लगता है कि आपको हम कुत्तों से कुछ खासी ही समस्या है. इससे पहले आप अपने भाषणों में ये कहते रहे हैं कि चिदंबरम जब वित्त मंत्री थे तब उन्होंने कुत्तों के बिस्किट पर टैक्स कम कर दिया था. महंगाई पर आपके भाषण में आप इस बात का बार-बार जिक्र करते हैं. अब अगर हम कुत्ते बिस्किट नहीं खाएंगे तो क्या खाएंगे.. आपको क्या समस्या है अगर हम कुत्तों को खाने के लिए बिस्किट कुछ सस्ते दामों पर मिल जाएं.
कृपया कुत्तों को अकेला छोड़ दीजिए. उन्हें राजनीति में मत घसीटिए. क्योंकि वैसे भी पहले से ही कई किस्म के जानवर राजनीति कर रहे हैं. हमें शांति से घरों की चौकीदारी करने दीजिए.
आपके उत्तर की प्रतीक्षा में
आपका प्रिय
कुत्ता
Friday, May 07, 2010
अब तो लाइन पर आ जाओ
गृह मंत्री पी चिदंबरम ने राज्य सभा में अपने मंत्रालय के कामकाज के बारे में चर्चा के जवाब में कहा गृह मंत्रालय का मतलब सिर्फ नक्सलवाद की समस्या से निबटने वाला मंत्रालय नहीं है. वैसे भी नक्सलवाद पर अलग से चर्चा हो चुकी है लिहाजा उन्होंने इस बारे में कुछ भी नहीं कहा.
इससे पहले दिन में गृह मंत्रालय की ओर से एक प्रेस नोट जारी हुआ. इसमें नक्सलवादियों के लिए सहानुभूति रखने वाले भोपुओं को आगाह किया गया कि वे लाइन पर आ जाएं. मुट्ठी बाँध कर हवा में लहराने और टेलीविज़न पर आदिवासी-आदिवासी चिल्लाने से कुछ नहीं होगा. इस चेतावनी में कहा गया है कि अगर इन्होंने नक्सलवादियों को अपना मूक और कभी-कभी मुखर समर्थन जारी रखा तो उनके खिलाफ अनलॉफुल एक्टीविटीज़ (प्रिवेंशन) एक्ट 1967 के सेक्शन 39 के तहत कड़ी कार्रवाई हो सकती है. इसमें अधिकतम दस साल की सजा या जुर्माना या दोनों एक साथ का प्रावधान है. गृह मंत्रालय के नोट में यह भी कहा गया है कि सीपीआई माओवादी एक आतंकवादी संगठन है. ये बात अलग है कि गृह मंत्रालय की अपनी वेबसाइट पर प्रतिबंधित संगठनों की सूची में अब भी एमसीसी और सीपीआईएमएल का ही नाम है. जबकि इन दोनों संगठनों का 2004 में विलय हो चुका है और अब ये सीपीआईमाओवादी के नाम से अपनी आतंकवादी गतिविधियाँ चलाते हैं.
कुछ लोगों ने तुरंत ही इसे अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता से जोड़ दिया. इन्होंने पूछा कि क्या अब इस मुल्क में सरकार का ही हुक्म बजाना होगा. जो सरकार कहेगी वही करना होगा. क्या गरीब आदिवासियों की समस्याओं के बारे में बात करना आतंकवादियों का समर्थन करना है. सरकार पूंजीपतियों का प्रतिनिधित्व करती है और आदिवासियों का पिछले साठ साल से शोषण किया जा रहा है. सलवा जुड़ूम जैसे असंवैधानिक कदम का समर्थन क्यों करती है सरकार.
कितना खूबसूरत जाल बुनते हैं आतंकवादियों के ये समर्थक. गरीब और मासूम आदिवासियों को आड़ बना कर वैचारिक दृष्टि से अपने करीब माओवादियों के समर्थन में कैसे तर्क गढ़ते हैं. आदिवासियों के शोषण को मुद्दा बना कर बंदूक से अपने ही मुल्क के दूसरे लोगों को मारने को जायज ठहराते हैं ये लोग.
परेशानी मुझे भी है. मुझे ट्रैफिक जाम में फंसने के बाद ट्रैफिक पुलिस वाले से लेकर दिल्ली सरकार पर बहुत गुस्सा आता है फिर ये गुस्सा गृह मंत्रालय तक पहुंच जाता है क्योंकि दिल्ली पुलिस गृह मंत्रालय के तहत है. मेरे घर पर सात-सात आठ-आठ घंटे बिजली नहीं होती तब भी बहुत गुस्सा आता है. बिजली विभाग से शुरू हो कर मायावती सरकार तक पहुँच जाता है ये गुस्सा और फिर केंद्रीय ऊर्जा मंत्रालय तक. स्ट्रीट लाइट नहीं जलती है तो नगर निगम के कर्मचारी से लेकर राष्ट्रपति तक पर गुस्सा आता है. मुझे लगता है मैं देश के कानून का पालन करने वाला एक सीधा-साधा नागरिक हूँ. मैं अपने कर सही समय पर जमा करवाता हूँ. फिर मुझे अपने जीवन की गुणवत्ता से जुड़ी बुनियादी सुविधायें पाने का हक क्यों नहीं है.
क्या मुझे बंदूक उठा लेनी चाहिए. क्या नीचे से लेकर ऊपर तक सरकार के हर कारिंदे को लाइन में खड़ा कर उड़ा देना चाहिए. नहीं. क्योंकि ये मेरी विचारधारा नहीं है. मुझे अपने मुल्क से प्यार है. जो देश चलाते हैं उनसे भी क्योंकि वो एक व्यवस्था का अंग हैं और यह व्यवस्था हमारे बुजुर्गों ने लिखित संविधान के जरिए तय की है. इस व्यवस्था में ढेरों खामियाँ हैं. उनका कोई हिसाब नहीं है. लेकिन इसके लिए दोषी कौन ये बहस करने का वक्त नहीं है. बल्कि इन्हें कैसे दूर किया जाए बात इस पर होनी चाहिए.
लेकिन ये ढोंगी आदिवासियों के हक की बात करते हैं. भोले-भाले आदिवासियों के हक को मारा जा रहा है क्योंकि उनके इलाकों में बहुराष्ट्रीय कंपनियाँ प्लांट्स लगा रही हैं. एमओयू साइन किए जा रहे हैं. आदिवासियों को उनके घरों से बेदखल किया जा रहा है. विकास में आदिवासियों की हिस्सेदारी नहीं है. विकास की रोशनी साठ साल में भी किसी आदिवासी के घर के आंगन में उजाला नहीं भर सकी है. वगैरह वगैरह.
विकास के काम में संतुलन हो अब इतनी समझ तो पिछले साठ साल में हमारे देश के हुक्मरानों को आ चुकी है. वैसे भी अगर जयराम रमेश जैसे लोग पर्यावरण मंत्रालय में बैठे हो तो समझ लेना चाहिए कि प्राकृतिक संपदा को उजाड़ कर विकास की राह पर बढ़ना कितना कठिन होगा जब तक कि राहत और पुनर्वास का काम पक्के तौर पर न कर लिया जाए. जैसे अभी रमेश ने मध्य प्रदेश के महेश्वर बाँध परियोजना के काम पर रोक लगा दी क्योंकि उन्हें लगता है कि आरएंडआर का कम ठीक से नहीं हुआ है. ये एक नए किस्म का एक्टीविज़्म है जो अब मंत्रियों के जरिए सरकारी कामकाज में भी दिखने लगा है क्योंकि इस बांध का काम करीब 90 फीसदी पूरा हो चुका है.
इसी तरह उड़ीसा में वेदांता के प्रोजेक्ट से उजड़ने वाले आदिवासियों के एक देवस्थल का जिक्र भी एक मशहूर पत्रिका में हुआ है. इस किस्से की तुलना हॉलीवुड फिल्म अवतार से की गई है कैसे आदिवासियों की परंपरा को नष्ट करने के लिए घुसपैठिए आते हैं और आखिर में जीत आदिवासियों की ही होती है.
हक सबका है दोस्तों. आदिवासियों का भी इस देश पर उतना ही हक है जितना आपका या मेरा. लेकिन आदिवासियों के नाम पर बंदूक उठा कर देश के संविधान के खिलाफ काम करने का हक माओवादियों को किसने दिया. दरअसल, आदिवासी तो बहाना हैं. इनका मकसद देश का संविधान पलट कर पीपुल्स आर्मी के जरिए भारत की सत्ता संचालन का सूत्र अपने हाथों में लेना है.
भोपुओं ये तो बता दो. अगर माओवादी सत्ता में आ गए तो क्या भारत में मानवाधिकार आयोग बना रहेगा या नहीं. वैसे तुम्हें क्या फर्क पड़ता है. तुम्हें तो मौजूदा व्यवस्था का हिस्सा बने रह कर इसी के खिलाफ बोलना है. तुम इसी व्यवस्था से फायदा उठाते हो. और इस व्यवस्था से लड़ रहे आतंकवादियों के हक में भी बोलते हो. लेकिन अब जरा गृह मंत्रालय की तथाकथित सलाह पर भी नजर मार लेना. शायद तुम्हारे हक में अच्छा हो.
इससे पहले दिन में गृह मंत्रालय की ओर से एक प्रेस नोट जारी हुआ. इसमें नक्सलवादियों के लिए सहानुभूति रखने वाले भोपुओं को आगाह किया गया कि वे लाइन पर आ जाएं. मुट्ठी बाँध कर हवा में लहराने और टेलीविज़न पर आदिवासी-आदिवासी चिल्लाने से कुछ नहीं होगा. इस चेतावनी में कहा गया है कि अगर इन्होंने नक्सलवादियों को अपना मूक और कभी-कभी मुखर समर्थन जारी रखा तो उनके खिलाफ अनलॉफुल एक्टीविटीज़ (प्रिवेंशन) एक्ट 1967 के सेक्शन 39 के तहत कड़ी कार्रवाई हो सकती है. इसमें अधिकतम दस साल की सजा या जुर्माना या दोनों एक साथ का प्रावधान है. गृह मंत्रालय के नोट में यह भी कहा गया है कि सीपीआई माओवादी एक आतंकवादी संगठन है. ये बात अलग है कि गृह मंत्रालय की अपनी वेबसाइट पर प्रतिबंधित संगठनों की सूची में अब भी एमसीसी और सीपीआईएमएल का ही नाम है. जबकि इन दोनों संगठनों का 2004 में विलय हो चुका है और अब ये सीपीआईमाओवादी के नाम से अपनी आतंकवादी गतिविधियाँ चलाते हैं.
कुछ लोगों ने तुरंत ही इसे अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता से जोड़ दिया. इन्होंने पूछा कि क्या अब इस मुल्क में सरकार का ही हुक्म बजाना होगा. जो सरकार कहेगी वही करना होगा. क्या गरीब आदिवासियों की समस्याओं के बारे में बात करना आतंकवादियों का समर्थन करना है. सरकार पूंजीपतियों का प्रतिनिधित्व करती है और आदिवासियों का पिछले साठ साल से शोषण किया जा रहा है. सलवा जुड़ूम जैसे असंवैधानिक कदम का समर्थन क्यों करती है सरकार.
कितना खूबसूरत जाल बुनते हैं आतंकवादियों के ये समर्थक. गरीब और मासूम आदिवासियों को आड़ बना कर वैचारिक दृष्टि से अपने करीब माओवादियों के समर्थन में कैसे तर्क गढ़ते हैं. आदिवासियों के शोषण को मुद्दा बना कर बंदूक से अपने ही मुल्क के दूसरे लोगों को मारने को जायज ठहराते हैं ये लोग.
परेशानी मुझे भी है. मुझे ट्रैफिक जाम में फंसने के बाद ट्रैफिक पुलिस वाले से लेकर दिल्ली सरकार पर बहुत गुस्सा आता है फिर ये गुस्सा गृह मंत्रालय तक पहुंच जाता है क्योंकि दिल्ली पुलिस गृह मंत्रालय के तहत है. मेरे घर पर सात-सात आठ-आठ घंटे बिजली नहीं होती तब भी बहुत गुस्सा आता है. बिजली विभाग से शुरू हो कर मायावती सरकार तक पहुँच जाता है ये गुस्सा और फिर केंद्रीय ऊर्जा मंत्रालय तक. स्ट्रीट लाइट नहीं जलती है तो नगर निगम के कर्मचारी से लेकर राष्ट्रपति तक पर गुस्सा आता है. मुझे लगता है मैं देश के कानून का पालन करने वाला एक सीधा-साधा नागरिक हूँ. मैं अपने कर सही समय पर जमा करवाता हूँ. फिर मुझे अपने जीवन की गुणवत्ता से जुड़ी बुनियादी सुविधायें पाने का हक क्यों नहीं है.
क्या मुझे बंदूक उठा लेनी चाहिए. क्या नीचे से लेकर ऊपर तक सरकार के हर कारिंदे को लाइन में खड़ा कर उड़ा देना चाहिए. नहीं. क्योंकि ये मेरी विचारधारा नहीं है. मुझे अपने मुल्क से प्यार है. जो देश चलाते हैं उनसे भी क्योंकि वो एक व्यवस्था का अंग हैं और यह व्यवस्था हमारे बुजुर्गों ने लिखित संविधान के जरिए तय की है. इस व्यवस्था में ढेरों खामियाँ हैं. उनका कोई हिसाब नहीं है. लेकिन इसके लिए दोषी कौन ये बहस करने का वक्त नहीं है. बल्कि इन्हें कैसे दूर किया जाए बात इस पर होनी चाहिए.
लेकिन ये ढोंगी आदिवासियों के हक की बात करते हैं. भोले-भाले आदिवासियों के हक को मारा जा रहा है क्योंकि उनके इलाकों में बहुराष्ट्रीय कंपनियाँ प्लांट्स लगा रही हैं. एमओयू साइन किए जा रहे हैं. आदिवासियों को उनके घरों से बेदखल किया जा रहा है. विकास में आदिवासियों की हिस्सेदारी नहीं है. विकास की रोशनी साठ साल में भी किसी आदिवासी के घर के आंगन में उजाला नहीं भर सकी है. वगैरह वगैरह.
विकास के काम में संतुलन हो अब इतनी समझ तो पिछले साठ साल में हमारे देश के हुक्मरानों को आ चुकी है. वैसे भी अगर जयराम रमेश जैसे लोग पर्यावरण मंत्रालय में बैठे हो तो समझ लेना चाहिए कि प्राकृतिक संपदा को उजाड़ कर विकास की राह पर बढ़ना कितना कठिन होगा जब तक कि राहत और पुनर्वास का काम पक्के तौर पर न कर लिया जाए. जैसे अभी रमेश ने मध्य प्रदेश के महेश्वर बाँध परियोजना के काम पर रोक लगा दी क्योंकि उन्हें लगता है कि आरएंडआर का कम ठीक से नहीं हुआ है. ये एक नए किस्म का एक्टीविज़्म है जो अब मंत्रियों के जरिए सरकारी कामकाज में भी दिखने लगा है क्योंकि इस बांध का काम करीब 90 फीसदी पूरा हो चुका है.
इसी तरह उड़ीसा में वेदांता के प्रोजेक्ट से उजड़ने वाले आदिवासियों के एक देवस्थल का जिक्र भी एक मशहूर पत्रिका में हुआ है. इस किस्से की तुलना हॉलीवुड फिल्म अवतार से की गई है कैसे आदिवासियों की परंपरा को नष्ट करने के लिए घुसपैठिए आते हैं और आखिर में जीत आदिवासियों की ही होती है.
हक सबका है दोस्तों. आदिवासियों का भी इस देश पर उतना ही हक है जितना आपका या मेरा. लेकिन आदिवासियों के नाम पर बंदूक उठा कर देश के संविधान के खिलाफ काम करने का हक माओवादियों को किसने दिया. दरअसल, आदिवासी तो बहाना हैं. इनका मकसद देश का संविधान पलट कर पीपुल्स आर्मी के जरिए भारत की सत्ता संचालन का सूत्र अपने हाथों में लेना है.
भोपुओं ये तो बता दो. अगर माओवादी सत्ता में आ गए तो क्या भारत में मानवाधिकार आयोग बना रहेगा या नहीं. वैसे तुम्हें क्या फर्क पड़ता है. तुम्हें तो मौजूदा व्यवस्था का हिस्सा बने रह कर इसी के खिलाफ बोलना है. तुम इसी व्यवस्था से फायदा उठाते हो. और इस व्यवस्था से लड़ रहे आतंकवादियों के हक में भी बोलते हो. लेकिन अब जरा गृह मंत्रालय की तथाकथित सलाह पर भी नजर मार लेना. शायद तुम्हारे हक में अच्छा हो.
Monday, April 26, 2010
कॉर्बेट में कुछ पल
वैसे गए तो बाघ देखने. लेकिन उसके पदचिन्ह देख कर वापस आ गए. रास्ते में हिरण, मोर, जंगली मुर्गा, हाथी वगैरह ज़रूर दिखे. आप भी देखें कुछ रंग जिम कॉर्बेट के.
Sunday, April 25, 2010
आया है मुझे फिर याद वो ज़ालिम- गुज़रा ज़माना कॉलेज का
मेरे दोस्त मनीष नागर ने होल्कर साइंस कॉलेज होस्टल के दिनों की कुछ यादगार तस्वीरें फेसबुक पर लगाई थीं. मैं वहीं से उधार ले कर इन्हें अपने ब्लॉग पर चस्पा कर रहा हूं. वो दिन भूले नहीं भूलते. हर मोड़ पर नज़रें एक बार पीछे घुमा कर देख लेता हूँ. कोई पुराना हमसफर आवाज़ न दे रहा हो. जीवन की उतार-चढ़ाव, फिसलन और रपटीली राहों पर कई बार ऊपर-नीचे इधर-उधर होना लगा रहता है. लेकिन वो लम्हे कभी नहीं भूलते जब किशोरावस्था से जवानी में कदम रख रहे होते हैं. दोस्ती के नए मतलब समझ में आते हैं. नए दोस्त भी मिलते हैं. इनमें से कुछ जिंदगी भर के लिए होते हैं तो कुछ समय की झीनी चादर में छिप जाते हैं. पर कभी-कभी बहुत मन होता है इस चादर को हटाने का. घड़ी की सुइयाँ पीछे घुमाने का. एक बार फिर रेड बिल्डिंग के सामने दौड़ लगाने का. सीढ़ियों पर बैठ कर गप्पे लड़ाने का. भंवरकुआँ पर समोसे और चाय का नाश्ते करने जाने का. वगैरह वगैरह.
Thursday, April 15, 2010
तू मेरी वूफर... मैं तेरा एंप्लीफायर
ये नया गाना है जो आज कल एफ एम रेडियो के हर चैनल पर गूंज रहा है.
इमरान खान नाम का गायक है. ट्यून कैची है इसलिए यू ट्यूब पर सर्च किया और मिल भी गया.
एम्सटर्डम जाने वाले हाई वे पर एक बेहद कीमती कार दौड़ रही है. इमरान खान गाड़ी चला रहे हैं. ओवरस्पीड है इसलिए दो पुलिस वाले पीछा भी करते हैं.
इमरान खान गाना गाने में मसरूफ हैं. इसलिए पुलिस वालों को नज़रअंदाज़ कर देते हैं. गाने के बोल कुछ-कुछ समझने की कोशिश भी करता हूं. कह रहा है 200 की स्पीड पर गाड़ी चला रहा है वगैरह वगैरह.
200 की स्पीड यानी किलोमीटर नहीं माइल. 200 माइल प्रति घंटा यानी करीब 350 किलोमीटर प्रति घंटा.
एम्सटर्डम जाने वाली चिकनी और रपटीली राहों पर फिसलती गाड़ी, पुलिस की दो गाड़ियां पीछा करती हुईं. एक वृद्ध दंपति नक्शा पकड़ते हुए रास्ता ढूंढने के लिए सड़क पर खड़े हैं. इमरान की गाड़ी और उसके पीछे पुलिस की दो गाड़ियां फर्र से निकल जाती हैं.
फिर इमरान पहुंचता है एक नाइट क्लब में. ज़्यादातर नौजवान सन ग्लासेज़ लगाए हुए हैं. रात में चश्मा समझ में नहीं आया. शायद फैशन हो.
पर मैं ये सब इसलिए लिख रहा हूं कि कैसे लड़के-लड़कियों के रिश्तों को परिभाषित करने के लिए नई-नई उपमाएं तलाशी जा रही हैं.
नई पौध की ये टैक सेवी सोच गानों में भी दिखती है. तू मेरी वूफर मैं तेरा एंप्लीफायर.
वैसे वूफर और एंप्लीफायर दोनों ही आवाज़ बढ़ाने के काम में आते हैं. यानी वूफर या एंप्लीफायर में से कोई एक भी हो तो भी काम चल जाता है.
पहले की फिल्मों में इन्हीं रिश्तों को कुछ अलग ढंग से रखा जाता था.
पर अब ज़माना बदल गया है.
अब नए गाने आने वाले दिनों में शायद कुछ इस तरह भी लिखे जाएं.
-तू मेरी हार्ड डिस्क... मैं तेरा सॉफ्टवेयर...
- तू मेरी आईपॉड..... मैं तेरा हैंड्स फ्री...
- तू मेरी कोच्ची... मैं तेरा शशि थरूर...
या
- तू मेरी आईपीएल... मैं तेरा ललित मोदी...
मुझे उस दिन का इंतजार रहेगा.. और आपको?
पुनश्च:
हो सकता है इस गाने के बोल के शब्द इधर-उधर हो गए हों क्योंकि मुझे पूरी तरह से समझ में नहीं आया. जितना आया- वैसे लिख दिया.
इमरान खान नाम का गायक है. ट्यून कैची है इसलिए यू ट्यूब पर सर्च किया और मिल भी गया.
एम्सटर्डम जाने वाले हाई वे पर एक बेहद कीमती कार दौड़ रही है. इमरान खान गाड़ी चला रहे हैं. ओवरस्पीड है इसलिए दो पुलिस वाले पीछा भी करते हैं.
इमरान खान गाना गाने में मसरूफ हैं. इसलिए पुलिस वालों को नज़रअंदाज़ कर देते हैं. गाने के बोल कुछ-कुछ समझने की कोशिश भी करता हूं. कह रहा है 200 की स्पीड पर गाड़ी चला रहा है वगैरह वगैरह.
200 की स्पीड यानी किलोमीटर नहीं माइल. 200 माइल प्रति घंटा यानी करीब 350 किलोमीटर प्रति घंटा.
एम्सटर्डम जाने वाली चिकनी और रपटीली राहों पर फिसलती गाड़ी, पुलिस की दो गाड़ियां पीछा करती हुईं. एक वृद्ध दंपति नक्शा पकड़ते हुए रास्ता ढूंढने के लिए सड़क पर खड़े हैं. इमरान की गाड़ी और उसके पीछे पुलिस की दो गाड़ियां फर्र से निकल जाती हैं.
फिर इमरान पहुंचता है एक नाइट क्लब में. ज़्यादातर नौजवान सन ग्लासेज़ लगाए हुए हैं. रात में चश्मा समझ में नहीं आया. शायद फैशन हो.
पर मैं ये सब इसलिए लिख रहा हूं कि कैसे लड़के-लड़कियों के रिश्तों को परिभाषित करने के लिए नई-नई उपमाएं तलाशी जा रही हैं.
नई पौध की ये टैक सेवी सोच गानों में भी दिखती है. तू मेरी वूफर मैं तेरा एंप्लीफायर.
वैसे वूफर और एंप्लीफायर दोनों ही आवाज़ बढ़ाने के काम में आते हैं. यानी वूफर या एंप्लीफायर में से कोई एक भी हो तो भी काम चल जाता है.
पहले की फिल्मों में इन्हीं रिश्तों को कुछ अलग ढंग से रखा जाता था.
पर अब ज़माना बदल गया है.
अब नए गाने आने वाले दिनों में शायद कुछ इस तरह भी लिखे जाएं.
-तू मेरी हार्ड डिस्क... मैं तेरा सॉफ्टवेयर...
- तू मेरी आईपॉड..... मैं तेरा हैंड्स फ्री...
- तू मेरी कोच्ची... मैं तेरा शशि थरूर...
या
- तू मेरी आईपीएल... मैं तेरा ललित मोदी...
मुझे उस दिन का इंतजार रहेगा.. और आपको?
पुनश्च:
हो सकता है इस गाने के बोल के शब्द इधर-उधर हो गए हों क्योंकि मुझे पूरी तरह से समझ में नहीं आया. जितना आया- वैसे लिख दिया.
Thursday, April 08, 2010
डटे रहो चिदंबरम
बहुत दिनों बाद हिंदुस्तान को ऐसा गृह मंत्री मिला है.
तुलना कीजिए चिंदबरम की सीरियल ड्रेसर शिवराज पाटिल से.
मुझे याद है राज्य सभा में नक्सलवाद पर बहस के बाद बतौर गृह मंत्री पाटिल का जवाब.
थोड़े बहुत शब्द इधऱ-उधर हो सकते हैं लेकिन लब्बो-लुआब यही है.
साईं भक्त पाटिल को माओवादी समस्या एकता कपूर के कहानी घर घर की सीरियल की तरह नज़र आती थी. भाई भाई आपस में लड़ रहे हैं. महाभारत हो रही है. गृह मंत्री धृतराष्ट्र की तरह बैठा है. न कुछ देख सकता है और न ही कुछ कर सकता है.
और एक फोटो देखिए आज छपा है. शायद इंडियन एक्सप्रेस में. राष्ट्रपति भवन में पद्म पुरस्कार समारोह. गृह मंत्री पी चिदंबरम सिर झुकाए अकेले कुर्सी पर सोच में बैठे हैं. इससे पहले जगदलपुर में प्रेस कांफ्रेंस में आवाज़ भारी हो गई थी. आँखों की कोर नम हो चली थीं.
राजनेताओं को गाली बकना हम लोगों की अब आदत है. हमें हर नेता चोर-उचक्का, बेईमान, भ्रष्टाचारी, पाखंडी और भी पता नहीं क्या क्या लगता है.
शायद इसीलिए किसी की इतनी तारीफ आप शायद पचा न पाएं. लेकिन सच्चे दिल से चिदंबरम को सलाम करने को जी चाहता है.
गलतियां चिदंबरम ने भी की हैं. दंतेवाड़ा के हमले के तुरंत बाद ये कहना कि कहीं न कहीं कोई भयंकर भूल हो गई, एक तरह से सीआरपीएफ के जवानों की शहादत पर सवाल उठाना था. अगर गलती थी भी तो हर जवान की नहीं थी. किसी एक या दो बड़े अफसर की हो सकती है. लेकिन सारे जवानों की शहादत पर सवाल नहीं उठाया जा सकता.
26 नवंबर के मुंबई हमले के बाद पाटिल की विदाई हुई. पेशे से वकील, अर्थ शास्त्र के जानकार और कई बार देश का बजट पेश कर चुके चिदंबरम ने कांटों का ताज पहना. गृह मंत्री बने.
एक साल तक देश की आंतरिक सुरक्षा व्यवस्था को चौकस करने में लगे रहे. गृह मंत्रालय का ढांचा बदलने की और नई जांच एजेंसी बनाने की कोशिशें भी रंग लाईं.
मुंबई हमले के बरसी पर मुंह से निकला किस्मत थी कि कोई हमला नहीं हुआ तो इसके पीछे उनकी पुख्ता जानकारियां थीं कि तमाम कोशिशों के बावजूद सुरक्षा व्यवस्था में ढीलपोल बरकरार है जो रातों रात ठीक होने वाली नहीं है.
पुणे ब्लास्ट हुआ और अब माथे पर नया कलंक लगा है दंतेवाड़ा में 76 जवानों की निर्मम और बर्बर हत्या.
याद कीजिए... गृह मंत्री बनने के बाद से माओवादियों के प्रति यूपीए सरकार की नीतियों में बुनियादी बदलाव आया. अब कोई उन्हें रास्ते से भटका भाई नहीं कहता. बल्कि देश का दुश्मन बताता है. यहां तक कि अंदर ही अंदर चिदंबरम का विरोध करने वाली और अब तक माओवादियों पर थोड़ी नर्मी बरतने वाली कांग्रेस पार्टी भी अब मानती है कि माओवादियों को जड़ से खत्म करना ही होगा.
लेकिन कैसे करे चिदंबरम इस नई चुनौती का सामना. दिल से कोशिश की है माओवादियों से लड़ने की. झोला छापों ने तो उनके खिलाफ मुहिम छेड़ी हुई है.
अपनी ओर से कोशिश कर माओवाद प्रभावित राज्यों के मुख्यमंत्रियों की बैठक बुलाई. एक बार नहीं कई बार. पहले झारखंड के शिबू सोरेन पतली गली से निकल लिए तो बाद में नीतीश कुमार भी. बुद्धदेव भट्टाचार्य को तो ममता बनर्जी के आगे कुछ दिखता ही नहीं है. ले दे के नवीन पटनायक और रमन सिंह दो मुख्यमंत्री हैं जो चिदंबरम के साथ डटे हुए हैं.
रमन सिंह तो इस हद तक कि चाहे छत्तीसगढ़ पुलिस का एक ही हेड कांस्टेबल सीआरपीएफ के साथ रहा और शहीद हुआ लेकिन जब चिदंबरम ने कहा कि ये केंद्र और राज्य सरकार का साझा अभियान था तो रमन सिंह ने भी हां में हां मिलाने में देरी नहीं की.
ऑपरेशन ग्रीन हंट का नाम चिदंबरम ने नहीं दिया. छत्तीसगढ़ पुलिस ने ही दिया. आज मीडिया इसी की चर्चा करता है और चिदंबरम इस नाम से बचते हैं.
अब क्या करेंगे चिदंबरम. कम से कम इतना तो करो कि माओवादियों को देश की संप्रभु सरकार को चुनौती देकर समानांतर सरकार चलाने वाले विदेशी विचारधारा से प्रेरित घुसपैठिए मानो.
या फिर कहो कि ये भी आतंकवादी हैं. बेकसूर लोगों का खून माओवादियों ने भी कम नहीं बहाया है.
आतंकवाद विरोधी जो कानून आप बम विस्फोट कर बेगुनाह लोगों की जान लेने वाले आतंकवादियों पर लगाते हैं वही कानून अब माओवादियों पर भी लगाओ.
राज्य सरकारों से बात कर माओवादियों के खिलाफ एक साझा नया सुरक्षा बल तैयार करो. सीआरपीएफ का काम देश में कानून व्यवस्था बनाए रखने का है... छिप कर गुरिल्ला युद्ध करने वाले माओवादियों से मुकाबला करने का नहीं. खुफिया तंत्र को मजबूत करो. नक्सली इलाकों के लिए अलग तंत्र तैयार किया जाए. इस काम में थोड़ा समय ज़रूर लगेगा लेकिन अब वक्त आर या पार की लड़ाई का है. झुकने का नहीं.
माओवादियों के चंगुल वाले इलाके को धीरे-धीरे कर छुड़वाओ. जो जो इलाका भारत के पास वापस आता जाए (भारत ही बोलना होगा क्योंकि इनकी समानांतर सरकार में भारतीय संविधान के लिए जगह नहीं है. इनकी लड़ाई संविधान के खिलाफ है, हमारी सरकार के खिलाफ है. इस लिहाज से तो ये देश द्रोही ही हुए) उसे अधिकार में लेकर वहां स्थानीय प्रशासन को मजबूत करो. विकास की रोशनी उन इलाकों तक पहुँचाओं जो आजादी के साठ साल बाद भी बुनियादी सुविधाओं के लिए तरस रहे हैं. हमारे आदिवासी भाइयों के लिए तमाम सुविधाएं मुहैया कराओ. असली भाई आदिवासी हैं न कि उन्हें बरगलाने वाले माओवादी. आम लोगों के लिए चलाई जा रही तमाम योजनाओं का वहां सीधा क्रियान्वयन सुनिश्चित कराओ.
ये सब करने में चिदंबरम के रास्ते में कई मुश्किलें आएंगे. उनकी अपनी पार्टी से ही विरोध की आवाज़ें उठने लगेंगी. लेकिन पिछले करीब डेढ़ साल में चिदंबरम ने जिस हौंसले और दूरदृष्टि का परिचय दिया है उम्मीद है वो आगे भी ऐसा ही करते रहेंगे. इसलिए डटे रहो चिदंबरम.
न दैन्यं, न पलायनं
तुलना कीजिए चिंदबरम की सीरियल ड्रेसर शिवराज पाटिल से.
मुझे याद है राज्य सभा में नक्सलवाद पर बहस के बाद बतौर गृह मंत्री पाटिल का जवाब.
थोड़े बहुत शब्द इधऱ-उधर हो सकते हैं लेकिन लब्बो-लुआब यही है.
माननीय सभापति महोदय. मैंने सबकी बातें ध्यान से सुनीं. ये बहुत गंभीर समस्या है. जो मर रहे हैं (सुरक्षा बल) वो भी हमारे भाई हैं. जो मार रहे हैं (माओवादी) वो भी हमारे भाई हैं. और वो (विपक्षी बेंचों की ओर इशारा कर) जो इस पर सवाल उठा रहे हैं वो भी हमारे भाई हैं।
साईं भक्त पाटिल को माओवादी समस्या एकता कपूर के कहानी घर घर की सीरियल की तरह नज़र आती थी. भाई भाई आपस में लड़ रहे हैं. महाभारत हो रही है. गृह मंत्री धृतराष्ट्र की तरह बैठा है. न कुछ देख सकता है और न ही कुछ कर सकता है.
और एक फोटो देखिए आज छपा है. शायद इंडियन एक्सप्रेस में. राष्ट्रपति भवन में पद्म पुरस्कार समारोह. गृह मंत्री पी चिदंबरम सिर झुकाए अकेले कुर्सी पर सोच में बैठे हैं. इससे पहले जगदलपुर में प्रेस कांफ्रेंस में आवाज़ भारी हो गई थी. आँखों की कोर नम हो चली थीं.
राजनेताओं को गाली बकना हम लोगों की अब आदत है. हमें हर नेता चोर-उचक्का, बेईमान, भ्रष्टाचारी, पाखंडी और भी पता नहीं क्या क्या लगता है.
शायद इसीलिए किसी की इतनी तारीफ आप शायद पचा न पाएं. लेकिन सच्चे दिल से चिदंबरम को सलाम करने को जी चाहता है.
गलतियां चिदंबरम ने भी की हैं. दंतेवाड़ा के हमले के तुरंत बाद ये कहना कि कहीं न कहीं कोई भयंकर भूल हो गई, एक तरह से सीआरपीएफ के जवानों की शहादत पर सवाल उठाना था. अगर गलती थी भी तो हर जवान की नहीं थी. किसी एक या दो बड़े अफसर की हो सकती है. लेकिन सारे जवानों की शहादत पर सवाल नहीं उठाया जा सकता.
26 नवंबर के मुंबई हमले के बाद पाटिल की विदाई हुई. पेशे से वकील, अर्थ शास्त्र के जानकार और कई बार देश का बजट पेश कर चुके चिदंबरम ने कांटों का ताज पहना. गृह मंत्री बने.
एक साल तक देश की आंतरिक सुरक्षा व्यवस्था को चौकस करने में लगे रहे. गृह मंत्रालय का ढांचा बदलने की और नई जांच एजेंसी बनाने की कोशिशें भी रंग लाईं.
मुंबई हमले के बरसी पर मुंह से निकला किस्मत थी कि कोई हमला नहीं हुआ तो इसके पीछे उनकी पुख्ता जानकारियां थीं कि तमाम कोशिशों के बावजूद सुरक्षा व्यवस्था में ढीलपोल बरकरार है जो रातों रात ठीक होने वाली नहीं है.
पुणे ब्लास्ट हुआ और अब माथे पर नया कलंक लगा है दंतेवाड़ा में 76 जवानों की निर्मम और बर्बर हत्या.
याद कीजिए... गृह मंत्री बनने के बाद से माओवादियों के प्रति यूपीए सरकार की नीतियों में बुनियादी बदलाव आया. अब कोई उन्हें रास्ते से भटका भाई नहीं कहता. बल्कि देश का दुश्मन बताता है. यहां तक कि अंदर ही अंदर चिदंबरम का विरोध करने वाली और अब तक माओवादियों पर थोड़ी नर्मी बरतने वाली कांग्रेस पार्टी भी अब मानती है कि माओवादियों को जड़ से खत्म करना ही होगा.
लेकिन कैसे करे चिदंबरम इस नई चुनौती का सामना. दिल से कोशिश की है माओवादियों से लड़ने की. झोला छापों ने तो उनके खिलाफ मुहिम छेड़ी हुई है.
अपनी ओर से कोशिश कर माओवाद प्रभावित राज्यों के मुख्यमंत्रियों की बैठक बुलाई. एक बार नहीं कई बार. पहले झारखंड के शिबू सोरेन पतली गली से निकल लिए तो बाद में नीतीश कुमार भी. बुद्धदेव भट्टाचार्य को तो ममता बनर्जी के आगे कुछ दिखता ही नहीं है. ले दे के नवीन पटनायक और रमन सिंह दो मुख्यमंत्री हैं जो चिदंबरम के साथ डटे हुए हैं.
रमन सिंह तो इस हद तक कि चाहे छत्तीसगढ़ पुलिस का एक ही हेड कांस्टेबल सीआरपीएफ के साथ रहा और शहीद हुआ लेकिन जब चिदंबरम ने कहा कि ये केंद्र और राज्य सरकार का साझा अभियान था तो रमन सिंह ने भी हां में हां मिलाने में देरी नहीं की.
ऑपरेशन ग्रीन हंट का नाम चिदंबरम ने नहीं दिया. छत्तीसगढ़ पुलिस ने ही दिया. आज मीडिया इसी की चर्चा करता है और चिदंबरम इस नाम से बचते हैं.
अब क्या करेंगे चिदंबरम. कम से कम इतना तो करो कि माओवादियों को देश की संप्रभु सरकार को चुनौती देकर समानांतर सरकार चलाने वाले विदेशी विचारधारा से प्रेरित घुसपैठिए मानो.
या फिर कहो कि ये भी आतंकवादी हैं. बेकसूर लोगों का खून माओवादियों ने भी कम नहीं बहाया है.
आतंकवाद विरोधी जो कानून आप बम विस्फोट कर बेगुनाह लोगों की जान लेने वाले आतंकवादियों पर लगाते हैं वही कानून अब माओवादियों पर भी लगाओ.
राज्य सरकारों से बात कर माओवादियों के खिलाफ एक साझा नया सुरक्षा बल तैयार करो. सीआरपीएफ का काम देश में कानून व्यवस्था बनाए रखने का है... छिप कर गुरिल्ला युद्ध करने वाले माओवादियों से मुकाबला करने का नहीं. खुफिया तंत्र को मजबूत करो. नक्सली इलाकों के लिए अलग तंत्र तैयार किया जाए. इस काम में थोड़ा समय ज़रूर लगेगा लेकिन अब वक्त आर या पार की लड़ाई का है. झुकने का नहीं.
माओवादियों के चंगुल वाले इलाके को धीरे-धीरे कर छुड़वाओ. जो जो इलाका भारत के पास वापस आता जाए (भारत ही बोलना होगा क्योंकि इनकी समानांतर सरकार में भारतीय संविधान के लिए जगह नहीं है. इनकी लड़ाई संविधान के खिलाफ है, हमारी सरकार के खिलाफ है. इस लिहाज से तो ये देश द्रोही ही हुए) उसे अधिकार में लेकर वहां स्थानीय प्रशासन को मजबूत करो. विकास की रोशनी उन इलाकों तक पहुँचाओं जो आजादी के साठ साल बाद भी बुनियादी सुविधाओं के लिए तरस रहे हैं. हमारे आदिवासी भाइयों के लिए तमाम सुविधाएं मुहैया कराओ. असली भाई आदिवासी हैं न कि उन्हें बरगलाने वाले माओवादी. आम लोगों के लिए चलाई जा रही तमाम योजनाओं का वहां सीधा क्रियान्वयन सुनिश्चित कराओ.
ये सब करने में चिदंबरम के रास्ते में कई मुश्किलें आएंगे. उनकी अपनी पार्टी से ही विरोध की आवाज़ें उठने लगेंगी. लेकिन पिछले करीब डेढ़ साल में चिदंबरम ने जिस हौंसले और दूरदृष्टि का परिचय दिया है उम्मीद है वो आगे भी ऐसा ही करते रहेंगे. इसलिए डटे रहो चिदंबरम.
न दैन्यं, न पलायनं
Wednesday, April 07, 2010
बुढ़ापा
बाल पक जाएंगे.
दाँत गिर जाएंगे.
पोपले मुंह से निकलेंगी हिसहिसाती आवाज़ें
जिनका मतलब जिसकी जो समझ में आए लगा ले.
'पापा आप बूढ़े हो जाओगे तब मेरे क्या होगे.
क्या तब भी आप मेरे पापा ही रहोगे.'बचपन के इन सवालों पर जवानी में आती है हँसी
लेकिन सामने खड़ा बुढ़ापा दिखाता है कई हकीकतें.
डरावनी शक्लें लिए खड़ा होता है सामने भविष्य.
इसके डर से आज भी हैरान परेशान है.
कहता है तू कल की क्यों सोचता है.
मैं आज हूं मुझे जी भर के जी ले.
फिर अखबार के पन्नों पर दिखते हैं विज्ञापन.
अपने बुढ़ापे को सुरक्षित करने के लिए अपनाएं पेंशन प्लान.
या विशेषज्ञों के वो लेख जो कहते हैं आपको बुढ़ापे में चाहिए होंगे 10 करोड़ रुपए.
ताकि संतानों की पढ़ाई का खर्चा उठा सकें और अपना बुढ़ापा खुशी-खुशी बिता सकें..
बुढापे के सुखी जीवन की चिंता में आज जवानी में हो रहे हैं बाल सफेद.
जवानी के दिन दुख में बिताओ ताकि बुढ़ापे में सुख चैन से जी सको.
ऐसे ही एक दिन धीमे कदमों से बुढ़ापा दे देगा दस्तक.
क्या बुढ़ापा रोकने का भी है कोई पेंशन प्लान. कोई एसआईपी. जो सलवटों को मिटा दे और दे सुकून आज को जीने का....
Tuesday, April 06, 2010
कोई मोमबत्ती इनके लिए भी है क्या?
सोचिए उन 76 जवानों के परिवारवालों के बारे में. उन पर क्या गुजर रही होगी.
कइयों के छोटे बच्चे होंगे.. कुछ की बेटियां हाथ पीले करने के इंतज़ार में होंगी तो किसी के माता-पिता इलाज के लिए बेटे की घर-वापसी का रास्ता देख रहे होंगे.
लेकिन अब देश के अलग-अलग हिस्सों के लिए वाया रायपुर कॉफिन में कैद जवानों के शव रवाना किए जाएंगे.
मीडिया पहले से ही इन्हें शहीद कह रहा है. जब अपने-अपने घरों की चौखट लांघ कर ये शव करीबियों के पास पहुंचेगे तो उन्हें कोई शहीद या सीआरपीएफ की वर्दी पहने जवान नहीं बल्कि कोई बेटा, कोई पति या कोई पिता नज़र आएगा.
वो अपनी ज़िम्मेदारी पूरी कर रहे थे. वो ज़िम्मेदारी जो उन्हें भारत सरकार ने सौंपी थी.
वो भारत सरकार जो अभी तक ये तय नहीं कर पा रही है कि नक्सली रास्ते से भटके हमारे भाई हैं या फिर निर्दोषों का खून बहाने वाले वहशी दरिंदे. या फिर आतंकवादी.
कोई है एक अरब 20 करोड़ आबादी वाले इस मुल्क में जो इन 74 जवानों के लिए भी मोमबत्ती जलाएगा.
कोई है जो इनकी शहादत का बदला लेगा. इनके बलिदान को सिर्फ अखबारों की सुर्खियों तक ही सीमित नहीं रहने देगा.
कोई है जो इन तथा कथित भटके भाइयों को सही रास्ते पर लाने के लिए आगे आएगा.
या हम पंगु हो चुके हैं. हमें अपने आगे कुछ नहीं दिखता. हम अपने मुल्क के बारे में नहीं सोचते. हमें भारतीय होने पर अब क्या शर्म आती है.
कायरों की तरह जंगल में छिप कर गुरिल्ला वार कर रहे हैं. हिम्मत है तो सीधे-सीधे आमने-सामने की लड़ाई क्यों नहीं लड़ते ये बुजदिल. इनमें और आतंकवादियों में क्या फर्क है. इनका लड़ाई का तरीका भी तो वैसा ही है जैसा कश्मीर में लड़ रहे आतंकवादियों का है. या फिर गाहे-बगाहे मासूमों को अपने बम विस्फोटों से शिकार बनाने वाले आतंकवादियों का.
ये कहते हैं हम बेगुनाहों की जान नहीं लेते. जो हमारी जान लेने आता है हम उसी पर हमला करते हैं. झारखंड का वो टीचर शायद माओवादियों की जान लेने गया था जिसका सिर धड़ से काट कर अलग कर दिया गया. या वो मासूम आदिवासी जिन्हें नक्सलियों ने मुखबिर होने के शक में चौराहे पर मौत के घाट उतार दिया वो सब शायद नक्सलियों की जान लेने गए थे.
घात लगा कर अपने ही मुल्क के लोगों पर हमला करते हैं. उन लोगों पर जो पूरे जी जान से देश की सुरक्षा का ज़िम्मा अपने कंधों पर लिए हैं.
भोले-भाले आदिवासियों के अधिकारों के नाम पर पिछले चालीस साल से देश को गुमराह किया जा रहा है. इनका असली मकसद आखिर है क्या.
क्या आदिवासियों के हक को छीनने का काम ये नक्सली नहीं कर रहे हैं. अगर उन तक विकास की रोशनी नहीं पहुंच रही है तो इसके लिए कुछ हद तक जिम्मेदारी नक्सलियों की भी तो है. क्या ये अपने दम पर इनके गांवों में इन्हें आधुनिक शिक्षा, रोजगार के अवसर, बेहतर स्वास्थ्य सेवा वगैरह दे सकते हैं. क्यों सरकारी सुविधाओं को आदिवासियों तक नही पहुंचने दिया जा रहा है. अगर सरकार आदिवासियों की भलाई के लिए कुछ करे तो कहोगे उन्हें बरगलाया जा रहा है.
अगर भ्रष्टाचार और शोषण से लडाई के नाम पर आपने आदिवासियों के हक के लिए बंदूक उठाई है तो आप क्या कर रहे हैं. क्यों आप उन खदान मालिकों से हर महीने टैक्स वसूलते हैं जिन्हें आप शोषक बता कर जिनके खिलाफ आप इतने समय से तथाकथित युद्ध छेड़े हैं. आपमें और गली के गुंडे में फर्क क्या है. वो हफ्ता वसूलता है तो आप महीना.
कहां है नक्सलियों के मानवाधिकारों की वकालत करने वाले वो लोग जिन्हें नक्सलियों के बारे में गृह मंत्री पी चिदंबरम के बयान तेजाब की तरह जलाते हैं. कहां है वो लोग जो नक्सलियों के साथ बिताए अपने वक्त को बड़ी खूबसूरती से पत्रकारिता का नाम दे कर 20-20 पन्ने काले कर देते हैं ताकि नक्सलियों के लिए देश में सहानुभूति बढ़ाई जा सके. क्या अब उन्हें इन 74 परिवारों के मानवाधिकारों की परवाह नहीं. क्या ये जवान इंसान नहीं थे. इनके भी कोई हक थे या नहीं.
पत्रकारिता, शिक्षण और समाज सेवा में ऐसे लोग बैठे हैं जो नक्सलियों के लिए बेहद सहानुभूति रखते हैं. खुल कर सामने क्यों नहीं आते कायरों. बुजदिलों की तरह पीछे से छिप कर क्यों वार करते हो. ये समझ लेना... ये भारत है.... पाकिस्तान और चीन जैसे बड़े बड़े मुल्क बाल बांका तक नहीं कर पाए हैं. तो तुम किस खेत की मूली हो. हमारा संविधान अगर हमें आजादी और अधिकारों की गारंटी देता है तो तुम लोग इन अधिकारों का बेजा फायदा उठा रहे हो. तुम हमारे सिस्टम का एक हिस्सा बन कर बैठे हो ताकि उसे अंदर से खोखला कर सको. तुम्हें सब पहचानते हैं. तुम्हारी विचारधारा तो तुम्हें इस संविधान में भरोसा नहीं रखने को कहती है. तुम तो इस संविधान को ही पलटना चाहते हो. तुम अपनी नई कहानी लिखना चाहते हो.
क्या हुआ नेपाल में.... क्या तीर मार लिया नक्सलियों ने... कौन सी क्रांति कर देश का भला कर दिया.... अगर सोचते हो भारत में भी ऐसा ही कर पाओगे तो बड़ी भूल कर रहे हो.
याद रखना...
समर शेष है नहीं पाप का भागी केवल व्याघ्र
जो तटस्थ हैं समय लिखेगा उनका भी अपराध
कइयों के छोटे बच्चे होंगे.. कुछ की बेटियां हाथ पीले करने के इंतज़ार में होंगी तो किसी के माता-पिता इलाज के लिए बेटे की घर-वापसी का रास्ता देख रहे होंगे.
लेकिन अब देश के अलग-अलग हिस्सों के लिए वाया रायपुर कॉफिन में कैद जवानों के शव रवाना किए जाएंगे.
मीडिया पहले से ही इन्हें शहीद कह रहा है. जब अपने-अपने घरों की चौखट लांघ कर ये शव करीबियों के पास पहुंचेगे तो उन्हें कोई शहीद या सीआरपीएफ की वर्दी पहने जवान नहीं बल्कि कोई बेटा, कोई पति या कोई पिता नज़र आएगा.
वो अपनी ज़िम्मेदारी पूरी कर रहे थे. वो ज़िम्मेदारी जो उन्हें भारत सरकार ने सौंपी थी.
वो भारत सरकार जो अभी तक ये तय नहीं कर पा रही है कि नक्सली रास्ते से भटके हमारे भाई हैं या फिर निर्दोषों का खून बहाने वाले वहशी दरिंदे. या फिर आतंकवादी.
कोई है एक अरब 20 करोड़ आबादी वाले इस मुल्क में जो इन 74 जवानों के लिए भी मोमबत्ती जलाएगा.
कोई है जो इनकी शहादत का बदला लेगा. इनके बलिदान को सिर्फ अखबारों की सुर्खियों तक ही सीमित नहीं रहने देगा.
कोई है जो इन तथा कथित भटके भाइयों को सही रास्ते पर लाने के लिए आगे आएगा.
या हम पंगु हो चुके हैं. हमें अपने आगे कुछ नहीं दिखता. हम अपने मुल्क के बारे में नहीं सोचते. हमें भारतीय होने पर अब क्या शर्म आती है.
कायरों की तरह जंगल में छिप कर गुरिल्ला वार कर रहे हैं. हिम्मत है तो सीधे-सीधे आमने-सामने की लड़ाई क्यों नहीं लड़ते ये बुजदिल. इनमें और आतंकवादियों में क्या फर्क है. इनका लड़ाई का तरीका भी तो वैसा ही है जैसा कश्मीर में लड़ रहे आतंकवादियों का है. या फिर गाहे-बगाहे मासूमों को अपने बम विस्फोटों से शिकार बनाने वाले आतंकवादियों का.
ये कहते हैं हम बेगुनाहों की जान नहीं लेते. जो हमारी जान लेने आता है हम उसी पर हमला करते हैं. झारखंड का वो टीचर शायद माओवादियों की जान लेने गया था जिसका सिर धड़ से काट कर अलग कर दिया गया. या वो मासूम आदिवासी जिन्हें नक्सलियों ने मुखबिर होने के शक में चौराहे पर मौत के घाट उतार दिया वो सब शायद नक्सलियों की जान लेने गए थे.
घात लगा कर अपने ही मुल्क के लोगों पर हमला करते हैं. उन लोगों पर जो पूरे जी जान से देश की सुरक्षा का ज़िम्मा अपने कंधों पर लिए हैं.
भोले-भाले आदिवासियों के अधिकारों के नाम पर पिछले चालीस साल से देश को गुमराह किया जा रहा है. इनका असली मकसद आखिर है क्या.
क्या आदिवासियों के हक को छीनने का काम ये नक्सली नहीं कर रहे हैं. अगर उन तक विकास की रोशनी नहीं पहुंच रही है तो इसके लिए कुछ हद तक जिम्मेदारी नक्सलियों की भी तो है. क्या ये अपने दम पर इनके गांवों में इन्हें आधुनिक शिक्षा, रोजगार के अवसर, बेहतर स्वास्थ्य सेवा वगैरह दे सकते हैं. क्यों सरकारी सुविधाओं को आदिवासियों तक नही पहुंचने दिया जा रहा है. अगर सरकार आदिवासियों की भलाई के लिए कुछ करे तो कहोगे उन्हें बरगलाया जा रहा है.
अगर भ्रष्टाचार और शोषण से लडाई के नाम पर आपने आदिवासियों के हक के लिए बंदूक उठाई है तो आप क्या कर रहे हैं. क्यों आप उन खदान मालिकों से हर महीने टैक्स वसूलते हैं जिन्हें आप शोषक बता कर जिनके खिलाफ आप इतने समय से तथाकथित युद्ध छेड़े हैं. आपमें और गली के गुंडे में फर्क क्या है. वो हफ्ता वसूलता है तो आप महीना.
कहां है नक्सलियों के मानवाधिकारों की वकालत करने वाले वो लोग जिन्हें नक्सलियों के बारे में गृह मंत्री पी चिदंबरम के बयान तेजाब की तरह जलाते हैं. कहां है वो लोग जो नक्सलियों के साथ बिताए अपने वक्त को बड़ी खूबसूरती से पत्रकारिता का नाम दे कर 20-20 पन्ने काले कर देते हैं ताकि नक्सलियों के लिए देश में सहानुभूति बढ़ाई जा सके. क्या अब उन्हें इन 74 परिवारों के मानवाधिकारों की परवाह नहीं. क्या ये जवान इंसान नहीं थे. इनके भी कोई हक थे या नहीं.
पत्रकारिता, शिक्षण और समाज सेवा में ऐसे लोग बैठे हैं जो नक्सलियों के लिए बेहद सहानुभूति रखते हैं. खुल कर सामने क्यों नहीं आते कायरों. बुजदिलों की तरह पीछे से छिप कर क्यों वार करते हो. ये समझ लेना... ये भारत है.... पाकिस्तान और चीन जैसे बड़े बड़े मुल्क बाल बांका तक नहीं कर पाए हैं. तो तुम किस खेत की मूली हो. हमारा संविधान अगर हमें आजादी और अधिकारों की गारंटी देता है तो तुम लोग इन अधिकारों का बेजा फायदा उठा रहे हो. तुम हमारे सिस्टम का एक हिस्सा बन कर बैठे हो ताकि उसे अंदर से खोखला कर सको. तुम्हें सब पहचानते हैं. तुम्हारी विचारधारा तो तुम्हें इस संविधान में भरोसा नहीं रखने को कहती है. तुम तो इस संविधान को ही पलटना चाहते हो. तुम अपनी नई कहानी लिखना चाहते हो.
क्या हुआ नेपाल में.... क्या तीर मार लिया नक्सलियों ने... कौन सी क्रांति कर देश का भला कर दिया.... अगर सोचते हो भारत में भी ऐसा ही कर पाओगे तो बड़ी भूल कर रहे हो.
याद रखना...
समर शेष है नहीं पाप का भागी केवल व्याघ्र
जो तटस्थ हैं समय लिखेगा उनका भी अपराध
Tuesday, March 30, 2010
Sunday, March 28, 2010
मजहदी-बिरजू होते रहेंगे
देहरादून से ननद की बेटी की शादी में दिल्ली आई थी मजहदी.
करोलबाग से रिश्तेदार के घर होने के बाद बल्लीमारान वापस जा रहे थे.
राजीव चौक मेट्रो स्टेशन पर आगे खड़ी थी मजहदी.
अचानक धक्का लगा.
नीचे पटरियों पर गिर गई.
बिरजू काम की तलाश में अपना घर-बार छोड़ कर दिल्ली आया था.
जहांगीरपुरी में रुका था अपने किसी परिचित के पास.
राजीव चौक पर मेट्रो पकड़ने गया.
किसी ने कहा जल्दी जाओ मेट्रो छूट जाएगी.
भागा तो खुद को संभाल नहीं पाया.
पैर फिसला, संतुलन बिगड़ा और सामने खड़ी एक लड़की के साथ पटरियों पर गिर गया.
केंद्रीय सचिवालय से आ रही मेट्रो ने लड़की और बिरजू को चपेट में ले लिया.
दोनों के पैर कट गए.
अब हम जानते हैं कि ये लड़की मजहदी थी जो बिरजू के साथ मेट्रो की पटरियों पर गिर गई.
आज दैनिक भास्कर में इसकी विस्तृत ख़बर छपी है धनंजय कुमार नाम के संवाददाता की.
घटना परसों की है. कल के अख़बारों में भी छपी. लेकिन कोई रिपोर्टर इसे प्रेम प्रसंग का नतीजा बता रहा था तो कोई एक तरफा मुहब्बत की दास्तां का दुखत अंत भी.
न बिरजू मजहदी को जानता है और न ही मजहदी बिरजू को.
पत्रकारिता के स्तर पर टिप्पणी करने का मेरा कोई मकसद नहीं है क्योंकि ऐसे विषयों पर कई ज्ञानी लोग दिन-रात बड़े-बड़े होटलों से लेकर चाय की दुकान तक भाषण देते रहते हैं. इनमें से ज़्यादातर के चैनल्स और अख़बारों में वही सब कुछ दिखता और छपता है जिसके खिलाफ वो बोलते हैं.
मुझे तो दुख है इस हादसे पर.
दिल्ली को वर्ल्ड क्लास सिटी बनाने के लिए, सड़कों से ट्रैफिक कम करने के लिए मेट्रो लाई गई.
मेट्रो ने वाकई दिल्ली की जीवन शैली बदल दी है. अब कई लोग दफ्तर जाने के लिए कार का नहीं बल्कि मेट्रो का सहारा लेते हैं.
ये समय बचाती है. ऊर्जा बचाती है. सफर आरामदेह बनाती है. ताकि ट्रैफिक के शोर-गुल से बच कर आरामदेह एयरकंडीशन्ड कोच में सफर कर आप जब दफ्तर पहुंचे तो शांत दिमाग से अपने दिन और काम की शुरुआत कर सकें.
डीयू की दौड़ लगाने वाले हज़ारों स्टुडेंट्स के लिए मेट्रो वरदान साबित हुई है. कामकाजी महिलाओं के लिए भी जहां वो बस में मनचलों की नज़रों और छेड़छाड़ से बचते हुए आरक्षित सीट पर बैठ कर सफर करती हैं.
एक नई मेट्रो कल्चर भी विकसित हुई है. मैंने अभी तक कुल दो बार मेट्रो का सफर किया है. मैंने देखा कि किस तरह से ज़्यादातर लड़के-लड़कियां अपने मोबाइल फोन या आईपोड का हैंड्स फ्री कानों में लगा कर या तो गाने सुनते रहते हैं या फिर जोड़े बना कर दीन-दुनिया से बेखबर आपस में बातचीत में मशगूल रहते हैं.
महिलाओं और बुजुर्गों को सीट मांगनी नहीं पड़ती है बल्कि कुछ ठीढ नौजवानों को छोड़ ज़्यादातर खुद ही उठ कर उन्हें अपनी सीट ऑफर कर देते हैं.
लेकिन इस कल्चर में एक बड़ी कमी दिखाई देती है. अगर ऐसा न होता तो मजहदी बिरजू की दुर्घटना नहीं हुई होती.
बिरजू ने जब पूछा कि जहांगीरपुरी की मेट्रो कब और कहां से जाएगी तो बताने वाले को शायद ये बताने का वक्त नहीं मिला कि एक मेट्रो छूट भी जाए तो दूसरी थोड़ी देर में आ जाएगी. इसका वक्त नोटिस बोर्ड पर लिखा है. मेट्रो समय पर चलती है. अगर एक में भीड़ हो तो आप दूसरी मेट्रो का इंतजा़र कर सकते हैं. उसमें निश्चित तौर पर जगह मिल जाएगी.
मेट्रो का इंतजार करने के लिए ज़रूरी नहीं है कि पीली लाइन पार कर बिल्कुल पटरियों से सट कर खड़े हों. पीली लाइन पटरियों से कम से कम आधा मीटर दूर होती है. यात्रियों को इस लाइन के पीछे ही खड़े होना चाहिए.
ये बातें कौन सिखाएगा. ज़िम्मेदारी तो मेट्रो की ही है. आधी दिल्ली को चाहे अब मेट्रो की सवारी की आदत पड़ गई हो लेकिन अब भी बाहर से आने वाले बड़े लोग हैं जो शायद पहली बार मेट्रो में सफर कर रहे हों.
इन लोगों को जानकारी देने के लिए क्या इंतज़ाम किया है मेट्रो ने.
मैं अपना ही किस्सा बताता हूं. मुझे विकासपुरी जाना था. मैंने मेट्रो की वेबसाइट पर जाकर रूट पता करने की कोशिश की कि वसुंधरा गाजियाबाद से विकासपुरी जाने के लिए कौन सा रास्ता बेहतर होगा या कहां से मेट्रो पकड़नी होगी.
मुझे कोई जानकारी नहीं मिली. फिर अपने सिटी ब्यूरो के एक सहयोगी को फोन कर पूछा तब उसने बताया कि आनंद विहार से जाना बेहतर होगा. सीधे गाड़ी विकासपुरी जाएगी और रास्ते में कहीं बदलना नहीं है.
आनंद विहार मेट्रो स्टेशन पर पार्किंग न करें ये सलाह भी दे दी लिहाजा मैंने पैसेफिक मॉल पर 20 रुपए देकर गाड़ी खड़ी की.
स्टेशन पर गया तो रूट देखना चाहता था लेकिन टिकट के लिए लंबी लाइन लगी थी इसलिए पहले उसी में लग गया. टिकट के काउंटर पर लिखा था यहां पूछताछ मना है.
फिर भी, मैंने उससे पूछा. उसने गुस्से में देख कर कहा आप इतने रुपए का टिकट ले लीजिए और गाड़ी सीधे विकासपुरी ही जाएगी.
लंदन में मेट्रो जिसे ट्यूब कहते हैं का अनुभव बिलकुल अलग है.
वहां वेबसाइट पर बसों पर और ट्यूब स्टेशनों पर हर जगह मैप मिल जाएगा. पॉकेट मैप जिसे आप लेकर जेब में घूम सकते हैं.
टिकट के लिए लंबी लाइन लगने का मतलब ही नहीं है. स्टेशन पर वेंडिग मशीन लगी होती हैं जिनसे आप क्रेडिट या डेबिट कार्ड से पूरे दिन का, अलग-अलग ज़ोन का, या पूरे सप्ताह का और पूरे महीने का भी पास ले सकते हैं.
यहां टिकट लेने जाएंगे तो छुट्टे पैसे भी मांगते हैं. वहां पर छुट्टे पैसे देने के लिए मशीन भी लगी हुई है.
हर तरफ मौजूद सिक्यूरिटी गार्ड आपकी मदद करते हैं. आपको अगर रास्ता समझ न आए तो किसी सहयात्री से पूछ सकते हैं. मुस्कान के साथ लोग आपकी मदद कर देंगे.
स्टेशन पर यलो लाइन के पीछे खड़े होने के लिए बार-बार एनाउंसमेंट होता है. गाड़ी आती है कहा जाता है माइंड द गैप जो वहां के युवाओं के लिए टीशर्ट पर लिखवाने का एक स्लोगन भी बन गया है.
ट्यूब की फ्रिकवेंसी भी पीक आवर्स पर हर एक मिनट पर है और ऑफ पीक आवर्स में दो से चार मिनट.
इनमें से कुछ चीज़ें दिल्ली मेट्रो में भी है. गार्ड यहां भी प्लेटफॉर्म पर तैनात हैं जो लोगों को पटरियों से दूर खड़े रहने के लिए कहते हैं. एनाउंसमेंट यहां भी होता है. तो फिर ऐसे हादसे क्यों होते हैं.
क्यों टिकट काउंटर पर लिखा है पूछताछ मना है. क्यों टिकट के लिए लगती हैं लंबी लाइनें. क्यों ऑटोमैटिक वेंडिग मशीन नहीं लगाई गई हैं स्टेशनों पर. क्यों मेट्रो का ज़्यादातर हिस्सा ओवरग्राउंड है अंडरग्राउंड नहीं.
दिल्ली का लैंड स्केप बदनुमा कर दिया है ओवरग्राउंड मेट्रो ने. सड़कों पर आने-जाने वालों का जीवन मुहाल हुआ वो अलग क्योंकि एक-एक डेढ़-डेढ़ साल से सड़कों पर मेट्रो का काम चल रहा है.
अंडर ग्राउंड मेट्रो को बढ़ावा क्यों नहीं दिया सरकार ने. क्यों सिर्फ़ लुटेन्स ज़ोन में है अंडर ग्राउंड मेट्रो. क्या इसलिए कि वहां रहने वाले और हिंदुस्तान के आकाओं को ज़मीन के ऊपर भड़भड़ाती निकलती मेट्रो नागवार गुजरती. या धरोहर के नाम पर सैंकड़ों एकड़ जमीन पर रहने वाले कुछ सौ विशिष्ट परिवारों को अपनी सुविधा बाकी कीड़े-मकोड़ों की तुलना में ज़्यादा ज़रूरी लगती है.
ये कुछ तकलीफदेह सवाल हैं.
मैं मेट्रो का बहुत बड़ा पक्षधर हूं. मैं चाहता हूं कि मेट्रो मेरे घर वसुंधरा के पास भी आए ताकि मैं अपनी गाड़ी घर पर खड़ी कर मेट्रो से ही दफ्तर आऊ-जाऊं. लेकिन यात्रियों की सुविधाओं और उनकी जागरूकता को बढ़ाने के लिए जब तक मेट्रो कड़े कदम नहीं उठाता तब तक मजहदी और बिरजू जैसे हादसे होते रहेंगे.
करोलबाग से रिश्तेदार के घर होने के बाद बल्लीमारान वापस जा रहे थे.
राजीव चौक मेट्रो स्टेशन पर आगे खड़ी थी मजहदी.
अचानक धक्का लगा.
नीचे पटरियों पर गिर गई.
बिरजू काम की तलाश में अपना घर-बार छोड़ कर दिल्ली आया था.
जहांगीरपुरी में रुका था अपने किसी परिचित के पास.
राजीव चौक पर मेट्रो पकड़ने गया.
किसी ने कहा जल्दी जाओ मेट्रो छूट जाएगी.
भागा तो खुद को संभाल नहीं पाया.
पैर फिसला, संतुलन बिगड़ा और सामने खड़ी एक लड़की के साथ पटरियों पर गिर गया.
केंद्रीय सचिवालय से आ रही मेट्रो ने लड़की और बिरजू को चपेट में ले लिया.
दोनों के पैर कट गए.
अब हम जानते हैं कि ये लड़की मजहदी थी जो बिरजू के साथ मेट्रो की पटरियों पर गिर गई.
आज दैनिक भास्कर में इसकी विस्तृत ख़बर छपी है धनंजय कुमार नाम के संवाददाता की.
घटना परसों की है. कल के अख़बारों में भी छपी. लेकिन कोई रिपोर्टर इसे प्रेम प्रसंग का नतीजा बता रहा था तो कोई एक तरफा मुहब्बत की दास्तां का दुखत अंत भी.
न बिरजू मजहदी को जानता है और न ही मजहदी बिरजू को.
पत्रकारिता के स्तर पर टिप्पणी करने का मेरा कोई मकसद नहीं है क्योंकि ऐसे विषयों पर कई ज्ञानी लोग दिन-रात बड़े-बड़े होटलों से लेकर चाय की दुकान तक भाषण देते रहते हैं. इनमें से ज़्यादातर के चैनल्स और अख़बारों में वही सब कुछ दिखता और छपता है जिसके खिलाफ वो बोलते हैं.
मुझे तो दुख है इस हादसे पर.
दिल्ली को वर्ल्ड क्लास सिटी बनाने के लिए, सड़कों से ट्रैफिक कम करने के लिए मेट्रो लाई गई.
मेट्रो ने वाकई दिल्ली की जीवन शैली बदल दी है. अब कई लोग दफ्तर जाने के लिए कार का नहीं बल्कि मेट्रो का सहारा लेते हैं.
ये समय बचाती है. ऊर्जा बचाती है. सफर आरामदेह बनाती है. ताकि ट्रैफिक के शोर-गुल से बच कर आरामदेह एयरकंडीशन्ड कोच में सफर कर आप जब दफ्तर पहुंचे तो शांत दिमाग से अपने दिन और काम की शुरुआत कर सकें.
डीयू की दौड़ लगाने वाले हज़ारों स्टुडेंट्स के लिए मेट्रो वरदान साबित हुई है. कामकाजी महिलाओं के लिए भी जहां वो बस में मनचलों की नज़रों और छेड़छाड़ से बचते हुए आरक्षित सीट पर बैठ कर सफर करती हैं.
एक नई मेट्रो कल्चर भी विकसित हुई है. मैंने अभी तक कुल दो बार मेट्रो का सफर किया है. मैंने देखा कि किस तरह से ज़्यादातर लड़के-लड़कियां अपने मोबाइल फोन या आईपोड का हैंड्स फ्री कानों में लगा कर या तो गाने सुनते रहते हैं या फिर जोड़े बना कर दीन-दुनिया से बेखबर आपस में बातचीत में मशगूल रहते हैं.
महिलाओं और बुजुर्गों को सीट मांगनी नहीं पड़ती है बल्कि कुछ ठीढ नौजवानों को छोड़ ज़्यादातर खुद ही उठ कर उन्हें अपनी सीट ऑफर कर देते हैं.
लेकिन इस कल्चर में एक बड़ी कमी दिखाई देती है. अगर ऐसा न होता तो मजहदी बिरजू की दुर्घटना नहीं हुई होती.
बिरजू ने जब पूछा कि जहांगीरपुरी की मेट्रो कब और कहां से जाएगी तो बताने वाले को शायद ये बताने का वक्त नहीं मिला कि एक मेट्रो छूट भी जाए तो दूसरी थोड़ी देर में आ जाएगी. इसका वक्त नोटिस बोर्ड पर लिखा है. मेट्रो समय पर चलती है. अगर एक में भीड़ हो तो आप दूसरी मेट्रो का इंतजा़र कर सकते हैं. उसमें निश्चित तौर पर जगह मिल जाएगी.
मेट्रो का इंतजार करने के लिए ज़रूरी नहीं है कि पीली लाइन पार कर बिल्कुल पटरियों से सट कर खड़े हों. पीली लाइन पटरियों से कम से कम आधा मीटर दूर होती है. यात्रियों को इस लाइन के पीछे ही खड़े होना चाहिए.
ये बातें कौन सिखाएगा. ज़िम्मेदारी तो मेट्रो की ही है. आधी दिल्ली को चाहे अब मेट्रो की सवारी की आदत पड़ गई हो लेकिन अब भी बाहर से आने वाले बड़े लोग हैं जो शायद पहली बार मेट्रो में सफर कर रहे हों.
इन लोगों को जानकारी देने के लिए क्या इंतज़ाम किया है मेट्रो ने.
मैं अपना ही किस्सा बताता हूं. मुझे विकासपुरी जाना था. मैंने मेट्रो की वेबसाइट पर जाकर रूट पता करने की कोशिश की कि वसुंधरा गाजियाबाद से विकासपुरी जाने के लिए कौन सा रास्ता बेहतर होगा या कहां से मेट्रो पकड़नी होगी.
मुझे कोई जानकारी नहीं मिली. फिर अपने सिटी ब्यूरो के एक सहयोगी को फोन कर पूछा तब उसने बताया कि आनंद विहार से जाना बेहतर होगा. सीधे गाड़ी विकासपुरी जाएगी और रास्ते में कहीं बदलना नहीं है.
आनंद विहार मेट्रो स्टेशन पर पार्किंग न करें ये सलाह भी दे दी लिहाजा मैंने पैसेफिक मॉल पर 20 रुपए देकर गाड़ी खड़ी की.
स्टेशन पर गया तो रूट देखना चाहता था लेकिन टिकट के लिए लंबी लाइन लगी थी इसलिए पहले उसी में लग गया. टिकट के काउंटर पर लिखा था यहां पूछताछ मना है.
फिर भी, मैंने उससे पूछा. उसने गुस्से में देख कर कहा आप इतने रुपए का टिकट ले लीजिए और गाड़ी सीधे विकासपुरी ही जाएगी.
लंदन में मेट्रो जिसे ट्यूब कहते हैं का अनुभव बिलकुल अलग है.
वहां वेबसाइट पर बसों पर और ट्यूब स्टेशनों पर हर जगह मैप मिल जाएगा. पॉकेट मैप जिसे आप लेकर जेब में घूम सकते हैं.
टिकट के लिए लंबी लाइन लगने का मतलब ही नहीं है. स्टेशन पर वेंडिग मशीन लगी होती हैं जिनसे आप क्रेडिट या डेबिट कार्ड से पूरे दिन का, अलग-अलग ज़ोन का, या पूरे सप्ताह का और पूरे महीने का भी पास ले सकते हैं.
यहां टिकट लेने जाएंगे तो छुट्टे पैसे भी मांगते हैं. वहां पर छुट्टे पैसे देने के लिए मशीन भी लगी हुई है.
हर तरफ मौजूद सिक्यूरिटी गार्ड आपकी मदद करते हैं. आपको अगर रास्ता समझ न आए तो किसी सहयात्री से पूछ सकते हैं. मुस्कान के साथ लोग आपकी मदद कर देंगे.
स्टेशन पर यलो लाइन के पीछे खड़े होने के लिए बार-बार एनाउंसमेंट होता है. गाड़ी आती है कहा जाता है माइंड द गैप जो वहां के युवाओं के लिए टीशर्ट पर लिखवाने का एक स्लोगन भी बन गया है.
ट्यूब की फ्रिकवेंसी भी पीक आवर्स पर हर एक मिनट पर है और ऑफ पीक आवर्स में दो से चार मिनट.
इनमें से कुछ चीज़ें दिल्ली मेट्रो में भी है. गार्ड यहां भी प्लेटफॉर्म पर तैनात हैं जो लोगों को पटरियों से दूर खड़े रहने के लिए कहते हैं. एनाउंसमेंट यहां भी होता है. तो फिर ऐसे हादसे क्यों होते हैं.
क्यों टिकट काउंटर पर लिखा है पूछताछ मना है. क्यों टिकट के लिए लगती हैं लंबी लाइनें. क्यों ऑटोमैटिक वेंडिग मशीन नहीं लगाई गई हैं स्टेशनों पर. क्यों मेट्रो का ज़्यादातर हिस्सा ओवरग्राउंड है अंडरग्राउंड नहीं.
दिल्ली का लैंड स्केप बदनुमा कर दिया है ओवरग्राउंड मेट्रो ने. सड़कों पर आने-जाने वालों का जीवन मुहाल हुआ वो अलग क्योंकि एक-एक डेढ़-डेढ़ साल से सड़कों पर मेट्रो का काम चल रहा है.
अंडर ग्राउंड मेट्रो को बढ़ावा क्यों नहीं दिया सरकार ने. क्यों सिर्फ़ लुटेन्स ज़ोन में है अंडर ग्राउंड मेट्रो. क्या इसलिए कि वहां रहने वाले और हिंदुस्तान के आकाओं को ज़मीन के ऊपर भड़भड़ाती निकलती मेट्रो नागवार गुजरती. या धरोहर के नाम पर सैंकड़ों एकड़ जमीन पर रहने वाले कुछ सौ विशिष्ट परिवारों को अपनी सुविधा बाकी कीड़े-मकोड़ों की तुलना में ज़्यादा ज़रूरी लगती है.
ये कुछ तकलीफदेह सवाल हैं.
मैं मेट्रो का बहुत बड़ा पक्षधर हूं. मैं चाहता हूं कि मेट्रो मेरे घर वसुंधरा के पास भी आए ताकि मैं अपनी गाड़ी घर पर खड़ी कर मेट्रो से ही दफ्तर आऊ-जाऊं. लेकिन यात्रियों की सुविधाओं और उनकी जागरूकता को बढ़ाने के लिए जब तक मेट्रो कड़े कदम नहीं उठाता तब तक मजहदी और बिरजू जैसे हादसे होते रहेंगे.
Friday, March 26, 2010
पंक्चर का चक्कर
कार, बाइक, स्कूटर, साइकल. कभी-कभी बस और ट्रक भी.
चलते चलते पंक्चर क्यों हो जाते हैं.
दरअसल, इसलिए क्योंकि कई बार सड़कों पर पड़ी कीलें उनमें चुभ जाती हैं. सख्त रबर को भेद कर पतली ट्यूब में घुस जाती हैं और इसलिए गाड़ियां पंक्चर हो जाती हैं.
लेकिन कीलों का सड़क पर क्या काम. कीलें सड़कों पर क्यों बिखरी होती हैं.
कील लोहे से बनती हैं. इनका आकार अलग-अलग होता है. एक तरफ ठोकने के लिये सिरा होता है तो दूसरा सिरा नुकीला होता है ताकि वो आसानी से घुस सकें.
कीलों का इस्तेमाल आम तौर पर फर्नीचर बनाने वाले कारीगर करते हैं. घरों में भी कीलों का इस्तेमाल होता है जैसे दीवारों पर फोटो टांगने के लिए या बाथरूम में कपड़े टांगने के लिए भी कीलें ठोक ली जाती हैं.
यानी कीलें या तो घरों में मिलनी चाहिएं या फिर कारपेंटरों के यहां. फिर सड़कों पर क्यों बिखरी होती हैं. अगर सड़कों पर बिखरी न मिलें तो टायर चाहे किसी का भी हो, पंक्चर होगा ही नहीं. क्योंकि बबूल के कांटे चाहे कितने ही तीखे हों, टायर के मोटे रबर को नहीं भेद पाते बल्कि टायर पड़ते ही टूट जाते हैं.
कील पर अगर सड़क पर समतल पड़ी हों तो उनके टायर को भेदने की संभावना कम होती है. लेकिन पंक्चर के वक्त देखिएगा कीलें सीधे ही टायर में घुसी दिखती हैं जैसे किसी ने उन्हें सड़क पर सीधा खड़ कर छोड़ दिया हो और उनके ऊपर से गाड़ी निकलते ही कील अंदर, टायर पंक्चर और थोड़ी दूर जाकर आपकी गाड़ी खड़ी हो गई.
फिर तलाशिए मैकेनिक को. वो दिन में खूब दिखाई देंगे. बल्कि थोड़ी-थोड़ी दूर पर ही आपको पंक्चर सुधारने वाले मैकेनिक मिल जाएँगे. गाड़ी को या तो वहां तक धकेल कर ले जाएं या फिर हिम्मत हो तो किनारे खड़ी कर स्टेपनी चेंज करें और फिर पंक्चर टायर को उसके यहां बनवाने के लिए ले जाएं.
मैकेनिक भी कमाल के होते हैं. सड़क किनारे दूर से ही एक बड़ा टायर ज़मीन पर गड़ा मिल जाएगा. समझ जाइए वहीं मैकेनिक है जो पंक्चर ठीक करेगा. किनारे पर जोड़-तोड़ कर बनाया एक छोटा सा कमरा जिसमें टायर, ट्यूब वगैरह का ढेर लगा है. पास में जमीन में खुदे एक गड्डे में पानी भरा होगा. एक बड़ा सा सिलेंडर लगा होगा जिसके बगल में एक पुराना जनरेटर जो मैकेनिक के इशारा करते ही धक-धक कर चलने लगता है और बड़े सिलेंडर में हवा भरने लगती है. कम से कम 15 मिनट लगते हैं कार का पंक्चर बनाने में. मुझे इस बात की बहुत शिकायत है कि मैकेनिक को पंक्चर बनाने के सिर्फ़ दस रुपए मिलते हैं. कम से कम 100 रुपया मिलना चाहिए एक पंक्चर ठीक करने का. आखिर उसमें इतनी मेहनत जो लगती है.
वो पहले आपकी गाड़ी में जैक लगा कर टायर निकालेगा. फिर खूब ताकत लगा कर टायर को अलग-अलग जगह से ठोक-पीट कर ट्यूब बरामद करेगा. फिर ट्यूब में हवा भर कर जमीन में बने गड्डे में भरे पानी में डुबो कर देखेगा. फिर पंक्चर कहां हुआ इसकी पहचान करेगा. फिर हवा निकालेगा, फिर पंक्चर की जगह पर चिपकाने वाली ट्यूब से रबर का छोटा सा टुकड़ा चिपकाएगा. फिर हवा भरेगा, फिर पानी में डुबो कर देखेगा कि पंक्चर ठीक से लगा या नहीं. फिर हवा निकालेगा, फिर ट्यूब को टायर में घुसोएगा. फिर हवा भरेगा. फिर उसे कार में लगाएगा. फिर जैक हटाएगा. और आप उसे दस रुपए देकर खुशी-खुशी अपने रास्ते निकल लेंगे.
ये बहुत मेहनत का काम है. हम आप नहीं कर सकते. दरअसल, ये श्रम इतना कठिन होने के बावजूद बहुत सस्ता है लिहाजा हम इसकी कद्र नहीं करते.
वैसे सवाल अब भी यही है कि सड़कों पर कीलें क्यों पाई जाती हैं.
हमें हर चीज़ में साज़िश नज़र आती है. इसमें भी कई लोगों का यह कहना है कि ज़्यादातर कारें वहीं पंक्चर होती हैं जहां आस-पास मैकेनिक की दुकान हो. यानी उनका आरोप है कि मैकेनिक ही सड़कों पर कीलें बिखेर देते हैं ताकि गाड़ियां पंक्चर हों और उनकी रोज़ी-रोटी चलती रहे. मैं इससे इत्तफाक नहीं रखता. मैं मानता हूं कि सड़कों पर कीलों का पाया जाना महज़ संयोग है और कीलें सड़कों पर नहीं होंगी तो न तो आपका टायर पंक्चर होगा और न ही आप मैकेनिक के पास जाएंगे.
Monday, March 01, 2010
ऐसे खेली होली!
शुरुआत बहुत धीमी थी. बेहद शालीन. इंटरकॉम पर एक-दो फोन होली की बधाई देते हुए. यानी सोसायटी के भीतर से ही. मोबाइल कल रात से ही बरबरा रहा था. लगातार मैसेज पर मैसेज. होली की बधाई पर बधाई. सारे मित्रों को बहुत धन्यवाद. ये जानते हुए भी कि टेलीकॉम प्रोवाइडर खून चूसने को तैयार हैं. एसएमएस का दाम बढ़ा दिया. फिर भी एसएमएस किया. ये मेरा हमेशा का ऊसूल है कि कोई भी मैसेज आए जवाब ज़रूर देता हूं. कोई मिस्ड कॉल हो तो उसे भी पलट कर फोन करता हूँ. लेकिन कई मेरे मित्र ऐसे भी हैं खासतौर से काम से जुड़े जो एसएमएस और मिस्ड कॉल का जवाब देना अपनी शान के खिलाफ समझते हैं. बहरहाल उन्हें भी होली मुबारक हो.
फिर बाबू ने ज़िद पकड़ी तो धीरे-धीरे उसे तैयार किया. पूरी तरह से लैस. अंदर स्वेटर, उस पर बरसाती जो अनुपम ने बेल्जियम से लाकर दी थी. ऊपर से एक पुराना लाल रंग का कुर्ता. बाबू की पिचकारी के लिए दो अलग-अलग बाल्टियों में रंग भी तैयार कर लिए. एक हरा एक लाल. एक प्लेट में दो रंग की गुलाल भी सजा लीं. चंदन का टीका लगाने की भी पूरी तैयारी कर ली.
शास्ताजी फिर पिचकारी लेकर निकल पड़े मैदान में. मैं भी अपने पुराने कपड़ों की तलाश में अलमारी खंगालने लगा. एक पुराना लाल रंग का कुर्ता पकड़ में आया जो कभी सात आठ साल पहले फैब इंडिया से लिया था. अब बदरंग हो चला था. लिहाज़ा उस पर नए रंग चढ़ाने का फैसला किया. एक पुरानी जींस भी मिल गई. यानी अब मैं होली खेलने के लिए पूरी तरह से तैयार था.
बाबू धीरे-धीरे रंग में आते गए. आने-जाने वालों पर पिचकारी से रंग छोड़ा और बदले में किसी ने रंग डाला तो खूब मज़े से लगवा भी लिया. ये कायदे से उनकी पहली होली रही. इससे पहले नाना के घर पर रहते थे और मम्मी के साथ होली के रंगों से बचते रहे.
मुझे भी परिसर में परिचित मिलते रहे. बड़े सम्मान के साथ एक-दूसरे के चेहरों पर गुलाल लगाना और फिर तीन बार गले मिलना. ये तीन बार गले मिलने का फंडा मुझे समझ में नहीं आया. एक बार या दो बार क्यों नहीं तीन बार क्यों. या फिर चार बार क्यों नहीं मिलते गले. बहरहाल, गुलाल का सिलसिला चलता रहा, चेहरा कभी लाल, कभी पीला तो कभी हरा होता रहा. बाल भी जो अब उम्र से पहले ही सफेद हो चले हैं, उन्हें भी अपना रंग बदलने का मौक़ा मिला. आइने में अपनी शक्ल देखी तो अच्छी लगी. चेहरे के रंग दिल के भीतर गहरे तक उतर गए.
फिर समां बदला. जो गले मिल कर गुलाल लगा रहे थे, धीरे-धीरे आक्रामक होते गए. गुलाल की जगह पक्के रंगों ने ले ली. उनकी शिकायत थी बदन पर अब भी कई ऐसे स्पॉट हैं जहाँ रंग नहीं लगा है. गुलाल के रंगों की उनके सामने कोई औकात नहीं थी. उनका कहना था रंग ऐसे लगें जो पक्के हों और कभी न छूटें. यानी मेरे पास मानसिक रूप से इस आक्रमण के लिए तैयार होने के अलावा कोई और चारा नहीं था.
फिर ये आक्रमण धीरे-धीरे हिंसा का रूप लेता गया. सिर्फ पक्के रंग लगाने से ही काम नहीं चला. अब सिलसिला बदल चुका था. अब बारी थी एक-दूसरे को गीला करने की. सूखी होली का दौर ख़त्म हो चला था. अब रंगों से भरी बाल्टियों से भिगोना शुरू हुआ. मुझे भी भिगोया गया और मैं भी इसमें पीछे नहीं रहा.
लेकिन भांग और कई लोगों पर दूसरे आधुनिक ढंग का नशा हावी हो चला था. इस बीच बाबू भी पाइप के पानी से भीग चुके थे. मुझे लगा अब होली ख़त्म करने का वक्त आ गया है. लिहाज़ा मैं उनका हाथ पकड़ कर घर की ओर चला. लेकिन कुछ लोगों ने फिर घेर लिया. इस बार का आक्रमण बेहद चौंकाने वाले ढंग से किया गया था और मैं मानसिक रूप से इसके लिए बिलकुल भी तैयार नहीं था.
दरअसल, पाइप से बिखरे पानी से लॉन में पड़ी मिट्टी बेहद गीली और चिकनी हो चली थी. वो कीचड़ का तालाब कइयों के मन को भाने लगा. ये होली का आखिरी दौर था और अब सब को उसमें डुबोने का कार्यक्रम चल निकला था. मुझे भी उसमें शामिल होने के लिए जबरन उठाया गया. जब मैंने देखा कि बचने का कोई चारा नहीं है तो मैं खुशी-खुशी कीचड़ के समुद्र में डूबने को तैयार हो गया. मैंने अपने स्लीपर्स उतारे और इससे पहले कि मुझे कोई घसीटता मैं खुद ही कीचड़ में जाकर लेट गया. एक शख्स ने बहुत प्यार से मुझे अपने कान बंद करने की नसीहत दी और दूसरे ने आँखें ताकि मिट्टी आँख और कान में न चली जाए. फिर हुई ढंग से रगड़ाई. कुछ लोगों ने यह कह कर हौंसला भी बढ़ाया कि घबराने की कोई बात नहीं है- ये मड बाथ है. हर्बल है. फाइव स्टार में इसका बहुत पैसा लगता है. यहाँ हम आपको मुफ्त में ये सेवा दे रहे हैं.
मुझे वाकई बहुत मज़ा आया. अपने गांव की होली याद आ गई. हमारे यहाँ धुलेंडी पर पानी, गीले रंग वगैरह तो होता था लेकिन उसके दो या तीन दिन बाद काछी मोहल्ले वालों की होली देखने का अलग मज़ा आता था. वो नशे में धुत्त हो कर सिर्फ़ कीचड़ में होली खेलते थे. हम दूर से देखते थे. हमें उसमें शामिल होने की मनाही थी. और अब इतने साल बाद कीचड़ में हर्बल होली खेलने का मैंने मज़ा ले लिया.
शुक्र रहा कि महिलाओं और बच्चों की मौजूदगी की वजह से बात कीचड़ होली पर ही ख़त्म हो गई. नहीं तो मेरा मन तो कपड़ा फाड़ होली शुरू करने के लिए भी ललचाने लगा था. वाकई होली ही वो त्यौहार है जिसमें जो जैसा चाहे वैसा कर सकता है. कोई बुरा नहीं मानता.
बुरा न मानो होली है. HAPPY HOLI.
फिर बाबू ने ज़िद पकड़ी तो धीरे-धीरे उसे तैयार किया. पूरी तरह से लैस. अंदर स्वेटर, उस पर बरसाती जो अनुपम ने बेल्जियम से लाकर दी थी. ऊपर से एक पुराना लाल रंग का कुर्ता. बाबू की पिचकारी के लिए दो अलग-अलग बाल्टियों में रंग भी तैयार कर लिए. एक हरा एक लाल. एक प्लेट में दो रंग की गुलाल भी सजा लीं. चंदन का टीका लगाने की भी पूरी तैयारी कर ली.
शास्ताजी फिर पिचकारी लेकर निकल पड़े मैदान में. मैं भी अपने पुराने कपड़ों की तलाश में अलमारी खंगालने लगा. एक पुराना लाल रंग का कुर्ता पकड़ में आया जो कभी सात आठ साल पहले फैब इंडिया से लिया था. अब बदरंग हो चला था. लिहाज़ा उस पर नए रंग चढ़ाने का फैसला किया. एक पुरानी जींस भी मिल गई. यानी अब मैं होली खेलने के लिए पूरी तरह से तैयार था.
बाबू धीरे-धीरे रंग में आते गए. आने-जाने वालों पर पिचकारी से रंग छोड़ा और बदले में किसी ने रंग डाला तो खूब मज़े से लगवा भी लिया. ये कायदे से उनकी पहली होली रही. इससे पहले नाना के घर पर रहते थे और मम्मी के साथ होली के रंगों से बचते रहे.
मुझे भी परिसर में परिचित मिलते रहे. बड़े सम्मान के साथ एक-दूसरे के चेहरों पर गुलाल लगाना और फिर तीन बार गले मिलना. ये तीन बार गले मिलने का फंडा मुझे समझ में नहीं आया. एक बार या दो बार क्यों नहीं तीन बार क्यों. या फिर चार बार क्यों नहीं मिलते गले. बहरहाल, गुलाल का सिलसिला चलता रहा, चेहरा कभी लाल, कभी पीला तो कभी हरा होता रहा. बाल भी जो अब उम्र से पहले ही सफेद हो चले हैं, उन्हें भी अपना रंग बदलने का मौक़ा मिला. आइने में अपनी शक्ल देखी तो अच्छी लगी. चेहरे के रंग दिल के भीतर गहरे तक उतर गए.
फिर समां बदला. जो गले मिल कर गुलाल लगा रहे थे, धीरे-धीरे आक्रामक होते गए. गुलाल की जगह पक्के रंगों ने ले ली. उनकी शिकायत थी बदन पर अब भी कई ऐसे स्पॉट हैं जहाँ रंग नहीं लगा है. गुलाल के रंगों की उनके सामने कोई औकात नहीं थी. उनका कहना था रंग ऐसे लगें जो पक्के हों और कभी न छूटें. यानी मेरे पास मानसिक रूप से इस आक्रमण के लिए तैयार होने के अलावा कोई और चारा नहीं था.
फिर ये आक्रमण धीरे-धीरे हिंसा का रूप लेता गया. सिर्फ पक्के रंग लगाने से ही काम नहीं चला. अब सिलसिला बदल चुका था. अब बारी थी एक-दूसरे को गीला करने की. सूखी होली का दौर ख़त्म हो चला था. अब रंगों से भरी बाल्टियों से भिगोना शुरू हुआ. मुझे भी भिगोया गया और मैं भी इसमें पीछे नहीं रहा.
लेकिन भांग और कई लोगों पर दूसरे आधुनिक ढंग का नशा हावी हो चला था. इस बीच बाबू भी पाइप के पानी से भीग चुके थे. मुझे लगा अब होली ख़त्म करने का वक्त आ गया है. लिहाज़ा मैं उनका हाथ पकड़ कर घर की ओर चला. लेकिन कुछ लोगों ने फिर घेर लिया. इस बार का आक्रमण बेहद चौंकाने वाले ढंग से किया गया था और मैं मानसिक रूप से इसके लिए बिलकुल भी तैयार नहीं था.
दरअसल, पाइप से बिखरे पानी से लॉन में पड़ी मिट्टी बेहद गीली और चिकनी हो चली थी. वो कीचड़ का तालाब कइयों के मन को भाने लगा. ये होली का आखिरी दौर था और अब सब को उसमें डुबोने का कार्यक्रम चल निकला था. मुझे भी उसमें शामिल होने के लिए जबरन उठाया गया. जब मैंने देखा कि बचने का कोई चारा नहीं है तो मैं खुशी-खुशी कीचड़ के समुद्र में डूबने को तैयार हो गया. मैंने अपने स्लीपर्स उतारे और इससे पहले कि मुझे कोई घसीटता मैं खुद ही कीचड़ में जाकर लेट गया. एक शख्स ने बहुत प्यार से मुझे अपने कान बंद करने की नसीहत दी और दूसरे ने आँखें ताकि मिट्टी आँख और कान में न चली जाए. फिर हुई ढंग से रगड़ाई. कुछ लोगों ने यह कह कर हौंसला भी बढ़ाया कि घबराने की कोई बात नहीं है- ये मड बाथ है. हर्बल है. फाइव स्टार में इसका बहुत पैसा लगता है. यहाँ हम आपको मुफ्त में ये सेवा दे रहे हैं.
मुझे वाकई बहुत मज़ा आया. अपने गांव की होली याद आ गई. हमारे यहाँ धुलेंडी पर पानी, गीले रंग वगैरह तो होता था लेकिन उसके दो या तीन दिन बाद काछी मोहल्ले वालों की होली देखने का अलग मज़ा आता था. वो नशे में धुत्त हो कर सिर्फ़ कीचड़ में होली खेलते थे. हम दूर से देखते थे. हमें उसमें शामिल होने की मनाही थी. और अब इतने साल बाद कीचड़ में हर्बल होली खेलने का मैंने मज़ा ले लिया.
शुक्र रहा कि महिलाओं और बच्चों की मौजूदगी की वजह से बात कीचड़ होली पर ही ख़त्म हो गई. नहीं तो मेरा मन तो कपड़ा फाड़ होली शुरू करने के लिए भी ललचाने लगा था. वाकई होली ही वो त्यौहार है जिसमें जो जैसा चाहे वैसा कर सकता है. कोई बुरा नहीं मानता.
बुरा न मानो होली है. HAPPY HOLI.
Sunday, February 28, 2010
विपक्षी एकता- सरकार की परेशानी
It seems it was only yesterday. The results for the Lok Sabha elections were out and the Congress got more than 200 seats but fell short of the magic figure of 272.
But, today, it is behaving as if it has managed to get more than 300 seats. The budget presented by Pranab Mukharjee is one such example. It behaved in a manner as if there is no tomorrow and this government is going to last not for 5 but 50 years. What was more shocking that a party which came to power, promising better life for "aam aadmi" has done gross injustice to their interests.
Entire opposition walked out when Mr. Mukharjee announced that the government is restoring the duty cuts announced on petro products. Congress spokesmen and also some newspapers rediculed opposition's move by saying that it was undemocratic and also against the norms of parliamentary democracy.
I pity them. In democracy, it is right of the opposition parties to oppose the government on its wrong policies. It was not one political party but entire opposition which was united in opposing government's anti people move. I think the opposition was absolutely right in walking out of the house. If the biggest temple of democracy cannot protect interests of the aam aadmi then who will do it?
I also see a silver lining in the opposition unity. They may have come together keeping their own little political interests in mind, but as a pressure group they can force the government to rethink its decisions. Moreover, the parties which are part of the government are also opposing price hike.
Now there is a plan to hold one day long Bharat Band against the rise in the prices of the petroleum products. If it materalises, it would be a grand step in the direction of fortifying opposition unity and this will only increase problems for the government. Only then, I think the Congress can show some reasoning and stop behaving in an arrogant manner, in which they have been behaving since the day they came to power.
But, today, it is behaving as if it has managed to get more than 300 seats. The budget presented by Pranab Mukharjee is one such example. It behaved in a manner as if there is no tomorrow and this government is going to last not for 5 but 50 years. What was more shocking that a party which came to power, promising better life for "aam aadmi" has done gross injustice to their interests.
Entire opposition walked out when Mr. Mukharjee announced that the government is restoring the duty cuts announced on petro products. Congress spokesmen and also some newspapers rediculed opposition's move by saying that it was undemocratic and also against the norms of parliamentary democracy.
I pity them. In democracy, it is right of the opposition parties to oppose the government on its wrong policies. It was not one political party but entire opposition which was united in opposing government's anti people move. I think the opposition was absolutely right in walking out of the house. If the biggest temple of democracy cannot protect interests of the aam aadmi then who will do it?
I also see a silver lining in the opposition unity. They may have come together keeping their own little political interests in mind, but as a pressure group they can force the government to rethink its decisions. Moreover, the parties which are part of the government are also opposing price hike.
Now there is a plan to hold one day long Bharat Band against the rise in the prices of the petroleum products. If it materalises, it would be a grand step in the direction of fortifying opposition unity and this will only increase problems for the government. Only then, I think the Congress can show some reasoning and stop behaving in an arrogant manner, in which they have been behaving since the day they came to power.
शौचालय किसके उपयोग के लिये?
वैसे मुझे लगता है कि मेरी हिंदी ठीक-ठाक है. लेकिन मैं एक टॉयलेट पर लगे इस नोटिस को समझ नहीं पाया हूँ. शौचालय सिर्फ कार्यालय उपयोग के लिये. क्या इसका मतलब यह है कि इस शौचालय में सिर्फ़ कार्यालय का ही काम हो सकता है या फिर कार्यालय के लोग ही इसका उपयोग कर सकते हैं. आप भी अपना दिमाग लगायें और मुझे बतायें कि इसका क्या मतलब है.
Monday, February 22, 2010
कितना बदल गया इंदौर-2
"ऐसा हैगा. अपन तो शहर के बाहर का हैं. पर आप जिनी रोड पर चली रिया हो उन्हीं पे नाक की सीध में सीद्दा निकल जाओ. एबी रोड आ जावेगो."
कानों में मिश्री की तरह घुलती मालवी. अनजाने होकर भी उस अजनबी ने दिल जीत लिया. बात सही तो कही. अगर नाक की सीध में चलते रहोगे तो मंज़िल तक तो पहुँच ही जाना है. अब ये ज़रूर है कि नाक आँखों के साथ ही दायें-बायें घूमती रहती हैं. लेकिन इंदौरी नाक कई मंज़िल बताती है।
नमकीन की महक, मुंगेड़े, कचौरी और समोसे जिनके मसालों का कोई जोड़ नहीं, दिल्ली की तरह नहीं सिर्फ़ आलू ही आलू ढूंस कर भर दिए हों. दिल्ली से भी जो ढेरों पत्रकार मित्र इंदौर गए सबने खाने की जमकर तारीफ की. वैसे उन्हें खाने-पीने में ज़्यादा हाथ आज़माने का मौक़ा नहीं मिला. लेकिन जो मिला उसी में भरपूर चटखारे ले ले कर खाया-पिया और सच्चे दिल से इंदौरी खाने को दाद दी.
लेकिन ये नाक कुछ और भी सूंघती है. शहर के मेन रोडों के आस-पास शराब की दुकानें कुकुर मुत्तों की तरह उग आई हैं. यानी ठेके जमकर बाँटे जा रहे हैं. दुकानें खोली जा रही हैं. जो इंदौर में पहले नज़ारे आम नहीं थे अब दिन-दहाड़े दिखने लगे हैं. लोग शाम होते ही सड़क के किनारे ही देशी-विदेशी शराब खोल कर खड़े हो जाते हैं. ये नज़ारे शहर के सबसे पॉश इलाक़ों में भी दिखते हैं और ग़रीब इलाक़ों में भी.
इंदौर में ही था तब मनोहर लिंबोदियाजी ने बताया कि शायद राज्य के इतिहास में पहली बार हुआ है कि सिर्फ़ 63 दिनों में एक हत्या के मुकदमे का फैसला हो गया. मैंने उत्सुकता से पूछा किसकी हत्या किसका मुकदमा कैसा फैसला. उन्होंने बताया सिर्फ़ एक साल के बच्चे की एक सड़कछाप गुंडे ने गोली मार कर हत्या कर दी थी. पूरे शहर में हंगामा हुआ. सारे इंदौरी एकजुट हो गए. पुलिस अदालत सब पर दबाव पड़ा और इतनी जल्दी मामले का निपटारा हुआ और गुंडे को फांसी हो गई.
बात यूँ थी कि इस गुंडे ने पी शराब. शराब के नशे में धुत हो कर बोला आज तो किसी का खून करना है. तभी तो मोहल्ले में उसकी रंगदारी बनी रहती. निकला तो सामने दिखा एक मासूम जो अपने नाना की गोद में था. नाना घर के बाहर एक दुकान पर बैठे थे. गुंडे ने जाकर सीधे इस मासूम की कनपटी पर रखी रिवॉल्वर और नाना के रोके-रोके नहीं रूका. ट्रिगर दबाया और एक साल का बच्चा वहीं मर गया.
ऐसा नहीं है इंदौर में पहले अपराध नहीं होते थे. मिनी मुंबई वैसे ही नहीं कहलाता है इंदौर. लेकिन अब अपराधों की श्रेणियाँ बदलती दिख रही हैं. क्या इंदौर क्या भोपाल. सड़क चलती गाड़ी में युवती से बलात्कार जैसी सुर्खियाँ इंदौर-भोपाल के अखबारों में दिखे तो मध्य प्रदेश के हाल पर रोना ही आएगा न.
शराब के बढ़ते ठेके, मोहल्लों में गुंडागर्दी और रंगदारी के नाम पर मासूम का खून, सड़कों पर बलात्कार. ये सब नई संस्कृति है जो मालवा की संस्कृति से ज़रा भी मेल नहीं खाती. अपरिचित महिलाओं को भी आदर की नज़र से देखना या फिर कई बार तो नज़र उठा कर देखना भी नहीं. लगता है धीरे-धीरे सब खोता जा रहा है. बड़े लोगों से बात करो तो वो सीधा कसूर टेलीविज़न पर डाल देते हैं. लेकिन क्या कसूर सिर्फ़ टीवी का ही है या बात कुछ और है.
मालवा के बारे में कहते हैं "मालव धरती गहन गंभीर, पग-पग रोटी,डग-डग नीर" लेकिन मालवा की ज़मीन में पानी घटता जा रहा है. मुझे तो चिंता दूसरी बात की है. कहीं हमारी आँखों का पानी भी न घट जाए.
कानों में मिश्री की तरह घुलती मालवी. अनजाने होकर भी उस अजनबी ने दिल जीत लिया. बात सही तो कही. अगर नाक की सीध में चलते रहोगे तो मंज़िल तक तो पहुँच ही जाना है. अब ये ज़रूर है कि नाक आँखों के साथ ही दायें-बायें घूमती रहती हैं. लेकिन इंदौरी नाक कई मंज़िल बताती है।
नमकीन की महक, मुंगेड़े, कचौरी और समोसे जिनके मसालों का कोई जोड़ नहीं, दिल्ली की तरह नहीं सिर्फ़ आलू ही आलू ढूंस कर भर दिए हों. दिल्ली से भी जो ढेरों पत्रकार मित्र इंदौर गए सबने खाने की जमकर तारीफ की. वैसे उन्हें खाने-पीने में ज़्यादा हाथ आज़माने का मौक़ा नहीं मिला. लेकिन जो मिला उसी में भरपूर चटखारे ले ले कर खाया-पिया और सच्चे दिल से इंदौरी खाने को दाद दी.
लेकिन ये नाक कुछ और भी सूंघती है. शहर के मेन रोडों के आस-पास शराब की दुकानें कुकुर मुत्तों की तरह उग आई हैं. यानी ठेके जमकर बाँटे जा रहे हैं. दुकानें खोली जा रही हैं. जो इंदौर में पहले नज़ारे आम नहीं थे अब दिन-दहाड़े दिखने लगे हैं. लोग शाम होते ही सड़क के किनारे ही देशी-विदेशी शराब खोल कर खड़े हो जाते हैं. ये नज़ारे शहर के सबसे पॉश इलाक़ों में भी दिखते हैं और ग़रीब इलाक़ों में भी.
इंदौर में ही था तब मनोहर लिंबोदियाजी ने बताया कि शायद राज्य के इतिहास में पहली बार हुआ है कि सिर्फ़ 63 दिनों में एक हत्या के मुकदमे का फैसला हो गया. मैंने उत्सुकता से पूछा किसकी हत्या किसका मुकदमा कैसा फैसला. उन्होंने बताया सिर्फ़ एक साल के बच्चे की एक सड़कछाप गुंडे ने गोली मार कर हत्या कर दी थी. पूरे शहर में हंगामा हुआ. सारे इंदौरी एकजुट हो गए. पुलिस अदालत सब पर दबाव पड़ा और इतनी जल्दी मामले का निपटारा हुआ और गुंडे को फांसी हो गई.
बात यूँ थी कि इस गुंडे ने पी शराब. शराब के नशे में धुत हो कर बोला आज तो किसी का खून करना है. तभी तो मोहल्ले में उसकी रंगदारी बनी रहती. निकला तो सामने दिखा एक मासूम जो अपने नाना की गोद में था. नाना घर के बाहर एक दुकान पर बैठे थे. गुंडे ने जाकर सीधे इस मासूम की कनपटी पर रखी रिवॉल्वर और नाना के रोके-रोके नहीं रूका. ट्रिगर दबाया और एक साल का बच्चा वहीं मर गया.
ऐसा नहीं है इंदौर में पहले अपराध नहीं होते थे. मिनी मुंबई वैसे ही नहीं कहलाता है इंदौर. लेकिन अब अपराधों की श्रेणियाँ बदलती दिख रही हैं. क्या इंदौर क्या भोपाल. सड़क चलती गाड़ी में युवती से बलात्कार जैसी सुर्खियाँ इंदौर-भोपाल के अखबारों में दिखे तो मध्य प्रदेश के हाल पर रोना ही आएगा न.
शराब के बढ़ते ठेके, मोहल्लों में गुंडागर्दी और रंगदारी के नाम पर मासूम का खून, सड़कों पर बलात्कार. ये सब नई संस्कृति है जो मालवा की संस्कृति से ज़रा भी मेल नहीं खाती. अपरिचित महिलाओं को भी आदर की नज़र से देखना या फिर कई बार तो नज़र उठा कर देखना भी नहीं. लगता है धीरे-धीरे सब खोता जा रहा है. बड़े लोगों से बात करो तो वो सीधा कसूर टेलीविज़न पर डाल देते हैं. लेकिन क्या कसूर सिर्फ़ टीवी का ही है या बात कुछ और है.
मालवा के बारे में कहते हैं "मालव धरती गहन गंभीर, पग-पग रोटी,डग-डग नीर" लेकिन मालवा की ज़मीन में पानी घटता जा रहा है. मुझे तो चिंता दूसरी बात की है. कहीं हमारी आँखों का पानी भी न घट जाए.
Sunday, February 21, 2010
कितना बदल गया इंदौर-1
सर्राफ़े की गलियाँ, राजबाड़ा का आँगन सब कुछ है. सुबह-सुबह मंदिर की घंटियाँ हैं.सड़कों के किनारे लगे फूलों के ढेर हैं. अगरबत्तियों की खुशबू है. घर के बाहर ताज़ी सब्ज़ियों की आवाज़ लगाते मोबाइल वेजीटेबल शॉपकीपर. जिनके ठेलों पर मंडियों से आए ताज़े टमाटर, मटर, फूलगोभी,कोथमीर वगैरह-वगैरह अपनी खुशबू और ताज़गी से दूर से ही खींचते हैं.नगर सेवाओं के लिए लगी भीड़ और सड़कों पर चलते वक्त कंधे से कंधे टकराते हुए. बाइक चलाते लोग ऐसी सफाई से गाड़ी मोड़ते हैं कि हॉलीवुड का बड़ा से बड़ा स्टंटमैन भी शर्म से लाल हो जाए. लाल बत्तियों पर कारों की भीड़ के बीच दाँतों के बीच फंसे खाने के टुकड़े जैसे साइकल वाले. जो कब कहाँ घूम जाए इसकी भविष्यवाणी बड़े से बड़ा ज्योतिषी भी नहीं कर सकता.
ये मेरा इंदौर है. ये नज़ारे जो ऊपर बयां किए ये पंद्रह साल पहले के भी थे और आज के भी.
लेकिन इंदौर बदल गया है.
सड़कों पर अब फिएट कम और दूसरी बड़ी कंपनियों की बी सी ग्रेड की गाड़ियाँ ज़्यादा दिखती है्ं. एसयूवी का ज़माना आ गया है. अपनी औकात दिखाने के लिए लोग अब बड़ी गाड़ियों में घूमने लगे हैं. सड़कों को चौड़ा कर दिया गया है. लेकिन गाड़ियाँ इनमें नहीं समाती. इसलिए इनके बढ़ते आकार को जगह देने के लिए मोटर साइकल, स्कूटर और साइकल वालों को कभी फुटपाथ पर तो कभी नालियों में घुसना पड़ता है.
और आ गई है मॉल कल्चर. मैं जिस होटल में रूका था वो एक मॉल में बना है. पंद्रह साल पहले उस जगह क्या था मुझे पता नहीं. लेकिन कम से कम कोई मॉल तो नहीं था. मोबाइल का चार्जर खराब हो गया तो इसी मॉल में लेने के लिए जाना पड़ा. सुबह-सुबह ही लड़के-लड़कियों के जोड़े मॉल में अपनी हाज़िरी देने पहुँच गए थे. क्या इंदौर क्या दिल्ली. सारे मॉल की एक जैसी कहानी.
हाँ, लेकिन अब भी प्रेमियों के जोड़े बाइक या स्कूटर पर जोड़े बना कर ही घूमते हैं. जैसे पहले घूमा करते थे. जोड़े मतलब ये नहीं कि प्रेमी बाइक चला रहा है और पीछे बैठी नकाबपोश प्रेमिका का दुपट्टा हवा में लहलहा रहा हो. बल्कि प्रेमी अपनी बाइक पर और प्रेमिका अपने स्कूटर पर. दोनों जोड़े बना कर सड़क पर चलते हैं. फिर कहीं, छप्पन दुकान या किसी मॉल के अगल-बगल में सड़क के किनारे गाड़ियां लगा कर गपशप की फिर निकल लिए जोड़े बना कर अपने-अपने घर.
ये इंदौर है. बदल गया है. लेकिन इसका बदला रंग-ढंग देखना हो तो एबी रोड पर बने बायपास पर जाइए. नई-नई टाउनशिप बन रही हैं. मिल का जो इलाका रात में सुनसान हो जाता था और जहाँ लोग जाने से घबराते थे, अब हॉट प्रापर्टी का ठिकाना है. एक बैडरूम, दो बैडरूम, डुप्ले सब कुछ मिल रहा है. शहर की पहचान बदल गई है. सड़कों पर लगे होर्डिंग में अब प्रापर्टी के विज्ञापन ज्यादा हैं. ये मध्य प्रदेश का एज्यूकेशन हब है. इसलिए पहले की तरह तमाम तरह की शिक्षा जिसमें कंप्यूटर, ज्योतिष, व्यक्तित्व निखारने से लेकर टीवी एंकरिंग के होर्डिंग भी दिख जाते हैं. लेकिन प्रापर्टी के विज्ञापनों ने सबको ढंक लिया है.
बड़े-बड़े चौराहे, लाल बत्तियों पर रुकते लोग, चौड़ी पक्की और मज़बूत सड़कें. अब गाड़ियों में चलते वक्त ज़्यादा दचके नहीं लगते. वाकई बदल गया है इंदौर.
लेकिन लोगों की गर्मजोशी पहले की तरह बरकरार है. हर कोई तपाक से मिलता है. प्रेम से बात करता है. दिल्ली की तरह तू-तड़ाक नहीं बल्कि पुलिसवाला भी आदर से बात करेगा. साब-साब से नीचे कोई बात नहीं. 'यार अपन तो इंदोरी है' कहने वालों की कमी नहीं. हर कोई हर तरह से मदद करने को तैयार. पोहे-जलेबी, दाल-बाफले की पेशकश करने वाले मिल जाएंगे. शहर के लोगों की प्रोफाइल चाहे बदली हो. अब बाहर से ज्यादा लोग आ रहे हैं. फिर भी, इंदौर के मिज़ाज़ में कोई तब्दीली नहीं.
भगवान करे. मॉल और प्रापर्टी की इस अंधी दौड़ में हमारी इंदौरी कल्चर बची रहे.
ये मेरा इंदौर है. ये नज़ारे जो ऊपर बयां किए ये पंद्रह साल पहले के भी थे और आज के भी.
लेकिन इंदौर बदल गया है.
सड़कों पर अब फिएट कम और दूसरी बड़ी कंपनियों की बी सी ग्रेड की गाड़ियाँ ज़्यादा दिखती है्ं. एसयूवी का ज़माना आ गया है. अपनी औकात दिखाने के लिए लोग अब बड़ी गाड़ियों में घूमने लगे हैं. सड़कों को चौड़ा कर दिया गया है. लेकिन गाड़ियाँ इनमें नहीं समाती. इसलिए इनके बढ़ते आकार को जगह देने के लिए मोटर साइकल, स्कूटर और साइकल वालों को कभी फुटपाथ पर तो कभी नालियों में घुसना पड़ता है.
और आ गई है मॉल कल्चर. मैं जिस होटल में रूका था वो एक मॉल में बना है. पंद्रह साल पहले उस जगह क्या था मुझे पता नहीं. लेकिन कम से कम कोई मॉल तो नहीं था. मोबाइल का चार्जर खराब हो गया तो इसी मॉल में लेने के लिए जाना पड़ा. सुबह-सुबह ही लड़के-लड़कियों के जोड़े मॉल में अपनी हाज़िरी देने पहुँच गए थे. क्या इंदौर क्या दिल्ली. सारे मॉल की एक जैसी कहानी.
हाँ, लेकिन अब भी प्रेमियों के जोड़े बाइक या स्कूटर पर जोड़े बना कर ही घूमते हैं. जैसे पहले घूमा करते थे. जोड़े मतलब ये नहीं कि प्रेमी बाइक चला रहा है और पीछे बैठी नकाबपोश प्रेमिका का दुपट्टा हवा में लहलहा रहा हो. बल्कि प्रेमी अपनी बाइक पर और प्रेमिका अपने स्कूटर पर. दोनों जोड़े बना कर सड़क पर चलते हैं. फिर कहीं, छप्पन दुकान या किसी मॉल के अगल-बगल में सड़क के किनारे गाड़ियां लगा कर गपशप की फिर निकल लिए जोड़े बना कर अपने-अपने घर.
ये इंदौर है. बदल गया है. लेकिन इसका बदला रंग-ढंग देखना हो तो एबी रोड पर बने बायपास पर जाइए. नई-नई टाउनशिप बन रही हैं. मिल का जो इलाका रात में सुनसान हो जाता था और जहाँ लोग जाने से घबराते थे, अब हॉट प्रापर्टी का ठिकाना है. एक बैडरूम, दो बैडरूम, डुप्ले सब कुछ मिल रहा है. शहर की पहचान बदल गई है. सड़कों पर लगे होर्डिंग में अब प्रापर्टी के विज्ञापन ज्यादा हैं. ये मध्य प्रदेश का एज्यूकेशन हब है. इसलिए पहले की तरह तमाम तरह की शिक्षा जिसमें कंप्यूटर, ज्योतिष, व्यक्तित्व निखारने से लेकर टीवी एंकरिंग के होर्डिंग भी दिख जाते हैं. लेकिन प्रापर्टी के विज्ञापनों ने सबको ढंक लिया है.
बड़े-बड़े चौराहे, लाल बत्तियों पर रुकते लोग, चौड़ी पक्की और मज़बूत सड़कें. अब गाड़ियों में चलते वक्त ज़्यादा दचके नहीं लगते. वाकई बदल गया है इंदौर.
लेकिन लोगों की गर्मजोशी पहले की तरह बरकरार है. हर कोई तपाक से मिलता है. प्रेम से बात करता है. दिल्ली की तरह तू-तड़ाक नहीं बल्कि पुलिसवाला भी आदर से बात करेगा. साब-साब से नीचे कोई बात नहीं. 'यार अपन तो इंदोरी है' कहने वालों की कमी नहीं. हर कोई हर तरह से मदद करने को तैयार. पोहे-जलेबी, दाल-बाफले की पेशकश करने वाले मिल जाएंगे. शहर के लोगों की प्रोफाइल चाहे बदली हो. अब बाहर से ज्यादा लोग आ रहे हैं. फिर भी, इंदौर के मिज़ाज़ में कोई तब्दीली नहीं.
भगवान करे. मॉल और प्रापर्टी की इस अंधी दौड़ में हमारी इंदौरी कल्चर बची रहे.
Monday, February 15, 2010
मेरी पहली कविता
मैं शून्य में देखता हुआ...
निर्विकार, निरंतर..
कभी हाथों की लकीरों को...
अपने मस्तिष्क पटल पर...
इन्हें इधर से उधर खींचता हुआ...
ये यहां से वहां चली जाये...
तो सुनहरा भविष्य दिखे...
लकीरें बेहद गहरी हैं...
न इधर जाती हैं न उधर...
वर्षों से हाथों पर जमी हैं...
जैसे ज़िद्दी धूल जो फर्श से मिटती नहीं...
विचार, आचार, व्यवहार...
सब इससे ही बंधे हैं...
कभी आता है गुस्सा...
तो कभी दया भी आती है...
लेकिन आत्मदया कायरता की निशानी है...
इसलिए अब छोड़ दिया है इस बारे में सोचना...
लकीरों को इधर से उधर हिलाना...
निर्विकार, निरंतर..
कभी हाथों की लकीरों को...
अपने मस्तिष्क पटल पर...
इन्हें इधर से उधर खींचता हुआ...
ये यहां से वहां चली जाये...
तो सुनहरा भविष्य दिखे...
लकीरें बेहद गहरी हैं...
न इधर जाती हैं न उधर...
वर्षों से हाथों पर जमी हैं...
जैसे ज़िद्दी धूल जो फर्श से मिटती नहीं...
विचार, आचार, व्यवहार...
सब इससे ही बंधे हैं...
कभी आता है गुस्सा...
तो कभी दया भी आती है...
लेकिन आत्मदया कायरता की निशानी है...
इसलिए अब छोड़ दिया है इस बारे में सोचना...
लकीरों को इधर से उधर हिलाना...
Sunday, February 14, 2010
लो कर लो बात!
मनमोहन सिंह सीधे-सच्चे और सरल दिल के व्यक्ति हैं. वो पेशे से नेता नहीं नौकरशाह हैं. लिहाज़ा वो बिना लाग-लपेट कर खुले और संतुलित ढंग से अपनी बातें सामने रखते हैं. लेकिन बतौर प्रधानमंत्री उनकी अपनी कुछ महत्वाकांक्षायें भी हैं. वो सच्चे देशभक्त हैं और चाहते हैं कि उन्हें भारत को विकसित देशों की श्रेणी में रखने के लक्ष्य को पूरा करने वाले व्यक्ति के तौर पर याद रखा जाए.
लेकिन उन्हें लक्ष्य को पूरा करने में भारत के मौजूदा हाल में तीन समस्यायें नज़र आती हैं. वो हैं ऊर्जा (बिजली), शिक्षा और पाकिस्तान. ऊर्जा के लिए तो उन्होंने अमेरिका के साथ परमाणु करार कर लिया. शिक्षा के क्षेत्र में चूंकि पिछले पाँच साल में अर्जुन सिंह के रहते कुछ नहीं कर पाए इसलिए दूसरी पारी में कमान सौंपी है तेज़-तर्रार कपिल सिब्बल को. सिब्बल उनके बेहद करीबी हैं. वो इतनी तेज़ी से भागे कि कहने लगे कि मैंने पूरे पाँच साल का काम सिर्फ 100 दिन में कर लिया अब बाकी दिनों में क्या करना है.
लेकिन पाकिस्तान के मसले पर मनमोहन सिंह चाह कर भी बहुत कुछ नहीं कर पाए हैं. कोशिश बहुत की थी. मुंबई हमलों में पाकिस्तान का सीधा हाथ होने के बावजूद शर्म अल शेख में साझा बयान जारी कर दिया. कह दिया कि बातचीत शुरू की जाएगी. यहां तक कि पहली बार किसी साझा बयान में बलूचिस्तान का ज़िक्र आया. पाकिस्तान ने इसे अपनी जीत बताया.
शर्म अल शेख की शर्म को महसूस करते ही थोड़ी बहुत सफाई दे कर मामले को रफा-दफा कर दिया गया. अब हालत ये है कि पाकिस्तान से बातचीत का पक्ष न रखने वाले एम के नारायणन को रिटायर कर दिया गया है और शर्म अल शेख के साझा बयान को ड्राफ्टिंग की गलती बताने वाले शिवशंकर मेनन को नया राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार बना दिया गया है.फिर समय का चक्र तेज़ी से घूमा. मंत्रियों के बयान आए और सचिव स्तर की बातचीत शुरू करने की घोषणा भी कर दी गई. अब ये 25 फरवरी को दिल्ली में होनी है.
भारत कहता रहा है कि जब तक पाकिस्तान अपनी जमीन पर चलने वाली आतंकवादी गतिविधियों पर रोक नहीं लगता और मु्ंबई हमलों के लिए ज़िम्मेदार लोगों पर कार्रवाई नहीं करता तब तक बातचीत का कोई मतलब नहीं है. भारत ने बातचीत शुरू करने की घोषणा ऐसे वक्त कि जब पाकिस्तान के कब्जे वाले कश्मीर के मुज़फ्फराबाद में आतंकवादियों ने भारत के खिलाफ तथाकथित जेहाद जारी रखने का एलान किया. पाकिस्तान के प्रधानमंत्री गिलानी ने कहा कि अंतरराष्ट्रीय दबाव की वजह से भारत बातचीत के लिए मजबूर हो रहा है. लाल कृष्ण आडवाणी ने तो सीधे अमेरिका का नाम लिया और कहा कि अमेरिकी दबाव के चलते भारत बातचीत कर रहा है.
अब भारत कह रहा है आतंकवाद पर बातचीत होगी. पाकिस्तान कहता है कश्मीर पर बातचीत होगी. चिदंबरम कहते हैं पीओके भारत का हिस्सा है और वहां गए लड़कों के वापस आने पर सरकार को कोई एतराज़ नहीं है. शिवशंकर मेनन ने एनएसए बनने से तीन दिन पहले लिखे एक लेख में कहा कि बातचीत के अलावा कोई विकल्प नहीं है.
सही बात है. हम कहते हैं आतंकवाद पर बात करो. पाकिस्तान कहता है कश्मीर पर बात करो. तो बातचीत क्या होगी. ज़ाहिर है धरती के बढ़ते तापमान या बीटी बैंगन पर तो हम बात करने से रहे. भारत और पाकिस्तान के बीच ये विवाद के विषय नहीं हैं. असली विवाद है सीमा का.
लेकिन विपक्षी दलों को चिंता सता रही है कि भारत कहीं अपनी सीमा पर ही समझौता न कर बैठे. मनमोहन सिंह की तारीफ तो वो भी करते हैं लेकिन उन्हें डर लगता है कि कहीं जम्मू-कश्मीर, पाकिस्तान के कब्जे वाले कश्मीर और जम्मू के मुस्लिम बहुल इलाकों के साझा प्रशासन की बात मंजूर न कर ली जाए. बीजेपी कहती है इस दिशा में कोशिशें चल रही हैं. कश्मीर को ऑटोनॉमी देने की बात करने वाली जस्टिस सगीर अहमद की रिपोर्ट पहले ही मंगवा ली गई है. उसका ये भी आरोप है कि इस रिपोर्ट को आनन-फानन में बनाया गया और इस पर समिति के सदस्यों से राय तक नहीं ली गई.
सरकार कहती है बातचीत के अलावा कोई विकल्प नहीं है. लेकिन बीजेपी का मानना है कि बातचीत न करना भी विकल्प है. यानी यथास्थिति बनाए रखना. सरकार को डर ये था कि मुंबई हमलों के बाद अगर कोई आतंकवादी हमला होता है और पाकिस्तान से बातचीत न हो रही हो तो फिर सैनिक कार्रवाई की धमकी देने के अलावा कोई और विकल्प नहीं बचता. कम से कम बातचीत अगर कर रहे हो तो उसे बंद करने की धमकी तो दे ही सकते हैं. यानी सरकार भी ये मानती है कि पाकिस्तान से बातचीत हो या न हो, भारत में आतंकवादी गतिविधियों पर रोक-थाम करना बेहद मुश्किल काम है क्योंकि पाकिस्तान के राजनीतिक नेतृत्व में न तो कोई दम है और न ही कोई इच्छा शक्ति कि वो भारत के खिलाफ हो रहे हमलों को रोके.
और अब पुणे में जर्मन बेकरी पर हो गया है बम विस्फोट. बातचीत शुरू होने से पहले ही. कुछ जानकार कह रहे हैं ये बातचीत को रोकने के लिेए किया गया है. यानी आतंकवादी भी नहीं चाहते हैं कि भारत पाकिस्तान बातचीत करें. शक की सुई लश्कर ए तैय्यबा पर है क्योंकि डेविड हेडली पुणे में रेकी करके गया था. विस्फोट के तरीके और विस्फोटकों के इस्तेमाल पर भी लश्कर की छाप दिख रही है. यानी फिर से पाकिस्तान पर उंगुली उठेगी. फिर सवाल उठेगा क्या हासिल होगा बातचीत करके.
इसलिए राहुल गांधी की एक बात बड़ी अच्छी लगी. कई बार वो दिमाग से नहीं दिल से बोलते हैं. उन्होंने कहा कि हम पाकिस्तान को बहुत ज़्यादा अहमियत देते हैं. उसकी ज़रूरत नहीं है. बिलकुल सही बात है. पाकिस्तान हमारे लिए अब दस साल पुरानी कहानी है. अब हमें पाकिस्तान की नहीं चीन की बात करनी चाहिए. बात करना है तो कर लो. लेकिन ये बात ध्यान में रख कर कि पाकिस्तान हमारी बराबरी पर नहीं है. हमारी उससे होड़ नहीं है. वो पड़ोस का एक नादान बच्चा है जो कई बार पार्किंग में खड़ी गाड़ी पर स्क्रेच कर चला जाता है तो कभी वाइपर तोड़ देता है. बच्चे से क्या बात करनी. उसकी शरारतों के लिए उसके बाप से बात करनी चाहिए. लेकिन उसके बाप हमें भी बच्चा ही मानते हैं और इसीलिए हमें पहली ज़रूरत उसके बाप से आंख से आंख मिला कर बात करने की हिम्मत पैदा करने की है. सुन रहे हैं अंकल सैम.
लेकिन उन्हें लक्ष्य को पूरा करने में भारत के मौजूदा हाल में तीन समस्यायें नज़र आती हैं. वो हैं ऊर्जा (बिजली), शिक्षा और पाकिस्तान. ऊर्जा के लिए तो उन्होंने अमेरिका के साथ परमाणु करार कर लिया. शिक्षा के क्षेत्र में चूंकि पिछले पाँच साल में अर्जुन सिंह के रहते कुछ नहीं कर पाए इसलिए दूसरी पारी में कमान सौंपी है तेज़-तर्रार कपिल सिब्बल को. सिब्बल उनके बेहद करीबी हैं. वो इतनी तेज़ी से भागे कि कहने लगे कि मैंने पूरे पाँच साल का काम सिर्फ 100 दिन में कर लिया अब बाकी दिनों में क्या करना है.
लेकिन पाकिस्तान के मसले पर मनमोहन सिंह चाह कर भी बहुत कुछ नहीं कर पाए हैं. कोशिश बहुत की थी. मुंबई हमलों में पाकिस्तान का सीधा हाथ होने के बावजूद शर्म अल शेख में साझा बयान जारी कर दिया. कह दिया कि बातचीत शुरू की जाएगी. यहां तक कि पहली बार किसी साझा बयान में बलूचिस्तान का ज़िक्र आया. पाकिस्तान ने इसे अपनी जीत बताया.
शर्म अल शेख की शर्म को महसूस करते ही थोड़ी बहुत सफाई दे कर मामले को रफा-दफा कर दिया गया. अब हालत ये है कि पाकिस्तान से बातचीत का पक्ष न रखने वाले एम के नारायणन को रिटायर कर दिया गया है और शर्म अल शेख के साझा बयान को ड्राफ्टिंग की गलती बताने वाले शिवशंकर मेनन को नया राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार बना दिया गया है.फिर समय का चक्र तेज़ी से घूमा. मंत्रियों के बयान आए और सचिव स्तर की बातचीत शुरू करने की घोषणा भी कर दी गई. अब ये 25 फरवरी को दिल्ली में होनी है.
भारत कहता रहा है कि जब तक पाकिस्तान अपनी जमीन पर चलने वाली आतंकवादी गतिविधियों पर रोक नहीं लगता और मु्ंबई हमलों के लिए ज़िम्मेदार लोगों पर कार्रवाई नहीं करता तब तक बातचीत का कोई मतलब नहीं है. भारत ने बातचीत शुरू करने की घोषणा ऐसे वक्त कि जब पाकिस्तान के कब्जे वाले कश्मीर के मुज़फ्फराबाद में आतंकवादियों ने भारत के खिलाफ तथाकथित जेहाद जारी रखने का एलान किया. पाकिस्तान के प्रधानमंत्री गिलानी ने कहा कि अंतरराष्ट्रीय दबाव की वजह से भारत बातचीत के लिए मजबूर हो रहा है. लाल कृष्ण आडवाणी ने तो सीधे अमेरिका का नाम लिया और कहा कि अमेरिकी दबाव के चलते भारत बातचीत कर रहा है.
अब भारत कह रहा है आतंकवाद पर बातचीत होगी. पाकिस्तान कहता है कश्मीर पर बातचीत होगी. चिदंबरम कहते हैं पीओके भारत का हिस्सा है और वहां गए लड़कों के वापस आने पर सरकार को कोई एतराज़ नहीं है. शिवशंकर मेनन ने एनएसए बनने से तीन दिन पहले लिखे एक लेख में कहा कि बातचीत के अलावा कोई विकल्प नहीं है.
सही बात है. हम कहते हैं आतंकवाद पर बात करो. पाकिस्तान कहता है कश्मीर पर बात करो. तो बातचीत क्या होगी. ज़ाहिर है धरती के बढ़ते तापमान या बीटी बैंगन पर तो हम बात करने से रहे. भारत और पाकिस्तान के बीच ये विवाद के विषय नहीं हैं. असली विवाद है सीमा का.
लेकिन विपक्षी दलों को चिंता सता रही है कि भारत कहीं अपनी सीमा पर ही समझौता न कर बैठे. मनमोहन सिंह की तारीफ तो वो भी करते हैं लेकिन उन्हें डर लगता है कि कहीं जम्मू-कश्मीर, पाकिस्तान के कब्जे वाले कश्मीर और जम्मू के मुस्लिम बहुल इलाकों के साझा प्रशासन की बात मंजूर न कर ली जाए. बीजेपी कहती है इस दिशा में कोशिशें चल रही हैं. कश्मीर को ऑटोनॉमी देने की बात करने वाली जस्टिस सगीर अहमद की रिपोर्ट पहले ही मंगवा ली गई है. उसका ये भी आरोप है कि इस रिपोर्ट को आनन-फानन में बनाया गया और इस पर समिति के सदस्यों से राय तक नहीं ली गई.
सरकार कहती है बातचीत के अलावा कोई विकल्प नहीं है. लेकिन बीजेपी का मानना है कि बातचीत न करना भी विकल्प है. यानी यथास्थिति बनाए रखना. सरकार को डर ये था कि मुंबई हमलों के बाद अगर कोई आतंकवादी हमला होता है और पाकिस्तान से बातचीत न हो रही हो तो फिर सैनिक कार्रवाई की धमकी देने के अलावा कोई और विकल्प नहीं बचता. कम से कम बातचीत अगर कर रहे हो तो उसे बंद करने की धमकी तो दे ही सकते हैं. यानी सरकार भी ये मानती है कि पाकिस्तान से बातचीत हो या न हो, भारत में आतंकवादी गतिविधियों पर रोक-थाम करना बेहद मुश्किल काम है क्योंकि पाकिस्तान के राजनीतिक नेतृत्व में न तो कोई दम है और न ही कोई इच्छा शक्ति कि वो भारत के खिलाफ हो रहे हमलों को रोके.
और अब पुणे में जर्मन बेकरी पर हो गया है बम विस्फोट. बातचीत शुरू होने से पहले ही. कुछ जानकार कह रहे हैं ये बातचीत को रोकने के लिेए किया गया है. यानी आतंकवादी भी नहीं चाहते हैं कि भारत पाकिस्तान बातचीत करें. शक की सुई लश्कर ए तैय्यबा पर है क्योंकि डेविड हेडली पुणे में रेकी करके गया था. विस्फोट के तरीके और विस्फोटकों के इस्तेमाल पर भी लश्कर की छाप दिख रही है. यानी फिर से पाकिस्तान पर उंगुली उठेगी. फिर सवाल उठेगा क्या हासिल होगा बातचीत करके.
इसलिए राहुल गांधी की एक बात बड़ी अच्छी लगी. कई बार वो दिमाग से नहीं दिल से बोलते हैं. उन्होंने कहा कि हम पाकिस्तान को बहुत ज़्यादा अहमियत देते हैं. उसकी ज़रूरत नहीं है. बिलकुल सही बात है. पाकिस्तान हमारे लिए अब दस साल पुरानी कहानी है. अब हमें पाकिस्तान की नहीं चीन की बात करनी चाहिए. बात करना है तो कर लो. लेकिन ये बात ध्यान में रख कर कि पाकिस्तान हमारी बराबरी पर नहीं है. हमारी उससे होड़ नहीं है. वो पड़ोस का एक नादान बच्चा है जो कई बार पार्किंग में खड़ी गाड़ी पर स्क्रेच कर चला जाता है तो कभी वाइपर तोड़ देता है. बच्चे से क्या बात करनी. उसकी शरारतों के लिए उसके बाप से बात करनी चाहिए. लेकिन उसके बाप हमें भी बच्चा ही मानते हैं और इसीलिए हमें पहली ज़रूरत उसके बाप से आंख से आंख मिला कर बात करने की हिम्मत पैदा करने की है. सुन रहे हैं अंकल सैम.
Saturday, February 13, 2010
माई नेम इज़- ?
शाहरूख खान जीत गए. शिवसेना हार गई.
Shahrukh Sena defeats Shiv Sena.
बहुत अच्छा हुआ. पहले राहुल गांधी ने शिवसेना को हराया. फिर शाहरूख खान ने भी निपटा दिया.
वो तो बीच में शरद पवार चले गए थे शिवसेना को ऑक्सीजन देने के लिए. नहीं तो राहुल बाबा के दौरे के बाद तो शिवसेना पूरी तरह से ठंडी पड़ गई थी.
रही सही कसर शिवसेना ने माई नेम इज़ खान का विरोध कर पूरी कर ली. ज़बर्दस्त पब्लिसिटी मिली है भाई. शिवसेना को भी और शाहरूख खान की फिल्म को भी. फेसबुक पर भाई लोगों ने ग्रुप बना डाले. शाहरूख खान की फिल्म देखो और शिवसेना को मुँह तोड़ जवाब दो. चैनल्स पर सुबह से शाम तक शाहरूख खान की फिल्म के अलावा कुछ भी नहीं चला. इतना प्रचार मिला कि पूछो मत. अगर प्रोड्यूसर 200 करोड़ रुपए भी खर्चा करता तो भी इतनी पब्लिसिटी नहीं मिल सकती थी. फेस बुक पर कई लोग कह रहे हैं कि वो फिल्म इसलिए देखने गए क्योंकि शिवसेना को मुँह तोड़ जवाब देना था. वैसे दिल्ली में तो ये कोई मुद्दा था ही नहीं. और अगर महाराष्ट्र सरकार ने जैसे सुरक्षा मुहैया कराई और शिवसैनिकों को गिरफ्तार किया उसके बाद शुक्रवार दोपहर होते-होते मुंबई के सभी मल्टीप्लेक्सेस में भी ये फिल्म शुरू हो गई.
दरअसल, ये शिवसेना का रौब नहीं मल्टीप्लेक्सेस और डिस्ट्रीब्यूटर्स का डर है जो रातों-रात शिवसेना या मनसे को ज़बर्दस्त पब्लिसिटी दिला देता है. रही-सही कसर शरद पवार जैसे लोग पूरा कर देते हैं जो ऑस्ट्रेलियाई खिलाड़ियों की हिफाजत की भीख माँगने बाल ठाकरे के पास चले जाते हैं. वैसे ये साफ हो गया है कि अगर सरकार चाहे तो इन गैर कानूनी सरकारों से निपटा जा सकता है. इस बार अगर सुरक्षा के चलते माई नेम... चल गई तो कोई वजह नहीं है कि अगली बार ऐसा होने पर बजाए शिवसेना और मनसे की धमकियों के आगे झुकने के सुरक्षा के पर्याप्त इंतज़ाम दे कर फिल्में दिखाई जाएं.
रही बात, फिल्म की तो न तो मैं शाहरूख खान का कोई प्रशंसक हूँ और न ये मानता हूँ कि उन्हें कोई अच्छा अभिनय आता है. इसलिए भैय्या मैं तो 200 रुपए खर्च कर फिल्म देखने नहीं जाऊँगा. जिन्हें जाना है जाएं. लेकिन कम से कम हमें बख्श दें. भारत जैसे बड़े मुल्क में और भी कई बड़े मुद्दे हैं जिन पर मीडिया का ध्यान जाना चाहिए. एक फिल्म रिलीज़ होने या न होने से किसी की दुनिया बदलने वाली नहीं है.
Shahrukh Sena defeats Shiv Sena.
बहुत अच्छा हुआ. पहले राहुल गांधी ने शिवसेना को हराया. फिर शाहरूख खान ने भी निपटा दिया.
वो तो बीच में शरद पवार चले गए थे शिवसेना को ऑक्सीजन देने के लिए. नहीं तो राहुल बाबा के दौरे के बाद तो शिवसेना पूरी तरह से ठंडी पड़ गई थी.
रही सही कसर शिवसेना ने माई नेम इज़ खान का विरोध कर पूरी कर ली. ज़बर्दस्त पब्लिसिटी मिली है भाई. शिवसेना को भी और शाहरूख खान की फिल्म को भी. फेसबुक पर भाई लोगों ने ग्रुप बना डाले. शाहरूख खान की फिल्म देखो और शिवसेना को मुँह तोड़ जवाब दो. चैनल्स पर सुबह से शाम तक शाहरूख खान की फिल्म के अलावा कुछ भी नहीं चला. इतना प्रचार मिला कि पूछो मत. अगर प्रोड्यूसर 200 करोड़ रुपए भी खर्चा करता तो भी इतनी पब्लिसिटी नहीं मिल सकती थी. फेस बुक पर कई लोग कह रहे हैं कि वो फिल्म इसलिए देखने गए क्योंकि शिवसेना को मुँह तोड़ जवाब देना था. वैसे दिल्ली में तो ये कोई मुद्दा था ही नहीं. और अगर महाराष्ट्र सरकार ने जैसे सुरक्षा मुहैया कराई और शिवसैनिकों को गिरफ्तार किया उसके बाद शुक्रवार दोपहर होते-होते मुंबई के सभी मल्टीप्लेक्सेस में भी ये फिल्म शुरू हो गई.
दरअसल, ये शिवसेना का रौब नहीं मल्टीप्लेक्सेस और डिस्ट्रीब्यूटर्स का डर है जो रातों-रात शिवसेना या मनसे को ज़बर्दस्त पब्लिसिटी दिला देता है. रही-सही कसर शरद पवार जैसे लोग पूरा कर देते हैं जो ऑस्ट्रेलियाई खिलाड़ियों की हिफाजत की भीख माँगने बाल ठाकरे के पास चले जाते हैं. वैसे ये साफ हो गया है कि अगर सरकार चाहे तो इन गैर कानूनी सरकारों से निपटा जा सकता है. इस बार अगर सुरक्षा के चलते माई नेम... चल गई तो कोई वजह नहीं है कि अगली बार ऐसा होने पर बजाए शिवसेना और मनसे की धमकियों के आगे झुकने के सुरक्षा के पर्याप्त इंतज़ाम दे कर फिल्में दिखाई जाएं.
रही बात, फिल्म की तो न तो मैं शाहरूख खान का कोई प्रशंसक हूँ और न ये मानता हूँ कि उन्हें कोई अच्छा अभिनय आता है. इसलिए भैय्या मैं तो 200 रुपए खर्च कर फिल्म देखने नहीं जाऊँगा. जिन्हें जाना है जाएं. लेकिन कम से कम हमें बख्श दें. भारत जैसे बड़े मुल्क में और भी कई बड़े मुद्दे हैं जिन पर मीडिया का ध्यान जाना चाहिए. एक फिल्म रिलीज़ होने या न होने से किसी की दुनिया बदलने वाली नहीं है.
Monday, February 08, 2010
कम चीनी खाओ
राष्ट्रवादी का कहना है कि चीनी न खाने से आज तक कोई नहीं मरा. हाँ खाने में ज्यादा चीनी और नमक ज़हर के समान है. वो ये भी कहता है कि सौंदर्य प्रसाधन के सामनों के दामों में बढोत्तरी हो रही है इस पर कोई सवाल क्यों नहीं उठाता. सिर्फ़ चीनी की बात ही क्यों करते हो.
राष्ट्रवादी कृषि मंत्री शरद पवार की पार्टी राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी का मुख पत्र है. इससे पहले भी वह कई मामलों खासतौर से जब कांग्रेसी पवार की बुराई कर रहे थे, तब उनके बचाव में कड़ी भाषा का इस्तेमाल कर चुका है. तब एनसीपी के लोगों ने कहा कि इस अखबार में प्रकाशित बातों को उनसे न जोड़ा जाए.
अब अगर कांग्रेस संदेश में कुछ छपा हो और उसे कांग्रेस की राय न मानी जाए खासतौर से संपादकीय में तो बहुत मुश्किल हो जाएगी. ऐसे ही कमल संदेश का संपादकीय हो या फिर पांचजन्य का संपादकीय. इन्हें बीजेपी और आरएसएस के विचार ही माने जाएंगे. तो फिर राष्ट्रवादी के विचार एनसीपी के विचार क्यों नहीं.
अब बात चीनी कम खाने की या न खाने की. ये तो बाबा रामदेव से लेकर बड़े से बड़ा डॉक्टर भी कह देगा कि ज्यादा चीनी नहीं खानी चाहिए. हमारे मध्य प्रदेश में न तो बाबा रामदेव की सुनी जाती है और न किसी डॉक्टर की. चाय में चीनी नहीं बल्कि चीनी में चाय होती है. लोग चीनी खा-खा कर डाइबिटीज़ के शिकार भी हो रहे हैं. किसी ज़माने में गुड खाने का चलन था. चाय में भी गुड डाला जाता था. वह इतना हानिकारक नहीं होता था. लेकिन अब सब कुछ चीनी से ही बनता है. घर में वार-त्यौहार पर बनने वाली मिठाइयाँ हों रोज़ पीने के लिए दूध-चाय. चीनी के बिना काम नहीं चलता. और इस बार तो गुड़ ने चीनी को नीचा दिखा दिया. गुड के दाम भी इतने बढ़ गए थे कि थोड़े समय पहले तक चीनी को पिघलाकर गुड़ बनाया जा रहा था.
सौंदर्य प्रसाधन की सामग्री के दाम भी बढ़ रहे हैं. ये हमारी मूलभूत आवश्यकताओँ में से नहीं है. कम से कम मेरे लिए तो नहीं. नहाने के साबुन, टूथपेस्ट, सिर पर लगाने के तेल, शैंपू वगैरह के दाम न बढ़े तो मेरे जैसे आदमी का काम चल जाएगा. हाँ अगर दूसरी चीज़ों दाम बढ़े तो हमारे घर का बजट फिर बिगड़ सकता है.
लेकिन भाई राष्ट्रवादी. कुछ चीज़ें होती हैं जिन्हें सरकारी भाषा में एसेंशियल कमोडिटीज़ यानी आवश्यक वस्तुयें कहा जाता है. चीनी इसी में आती है. सौंदर्य प्रसाधन नहीं. वैसे अगर पवार साहब की चली तो वो जल्दी ही सौंदर्य प्रसाधन की सामग्री के दाम बढ़ने की भविष्यवाणी भी कर सकते हैं.
और जो लाखों टन चीनी कोल्ड ड्रिंक बनाने वाली कंपनियों को बेची जा रही है और जिसकी मांग बढ़ने के कारण (अब गर्मियाँ आ रही हैं तो माँग तो बढ़ेगी ही) और आपूर्ति के पहले से ही कम होने के कारण आने वाले महीनों में हालात और बिगड़ेगे. हाँ, राष्ट्रवादी के संपादक एक दूसरा संपादकीय लिख कर कम से कम अपनी पार्टी के कार्यकर्ताओं से चीनी न खाने की अपील कर सकते हैं. या इसे एनसीपी के संविधान में जोड़ा जा सकता है कि एनसीपी का कार्यकर्ता बनने के लिए ज़रूरी है कि आप चीनी न खाते हों और शायद दाल, चावल, गेहूँ, दूध वगैरह कुछ भी नहीं क्योंकि ये सब भी महँगे हो रहे हैं. पता नहीं जीने के लिए इन्हें खाना क्यों ज़रूरी है.
Sunday, February 07, 2010
मैं वापस आ गया
मेरा ब्लैकबेरी चोरी हो गया इसलिए पुराने ब्लॉग मेरी कही का यूज़रनेम और पासवर्ड भी याद नहीं रहा। पुराना ब्लॉग भी एक्टीवेट नहीं हो रहा था। इसलिए अब नये ईमेल आई और पासवर्ड से ब्लॉगिंग दोबारा शुरू कर रहा हूं। अगर आपके पास सुझाव हों किस तरह से पुराने ब्लॉग का कंटेंट मैं इस ब्लॉग पर लगा सकता हूं तो कृपया ज़रूर बतायें।
Subscribe to:
Posts (Atom)