इसे अघोषित समझौता
कहें। या एक राजनीतिक परिपाटी। पर कुछ अपवादों को छोड़ ऐसा होता आया है। बड़े नेता
चाहे देश भर में घूम-घूम कर एक-दूसरे पर तीखे और करारे हमले करें, मगर एक-दूसरे के
चुनाव क्षेत्रों में प्रचार करने नहीं जाते। राहुल गांधी के चुनाव क्षेत्र अमेठी
में नरेंद्र मोदी की रैली एक ऐसा ही अपवाद है।
बीजेपी ने अमेठी में
मोदी की रैली कराने का फैसला बहुत सोच-समझ कर किया। पार्टी में इसे लेकर एक राय
नहीं है। कई बड़े नेता उस अघोषित समझौते या परिपाटी को तोड़ने को खिलाफ हैं। यहां
तक कि मोदी को छोड़ कोई दूसरा बड़ा नेता वहां पार्टी का प्रचार करने नहीं गया है।
अमेठी में मोदी की रैली कराने का फैसला पार्टी के महासचिव और यूपी के प्रभारी अमित
शाह का माना जा रहा है।
दरअसल, शाह का मानना
था कि स्मृति ईरानी के रूप में बीजेपी अमेठी में राहुल गांधी को कड़ी टक्कर देती
दिख रही है। गांधी-नेहरू परिवार का गढ़ बन चुके अमेठी में बीजेपी पहले भी चुनाव
जीत चुकी है। कांग्रेस से बीजेपी में आए संजय सिंह ने 1998 में ये सीट जीती थी।
हालांकि तब सोनिया या राहुल मुकाबले में नहीं थे। 1999 में सोनिया गांधी यहां से
लड़ीं और जीतीं। 2004 में वो पास की राय बरेली सीट चली गईं और राहुल गांधी यहां से
लड़े और तब से सांसद हैं।
मोदी की अमेठी में
रैली कराने के पीछे सोच ये है कि बीजेपी पूरे राज्य में लड़ाई में दिखनी चाहिए।
पार्टी रायबरेली की तरह अमेठी में वॉक ओवर नहीं देना चाहती थी। अमेठी में स्मृति
ईरानी जैसा मज़बूत उम्मीदवार उतारने के पीछे भी यही सोच थी। रायबरेली में पार्टी
सोनिया गांधी के मुकाबले उमा भारती को उतारने की सोच रही थी। लेकिन ऐसा नहीं हो
सका।
इसमें कोई शक नहीं है
कि पूरे देश में अमेठी-रायबरेली की पहचान गांधी परिवार से होने लगी है। स्थानीय
लोगों को इस बात का गर्व है। जबकि विपक्षी दलों के कार्यकर्ताओं को ये संतोष है कि
इसी बहाने कम से कम उनकी पूछ तो होती है। ये ज़रूर है कि चाहे अमेठी और रायबरेली
वीआईपी सीटें हों, लेकिन उत्तर प्रदेश के अन्य चुनाव क्षेत्रों की ही तरह वहां भी
तमाम तरह के स्थानीय मुद्दे हावी रहते हैं। बिजली-सड़क-पानी जैसी बुनियादी
सुविधाओं को तरसते अमेठी और रायबरेली के लोग ये उम्मीद भी छोड़ चुके हैं कि सोनिया-राहुल
इन मुद्दों पर ज़्यादा ध्यान देंगे।
लेकिन नरेंद्र मोदी
के अमेठी में चुनाव प्रचार करने से वहाँ चुनाव का नतीजा बदल जाएगा, इसकी संभावना
बेहद कम है। राहुल के चुनाव क्षेत्र में मोदी के चुनाव प्रचार करने का मकसद यही
दिखाना लगता है कि बीजेपी इस लड़ाई को बेहद गंभीरता से ले रही है। कोई हैरानी नहीं
है कि लोग अब पूछने लगे हैं कि अमेठी में क्या होगा? जबकि
वहां के चुनाव परिणाम में किसी बड़े उलट-फेर की बात कोई नहीं करता है। महत्वपूर्ण
बात ये भी है कि प्रियंका गांधी ने अमेठी और रायबरेली में डेरा डाल कर मोदी पर
सीधे हमले किए हैं और उन्हें इसका जवाब देने के लिए मजबूर किया। करीब डेढ़ हफ्ते
से मीडिया में प्रियंका सीधे मोदी से टक्कर लेती दिख रही हैं जबकि राहुल-सोनिया
पीछे छूट गए।
सवाल ये है कि
कांग्रेस इसका जवाब कैसे देगी? बनारस में कांग्रेसी उम्मीदवार अजय राय के
समर्थन में प्रचार की बात से प्रियंका इनकार कर चुकी हैं। बीच में खबर आई थी कि
शायद प्रियंका काशी विश्वनाथ का दर्शन करने के बहाने ही बनारस का दौरा कर लें,
लेकिन इसका भी खंडन कर दिया गया। कांग्रेसी रणनीतिकार इस बात से भी इनकार कर रहे
हैं कि बनारस में सोनिया या राहुल की चुनावी सभा होगी। ये ज़रूर है कि बनारस में
अजय राय के लिए रणनीति बनाने का जिम्मा कांग्रेस के बेहद सुलझे हुए नेता गुलाम नबी
आजाद को दे दिया गया है। लेकिन ये सब बातें तब की हैं जब मोदी का अमेठी में चुनावी
सभा करने का कार्यक्रम नहीं बना था। अब बदले हालात में शायद कांग्रेस भी अपनी रणनीति
पर दोबारा सोचे और राहुल या सोनिया को बनारस में चुनाव प्रचार के लिए उतारे।
1984 में अटल बिहारी
वाजपेयी को माधव राव सिंधिया ने हराया था। बीजेपी समेत तमाम विपक्षी दलों के
दिग्गज हार गए थे। लोक सभा में कांग्रेस के खिलाफ बोलने के लिए कोई दमदार विपक्षी
नेता नहीं बचा था। शायद इसी से सबक लेकर ये अघोषित समझौता या परिपाटी बनी हो कि
कुछ बड़े नेताओं का लोक सभा में होना लोकतंत्र के लिए भी ज़रूरी है। हालांकि 1999
में बेल्लारी में सोनिया गांधी के खिलाफ सुषमा स्वराज मैदान में उतरी थी। लेकिन
बड़े राजनीतिक विरोधी के चुनाव क्षेत्र में प्रचार न करने की परंपरा कायम बनी रही।
इस बार वो भी टूट गई है।
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