Monday, February 15, 2010

मेरी पहली कविता

मैं शून्य में देखता हुआ...
निर्विकार, निरंतर..
कभी हाथों की लकीरों को...
अपने मस्तिष्क पटल पर...
इन्हें इधर से उधर खींचता हुआ...
ये यहां से वहां चली जाये...
तो सुनहरा भविष्य दिखे...
लकीरें बेहद गहरी हैं...
न इधर जाती हैं न उधर...
वर्षों से हाथों पर जमी हैं...
जैसे ज़िद्दी धूल जो फर्श से मिटती नहीं...
विचार, आचार, व्यवहार...
सब इससे ही बंधे हैं...
कभी आता है गुस्सा...
तो कभी दया भी आती है...
लेकिन आत्मदया कायरता की निशानी है...
इसलिए अब छोड़ दिया है इस बारे में सोचना...
लकीरों को इधर से उधर हिलाना...

3 comments:

  1. बहुत भावपूर्ण रचना.

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  2. Log jis der pe shikari ki tarah bethe hain

    Mien usi der pe bhikari ki tarah betha hun

    Agar pehli hai to kavita waqai paheli hai.....poori tarah pariapkvta liye huey...likhte rahiye..accha sochte hain aap.... khayal kho jaate hain to phir dhoondte reh jaate hain...mubarak...Tehssen Munawer

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  3. धन्यवाद उड़ान भाई और तहसीन साहब आपका भी बहुत शुक्रिया. हौंसला बढ़ा है. यानी आने वाले दिनों में और कवितायें लिख कर आप लोगों को बोर कर सकता हूं.

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