कार, बाइक, स्कूटर, साइकल. कभी-कभी बस और ट्रक भी.
चलते चलते पंक्चर क्यों हो जाते हैं.
दरअसल, इसलिए क्योंकि कई बार सड़कों पर पड़ी कीलें उनमें चुभ जाती हैं. सख्त रबर को भेद कर पतली ट्यूब में घुस जाती हैं और इसलिए गाड़ियां पंक्चर हो जाती हैं.
लेकिन कीलों का सड़क पर क्या काम. कीलें सड़कों पर क्यों बिखरी होती हैं.
कील लोहे से बनती हैं. इनका आकार अलग-अलग होता है. एक तरफ ठोकने के लिये सिरा होता है तो दूसरा सिरा नुकीला होता है ताकि वो आसानी से घुस सकें.
कीलों का इस्तेमाल आम तौर पर फर्नीचर बनाने वाले कारीगर करते हैं. घरों में भी कीलों का इस्तेमाल होता है जैसे दीवारों पर फोटो टांगने के लिए या बाथरूम में कपड़े टांगने के लिए भी कीलें ठोक ली जाती हैं.
यानी कीलें या तो घरों में मिलनी चाहिएं या फिर कारपेंटरों के यहां. फिर सड़कों पर क्यों बिखरी होती हैं. अगर सड़कों पर बिखरी न मिलें तो टायर चाहे किसी का भी हो, पंक्चर होगा ही नहीं. क्योंकि बबूल के कांटे चाहे कितने ही तीखे हों, टायर के मोटे रबर को नहीं भेद पाते बल्कि टायर पड़ते ही टूट जाते हैं.
कील पर अगर सड़क पर समतल पड़ी हों तो उनके टायर को भेदने की संभावना कम होती है. लेकिन पंक्चर के वक्त देखिएगा कीलें सीधे ही टायर में घुसी दिखती हैं जैसे किसी ने उन्हें सड़क पर सीधा खड़ कर छोड़ दिया हो और उनके ऊपर से गाड़ी निकलते ही कील अंदर, टायर पंक्चर और थोड़ी दूर जाकर आपकी गाड़ी खड़ी हो गई.
फिर तलाशिए मैकेनिक को. वो दिन में खूब दिखाई देंगे. बल्कि थोड़ी-थोड़ी दूर पर ही आपको पंक्चर सुधारने वाले मैकेनिक मिल जाएँगे. गाड़ी को या तो वहां तक धकेल कर ले जाएं या फिर हिम्मत हो तो किनारे खड़ी कर स्टेपनी चेंज करें और फिर पंक्चर टायर को उसके यहां बनवाने के लिए ले जाएं.
मैकेनिक भी कमाल के होते हैं. सड़क किनारे दूर से ही एक बड़ा टायर ज़मीन पर गड़ा मिल जाएगा. समझ जाइए वहीं मैकेनिक है जो पंक्चर ठीक करेगा. किनारे पर जोड़-तोड़ कर बनाया एक छोटा सा कमरा जिसमें टायर, ट्यूब वगैरह का ढेर लगा है. पास में जमीन में खुदे एक गड्डे में पानी भरा होगा. एक बड़ा सा सिलेंडर लगा होगा जिसके बगल में एक पुराना जनरेटर जो मैकेनिक के इशारा करते ही धक-धक कर चलने लगता है और बड़े सिलेंडर में हवा भरने लगती है. कम से कम 15 मिनट लगते हैं कार का पंक्चर बनाने में. मुझे इस बात की बहुत शिकायत है कि मैकेनिक को पंक्चर बनाने के सिर्फ़ दस रुपए मिलते हैं. कम से कम 100 रुपया मिलना चाहिए एक पंक्चर ठीक करने का. आखिर उसमें इतनी मेहनत जो लगती है.
वो पहले आपकी गाड़ी में जैक लगा कर टायर निकालेगा. फिर खूब ताकत लगा कर टायर को अलग-अलग जगह से ठोक-पीट कर ट्यूब बरामद करेगा. फिर ट्यूब में हवा भर कर जमीन में बने गड्डे में भरे पानी में डुबो कर देखेगा. फिर पंक्चर कहां हुआ इसकी पहचान करेगा. फिर हवा निकालेगा, फिर पंक्चर की जगह पर चिपकाने वाली ट्यूब से रबर का छोटा सा टुकड़ा चिपकाएगा. फिर हवा भरेगा, फिर पानी में डुबो कर देखेगा कि पंक्चर ठीक से लगा या नहीं. फिर हवा निकालेगा, फिर ट्यूब को टायर में घुसोएगा. फिर हवा भरेगा. फिर उसे कार में लगाएगा. फिर जैक हटाएगा. और आप उसे दस रुपए देकर खुशी-खुशी अपने रास्ते निकल लेंगे.
ये बहुत मेहनत का काम है. हम आप नहीं कर सकते. दरअसल, ये श्रम इतना कठिन होने के बावजूद बहुत सस्ता है लिहाजा हम इसकी कद्र नहीं करते.
वैसे सवाल अब भी यही है कि सड़कों पर कीलें क्यों पाई जाती हैं.
हमें हर चीज़ में साज़िश नज़र आती है. इसमें भी कई लोगों का यह कहना है कि ज़्यादातर कारें वहीं पंक्चर होती हैं जहां आस-पास मैकेनिक की दुकान हो. यानी उनका आरोप है कि मैकेनिक ही सड़कों पर कीलें बिखेर देते हैं ताकि गाड़ियां पंक्चर हों और उनकी रोज़ी-रोटी चलती रहे. मैं इससे इत्तफाक नहीं रखता. मैं मानता हूं कि सड़कों पर कीलों का पाया जाना महज़ संयोग है और कीलें सड़कों पर नहीं होंगी तो न तो आपका टायर पंक्चर होगा और न ही आप मैकेनिक के पास जाएंगे.
ज्ञान बढ़ा मेरा....
ReplyDelete.
चीर कर रख दे
तम अंतरमन का
मैं कोई ऐसा
एक दीप जलाऊं
....http://laddoospeaks.blogspot.com/2010/03/blog-post_26.html
शुभकामनाएँ जल्दी कील घुसे और आप देख पायें. :)
ReplyDeleteउड़नतश्तरीजी... बहुत बहुत शुक्रिया...जैसे ही पता लगता है आपको जरूर बताएंगे.
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