Friday, May 07, 2010

अब तो लाइन पर आ जाओ

गृह मंत्री पी चिदंबरम ने राज्य सभा में अपने मंत्रालय के कामकाज के बारे में चर्चा के जवाब में कहा गृह मंत्रालय का मतलब सिर्फ नक्सलवाद की समस्या से निबटने वाला मंत्रालय नहीं है. वैसे भी नक्सलवाद पर अलग से चर्चा हो चुकी है लिहाजा उन्होंने इस बारे में कुछ भी नहीं कहा.

इससे पहले दिन में गृह मंत्रालय की ओर से एक प्रेस नोट जारी हुआ. इसमें नक्सलवादियों के लिए सहानुभूति रखने वाले भोपुओं को आगाह किया गया कि वे लाइन पर आ जाएं. मुट्ठी बाँध कर हवा में लहराने और टेलीविज़न पर आदिवासी-आदिवासी चिल्लाने से कुछ नहीं होगा. इस चेतावनी में कहा गया है कि अगर इन्होंने नक्सलवादियों को अपना मूक और कभी-कभी मुखर समर्थन जारी रखा तो उनके खिलाफ अनलॉफुल एक्टीविटीज़ (प्रिवेंशन) एक्ट 1967 के सेक्शन 39 के तहत कड़ी कार्रवाई हो सकती है. इसमें अधिकतम दस साल की सजा या जुर्माना या दोनों एक साथ का प्रावधान है. गृह मंत्रालय के नोट में यह भी कहा गया है कि सीपीआई माओवादी एक आतंकवादी संगठन है. ये बात अलग है कि गृह मंत्रालय की अपनी वेबसाइट पर प्रतिबंधित संगठनों की सूची में अब भी एमसीसी और सीपीआईएमएल का ही नाम है. जबकि इन दोनों संगठनों का 2004 में विलय हो चुका है और अब ये सीपीआईमाओवादी के नाम से अपनी आतंकवादी गतिविधियाँ चलाते हैं.

कुछ लोगों ने तुरंत ही इसे अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता से जोड़ दिया. इन्होंने पूछा कि क्या अब इस मुल्क में सरकार का ही हुक्म बजाना होगा. जो सरकार कहेगी वही करना होगा. क्या गरीब आदिवासियों की समस्याओं के बारे में बात करना आतंकवादियों का समर्थन करना है. सरकार पूंजीपतियों का प्रतिनिधित्व करती है और आदिवासियों का पिछले साठ साल से शोषण किया जा रहा है. सलवा जुड़ूम जैसे असंवैधानिक कदम का समर्थन क्यों करती है सरकार.

कितना खूबसूरत जाल बुनते हैं आतंकवादियों के ये समर्थक. गरीब और मासूम आदिवासियों को आड़ बना कर वैचारिक दृष्टि से अपने करीब माओवादियों के समर्थन में कैसे तर्क गढ़ते हैं. आदिवासियों के शोषण को मुद्दा बना कर बंदूक से अपने ही मुल्क के दूसरे लोगों को मारने को जायज ठहराते हैं ये लोग.

परेशानी मुझे भी है. मुझे ट्रैफिक जाम में फंसने के बाद ट्रैफिक पुलिस वाले से लेकर दिल्ली सरकार पर बहुत गुस्सा आता है फिर ये गुस्सा गृह मंत्रालय तक पहुंच जाता है क्योंकि दिल्ली पुलिस गृह मंत्रालय के तहत है. मेरे घर पर सात-सात आठ-आठ घंटे बिजली नहीं होती तब भी बहुत गुस्सा आता है. बिजली विभाग से शुरू हो कर मायावती सरकार तक पहुँच जाता है ये गुस्सा और फिर केंद्रीय ऊर्जा मंत्रालय  तक. स्ट्रीट लाइट नहीं जलती है तो नगर निगम के कर्मचारी से लेकर राष्ट्रपति तक पर गुस्सा आता है. मुझे लगता है मैं देश के कानून का पालन करने वाला एक सीधा-साधा नागरिक हूँ. मैं अपने कर सही समय पर जमा करवाता हूँ. फिर मुझे अपने जीवन की गुणवत्ता से जुड़ी बुनियादी सुविधायें पाने का हक क्यों नहीं है.

क्या मुझे बंदूक उठा लेनी चाहिए. क्या नीचे से लेकर ऊपर तक सरकार के हर कारिंदे को लाइन में खड़ा कर उड़ा देना चाहिए. नहीं. क्योंकि ये मेरी विचारधारा नहीं है. मुझे अपने मुल्क से प्यार है. जो देश चलाते हैं उनसे भी क्योंकि वो एक व्यवस्था का अंग हैं और यह व्यवस्था हमारे बुजुर्गों ने लिखित संविधान के जरिए तय की है. इस व्यवस्था में ढेरों खामियाँ हैं. उनका कोई हिसाब नहीं है. लेकिन इसके लिए दोषी कौन ये बहस करने का वक्त नहीं है. बल्कि इन्हें कैसे दूर किया जाए बात इस पर होनी चाहिए.

लेकिन ये ढोंगी आदिवासियों के हक की बात करते हैं. भोले-भाले आदिवासियों के हक को मारा जा रहा है क्योंकि उनके इलाकों में बहुराष्ट्रीय कंपनियाँ प्लांट्स लगा रही हैं. एमओयू साइन किए जा रहे हैं. आदिवासियों को उनके घरों से बेदखल किया जा रहा है. विकास में आदिवासियों की हिस्सेदारी नहीं है. विकास की रोशनी साठ साल में भी किसी आदिवासी के घर के आंगन में उजाला नहीं भर सकी है. वगैरह वगैरह.

विकास के काम में संतुलन हो अब इतनी समझ तो पिछले साठ साल में हमारे देश के हुक्मरानों को आ चुकी है. वैसे भी अगर जयराम रमेश जैसे लोग पर्यावरण मंत्रालय में बैठे हो तो समझ लेना चाहिए कि प्राकृतिक संपदा को उजाड़ कर विकास की राह पर बढ़ना कितना कठिन होगा जब तक कि राहत और पुनर्वास का काम पक्के तौर पर न कर लिया जाए. जैसे अभी रमेश ने मध्य प्रदेश के महेश्वर बाँध परियोजना के काम पर रोक लगा दी क्योंकि उन्हें लगता है कि आरएंडआर का कम ठीक से नहीं हुआ है. ये एक नए किस्म का एक्टीविज़्म है जो अब मंत्रियों के जरिए सरकारी कामकाज में भी दिखने लगा है क्योंकि इस बांध का काम करीब 90 फीसदी पूरा हो चुका है.

इसी तरह उड़ीसा में वेदांता के प्रोजेक्ट से उजड़ने वाले आदिवासियों के एक देवस्थल का जिक्र भी एक मशहूर पत्रिका में हुआ है. इस किस्से की तुलना हॉलीवुड फिल्म अवतार से की गई है कैसे आदिवासियों की परंपरा को नष्ट करने के लिए घुसपैठिए आते हैं और आखिर में जीत आदिवासियों की ही होती है.

हक सबका है दोस्तों. आदिवासियों का भी इस देश पर उतना ही हक है जितना आपका या मेरा. लेकिन आदिवासियों के नाम पर बंदूक उठा कर देश के संविधान के खिलाफ काम करने का हक माओवादियों को किसने दिया. दरअसल, आदिवासी तो बहाना हैं. इनका मकसद देश का संविधान पलट कर पीपुल्स आर्मी के जरिए भारत की सत्ता संचालन का सूत्र अपने हाथों में लेना है.

भोपुओं ये तो बता दो. अगर माओवादी सत्ता में आ गए तो क्या भारत में मानवाधिकार आयोग बना रहेगा या नहीं. वैसे तुम्हें क्या फर्क पड़ता है. तुम्हें तो मौजूदा व्यवस्था का हिस्सा बने रह कर इसी के खिलाफ बोलना है. तुम इसी व्यवस्था से फायदा उठाते हो. और इस व्यवस्था से लड़ रहे आतंकवादियों के हक में भी बोलते हो. लेकिन अब जरा गृह मंत्रालय की तथाकथित सलाह पर भी नजर मार लेना. शायद तुम्हारे हक में अच्छा हो.

5 comments:

  1. sandeep bhushan11:19 am, May 07, 2010

    Akhilesh, it is not a personal attack, but this view is dangerously close to what Chidambaram has been saying, a view unfortunately pushed by all TV editors. Of course you can turn around and accuse me of sounding like a Human Rights activist. That is of course a fair criticism.
    Can I just ennumerate my own reservations.

    1. No human rights activist, myself included have defended violence and senseless killings by the Maoists.

    2. By all accounts including intelligence reports, there are not more then 5 to 6,000 CPI(M) cadres.

    3. The scary thing about Chidambaram's fiat is that even I could be picked up on suspicions of being a Naxal sympathiser on the basis of this response. It is already happening in places like Chattisgarh and Jharkhand.

    4.As an astute reporter youself you would agree that no adivasi politician matters in any mainstream party. In fact there are no national level adivasi leader (as compared to say dalits. If the media - national or local fails to take up their issues would it be fair to more then 8 crore adivasis?

    5. My own suspicion is that with the parliament session over, the Govt wants to intensify operation "Greenhunt." The fresh fiat from the Home ministry will merely ensure that the collateral damage is not reported. And even if it is then the alleged naxal sympathisers are picked up.

    6. It is a country which has been through such privations in the past. As in the past whenever the Congress party consolidates itself, this is the way it deals with dissent.

    7. Lastly it boggles my mind why the TV media does not see this as a fit issue to at least debate? At least a newspaper like 'The Hindu" has put the item on its first page.
    rgds sandeep

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  2. I partially agree with you Sandeep. But, I can not see my country being forced to some alien ideology which has become irrelevant world wide. This is issue is very complex and needs detailed discussion. But those who celebrate killing of CRPF jawans in Dantewada, like some did in the JNU are traitors and insenstive people. I support Chidamabram completely as I had written earlier on my Blog.

    Yes, earlier there were cases such as Dr Binayak Sen in Chattisgarh etc but the way the whole Salwa Judum was projected as unconstitutional, I can understand what kind impact these so called maoist sympathiesers have on our policy makers and media.

    AS to why the TV is not debating the issue, I have no comments to offer.

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  3. sandeep bhushan12:06 pm, May 07, 2010

    To be honest I cannot see a way out of this ideological logjam- both yours and mine are frozen positions with no middle ground crystallizing. All sound and fury, but no light. What of course are more "objective" issues on which agreement is possible, is follows...
    1. Armed violence is no solution.
    2.Adivasis have received little or no benefits in the last six decades. Their leaders, mainstream political parties and the intelligentsia including the Human Rights wallahs have failed to ensure that goods and services are delivered.
    3. Government's starting with Nehru embarked on an "Isolationist" policy vis-a-vis tribals. This has failed in every way ending up creating Adivasis encalves, festering sores which have not received any medical help over the years.Now naxals are feeding on it, creating an optical illusion that naxals and adivasis are inseparable.

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  4. कहाँ थे अखिलेश सर काफी दिनों बाद ब्लॉग लिखा. नयी तस्वीर मै अछे दिख रहे है.आपके पोस्ट का इन्तजार रहता है क्योंकि आप किसी को परभावित करने के लिए नहीं लिखते. जो दिल कहता है वही लिखते है.और दूसरे के कमेन्ट भी पढ़ते है. धन्यबाद.

    सर आप जो मुदा उठा रहे उस बारें मै सिर्फ इतना कहूँगा की नक्सली हो या आतंकवादी क्या फर्क पड़ता है सर आखिर गला तो ये मानवता का ही घोटते फिर इन्हें अलग अलग नाम से क्यों पुकारते है.अगर यही घटना यहाँ के नक्सली किसी और देश मै जाकर करते तो उन्हें नक्सली कहा जाता या kuch और ?

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  5. धन्यवाद अनूपजी. वैसे अब नक्सलियों को भी हमारी सरकार ने आतंकवादी मान लिया है. देर आयद दुरुस्त आयद. जो आतंकवादियों का समर्थन करते हैं वो भी आतंकवादी हैं.

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