Friday, April 18, 2014

तीन देवियों से मोदी की टक्कर


वो अगर तूफान के पहले की खामोशी थी तो तूफान आने के बाद एहसास हुआ कि उस खामोशी के पीछे क्या राज़ था। बात तमिलनाडु की मुख्यमंत्री जे जयललिता की हो रही है जिन्होंने आखिरकार नरेंद्र मोदी और गुजरात के विकास मॉडल पर अपनी चुप्पी तोड़ ही दी। इसी तरह, पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी और उत्तर प्रदेश की पूर्व मुख्यमंत्री मायावती ने भी मोदी पर तीखे हमले बोलने शुरू कर दिए हैं। राजनीति की तीन देवियों के नाम से मशहूर इन तीनों ही कद्दावर महिला नेताओं ने मोदी पर निशाना साध कर इन अटकलों को विराम देने की कोशिश की है कि चुनाव के बाद वो बीजेपी के साथ जा सकती हैं। लेकिन क्या वाकई ऐसा है?

एआईएडीएमके सुप्रीमो, तमिलनाडु की मुख्यमंत्री जे जयललिता और नरेंद्र मोदी की मित्रता जगजाहिर है। बल्कि गुजरात दंगों के बाद से राजनीति में अलग-थलग पड़े और विपक्षी पार्टियों के हमले झेलते रहे नरेंद्र मोदी की तरफ शिवसेना और अकाली दल के अलावा अगर किसी ने हाथ बढ़ाया तो वो जयललिता ही थीं। हिंदुत्व के मुद्दों पर जयललिता बीजेपी के बेहद करीब हैं। ऐसे में स्वाभाविक है कि हिंदुत्व के पोस्टर बॉय नरेंद्र मोदी और जयललिता के संबंध मधुर हों। ये नज़दीकियां तब भी स्पष्ट होती रहीं जब दोनों ही नेता एक-दूसरे को चुनावी जीत पर बधाई देते रहे। 2011 में जयललिता के शपथ ग्रहण समारोह में मोदी ने हिस्सा लिया। जबकि 2012 में मोदी के शपथ ग्रहण समारोह में जयललिता ने अपना नुमाइंदा भेजा। ये माना गया कि एनडीए के विस्तार में सबसे पहले कोई अगर बीजेपी के साथ आएगा तो वो जयललिता ही होंगी। पर ऐसा हुआ नहीं।

अब नरेंद्र मोदी तमिलनाडु में घूम-घूम कर प्रचार कर रहे हैं। मोदी के प्रति राज्य में समर्थन बढ़ रहा है। बीजेपी ने पाँच पार्टियों के साथ तीसरा मोर्चा बना कर राज्य में एआईएडीएमके-डीएमके की परंपरागत लड़ाई में अपनी जगह बनाने की कोशिश की है। डीएमडीके के विजयकांत जैसे मजबूत सहयोगी के साथ बीजेपी गठबंधन राज्य में तीसरे विकल्प के रूप में उभरता दिख रहा है। इसीलिए जयललिता ने मोदी पर हमला बोला है। ऐसा कर वो मुस्लिम वोटों को अपने साथ लेना चाहती हैं। इसी के लिए शायद उन्होंने न तो बीजेपी के साथ चुनाव पूर्व गठबंधन किया और न ही इस बारे में कोई संकेत दिया। ये ज़रूर है कि लेफ्ट पार्टियों के साथ गठबंधन तोड़ कर उन्होंने भविष्य के लिए अपने विकल्प खुले रखे हैं। ममता बनर्जी के साथ उनकी दोस्ती मजबूत हो रही है। शायद किसी एक गठबंधन को बहुमत न मिलने की सूरत में वैकल्पिक मोर्चे के नेता के रूप में प्रधानमंत्री बनने की अपनी महत्वाकांक्षा को बल देने के लिए भी ये उनके लिए जरूरी है।

पश्चिम बंगाल में भी कुछ ऐसा ही हो रहा है। ममता बनर्जी वाजपेयी सरकार में शामिल रह चुकी हैं। राज्य में उनकी विरोधी लेफ्ट पार्टियां कहती हैं कि चुनाव के बाद ममता मोदी के साथ जा सकती हैं। जयललिता की ही तरह ममता को भी मुस्लिम वोटों की चिंता है। राज्य के मतदाताओं में मोदी के प्रति उत्सुकता देखने को मिली है। एक आकलन के मुताबिक अगर बीजेपी को मिले वोटों का प्रतिशत 20 से ऊपर जाता है तो ऐसे में वो तृणमूल कांग्रेस को जबर्दस्त नुकसान पहुँचा सकती है। शायद यही वजह है कि ममता को मोदी पर खुल कर हमला बोलने के लिए मजबूर होना पड़ा है।

जबकि मायावती की रणनीति बेहद दिलचस्प और रहस्यात्मक है। राजनीतिक जानकार हैरान हैं कि उत्तर प्रदेश में मायावती मोदी पर उस तीखे अंदाज़ में हमले क्यों नहीं कर रही हैं जिसके लिए वो जानी जाती हैं। कांग्रेस के साथ बीएसपी का गठबंधन न होना, उत्तर प्रदेश में बीजेपी के लिए सबसे अच्छी खबर रही है। पश्चिमी उत्तर प्रदेश में हुए मतदान के बाद बीजेपी ये दावा भी कर रही है कि वहां परंपरागत रूप से मायावती का समर्थन करने वाले जाटव वोट बैंक में भी उसे सेंध लगाने में कामयाबी मिली है। मायावती का खुद लोक सभा चुनाव न लड़ना भी कई सवाल खड़े कर रहा है। बीजेपी चाहे सार्वजनिक रूप से कहे कि राज्य में उसका प्रमुख मुकाबला समाजवादी पार्टी नहीं बल्कि बीएसपी से है, लेकिन ज़मीन पर ऐसा होता दिख नहीं रहा है। जमीन पर सपा ही बीजेपी का मुकाबला करती दिख रही है और इसीलिए मुस्लिम वोट ध्रुवीकृत होने के बजाए बंटते दिख रहे हैं। हालांकि मुस्लिम मतदाताओं को आश्वस्त करने के लिए मायावती कहती रही हैं कि चुनाव के बाद बीजेपी के साथ गठबंधन करने का सवाल ही पैदा नहीं होता।

ममता, मायावती और जयललिता के ये तेवर चुनाव से पहले के हैं। राजनीति में न तो कोई स्थाई शत्रु होता है और न ही मित्र। ये मानने का कोई कारण नहीं है कि अगर एनडीए बहुमत से दूर रहता है और इसे 272 के जादुई आंकड़े तक पहुँचने के लिए समर्थन की दरकार होगी तो वो इन्हीं तीन ताकतवर महिला नेताओं की ओर देखेगा। पर शायद सरकार के स्थायित्व को सुनिश्चित करने की ये कवायद कारगर साबित न हो। खासतौर से वाजपेयी सरकार के दौरान इन तीनों ही नेताओं के रवैये को देखते हुए। लेकिन ये तय है कि ऐसे हालात बनने पर इनकी एक बड़ी भूमिका जरूर होगी।


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