चुनावी चर्चा में इन
दिनों एक शब्द जो उछल-उछल कर जुबान पर आ रहा है वो है टोपी। बात परंपरागत मुस्लिम
टोपी की हो रही है। सितंबर 2011 में अपने सद्भावना मिशन के दौरान नरेंद्र मोदी ने इसे
पहनने से इनकार कर दिया था। अब एक टीवी इंटरव्यू में उन्होंने फिर कहा है कि
तुष्टिकरण के प्रतीकों के प्रचलन में उन्हें विश्वास नहीं है। जबकि बीजेपी के
अध्यक्ष राजनाथ सिंह की ऐसी ही टोपी पहने एक तस्वीर इन दिनों चर्चा का विषय बनी
हुई है। बीजेपी से रिश्ते तोड़ने से पहले नीतीश कुमार ने ये कह कर मोदी पर हमला
किया था कि देश की परंपरा ऐसी है कि इसमें टोपी भी पहननी पड़ती है और टीका भी
लगाना पड़ता है।
देश की राजनीति का
जैसा स्वरूप हो गया है उसमें टोपी, तिलक, पगड़ी या हैट सब पहनने या न पहनने के अपने
सांकेतिक महत्व बनाए जा रहे हैं। इफ्तार की राजनीति से चला ये प्रचलन धीरे-धीरे
तुष्टिकरण के प्रतीकों में शामिल होता जा रहा है। नब्बे के दशक में अचानक दिल्ली
के लुटियन ज़ोन में आई इफ्तार पार्टियों की बाढ़ ने देश की राजनीति में मुस्लिम
वोट बैंक और सियासत में उनकी भूमिका को फिर सेंटर स्टेज पर ला दिया। किस नेता के
घर इफ्तार पार्टी है और कौन-कौन इसमें शामिल हो रहा है, ये सियासी गलियारों में
चर्चा का बड़ा विषय बनने लगा। टोपी लगा कर फोटो खिंचाने और फिर इसे छपवाने की
परंपरा भी ऐसी इफ्तार पार्टियों से ही ज़्यादा प्रचलन में आई है। इसमें कोई नेता न
तो पीछे रहा और न ही रहना चाहता है।
बीजेपी में शुरू से
ही उदार छवि के नेता माने जाते रहे अटल बिहारी वाजपेयी भी इसमें कभी पीछे नहीं
रहे। बतौर प्रधानमंत्री वाजपेयी हमेशा ऐसी इफ्तार पार्टियों में गए और टोपियां लगा
कर फोटो खिंचवाए। ये अलग बात है कि तत्कालीन मंत्री शहनवाज़ हुसैन की एक ऐसी ही
इफ्तार पार्टी में उन्होंने अयोध्या में जन्मभूमि पर राम मंदिर और बाबरी मस्जिद
कहीं और बनाने की बात कह कर सियासी हंगामा खड़ा कर दिया था। 2004 के लोक सभा चुनाव
में फील गुड और इंडिया शाइनिंग पर सवार बीजेपी ने इसी प्रतीकात्मक और जिसे कि मोदी
तुष्टिकरण की राजनीति कहते हैं, को आगे बढ़ाते हुए वाजपेयी की प्रचार सामग्री में
पाकिस्तान के तत्कालीन राष्ट्रपति परवेज़ मुशर्रफ से मिलते हुए उनके फोटो भी लगा
दिए थे। जिसे लेकर आरएसएस के कई नेताओं ने मुंह बनाए थे।
लेकिन आरएसएस राष्ट्रीय
मुस्लिम मंच के ज़रिए मुसलमानों को अपने करीब लाने की कोशिश भी करती रही है। ये 2004
चुनाव के पहले से चला आ रहा है। इसका जिम्मा संघ के वरिष्ठ नेता इंद्रेश को दिया
गया है जिन पर अजमेर धमाकों में शामिल होने के आरोप लगाए गए और पूछताछ भी की गई।
इसी राष्ट्रीय मुसलिम मंच के हाल ही में दिल्ली में हुए एक कार्यक्रम में बीजेपी
अध्यक्ष राजनाथ सिंह ने मुस्लिमों से माफी मांगने की बात कही थी। इसे 2002 के
गुजरात दंगों से जोड़ कर देखा गया और ये भी माना गया कि राजनाथ खुद को उदारवादी
नेता के रूप में पेश करने के लिए ये बात कर रहे हैं। बाद में पार्टी ने सफाई दे कर
राजनाथ के बयान को रफा-दफा किया।
वही राजनाथ अब टोपी
लगा कर फोटो खिंचवा रहे हैं। लखनऊ में शिया संप्रदाय के धर्मगुरुओं से मिल रहे
हैं। इसके बाद शिया नेताओं के बयानों में राजनाथ को वाजपेयी के साथ खड़ा किया जाता
है और कहा जाता है कि मुसलमानों को मोदी से डर लगता है। ये महज संयोग नहीं है कि
राजनाथ सिंह ने गाजियाबाद सीट छोड़ कर लखनऊ सीट चुनी। वो लखनऊ सीट जो अटल बिहारी
वाजपेयी की पहचान बन गई है और बीजेपी में उनकी विरासत का प्रतीक। पर्चा भरने से
पहले राजनाथ वाजपेयी का आशीर्वाद लेते हैं और उनका दिया अंग वस्त्र पहन कर पर्चा
भरते हैं। जबकि गाजियाबाद सीट पर बीजेपी की हालत उतनी खराब नहीं थी जितनी कि
राजनाथ सिंह के समर्थक बताते हैं।
जाहिर है राजनाथ का वाजपेयी
की सीट से चुनाव लड़ना, शिया धर्म गुरुओं का राजनाथ को वाजपेयी जैसा बताना और इससे
पहले राजनाथ का गलतियों के लिए मुसलमानों से माफी मांगने की बात करना, इस बात की ओर
इशारा करता है कि किस तरह राजनाथ खुद की अटल बिहारी वाजपेयी जैसी उदारवादी छवि पेश
करने की कोशिश में लगे हैं। दिलचस्प बात ये है कि जब कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया
गांधी ने जामा मस्जिद के शाही इमाम से मुलाकात की थी तब राजनाथ सिंह ने उन पर सांप्रदायिक
राजनीति करने का आरोप लगाया था।
लाल कृष्ण आडवाणी
भारतीय राजनीति में एक बात के लिए हमेशा याद रखे जाएंगे। राम मंदिर के लिए उनकी रथ
यात्रा से बीजेपी को ज़बर्दस्त समर्थन मिला और पार्टी की ताकत में अभूतपूर्व
इज़ाफ़ा हुआ। लेकिन उन्होंने प्रधानमंत्री पद के लिए अपने बजाए अटल बिहारी वाजपेयी
का नाम आगे बढ़ाया क्योंकि वाजपेयी ने राम मंदिर आंदोलन से दूर रह कर अपनी
उदारवादी छवि को बनाए रखा था और उन्हीं के नाम पर बीजेपी नए सहयोगियों को जोड़
सत्ता में आ सकती थी। क्या फिर ऐसा ही हो सकता है?
चाहे जनमत सर्वेक्षणों
में एनडीए को स्पष्ट बहुमत मिलने की बात कही जा रही हो लेकिन बीजेपी में कई नेताओं
को अब भी उम्मीद है कि अगर ऐसा न हो पाए तो शायद मोदी के बजाए किसी दूसरे नेता के
नाम पर नए सहयोगियों को साथ लेकर सरकार बनाई जा सकती है। लेकिन वो शायद भूल जाते
हैं कि हिंदुत्व के पोस्टर बॉय की अपनी छवि पर मोदी ने अब विकास का चोला भी ओढ़
लिया है। मोदी चाहे वाजपेयी जैसी छवि अभी न बना पाए हों लेकिन उनके रहते किसी
दूसरे नेता को मौका मिल सके, इसकी संभावना न के बराबर है। इसलिए अभी चाहे कोई टोपी
लगाए या फिर टीका, 16 मई को किसका राज तिलक होगा, ये देखना अभी बाकी है।
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