सोचिए उन 76 जवानों के परिवारवालों के बारे में. उन पर क्या गुजर रही होगी.
कइयों के छोटे बच्चे होंगे.. कुछ की बेटियां हाथ पीले करने के इंतज़ार में होंगी तो किसी के माता-पिता इलाज के लिए बेटे की घर-वापसी का रास्ता देख रहे होंगे.
लेकिन अब देश के अलग-अलग हिस्सों के लिए वाया रायपुर कॉफिन में कैद जवानों के शव रवाना किए जाएंगे.
मीडिया पहले से ही इन्हें शहीद कह रहा है. जब अपने-अपने घरों की चौखट लांघ कर ये शव करीबियों के पास पहुंचेगे तो उन्हें कोई शहीद या सीआरपीएफ की वर्दी पहने जवान नहीं बल्कि कोई बेटा, कोई पति या कोई पिता नज़र आएगा.
वो अपनी ज़िम्मेदारी पूरी कर रहे थे. वो ज़िम्मेदारी जो उन्हें भारत सरकार ने सौंपी थी.
वो भारत सरकार जो अभी तक ये तय नहीं कर पा रही है कि नक्सली रास्ते से भटके हमारे भाई हैं या फिर निर्दोषों का खून बहाने वाले वहशी दरिंदे. या फिर आतंकवादी.
कोई है एक अरब 20 करोड़ आबादी वाले इस मुल्क में जो इन 74 जवानों के लिए भी मोमबत्ती जलाएगा.
कोई है जो इनकी शहादत का बदला लेगा. इनके बलिदान को सिर्फ अखबारों की सुर्खियों तक ही सीमित नहीं रहने देगा.
कोई है जो इन तथा कथित भटके भाइयों को सही रास्ते पर लाने के लिए आगे आएगा.
या हम पंगु हो चुके हैं. हमें अपने आगे कुछ नहीं दिखता. हम अपने मुल्क के बारे में नहीं सोचते. हमें भारतीय होने पर अब क्या शर्म आती है.
कायरों की तरह जंगल में छिप कर गुरिल्ला वार कर रहे हैं. हिम्मत है तो सीधे-सीधे आमने-सामने की लड़ाई क्यों नहीं लड़ते ये बुजदिल. इनमें और आतंकवादियों में क्या फर्क है. इनका लड़ाई का तरीका भी तो वैसा ही है जैसा कश्मीर में लड़ रहे आतंकवादियों का है. या फिर गाहे-बगाहे मासूमों को अपने बम विस्फोटों से शिकार बनाने वाले आतंकवादियों का.
ये कहते हैं हम बेगुनाहों की जान नहीं लेते. जो हमारी जान लेने आता है हम उसी पर हमला करते हैं. झारखंड का वो टीचर शायद माओवादियों की जान लेने गया था जिसका सिर धड़ से काट कर अलग कर दिया गया. या वो मासूम आदिवासी जिन्हें नक्सलियों ने मुखबिर होने के शक में चौराहे पर मौत के घाट उतार दिया वो सब शायद नक्सलियों की जान लेने गए थे.
घात लगा कर अपने ही मुल्क के लोगों पर हमला करते हैं. उन लोगों पर जो पूरे जी जान से देश की सुरक्षा का ज़िम्मा अपने कंधों पर लिए हैं.
भोले-भाले आदिवासियों के अधिकारों के नाम पर पिछले चालीस साल से देश को गुमराह किया जा रहा है. इनका असली मकसद आखिर है क्या.
क्या आदिवासियों के हक को छीनने का काम ये नक्सली नहीं कर रहे हैं. अगर उन तक विकास की रोशनी नहीं पहुंच रही है तो इसके लिए कुछ हद तक जिम्मेदारी नक्सलियों की भी तो है. क्या ये अपने दम पर इनके गांवों में इन्हें आधुनिक शिक्षा, रोजगार के अवसर, बेहतर स्वास्थ्य सेवा वगैरह दे सकते हैं. क्यों सरकारी सुविधाओं को आदिवासियों तक नही पहुंचने दिया जा रहा है. अगर सरकार आदिवासियों की भलाई के लिए कुछ करे तो कहोगे उन्हें बरगलाया जा रहा है.
अगर भ्रष्टाचार और शोषण से लडाई के नाम पर आपने आदिवासियों के हक के लिए बंदूक उठाई है तो आप क्या कर रहे हैं. क्यों आप उन खदान मालिकों से हर महीने टैक्स वसूलते हैं जिन्हें आप शोषक बता कर जिनके खिलाफ आप इतने समय से तथाकथित युद्ध छेड़े हैं. आपमें और गली के गुंडे में फर्क क्या है. वो हफ्ता वसूलता है तो आप महीना.
कहां है नक्सलियों के मानवाधिकारों की वकालत करने वाले वो लोग जिन्हें नक्सलियों के बारे में गृह मंत्री पी चिदंबरम के बयान तेजाब की तरह जलाते हैं. कहां है वो लोग जो नक्सलियों के साथ बिताए अपने वक्त को बड़ी खूबसूरती से पत्रकारिता का नाम दे कर 20-20 पन्ने काले कर देते हैं ताकि नक्सलियों के लिए देश में सहानुभूति बढ़ाई जा सके. क्या अब उन्हें इन 74 परिवारों के मानवाधिकारों की परवाह नहीं. क्या ये जवान इंसान नहीं थे. इनके भी कोई हक थे या नहीं.
पत्रकारिता, शिक्षण और समाज सेवा में ऐसे लोग बैठे हैं जो नक्सलियों के लिए बेहद सहानुभूति रखते हैं. खुल कर सामने क्यों नहीं आते कायरों. बुजदिलों की तरह पीछे से छिप कर क्यों वार करते हो. ये समझ लेना... ये भारत है.... पाकिस्तान और चीन जैसे बड़े बड़े मुल्क बाल बांका तक नहीं कर पाए हैं. तो तुम किस खेत की मूली हो. हमारा संविधान अगर हमें आजादी और अधिकारों की गारंटी देता है तो तुम लोग इन अधिकारों का बेजा फायदा उठा रहे हो. तुम हमारे सिस्टम का एक हिस्सा बन कर बैठे हो ताकि उसे अंदर से खोखला कर सको. तुम्हें सब पहचानते हैं. तुम्हारी विचारधारा तो तुम्हें इस संविधान में भरोसा नहीं रखने को कहती है. तुम तो इस संविधान को ही पलटना चाहते हो. तुम अपनी नई कहानी लिखना चाहते हो.
क्या हुआ नेपाल में.... क्या तीर मार लिया नक्सलियों ने... कौन सी क्रांति कर देश का भला कर दिया.... अगर सोचते हो भारत में भी ऐसा ही कर पाओगे तो बड़ी भूल कर रहे हो.
याद रखना...
समर शेष है नहीं पाप का भागी केवल व्याघ्र
जो तटस्थ हैं समय लिखेगा उनका भी अपराध
रचना की तारीफ करनी होगी।
ReplyDeletesaheedo sainiko ko mara salaam...aur inki sahadat ko kisi mombatti ki zaroorat nahi hai...ye apne aap me 1 mashaal hain
ReplyDeleteतारीफ रचना की
ReplyDeleteshekhar kumawat
मोमबत्तियां तो जब जलती है जब फाइव स्टार पर हमला होता है। ये तो सैनिक हैं, मरने का ही वेतन पाते हैं। ये शहीद कहलाएंगे बस। ये किसी के पिता, किसी के बेटे और किसी के पति नहीं हैं। नक्सलवादियों का सरगना कानू सान्याल आत्महत्या करता है सारी जिन्दगी अनगिनत हत्याएं करने के बाद। लेकिन मीडिया उसके कारनामें उजागर नहीं करती। इन्हें कौन मदद करता है क्या ये सब मीडिया से छिपा है? लेकिन मीडिया के पास तो सानिया और सोहेब से फुर्सत ही नहीं है।
ReplyDeleteअखिलेश जी मोमबत्ती वाली मैडम तो सात दिनों तक़ उनके साथ रह कर आई है जंगल में और उनकी तारीफ़ मे बाकायदा एक लेख भी दिया है।उनको क्या फ़र्क़ पड़ना है कौन विधवा हो रहा है?कौन मर रहा है?बस एक विचार धारा का सपोर्ट करना है,मोटी रकम देने वाले एनजीओस की आड़ मे विदेशी ताक़तों की मदद करना है और देख को खोखला करने मे अपना योगदान दिखाना है।हो सकता है शायद फ़िर कोई बड़ा पुरस्कार मिल जाये।
ReplyDeleteबहुत सटीक लिखा है भाई आपने.
ReplyDeleteधन्यवाद.
धन्यवाद शेखर, अजित गुप्ता जी,अनिल जी और संजीव जी. अनिल जी आप जिनका ज़िक्र कर रहे हैं मैंने भी अपने लेख में उनके बारे में कहा है. अभी अगर सुरक्षा बलों ने गलती से किसी बेगुनाह को मार दिया होता तो सड़कों से लेकर पांच सितारा होटलों और प्रेस क्लब में धरने, प्रदर्शन और सेमिनारों की होड़ लग गई होती. दरअसल, माओवादी चाहते यही हैं कि ऑपरेशन ग्रीन हंट से बेगुनाह प्रभावित हों ताकि उन्हें प्रोपेगंडा करने का मौका मिल जाए. ऐसा अभी तक नहीं हुआ है इसीलिए हताशा में ये बड़ा हमला कर दिया है ताकि सुरक्षा बल जवाबी कार्रवाई के दबाव में आएं. सरकार को सोच-समझ कर कदम उठाना चाहिए.
ReplyDeletesatik
ReplyDeleteise bhi dekhein
http://chhattisgadh.blogspot.com/2010/04/blog-post_07.html
का कहे, कहे के होगा भी क्या . समय अब मोमबत्ती जलाने का नही आग लगाने का आ गया है
ReplyDeleteआपलोग क्या ये खाली-पीली टेंशन लिए फिरते हैं, उम्र बढ़ने पर इस कदर सठिया जाता है-आदमी। टीवी का आदमी हैं-आप। मलिक और टेनिस मल्लिका पर लिखिए। सचिन के प्रयास के बाद भी हारी मुंबई टीम पर लिखिए। आप लिखों न देश का विकास, कैसे करें कम कॉल दर पर ज्यादा बात। लिखो आप, उस लड़की के बारे में जिसके ड्रेस सेंस पर आप फिदा हैं। लिखिए, वेतन बढ़ने से अघाये बैंक कर्मचारियों पर। नए म्युजिक एलबम पर। आप सब लिखिए, पर सच मत लिखिए। हम पढ़ेंगे, जरूर। आपलोगों का वैसा लिखना ही तो हमें 21वीं सदी का इंसान बनाये रखा है।
ReplyDeleteराजीव रंजन प्रसाद, बीएचयू, वाराणसी
अखिलेश सर क्या ये लेख या ये कमेन्ट इसलिए आया है क्यों की नक्सलियों ने हमारे ७५ जवान मार दिए. पिलिज़ सर आप जैंसे मीडिया वाले लोग जिनकी बात सब मानते है अब ये मोमबत्ती आपलोग बुझने न देना. पर कही सर आप लोग फिर से कही सानिया की शादी का लाइफ टेलेकास्ट न करने लगे, या फिर कही कोई कांग्रेस का नेता अमिताब के पास बैठने से मना न कर दे और आप आगे के sehedule में busy न हो जाओ की कब अमिताब की कांग्रेस के नेता के साथ मीटिंग हो सकती है. कही सचिन फिर से २०० रन न बना ले. सर plz कुछ न कुछ करो.
ReplyDeleteपत्रकारिता, शिक्षण और समाज सेवा में ऐसे लोग बैठे हैं जो नक्सलियों के लिए बेहद सहानुभूति रखते हैं. खुल कर सामने क्यों नहीं आते कायरों. बुजदिलों की तरह पीछे से छिप कर क्यों वार करते हो....
ReplyDeleteसवाल तो यही है सर आज भी है कल भी था और कल भी रहेगा....सिवाय नम आंखों के हम कुछ योगदान नहीं कर सकते..