Sunday, April 25, 2010
आया है मुझे फिर याद वो ज़ालिम- गुज़रा ज़माना कॉलेज का
मेरे दोस्त मनीष नागर ने होल्कर साइंस कॉलेज होस्टल के दिनों की कुछ यादगार तस्वीरें फेसबुक पर लगाई थीं. मैं वहीं से उधार ले कर इन्हें अपने ब्लॉग पर चस्पा कर रहा हूं. वो दिन भूले नहीं भूलते. हर मोड़ पर नज़रें एक बार पीछे घुमा कर देख लेता हूँ. कोई पुराना हमसफर आवाज़ न दे रहा हो. जीवन की उतार-चढ़ाव, फिसलन और रपटीली राहों पर कई बार ऊपर-नीचे इधर-उधर होना लगा रहता है. लेकिन वो लम्हे कभी नहीं भूलते जब किशोरावस्था से जवानी में कदम रख रहे होते हैं. दोस्ती के नए मतलब समझ में आते हैं. नए दोस्त भी मिलते हैं. इनमें से कुछ जिंदगी भर के लिए होते हैं तो कुछ समय की झीनी चादर में छिप जाते हैं. पर कभी-कभी बहुत मन होता है इस चादर को हटाने का. घड़ी की सुइयाँ पीछे घुमाने का. एक बार फिर रेड बिल्डिंग के सामने दौड़ लगाने का. सीढ़ियों पर बैठ कर गप्पे लड़ाने का. भंवरकुआँ पर समोसे और चाय का नाश्ते करने जाने का. वगैरह वगैरह.
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समय बड़ा बलवान है
ReplyDeleteआपने तो हमें फिर से होस्टल में पहुंचा दिया..कालेज के दिन वास्तव में अनमोल हैं सर...
ReplyDeleteसही है अखिलेश सर बस याद आती है.
ReplyDeleteक्योंकि जिंदगी कभी भी लोट के नहीं आती है.
हम कोसिस भी करें तभ भी वो सब कर नहीं पाएंगे.
समोशे और नास्ता तो कर लेंगे पर वो समय कहाँ से लायेंगे?
उस पल हम जीवन में कुछ करने की सोचेते थे.
बिना किसी बात के अपने मन को टोकते थे.
इसलिए शायद उस वक्त, उन पलों को ढंग से न जी सके.
यही कारन है की सबकुछ होते हुए भी हम रहते है थके थके.
अब हम और कुछ नहीं बस घडी की सुई को उल्टा घुमाने चाहते है .
आप अपने हॉस्टल के और हम अपने स्कूल के दिन दोबारा पाना चाहते है.
अनूप क्या खूब लिखा है. वाकई ये सब के जीवन का दर्द है. किसी को होस्टल के दिनों की याद सताती है तो किसी को कॉलेज की मस्ती की.
ReplyDeleteपश्यंती लगता है आप भी होस्टल में रही हैं. इसीलिए आपको भी वो दिन याद आ गए.
युगलजी सही बात है... समय जात नहीं लागत बारा.
अखिलेश भईया..............तबियत हरी हो गयी इन तस्वीरों को देखकर..............बीएचयू के वो भूले-बिसरे दिन सहसा याद आ गये...........निर्द्धंद, निश्चिन्त, निर्भय.........ऊर्जा से लबरेज..साधुवाद
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