तो आखिरकार बीजेपी
ने अमेठी और रायबरेली से अपने उम्मीदवारों के नामों का एलान कर ही दिया। अमेठी से
स्मृति ईरानी राहुल गांधी को चुनौती देंगी। जबकि रायबरेली में सोनिया गांधी का
मुकाबला करने के लिए बीजेपी ने अजय अग्रवाल का नाम तय किया है। कांग्रेस ने अभी तक
बनारस में नरेंद्र मोदी के खिलाफ अपने उम्मीदवार के
नाम का एलान नहीं किया है। जबकि अमृतसर में अरुण जेटली का मुकाबला करने के लिए
कांग्रेस ने एक मजबूत उम्मीदवार कैप्टन अमरिंदर सिंह को मैदान में उतारा है।
चुनावों में शीर्ष
नेताओं के खिलाफ मजबूत उम्मीदवार उतारना कोई नई बात नहीं है। ऐसा कई बार हो चुका
है। इसके पीछे रणनीति ये भी होती है कि पार्टी के सबसे बड़े नेता को उसके चुनाव
क्षेत्र में ही घेर दिया जाए ताकि उसे बाकी इलाकों में चुनाव प्रचार करने का वक्त ही
नहीं मिल सके। कई बार ऐसा भी हुआ है कि शीर्ष नेता को मुंह की खानी पड़ी है और चुनाव
के बाद के सारे राजनीतिक समीकरण धरे के धरे रह गए।
आपातकाल के बाद हुए
लोक सभा चुनावों में राजनारायण ने तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी को रायबरेली
से ही हरा दिया था। इस तरह उन्होंने 1971 में अपनी हार का बदला भी चुकाया था।
गौरतलब है कि इसी हार के खिलाफ दायर राजनारायण की याचिका पर इलाहाबाद हाई कोर्ट ने
12 जून 1975 को राय बरेली से इंदिरा गांधी के निर्वाचन के अवैध ठहराते हुए उनके
चुनाव लड़ने पर छह साल की पाबंदी लगा दी थी। इसके बाद की घटनाओं के चलते इंदिरा
गांधी ने देश में आपातकाल लगा दिया था। पिछले साल दिल्ली में अरविंद केजरीवाल ने
जिस तरह से शीला दीक्षित को हराया, उसके बाद राजनारायण की यादें ताज़ा हो गईं।
इसी तरह 1984 के
चुनाव में ग्वालियर से अटल बिहारी वाजपेयी को चुनौती देने के लिए माधवराव सिंधिया
मैदान में उतरे थे। दिलचस्प बात ये है कि कांग्रेस ने वाजपेयी के खिलाफ सिंधिया का
नाम बिल्कुल आखिरी वक्त पर घोषित कर बीजेपी को चकमा दिया था। इस चुनाव में सिंधिया
ने भारी मतों से वाजपेयी को हराया था और ‘जायंट किलर’ कहलाए। पार्टी में इससे उनका कद बहुत ऊँचा हो
गया।
1999 में कांग्रेस
अध्यक्ष सोनिया गांधी को बीजेपी ने इसी तरह से घेरने की कोशिश की थी। तब रातोंरात
सुषमा स्वराज को कर्नाटक की बेल्लारी सीट से उतारने का फैसला हुआ। कानोंकान किसी
को इसकी खबर नहीं हुई। आजादी के बाद से कांग्रेस ने ये सीट कभी नहीं हारी थी। सुषमा
ने मैदान में उतर कर कन्नड़ में चुनाव प्रचार किया। वो सोनिया गांधी से हार गईं।
मगर सिर्फ तेरह दिनों के प्रचार के बूते तीन लाख 58 हज़ार वोट हासिल किए और अपनी ओर
सबका ध्यान खींचा।
बहरहाल, इन पैमानों
से देखा जाए तो अमेठी में राहुल के मुकाबले स्मृति ईरानी और रायबरेली में सोनिया
गांधी के खिलाफ अजय अग्रवाल किसी भी सूरत में बड़े नाम नहीं कहे जा सकते हैं।
बीजेपी की कोशिश रायबरेली में उमा भारती को मैदान में उतारने की थी। लेकिन उमा इसके
लिए तैयार नहीं हुईं। बीजेपी में उन्हें झांसी और रायबरेली दोनों सीटों से चुनाव
लड़ाने पर भी विचार हुआ। लेकिन बाद में तय हुआ कि मोदी के अलावा किसी और नेता के
दो सीटों और खासतौर से एक ही राज्य की दो सीटों से लड़ने से गलत संदेश जाएगा।
इसलिए अजय अग्रवाल को टिकट दिया गया जो सुप्रीम कोर्ट के वकील हैं। बोफोर्स,
सीडब्ल्यूजी, तेलगी और ताज कॉरीडोर जैसे मामलों में वो जनहित याचिकाएं दायर कर
चुके हैं।
जबकि तेज़तर्रार
स्मृति ईरानी पार्टी में नरेंद्र मोदी की करीबी मानी जाती हैं। टीवी सीरियल
क्योंकि सास भी कभी बहू थी में तुलसी की भूमिका अदा करने से घर-घऱ में मशहूर हुईं
स्मृति की लोकप्रियता को बीजेपी ने पिछले लोक सभा चुनाव में भी भुनाने की कोशिश की
थी। तब उन्हें दिल्ली में चाँदनी चौक में कपिल सिब्बल के खिलाफ मैदान में उतारा
गया था। लेकिन स्मृति हार गईं थीं और बाद में उन्हें गुजरात से राज्य सभा भेजा
गया।
राजनीतिक जानकारों
का मानना है कि बीजेपी ने राहुल-सोनिया के खिलाफ भारी-भरकम उम्मीदवार नहीं उतारे
हैं। शायद इस उम्मीद में कि कांग्रेस भी बनारस में ऐसा ही करे। लेकिन
राजनीति वो क्षेत्र है जहां न स्थापित धारणाएं काम करती हैं और न ही प्रचलित
सिद्धांत। तरकश का अंतिम तीर विरोधी को धराशायी करने के लिए ही इस्तेमाल होता है।
देखना होगा कि कांग्रेस क्या करती है।
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