दिल्ली में दस अप्रैल
को मतदान है। वैसे तो यहां लोक सभा की सिर्फ सात सीटें हैं। मगर पिछले साल दिसंबर
में आए यहां के विधानसभा चुनाव के नतीजों ने पूरे देश का ध्यान अपनी ओर खींचा।
पंद्रह साल से सत्ता में काबिज कांग्रेस का पूरी तरह से सफाया हो गया। बीजेपी सबसे
बड़ी पार्टी बन कर उभरी मगर सरकार नहीं बना सकी। भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन की कोख
से जन्मी आम आदमी पार्टी ने शानदार प्रदर्शन किया। 28 सीटें जीतीं और कांग्रेस के
समर्थन से 49 दिनों तक सरकार चलाई। खूब सुर्खियां बटोरीं। जिस धूम से सरकार आई
वैसे ही गई। अब पूरे देश में अपने उम्मीदवार खड़े कर आम आदमी पार्टी कांग्रेस और
बीजेपी दोनों को चुनौती देने की कोशिश कर रही है।
मगर सबसे बड़ा सवाल
ये है कि कांग्रेस विरोधी लहर का फायदा दिल्ली जैसे शहर में बीजेपी को मिलने के
बजाए नई-नवेली आम आदमी पार्टी को क्यों मिला? और क्या ये ट्रेंड
लोक सभा चुनाव में भी रहेगा? खुद बीजेपी के नेता
मोदी की लहर का दावा करने के बावजूद सातों सीटें जीतने की उम्मीद नहीं जता रहे
हैं। पार्टी के अंदरूनी सर्वे में भी सिर्फ चार सीटों पर ही बीजेपी की जीत की
संभावना जताई जा रही है। वहीं बीजेपी की विरोधी पार्टियां उसे दो सीटों पर ही
टक्कर पर मान रही हैं। ये तब है जब दिल्ली के अख़बार, टीवी चैनल, रेडियो और सड़कें
नरेंद्र मोदी के विज्ञापनों से पटे पड़े हैं। इसके उलट 2009 के चुनाव में कांग्रेस
ने दिल्ली की सभी सातों सीटों पर कब्जा किया था। इसे आर्थिक संकट से उबारने के लिए
प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के प्रति मध्य वर्ग के समर्थन के रूप में देखा गया था।
दिल्ली में मदन लाल
खुराना, विजय कुमार मल्होत्रा और केदारनाथ साहनी की तिकड़ी जनसंघ और बाद में बीजेपी
की रीढ़ की हड्डी थी। इनका युग समाप्त होने के बाद पार्टी ने दिल्ली में वैकल्पिक
नेतृत्व तैयार करने में बहुत देरी की। केंद्रीय स्तर पर पार्टी में चल रही खींचतान
सबसे ज्यादा दिल्ली में प्रदेश स्तर पर पहुँची। और यहाँ भी पार्टी उसी बीमारी का
शिकार हो गई। दिल्ली विधानसभा चुनाव में अनुकूल माहौल होने के बावजूद बीजेपी सिर्फ
चार सीटों से सरकार बनाने से रह गई। इसके पीछे एक बड़ी वजह हर्षवर्धन और विजय गोयल
के बीच चला टकराव माना गया। अब विजय गोयल को राजस्थान से राज्य सभा का सांसद बना
कर दिल्ली की राजनीति से दूर कर दिया गया है। हर्षवर्धन दिल्ली में बीजेपी के
सर्वेसर्वा बना दिए गए हैं। पार्टी ने ये संदेश दे दिया है कि अगले दस साल तक
राज्य में पार्टी की कमान उन्हीं के पास रहेगी।
फिर भी बीजेपी
दिल्ली में सातों सीटें जीत पाने का दावा क्यों नहीं कर पा रही है? सबसे बड़ी वजह है उम्मीदवारों का चुनाव।
हर्षवर्धन को छोड़ बीजेपी के किसी भी बड़े नेता ने दिल्ली से चुनाव मैदान में
उतरने की जहमत नहीं उठाई। हर्षवर्धन, रमेश विधुड़ी, परवेश वर्मा और मीनाक्षी लेखी
को छोड़ बाकी तीन उम्मीदवार बाहर से लाए गए हैं। पूर्वांचलियों के वोटों को लुभाने
के लिए कभी समाजवादी पार्टी के उम्मीदवार रह चुके भोजपुरी फिल्मों के अभिनेता मनोज
तिवारी को उतारा गया है। वहीं श्री श्री रविशंकर के कोटे से महेश गिरी को टिकट
दिया गया है। दलित नेता और हाल ही में बीजेपी में शामिल हुए उदितराज भी बीजेपी के
उम्मीदवार हैं।
बीजेपी के रणनीतिकार
दावा करते हैं कि दिल्ली के लोग सीधे मोदी के नाम पर वोट देंगे, उनके लिए
उम्मीदवार महत्व नहीं रखता। लेकिन मज़े की बात ये है कि यही दावा दिल्ली के
विधानसभा चुनाव में भी किया गया था। जिसका नतीजा सबके सामने है। तब कांग्रेस ढलान
पर थी लेकिन अब राहुल गांधी की एक सभा में जिस तरह से भीड़ उमड़ी उससे लगता है कि कांग्रेस
से नाराज़ मतदाता आम आदमी पार्टी को छोड़ फिर कांग्रेस के साथ आने लगा है। जिन मोदी
के नाम पर बीजेपी दिल्ली में चुनाव लड़ रही है उनकी सिर्फ एक ही सभा करवा सकी। बाद
की चुनावी सभाएँ इसलिए रद्द कर दी गईं क्योंकि दिल्ली में मोदी की 3डी सभाएं कराने
की योजना बनी थी। लेकिन आखिरी वक्त पर सेटेलाइट में आई दिक्कत की वजह से ये 3डी
सभाएं भी नहीं हो सकीं। सिख मतदाताओं को लुभाने के लिए पंजाब के उपमुख्यमंत्री
सुखबीर बादल की सभाएं होनी थीं, वो भी नहीं हो सकीं।
इन सब दिक्कतों के
बावजूद बीजेपी की उम्मीदें अभी खत्म नहीं हुई हैं। कुछ बीजेपी नेताओं का कहना है
कि उन्हें जनता पर भरोसा है जो नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री के रूप में देखना
चाहती है। ये कहते हैं कि विधानसभा चुनाव में ऐसे कई लोग थे जिन्होंने मुख्यमंत्री
के लिए चाहे अरविंद केजरीवाल को वोट दिया हो लेकिन लोक सभा में वो मोदी के लिए वोट
करना चाहते थे। वाकई ऐसा होता है या नहीं, ये तो अब 16 मई को ही पता चलेगा।
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