कांग्रेस उपाध्यक्ष
राहुल गांधी ने अपनी ही खींची लक्ष्मण रेखा शुक्रवार को पार कर ली। जम्मू के डोडा
में एक चुनावी सभा में उन्होंने एनडीए के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार नरेंद्र
मोदी पर पहली बार व्यक्तिगत हमला किया। राहुल ने मोदी का नाम लिए बगैर कहा कि
उन्होंने बहुत से चुनाव लड़े हैं। लेकिन पहली बार लिखा है कि शादीशुदा हैं। पत्नी
का नाम छिपाते हैं। लेकिन अपना पूरा जोर एक महिला की जासूसी में लगा देते हैं। जबकि
खुद राहुल कुछ समय पहले तक अपनी पार्टी के लोगों से कहते रहे हैं कि विपक्षी
नेताओं पर व्यक्तिगत हमले नहीं करने चाहिए।
शाम होते-होते
कांग्रेस पार्टी ने इसी मुद्दे पर चुनाव आयोग का दरवाजा खटखटा दिया। कानून मंत्री
कपिल सिब्बल ने आयोग से कहा कि मोदी ने अपने पुराने हलफनामों में वैवाहिक स्थिति
छिपाई। इसलिए उनके खिलाफ कार्रवाई होनी चाहिए और उनके चुनाव लड़ने पर रोक लगनी
चाहिए। इससे पहले कांग्रेस की वेबसाइट पर पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी
का फोटो लगा कर उनके मोदी को राज धर्म का पालन करने की नसीहत देने वाले बयान की
याद दिलाई गई।
आखिर क्या वजह है कि
हर चुनावी सभा में सूचना, शिक्षा, स्वास्थ्य और भोजन का अधिकार देने की बात करने
वाले राहुल के भाषणों का ज्यादातर हिस्सा अब मोदी पर हमलों में केंद्रित होने लगा
है। क्या वजह है कि कांग्रेसी नेताओं की ज़्यादा दिलचस्पी मनरेगा और भूमि अधिग्रहण
कानून के बजाय नरेंद्र मोदी के वैवाहिक जीवन में दिखाई देने लगी है। कांग्रेस के
नेता यूपीए के दस साल के शासन की उपलब्धियों का बखान करने के बजाए इस बात पर
ज़्यादा चिंता क्यों कर रहे हैं कि बीजेपी में लाल कृष्ण आडवाणी और जसवंत सिंह को
उनका हक क्यों नहीं मिला?
लगता है कि इसके
पीछे बड़ी वजह गुरुवार को हुए तीसरे दौर का मतदान है। जिन 91 सीटों पर गुरुवार को
वोट पड़े उनमें 45 सीटें कांग्रेस के पास हैं जबकि बीजेपी के पास सिर्फ 13 और
मतदान के बाद मिले फीडबैक ने सभी राजनीतिक दलों को हैरान कर दिया है। ऐसा लग रहा
है कि पश्चिमी उत्तर प्रदेश, दिल्ली, महाराष्ट्र, मध्य प्रदेश, बिहार आदि राज्यों की
जिन सीटों पर मतदान हुआ वहां ज़्यादातर लोगों ने कांग्रेस के खिलाफ और मोदी के
समर्थन में वोट डाले हैं। कई सीटों पर लोगों ने ये जाने बिना कि बीजेपी का
उम्मीदवार कौन है, सिर्फ उसके चुनाव चिन्ह पर यह कहते हुए वोट दिया है कि वो सीधे
मोदी को वोट देना चाहते हैं। यानी इन सीटों पर 2009 के परिणाम उलटने की संभावना
व्यक्त की जा रही है। यहां तक कि पश्चिमी उड़ीसा में भी बीजेपी को समर्थन मिलने की
खबरें हैं। वहाँ बीजेपी ने कांग्रेस को पीछे छोड़ते हुए खुद को बीजेडी के बाद
दूसरे नंबर पर खड़ा कर लिया है।
चुनाव से पहले आए
तमाम जनमत सर्वेक्षणों में इस ओर इशारा किया जाता रहा लेकिन कांग्रेस इन्हें खारिज
करती रही। मगर तीसरे दौर के मतदान के बाद ये संभावना ज़ोर पकड़ रही है कि कहीं
कांग्रेस वाकई अपने अभी तक के सबसे खराब प्रदर्शन की तरफ तो नहीं बढ़ रही है। इससे
पहले कांग्रेस को 1999 में सबसे कम 114 लोक सभा सीटें आई थीं। इससे भी कम होने का
मतलब होगा उसकी प्रासंगिकता पर सवालिया निशाना लगना। ये व्यक्तिगत तौर पर राहुल
गांधी के लिए भी एक बहुत बड़ा झटका होगा क्योंकि कांग्रेस ये चुनाव उन्हें ही आगे
रख कर लड़ रही है। 2009 के चुनाव में मनमोहन सिंह कांग्रेस का चेहरा थे। लेकिन इस
बार राहुल गांधी ही कांग्रेस का चेहरा हैं और ये स्पष्ट है कि कांग्रेस की नाकामी
का ठीकरा उन्हीं के सिर फूटेगा। शायद यही वजह है कि कांग्रेस की पूरी कोशिश है कि
उसकी सीटें किसी भी तरह 1999 के आंकड़ें से नीचे न जा सके।
पर इसके लिए मोदी पर
व्यक्तिगत हमले शुरू करने की कांग्रेस की रणनीति कितनी कारगर हो पाएगी ये अभी
पक्के तौर पर कह पाना मुश्किल है। इससे पहले जब भी कांग्रेस ने मोदी पर व्यक्तिगत
हमले किए, मोदी ने उन्हें अपने फायदे के लिए इस्तेमाल कर लिया। मोदी अपनी पत्नी के
साथ रहे हैं या नहीं रहे, उन्होंने अपनी वैवाहिक स्थिति बताई या नहीं बताई, ये वो
व्यक्तिगत बातें हैं जिनसे आम भारतीय मतदाता का कोई सरोकार नहीं होता और न ही वोट
डालते वक्त उसे इन बातों से फर्क पड़ता है। खुद मोदी भी ऐसी व्यक्तिगत टिप्पणियां
करने में पीछे नहीं रहे हैं। कुछ महीनों पहले सोनिया गांधी की बीमारी और शशि थरूर
की ‘गर्लफ्रेंड’ के बारे में टिप्पणी
करने के लिए उनकी तीखी आलोचना हुई थी।
ये ज़रूर है कि
मतदाता को किसी भी नेता के व्यक्तिगत जीवन पर कीचड़ उछाले जाना कभी पसंद नहीं आता
और वो ऐसा करने वालों को मुंहतोड़ जवाब देता है। 2004 में सोनिया गांधी का विदेशी
मूल का मुद्दा उछालने वाली बीजेपी और उनके बारे में बेहद भद्दी टिप्पणी करने वाले
प्रमोद महाजन को मुंह की खानी पड़ी थी और जनता ने उन्हें बाहर का रास्ता दिखा दिया
था। इंदिरा गांधी को गूंगी गुड़िया बोलने वालों के मुंह भी जनता ने बंद कराए थे और
मनमोहन सिंह को सबसे कमज़ोर प्रधानमंत्री बताने वाले आडवाणी को भी जनता ने ही जवाब
दिया था। सवाल ये है कि अगर कांग्रेस इस सबसे सीख न लेते हुए भी अगर अपने प्रचार
अभियान को पटरी से उतारने पर तुल गई है तो क्या ये उसकी हताशा का प्रदर्शन नहीं है?
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