Thursday, July 30, 2015

सज़ा या बदला


याकूब मेमन को आखिरकार फांसी दे दी गई। तीन अदालतों ने उसकी फांसी की सज़ा को सही ठहराया था। कानून की किताब में किसी अपराधी के लिए सज़ा के खिलाफ अपील के जितने तरीके हैं उन सबका इस्तेमाल किया गया। यहां तक कि सुप्रीम कोर्ट में तीन जजों की बेंच ने आधी रात को सुनवाई की। राष्ट्रपति ने दया याचिका ठुकरा दी थी और राज्यपाल ने भी इसे सही नहीं पाया था।

कई बुद्धिजीवी फांसी की सज़ा पर सवाल उठा रहे हैं। सवाल उठाने का उनका वाजिब हक है। इस पर अगर बहस की शुरुआत भी हो तो उसमें कोई दिक्कत नहीं। ये तर्क दिया जा रहा है कि किसी भी प्रजातांत्रिक सरकार को अपने किसी नागरिक के प्राण छीनने का अधिकार नहीं होना चाहिए। दूसरा तर्क ये है कि आँख के बदले आँख निकालने से तो सब अंधे हो जाएंगे। तीसरी बात ये है कि किसी को फांसी देना सज़ा नहीं बल्कि बदला लेना है और किसी भी चुनी हुई सरकार को ये अधिकार नहीं मिलना चाहिए।

ये दलीलें अपनी जगह पर सही हैं। पर ये नहीं भुलना चाहिए कि भारत उन देशों में है जहां मृत्युदंड दिया जाता है और इसका एकमात्र तरीका फांसी है। सुप्रीम कोर्ट कई बार स्पष्ट कर चुकी है कि मृत्युदंड दुर्लभतम मामलों में दिया जाएगा। न्यायिक प्रक्रिया चाहे लंबी और धीमी हो मगर उसमें इस बात की गुंजाइश रहती है कि कोई बेगुनाह फांसी के फंदे तक न पहुंच सके। जब तक कानून की पुस्तक में मृत्युदंड की सज़ा का प्रावधान है और न्यायालय इस बात से संतुष्ट है कि अपराध बेहद जघन्य है, न्यायाधीश ये सज़ा देते रहेंगे।

अब बात आती है बदले की। अगर सज़ा देना बदला लेना है तो फिर ये उपाय सुझाया जाए कि किसी अपराधी का क्या होना चाहिए। और सिर्फ मृत्युदंड की बदला क्यों, उम्र कैद या दस साल की या दूसरे तरह के आर्थिक दंड बदला क्यों नहीं माना जाएगा। या हम एक ऐसे समाज की कल्पना करना चाह रहे हैं जहां कोई अपराध हो ही न और अगर हो भी तो हम अपराधी को यह कहते हुए छोड़ दें कि उसे सज़ा देना का मतलब होगा कि हम उससे बदला चुका रहे हैं।

क्या सज़ा से अपराध रुकते हैं। शायद नहीं। जिसे अपराध करने हैं वो तो करता रहेगा। मगर सज़ा न देना उस अपराध के प्रति आँखें मूंदना है और शायद दूसरों को बढ़ावा देना भी कि चाहे कितना ही बड़ा अपराध करें, सज़ा नहीं होगी।


जाहिर है इन सवालों के जवाब आसान नहीं। पर इनके जवाब खोजने ही होंगे। हमारी कल्पना का समाज पाना बेहद मुश्किल है। मौजूदा समाज में तमाम तरह के अपराध भी होते रहेंगे। हर अपराध की लिए सज़ा भी जरूरी है ताकि कोई इन्हें फिर करने के बारे में सोच भी न सके। 

Saturday, June 20, 2015

फोटो ब्लॉग- हिमालय की गोद में




जून के पहले हफ्ते मैं सपरिवार कुमाऊं की आठ दिन की यात्रा पर गया था। इस यात्रा की कई खट्टी-मीठी यादें हैं जो इस ब्लॉग के माध्यम से आप सब लोगों से बांट रहा हूं। 

एक जून 2015 पहला दिन

सुबह सात बजे हम रानीखेत के लिए निकले। मैं खुद गाड़ी चला रहा था। गूगल मैप ने एक दूसरा रास्ता सुझाया। रामपुर से स्वार-बाजपुर होते हुए कालाढूंगी फिर नैनीताल और रानीखेत। ये एक शॉर्ट कट है और इससे काफी समय बच जाता है। बाजपुर से पहले पांच किलोमीटर सड़क काफी खराब है। वहां गाड़ी चलाते समय सिर्फ एक ही सवाल दिमाग में आता है- ये गड्ढे कब खत्म होंगे? खैर शाम चार बजे हम रानीखेत पहुंचे। मैंने अपनी इस पूरी यात्रा में कुमाऊं मंडल विकास निगम के टूरिस्ट रेस्ट हाऊस में रुकने का फैसला किया था और वहां एडवांस बुकिंग कराई थी। लिहाज़ा रानीखेत में केएमवीएन के चिलियानौला टीआरएच में ही पहुंचे। थोड़ी देर बाद सूर्यास्त होने वाला था।

रानीखेत में सूर्यास्त
 रात को यहां खाने की खास बात रही कुमाऊं व्यंजनों का लुत्फ। हमने दाल और आलू की सब्जी का ऑर्डर किया। कुमाऊं व्यंजनों की खास बात है कि इनमें मैदानी मसालों के बजाए पहाड़ी हर्ब्स का छोंक लगाया जाता है। इनका स्वाद हमें हमेशा याद रहेगा।

दो जून 2015 दूसरा दिन

सुबह नाश्ता कर करीब दस बजे हम रानीखेत घूमने निकले। फलों का मशहूर बगीचा चौबटिया गार्डन देखा और वहां से आड़ू और आलूबुखारे खरीदे। यहां से बुरांश का ज्यूस भी लिया जिसने बाद के दिनों की पूरी यात्रा में हमारा भरपूर साथ दिया।  पहाड़ों की रानी रानीखेत की सुंदरता में चार चांद लगाने के लिए वहां स्वच्छता का खास ध्यान रखने के लिए दिन-रात मेहनत करने वाले कुमाऊँ रेजीमेंट के विभिन्न ठिकानों को देखते हुए गोल्फकोर्स देखा और फिर चौकोड़ी के लिए निकल गए। रास्ते में रानीखेत के घने जंगलों की सुंदरता ने मन मोह लिया।
रानीखेत की सुंदरता
रानीखेत से चौकोड़ी के रास्ते में हम बागेश्वर रुके। यहां महादेव का बहुत सुंदर मंदिर है। यहां सरयू और गोमती का संगम होता है। 
बागेश्वर में सरयू नदी

बागेश्वर से चौकोड़ी के रास्ते पर पहली बार हिमालय के दर्शन हुए। वैसे तो रानीखेत से भी हिमालय की पर्वतमालाएं दिखती हैं मगर गर्मियों में ऐसा कम ही हो पाता है। 

चौकोड़ी के रास्ते पंचचूली के दर्शन
शाम होते-होते हम चौकोड़ी पहुंच गए। यहां पर केएमवीएन का टीआरएच दूर से ही इतना सुंदर दिखता है कि रास्ते की सारी थकान दूर हो जाती है। वैसे तो हमें चौकोड़ी सिर्फ एक दिन ही रुकना था लेकिन यहां की सुंदरता देखते हुए हमने दो दिन रुकने का फैसला किया। 

केएमवीएन चौकोड़ी

तीन जून 2015 तीसरा दिन

केएमवीएन चौकोड़ी के मैनेजर जोशीजी बेहद मिलनसार हैं। उन्होंने हमें सुझाव दिया कि हम अगले दिन पाताल भुवनेश्वर जाएं। सुबह नाश्ता करने के बाद हम पाताल भुवनेश्वर के लिए निकले। बीच में सड़क बहुत खराब है। कई लोग इसकी बुरी हालत देखते हुए वापस आ जाते हैं। खैर हम चलते रहे। पाताल भुवनेश्वर से सात किलोमीटर से पहले सड़क ठीक है। वहां प्रवेश द्वार से रेंगते हुए करीब तीस फीट नीचे उतरना पड़ता है। पानी के रिसाव से लाइम स्टोन की चट्टानों में बेहद सुंदर आकृतियां बनीं हैं। ये पूरी यात्रा बेहद रोमांचक है और यहां जरूर जाना चाहिए। पौराणिक कथाएं भी इसकी साथ जोड़ी गई हैं इसलिए श्रद्धालुओं का भी तांता बंधा रहता है। चूंकि अंदर कैमरा ले जाने की अनुमति नहीं है इसलिए प्रवेश द्वार का ही फोटो लिया है।
पाताल भुवनेश्वर गुफाओं का प्रवेश द्वार

चार जून 2015 चौथा दिन

अब हम मुंस्यारी के रास्ते पर हैं। सड़क संकरी हो गई है और प्राकृतिक सौंदर्य चार गुना बढ़ गया है। पूरे रास्ते बीच-बीच में सड़क किनारे छोेटे-छोटे झरने हैं जिनका पानी सड़़क पर बहता है। इच्छा होती है पूरे रास्ते गाड़ी रोकते चलें। मुंस्यारी से पहले आता है बिर्थी जल प्रपात। ये दूर से ही दिखता है। नजदीक जाने पर इसकी गर्जना सिरहन पैदा करती है। 

बिर्थी जल प्रपात
 

पांच जून 2015 पांचवा दिन

मुंस्यिारी केएमवीएन की खास बात ये है कि जैसे ही आप कमरे से बाहर नजर डालते हैं पंचचुली चोटियां इतनी पास दिखती हैं जैसे उन्हें हाथ बढ़ा कर छू सकते हैं। मौसम तुनकमिज़ाजी है। पल में तोला पल में माशा। सुंदरता इस कदर कि इस बात पर भरोसा होता है कि ब्रम्हांड के सबसे बड़े चित्रकार ने बहुत फुर्सत में इस चित्र को बनाया है।


मुंस्यिारी का विहंगम दृश्य


मुंस्यिारी सही मायनों में पर्यटकों के लिए स्विटजरलैंड से कम नहीं है। यहां से ट्रैकिंग के कई रास्ते हैं। यहीं हैलीपेड पर हमारी मुलाकात कोलकाता के स्वपन कुमार पाल से हुई जो नंदा देवी के एडवांस बेस कैंप तक ट्रैकिंग कर आए थे। उन्होंने फोटो दिखाए तो मन ललचा उठा। फेसबुक पर उन्हें दोस्त बनाया और अब इन दुर्लभ फोटो का दीदार करते हैं। यहीं नंदा देवी मंदिर में गाड़ी सड़क पर खड़ी कर दर्शन करने गए और आए तो देखा कि किसी ने पीछे का शीशा तोड़ कर पत्नी के पर्स को खोल कर चुराने की कोशिश की। जब उसमें कुछ नहीं मिला तो छाता ही उठा ले गया। इस घटना से मन खट्टा हो गया।

ये एक अपवाद है


छह जून 2015 छठा दिन

मुंस्यिारी में दो रात बिताने के बाद हमने रुख किया बिनसर का। ये भी बहुत रोमांचक यात्रा है। केएमवीएन के आर्य साहब बिनसर केएमवीएन से कुछ महीने पहले ही आए थे। उन्होंने धौलचीना से एक शार्टकट बताया और गूगल मैप ने उनका समर्थन किया। लिहाजा अल्मोड़ा बायपास से जाने के बजाए इस रास्ते से गए और दो घंटे बचा लिए। बिनसर सेंचुरी गेट से केएमवीएन बिनसर करीब 14 किलोमीटर है। रास्ते भर झींगुरों की तेज़ आवाज़ और लंगूर स्वागत करते हैं। बियाबान, सुनसान और घने जंगलों के बीच लगता है किसी दूसरी ही दुनिया में पहुँच गए हैं। जब पहुंचे तो सूर्यास्त होने वाला था। लिहाजा पहले सनसेट प्वाइंट ही गए।

बिनसर में सूर्यास्त


बिनसर केएमवीएन की खास बात ये है कि वहां शाम को सिर्फ दो ही घंटे यानी सात से नौ बजे तक बिजली रहती है। उसके बाद मोमबत्ती की रोशनी, पूर्णिमा के चांद का उजाला और जंगल से आती जंगली जानवरों की आवाज़ें रोमांच को दोगुना कर देती है। 

सात जून 2015 सातवां दिन

अब हम दिल्ली के रास्ते पर हैं। मगर पहाड़ों से मन नहीं भरा। इच्छा हुई कि एक रात नैनीताल जरूर रुके। ये जानते हुए भी कि रविवार है और आधी दिल्ली नैनीताल में होगी, बच्चों की वजह से नैनीताल रुकने का फैसला हुआ। मित्र अमिताभ सिंह ने मदद की और अपने होटल में एक कमरा किसी तरह से उपलब्ध करा दिया। बच्चों को नैनी झील में बोटिंग करने में बहुत मजा आया।

नैनी झील से ऐसा दिखता है नैनीताल

आठ जून 2015 आठवां दिन

सोमवार नैनीताल का ज़ू बंद रहता है। उसे देखने की इच्छा मन में ही लिए बच्चों के साथ मालरो़ड का एक चक्कर लगाने के बाद घर के लिए निकल लिए। इस बार भी गूगल मैप की मदद से प्रयोग किया। वापसी में कालाढूंगी से रामनगर और काशीपुर होते हुए मुरादाबाद का रास्ता लिया। इससे बाजपुर के पहले की पांच किलोमीटर की खराब सड़क से बचाव हुआ और समय भी कम लगा। 

इस तरह हिमालय की गोद में पूरा एक हफ्ता बिताने के बाद घर वापसी हुई। उत्तराखंड के जिस हिस्से की हमने यात्रा की वो पर्यटन की लिहाज से बहुत लोकप्रिय नहीं है। मगर प्राकृतिक सौंदर्य से भरपूर है। आपको मौका लगे तो वहां जरूर जाएं। 

(All pictures taken by Apple iPhone 6 Plus)

Saturday, June 13, 2015

कैसे गिरी थी वाजपेयी की 13 महीने की सरकार?

(ओडिशा के पूर्व मुख्यमंत्री गिरिधर गमांग बीजेपी में शामिल हो रहे हैं। इसी पर ये ब्लॉग कल ndtvkhabar.com पर लिखा था। मेरी कही पर भी लगा रहा हूं)

राजनीति में कोई भी स्थाई मित्र या शत्रु नहीं होता है, अगर होता तो बीजेपी अध्यक्ष अमित शाह आज बाँहें फैलाकर उड़ीसा के पूर्व मुख्यमंत्री गिरिधर गमांग का स्वागत नहीं कर रहे होते। शाह से मुलाक़ात के साथ ही गमांग का बीजेपी आने का रास्ता साफ हो गया है। जल्दी ही ये औपचारिकता पूरी हो जाएगी। लेकिन गमांग के बहाने १७ साल पुराने उस विश्वास प्रस्ताव पर मतदान की याद ज़रूर ताज़ा हो गई जो वाजपेयी सरकार सिर्फ एक वोट से हार गई थी।

बात है १७ अप्रैल १९९९ की। एआईएडीएमके के समर्थन वापस लेने के बाद वाजपेयी सरकार को विश्वास प्रस्ताव रखना पड़ा। सुबह से ही संसद के गलियारों में गहमागहमी थी। लोक सभा की कार्यवाही शुरू होने के कुछ ही देर पहले बहुजन समाज पार्टी की नेता मायावती ने कहा कि उनकी पार्टी मतदान में हिस्सा नहीं लेगी। प्रमोद महाजन समेत सरकार के रणनीतिकारों ने राहत की साँस ली।

सदन की कार्यवाही शुरू होते ही सबकी नज़रें विपक्षी बेंच पर गई जहाँ उड़ीसा के मुख्यमंत्री गिरिधर गमांग बैठे मुस्करा रहे थे। वो ठीक दो महीनों पहले यानी १८ फ़रवरी को मुख्यमंत्री पद की शपथ ले चुके थे मगर उन्होंने लोकसभा से इस्तीफ़ा नहीं दिया था। वो कोरापुट संसदीय क्षेत्र की नुमांइदगी कर रहे थे। सत्तापक्ष के कुछ सांसदों की ओर से लोकसभा अध्यक्ष जीएमसी बालयोगी का इस ओर ध्यान दिलाया गया। लेकिन नियमानुसार मुख्यमंत्री बनने के छह महीने के भीतर विधानसभा का सदस्य बनना जरूरी है। तब तक तकनीकी तौर पर सांसद रह सकते हैं। हालाँकि नैतिक तौर पर ये कितना सही है इस पर आज भी बहस हो रही है।

जब मायावती के बोलने की बारी आई तो उन्होंने यू टर्न ले लिया। उन्होंने विश्वास मत के विरोध में वोट डालने का फैसला सुनाया और लोक सभा में हड़कंप मच गया। सरकार की स्थिति पहले ही नाज़ुक थी। प्रमोद महाजन आखिरी वक्त तक मोर्चाबंदी करते देखे जा रहे थे। पत्रकार दीर्घा खचाखच भरी हुई थी। मुझे सीढ़ियों पर बैठने की जगह मिल गई थी और वहाँ से स्पीकर की टेबल साफ देखी जा सकती है।

मतदान हुआ। गमांग ने सरकार के खिलाफ वोट दिया। तब नेशनल कांफ्रेंस के सांसद सैफ़ुद्दीन सोज़ मे पार्टी लाइन के खिलाफ जा कर सरकार के खिलाफ वोट दिया। वोटों की गिनती हुई। मैंने देखा कि बालयोगी बार-बार अपनी तर्जनी उंगुली उठा कर वाजपेयी को इशारा करने लगे। उनके चेहरे के भाव से स्पष्ट था कि वो इशारा कर रहे हैं कि सरकार एक वोट से हार गई। थोड़ी देर बाद स्पीकर ने एलान किया कि विश्वास प्रस्ताव के पक्ष में २६९ और विरोध में २७० वोट पड़े। तेरह महीने पुरानी वाजपेयी सरकार गिर चुकी थी।

पूरा सदन अचानक ख़ामोश हो गया। फिर विपक्षी पार्टियों का उत्साह फूट पड़ा। शरद पवार उठ कर मायावती के पास गए और गर्मजोशी से उनका शुक्रिया अदा किया। कांग्रेसी सांसद गमांग और सोज़ से लगातार हाथ मिला रहे थे। वाजपेयी ने हाथ सिर से लगा कर सलाम कर सदन का फैसला माना। बाद में पता चला कि उनके चैंबर में राजमाता विजयाराजे सिंधिया भावुक हो गईं थी और उन्हें ढाँढस बँधाते हुए वाजपेयी भी विचलित हो गए थे। उसके बाद राजनीति का चक्र जिस तरह घूमा वो अब इतिहास का हिस्सा है।

अगर सरकार को एक वोट और मिला होता तो टाई हो जाता और स्पीकर वोट डाल कर सरकार को बचा सकते थे।

गमांग अब सफाई देते घूम रहे हैं कि उनके वोट से वाजपेयी सरकार नहीं गिरी। उनका कहना है कि चीफ़ व्हिप ने उनसे मतदान करने को कहा था। उनके मुताबिक़ वाजपेयी सरकार तो सोज़ के वोट से गिरी थी। उड़ीसा की राजनीति में गमांग एक बड़ा नाम है। वो कोरापुट सीट से १९७२ से लगातार आठ बार सांसद रहे और २००४ में फिर इसी सीट से जीते। इंदिरा गांधी, राजीव गांधी और पी वी नरसिम्हाराव की सरकार में केंद्रीय मंत्री रहे। १८ फ़रवरी १९९९ से ६ दिसंबर १९९९ तक उड़ीसा के मुख्यमंत्री रहे। बीजेपी का कहना है कि ७२ साल के गमांग के रूप में एक बड़ा आदिवासी नेता मिला है। राज्य में नवीन पटनायक का जादू तोड़ने में कांग्रेस और बीजेपी दोनों नाकाम रहे हैं और बीजेपी का यही कहना है कि गमांग के आने से उसे अपनी ताकत बढ़ाने में मदद मिलेगी।

गमांग के एक वोट से वाजपेयी सरकार के गिरने के सवाल को बीजेपी भी अब ज्यादा तूल नहीं देना चाहती है। गमांग की ही तरह उसका भी अब कहना है कि इसके लिए सोज़ ज़िम्मेदार थे। यही सियासत का मिज़ाज है जहाँ बनती-बिगड़ती, दोस्ती-दुश्मनी में पिछली बातों को भुलाकर ही आगे बढ़ा जाता है।

Thursday, June 11, 2015

चोर की दाढ़ी में तिनका


म्यांमार में की गई भारतीय सेना की कार्रवाई पर पाकिस्तान की प्रतिक्रिया देख कर कोई हैरानी नहीं हुई। उसका करुण क्रंदन और उसी रुआंसे स्वर में भारत को धमकी देने का अंदाज़ अपेक्षित था। मजे की बात ये है कि भारतीय सेना ने कार्रवाई म्यांमार की सीमा में घुस कर की मगर तकलीफ पाकिस्तान को हो रही है। पाकिस्तान को ऐसा ही कष्ट तब भी हुआ था जब रक्षा मंत्री मनोहर परिकर ने कहा था कि कांटे से कांटा निकलता है। चोर की दाढ़ी में तिनका मुहावरा ऐसी प्रतिक्रियाओं के लिए ही ईजाद हुआ है।

पहले बात म्यांमार में हुए भारतीय सेना के ऑपरेशन की। लंबे समय बाद भारतीय सेना ने ऐसा कोई ऑपरेशन किया जब उसके कमांडो दूसरे देश की सीमा में गए और वहां जा कर उन्होंने आतंकवादी ठिकानों को नष्ट किया। ये कहने में कोई संकोच नहीं है कि बिना राजनीतिक दृढ़ इच्छा शक्ति और सर्वोच्च स्तर से हरी झंडी मिले बिना सेना इस तरह का ऑपरेशन नहीं कर सकती थी। 2010 में दोनों देशों में समझौता हुआ था कि भारतीय सेना आतंकवादियों के खिलाफ कार्रवाई करने के लिए स्थानीय सेना पोस्ट कमांडर से अनुमति लेकर म्यांमार की सीमा में जा सकती है। मगर अभी तक आतंकवादी हमलों की कड़े शब्दों में निंदा कर आगे की कार्रवाई के लिए सेना के हाथ बाँध दिए जाते थे।

दूसरी बात ये है कि म्यांमार की धरती को भारत विरोधी गतिविधियों के लिए इस्तेमाल क्यों होने दिया जा रहा है। कुछ वरिष्ठ रक्षा विश्लेषकों के मुताबिक म्यांमार के सैन्य शासन में मध्यम और निचली पंक्ति के अधिकारियों को आतंकवादी प्रोटेक्शन मनी देते हैं। यानी इन्हें घूस दी जाती है ताकि वो उनकी गतिविधियों और ठिकानों की तरफ आँख मूंद कर बैठे रहें। भारत ने इस कार्रवाई से म्यांमार को भी कड़ा संदेश दे दिया है कि वो अपनी धरती को भारत के खिलाफ गतिविधियों के लिए इस्तेमाल न होने दे। भारत के साथ म्यांमार की 1640 किलोमीटर की सीमा है जिस पर असम राइफल्स नजर रखती है। बांग्लादेश से खदेड़े जाने के बाद से ही उत्तर पूर्व के कई आतंकवादी संगठनों ने म्यांमार में पनाह ले रखी है।

अब बात पाकिस्तान की। पाकिस्तान सूचना प्रसारण राज्य मंत्री राज्यवर्धन सिंह राठौड़ की बातों से बौखलाया है। राठौड़ सेना में कर्नल रह चुके हैं। निशानेबाजी में ओलंपिक में मैडल जीता है। चार जून के हमले के बाद उनका खून भी खौला होगा। सेना के मनोबल पर इस तरह के हमलों का क्या असर होता है, राठौड़ इसे जानते हैं। खासतौर से तब जब जवानों की गाड़ी को पहले उड़ाया जाए, फिर उन पर खुखरी से हमला हो और बाद में तेल डाल कर जला दिया जाए। ऐसे में सेना जवाबी कार्रवाई करना चाहती है। ऐसा करना उसके लिए अपने जवानों के मनोबल को बनाए रखने के लिए जरूरी होता है। अभी तक कड़े शब्दों में भर्त्सना से काम चलता था मगर अब सरकार ने अपनी नीति बदली है।

राठौड़ इसी बदली नीति को जनता तक पहुँचा रहे थे। इसमें कोई शक नहीं है कि उनकी प्रतिक्रिया उतावलेपन में थी और वो शायद कुछ ज्यादा ही बोल गए। रक्षा प्रतिष्ठान से जुड़े लोग भी मानते हैं कि राठौड़ को अपनी प्रतिक्रिया में संयम बरतना चाहिए था। पर ये मानने का कोई कारण नहीं है कि राठौड़ की प्रतिक्रिया सरकार की सोची समझी संवाद रणनीति का हिस्सा नहीं थी। अगर सेना ने ऐसा ऑपरेशन किया है तो राजनीतिक तौर पर भी एक संदेश देना जरूरी था। खासतौर से तब जब कांग्रेस जैसी विपक्षी पार्टियां आतंकवादी हमलों पर बार-बार प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को छप्पन इंच का सीना दिखाने का उलाहना देती आई हैं।

लेकिन पाकिस्तान को घबराहट क्यों हो रही है। जब देश का विभाजन हुआ ही था तब से लेकर आज तक वो लगातार अपनी धरती पर ऐसे लोगों को पालता-पोसता आया है जो सीमा पार कर भारत में आतंकवादी गतिविधियों को अंजाम देते हैं। कारगिल जिसे हम भारत-पाकिस्तान का चौथा युद्ध मानते हैं, पश्चिमी देश लो इटेंसिटी कांफ्लिक्ट बताते हैं, वहां बड़े पैमाने पर पाकिस्तानी घुसपैठ हुई थी। तब अगर तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने अमेरिकी राष्ट्रपति को ये नहीं चेताया होता कि भारत नियंत्रण रेखा पार कर सकता है, तो शायद पाकिस्तान को अपने पैर पीछे खींचने के लिए मजबूर नहीं किया गया होता।

दूसरे देश की सीमा में घुस कर आतंकवादियों या अपराधियों के खिलाफ कार्रवाई सैन्य रणनीतिक भाषा में हॉट परसूट कहलाता है। जो लोग ये सवाल पूछ रहे हैं कि इस ऑपरेशन की सारी जानकारी सामने आने से क्या आगे इस तरह के ऑपरेशन करने में दिक्कत नहीं आएगी, ये वाजिब सवाल है। मगर ये ध्यान रहे कि अगर अमेरिका ने ओसामा बिन लादेन के खिलाफ अपने ऑपरेशन की जानकारी नहीं दी होती तो सच कभी सामने नहीं आता कि पाकिस्तान ने किस तरह ओसामा बिन लादेन को पनाह दे रखी थी। तब शायद पाकिस्तान के किसी अख़बार में अंदर के पन्नों पर एक कॉलम की खबर में जिक्र होता कि ऐबटाबाद के बाहरी इलाके में एक मकान में बम विस्फोट में कुछ अज्ञात लोग मारे गए। भारत ने म्यांमार में जो किया उसके बारे में कई सवालों के जवाब तुरंत नहीं मिल सकते क्योंकि न तो भारत और न ही म्यांमार इस बारे में पूरी जानकारी देगा। लेकिन इसके बाद भारत में ये आवाज़ें जरूर उठने लगी हैं कि पाकिस्तान के साथ भी ऐसा ही होना चाहिए।


ये एक अलग विषय है कि पाकिस्तानी सीमा में घुस कर भारतीय सेना इस तरह की कार्रवाई कर सकती है या नहीं, मगर पाकिस्तान को ये तो मानना ही पड़ेगा कि अब इस तरह की कार्रवाई संभव है। ये बदली सरकार की बदली सोच भी है और राजनीतिक नेतृत्व का मजबूत इरादा भी। पाकिस्तान इसका स्वाद तब चख चुका है जब उसे सीमा पर गोलाबारी का दोगुना जवाब मिला। शायद पाकिस्तान ये मान भी रहा है। यही वजह है कि उसकी तरफ से बौखलाहट भरी प्रतिक्रियाएं आ रही हैं। मोदी सरकार की ये सोच दक्षिण एशिया में शांति बहाल करेगी या इसे ज्यादा अशांत करेगी, ये विश्लेषण का विषय है। मगर ये तय है कि मोदी सरकार ने दक्षिण एशिया के लिए नई नीति बनाई है। इसमें पड़ोसी देशों के साथ बराबरी का बर्ताव कर उन्हें अपने साथ लेना और आतंकवाद के मुद्दे पर पाकिस्तान को अलग-थलग करना है। भारत से छिटक गए बांग्लादेश, नेपाल, श्रीलंका, भूटान, म्यांमार, मॉरीशस और मालदीव पिछले एक साल में उसके ज्यादा करीब आए हैं। ये मोदी सरकार की विदेश नीति की बड़ी कामयाबी मानी जा सकती है।

Sunday, May 17, 2015

कुमार राज ने बात तो सही कही, मगर....

अगर आप सोशल मीडिया पर सक्रिय हैं और कुमार राज को नहीं जानते तो एक बार फिर जरा फेसबुक या ट्विटर पर नजर डाल लें। कुमार राज छाया हुआ है।

कुमार राज सात साल का बच्चा है जो नालंदा का रहने वाला है। उसने बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार की मौजूदगी में शिक्षा व्यवस्था को लेकर अपनी समझ के हिसाब से कुछ कड़वी मगर सच बातें कही हैं। चौरसिया सम्मेलन में भाषण देने के लिए कुमार राज को बुलाया गया था। कुमार राज ने देश के हुक्मरानों को शिक्षा व्यवस्था पर आईना दिखाया है।

कुमार राज ने कहा कि देश में दो तरह की शिक्षा व्यवस्था है। अमीरों के बच्चे प्राइवेट स्कूलों में पढ़ने जाते हैं। गरीबों के बच्चे सरकारी स्कूलों में पढ़ते हैं। कोई भी डॉक्टर, वकील या इंजीनियर यहां तक कि सरकारी स्कूल के शिक्षक भी अपने बच्चों को सरकारी स्कूलों में नहीं पढ़ाना चाहते हैं। यही वजह है कि हम बच्चे हीन भावना का शिकार हो जाते हैं। कुमार राज ने कहा कि अगर वो संयोग से प्रधानमंत्री बन गया तो देश में सभी प्राइवेट स्कूल बंद करा देगा ताकि सभी बच्चे एक साथ सरकारी स्कूल में पढ़ सकें। वो चाहें इंजीनियर का बच्चा हो या मजदूर का। तभी देश में समान शिक्षा लागू होगी।

कुमार राज की बातों पर लोगों ने जम कर तालियां बजाईं। नीतीश कुमार शुरुआत में सिर झुकाए शायद कुछ कागजों में खोए हुए थे। मगर तालियों की गूंज ने कुमार राज की बातों में उनकी दिलचस्पी जगा दी। खासतौर से जब कुमार ने प्रधानमंत्री बनने के बाद प्राइवेट स्कूलों को बंद कराने की बात कही, नीतीश कुमार भी मुस्कराए बिना नहीं रह सके। बाद में किसी अख़बार में छपा कि उन्होंने शायद कुछ ऐसा कहा कि अगर चायवाला प्रधानमंत्री बन सकता है तो पानवाला क्यों नहीं।

लेकिन बात चायवाले और पानवाले की नहीं है। और न ही अकेले बिहार की शिक्षा व्यवस्था की क्योंकि सोशल मीडिया पर कुमार राज के बहाने नीतीश कुमार और राज्य की शिक्षा व्यवस्था पर निशाना साधा जा रहा है। ये शायद इसीलिए हो रहा है कि कुछ दिनों पहले बिहार के एक स्कूल की तस्वीर ने खूब सुर्खियां बटोरी थीं जहां परीक्षा की दौरान नकल कराने के लिए लोग जान हथेली पर रख कर स्कूल की तीसरी मंजिल तक चढ़ गए थे।

कुमार राज ने गहरे सवाल उठाए हैं। उसकी सीधी-सरल भाषा झकझोर देती है। उसने एक कड़वी हकीकत बयान की है। ये भारत और इंडिया का फर्क बताती है। ये फर्क अ-अनार का और ए फॉर एपल का है। और ये भी कि किस तरह हीनभावना से ग्रसित भारत इंडिया बनने की चाह रखता है क्योंकि सरकारी स्कूल के शिक्षक भी अपने बच्चों को प्राइवेट स्कूलों में ही भेज रहे हैं। ये सिर्फ व्यक्तिगत आर्थिक सामाजिक क्षमता से अच्छी नौकरी जैसी कोई महत्वाकांक्षा पूरी करने की सोच भर नहीं है। बल्कि एक बड़े अंतर को पाटने की इच्छा है।

ये अंतर धीरे-धीरे बड़ा होता गया है। हालांकि इस समझने में शायद उन लोगों को ज्यादा देर लगी जिनकी पृष्ठभूमि ग्रामीण, आंचलिक या फिर आर्थिक रूप से कमजोर है। शिक्षा के महत्व का सबको अहसास है। अमीर से लेकर गरीब-मजूदर तक। परंतु आर्थिक विषमता ने समाज में जिस तरह की असमानता पैदा की है वह रोज के आचार-व्यवहार से लेकर हर तरह के स्वभाव में दिखाई देती है। ये एक अलग किस्म का छुआछूत है जो बचपन को प्राइवेट और सरकारी स्कूलों में बांट देता है। हीन भावना भी यहीं से घर करना शुरू करती है। बचपन से जवानी और फिर नौकरी से लेकर पेंशन तक हर जगह यह हीन भावना साथ चलती रहती है। कॉल सेंटर से आए फोन पर अंग्रेजी में बात न कर सकने की झुंझलाहट, किसी अपरिचित व्यक्ति की ओर से अंग्रेजी में हुए संवाद की शुरुआत का जवाब न दे पाने की विवशता जैसी वो तमाम बातें हैं जो शायद सरकारी स्कूल के शिक्षक तक को अपने बच्चों को प्राइवेट स्कूल भेजने पर मजबूर कर रही हैं।

मगर कुमार राज ने जो रास्ता सुझाया है वो सही नहीं है। प्राइवेट स्कूलों को बंद करना इस खाई को पाटने का तरीका नहीं हो सकता। कुमार राज ने सिर्फ बिहार की नहीं बल्कि पूरे देश की शिक्षा व्यवस्था पर सवाल उठाया है। पर ऐसा क्यों है कि सरकारी स्कूलों से पढ़ कर निकले बच्चे भी ऊंची जगहों पर पहुँचते हैं। आईआईटी, आईआईएम, सिविल सेवा हर जगह ऐसे लोगों की भरमार है जो टाटपट्टियों पर बैठ कर पढ़-लिखने के बाद वहां पहुँचे हैं।


प्राइवेट स्कूलों की फीस भर पाना हर किसी के बस की बात नहीं है। अगर आसपास के सरकारी स्कूलों में अच्छी शिक्षा मिले तो शायद लोग उसका विकल्प चुनने से नहीं हिचकिचाएंगे। कुमार राज ने बीमारी की ओर इशारा तो कर दिया है। अब उसके इलाज की जिम्मेदारी हुक्मरानों की है। ऐसा नहीं है कि उन्हें बीमारी और उसके इलाज के बाते में पता नहीं। लेकिन हर जगह सियासत की बात करने वाले शायद जानबूझकर उस ओर ध्यान देना नहीं चाहते। वरना न तो चौरसिया समाज का सम्मेलन बुलाने की जरूरत पड़ती और न ही कुमार राज की प्रधानमंत्री बनने की इच्छा को चायवाले और पानवाले से जोड़ने की।    

Monday, April 20, 2015

जमीन के बिना विकास नहीं

अधिग्रहण का मतलब ही है जबरन लेना। ये भी तय मानिए कि बिना जमीन छीने विकास नहीं हो सकता। कुछ अपवादों को छोड़ दें, तो ये भी तय है कि इस विकास का फायदा उन्हें भी मिलता है जिनसे जमीन छीनी जाती है। किसानी फायदे का सौदा नहीं रहा। कभी बारिश के लिए भगवान भरोसे और जब बारिश न हो, या ज्यादा हो तो मदद के लिए सरकार भरोसे। कभी उपज का सही दाम नहीं मिलता। पुराने जमाने में साहूकारों और अब बैंकों के हाथों शोषण के लिए मजबूर। बढ़ता परिवार और छोटे होते खेत दो वक्त की रोजी-रोटी के लिए भी इंतजाम नहीं कर पा रहे। किसानी में साठ फीसदी से ज्यादा देश की आबादी लगी है। मगर इसमें भी आधे से ज़्यादा मजदूर हैं जिनमें वंचितों, दलितों और शोषितों की संख्या ज़्यादा है।


ये कुछ ऐसी दलीलें हैं जो भूमि अधिग्रहण कानून के विवाद की पृष्ठभूमि में सुनाई दे रही हैं। इन दलीलों में कितना दम है यह कह पाना मुश्किल है। पर ये ज़रूर है कि अर्थव्यवस्था के विकास के लिए अब दूसरे तरीकों पर अमल करने का वक्त जरूर आ गया है।

कुछ महत्वपूर्ण आंकड़ों पर नज़र डालें-

निर्माण क्षेत्र में महज 15 फीसदी आबादी लगी है। जीडीपी में इसका योगदान 16 फीसदी है। जबकि कृषि क्षेत्र में साठ फीसदी आबादी लगी है और जीडीपी में इसका योगदान 18 फीसदी है। 2020 तक भारत की 65 फीसदी आबादी युवा होगी। हर साल एक करोड़ युवाओं को रोजगार की तलाश होती है। इनमें बड़ी संख्या उन अकुशल या कम कुशल युवाओं की है जो गांवों से शहरों की ओर पलायन करता है। 2030 तक भारत की 40 फीसदी आबादी शहरों में रह रही होगी।

ये आंकड़ें क्या बताते हैं? इशारा साफ है कि अगर गांवों से शहरों की ओर पलायन रोकना है तो गांवों और कस्बों में ही रोजगार के अवसरों का निर्माण करना होगा। खेती में नए रोजगार नहीं बन सकते। निर्माण क्षेत्र को बढ़ावा देकर ही गांवों के युवाओं को रोजगार मिल सकता है। सेवा क्षेत्र में नए रोजगार के सृजन की संभावना कम है। और निर्माण क्षेत्र को बढ़ावा देने के लिए नए उद्योग-धंधे तब तक नहीं लग सकते जब तक उनके लिए जमीन मुहैया नहीं कराई जाए।

एक और रास्ता खेती के धंधे को फायदे का सौदा बनाना है। मॉनसून पर निर्भरता को कम करने के लिए सिंचाई का रकबा बढ़ाना। मध्य प्रदेश में कृषि उत्पादन दर 18-20 फीसदी होने के पीछे वहां सिंचित भूमि का विस्तार होना है। देश के उन बंजर और सूखे इलाकों में जहां उद्योग-धंधे नहीं लग सकते और न ही खेती हो सकती है, नहरों के जरिए पानी पहुंचाना ही नए रास्ते खोल सकता है। कच्छ, बुंदेलखंड और विदर्भ के इलाकों में ऐसा करने से किसानों को फायदा होगा। लेकिन बिना जमीन लिए नहर भी नहीं बनाई जा सकती।

यहां एक बात और भी ध्यान देने की है। खेती की मजदूरी में लगे दलितों और वंचितों को भी उनका हक, आत्म सम्मान और आजीविका दिलाने में औद्योगिकीकरण मददगार साबित हो सकता है। बाबा साहेब अंबेडकर भी छुआछूत मिटाने और दलितों को उनका अधिकार दिलाने के लिए आर्थिक सशक्तीकरण और औद्योगिकीकरण को एक बड़ा हथियार मानते थे।

बहरहाल ये सब बातें अपनी जगह हैं। मगर अभी तो भूमि अधिग्रहण एक बड़ा सियासी मुद्दा बन गया है। विपक्षी दल किसानों को ये समझाने में काफी हद तक कामयाब रहे हैं कि उनकी जमीनें छीनी जा रही हैं। वहीं बचाव की मुद्रा में आई सरकार समझ नहीं पा रही है कि अपनी बात किसानों तक कैसे पहुँचाई जाए।


Thursday, April 16, 2015

'गड़बड़ है 0+0=0 का अमित शाह का गणित'

बिहार में बीजेपी के सहयोगी दलों ने कहा है कि राज्य में लालू प्रसाद और नीतीश कुमार की पार्टियों के विलय को नजरअंदाज करना ठीक नहीं होगा और बीजेपी अकेले इनका मुकाबला नहीं कर सकती। राष्ट्रीय लोक समता पार्टी के नेता और केंद्रीय मंत्री उपेंद्र कुशवाहा का ये भी मानना है कि राज्य में चुनाव की रणनीति बनाने में बीजेपी अपने सहयोगी दलों की भी राय ले।

सोमवार को अंबेडकर जयंती पर बिहार में चुनाव अभियान की शुरुआत करते हुए बीजेपी अध्यक्ष अमित शाह ने लालू और नीतीश दोनों को शून्य बताया था। शाह ने कहा था कि ये दोनों शून्य हैं और दो शून्य मिल कर शून्य ही बनता है। लेकिन कुशवाहा इस आकलन से सहमत नहीं हैं।

उपेंद्र कुशवाहा ने एनडीटीवी से कहा कि अगर बीजेपी के लोग ऐसा कह रहे हैं तो जमीनी सच्चाई से इनकार कर रहे हैं। ऐसा करना युद्ध के मैदान में उचित नहीं होता है। ये बात सही है कि लालू और नीतीश की ताकत पहले जैसी नहीं रही है। पर साथ आने से मजबूती आ जाएगी। हवा में बात करने से रणनीति नहीं बन पाएगी।

कुशवाहा का आकलन सही भी है। क्योंकि हकीकत ये है कि मोदी लहर के बावजूद लोक सभा चुनाव में इन दोनों ही नेताओं के पैर नहीं उखड़े थे। चाहे दोनों की ही लोक सभा में सीटें न के बराबर आईं मगर वोटों में ज्यादा नुकसान नहीं हुआ। वो भी तब जबकि दोनों ही अलग-अलग चुनाव लड़ रहे थे।

लोक सभा चुनाव में लालू प्रसाद की राष्ट्रीय जनता दल को करीब 20 फीसदी वोट मिले जबकि नीतीश कुमार की जनता दल यूनाइटेड ने 16 फीसदी वोट हासिल किए। इस तरह दोनों के वोट मिला कर 36 फीसदी बनते हैं। अगर कांग्रेस पार्टी को मिले 9 फीसदी वोट मिला दिए जाएं तो बीजेपी विरोधी मोर्चे ने पिछले लोक सभा चुनाव में 45 फीसदी वोट हासिल किए वो भी तब ये सब अलग-अलग चुनाव मैदान में थे। जबकि एनडीए को 39 फीसदी वोट मिले थे। कुछ ही महीने बाद हुए विधानसभा उपचुनावों में इन दलों के साथ आने से तस्वीर पूरी तरह बदल गई।

अब हालात बदल गए हैं। लालू और नीतीश औपचारिक रूप से साथ आ गए हैं। कमजोर नेतृत्व और बिगड़े हालात से जूझ रही कांग्रेस के पास अलग चुनाव लड़ने का विकल्प नहीं है। ऐसे में लालू-नीतीश की नई पार्टी का कांग्रेस और दूसरे विपक्षी दलों के साथ चुनाव पूर्व गठबंधन हो सकता है जो बीजेपी को भारी पड़ सकता है।

कुशवाहा कहते हैं कि बीजेपी के लिए बिहार में अकेले अपने बूते पर कभी भी अच्छी स्थिति नहीं थी। एनडीए के लिए भी तब स्थिति ठीक थी जब लालू और नीतीश अलग थे। लेकिन अब स्थिति बदल गई है। बीजेपी के लिए आसान नहीं है पर एनडीए के लिए मुश्किल नहीं है।

इसीलिए कुशवाहा चाहते हैं कि बीजेपी बिहार के बारे में कोई भी रणनीति बनाते समय अपने सहयोगी दलों को भरोसे में ले। पूछने पर वो ये सीधा जवाब नहीं देते कि क्या एनडीए को नीतीश के मुकाबले मुख्यमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित करना चाहिए। उनका कहना है कि इस बारे में जो भी फैसला हो वो सहयोगी दलों के साथ बैठक कर होना चाहिए।

शाह ने दो शून्यों के जोड़ की बात चाहे एक जुमले के तौर पर कही हो, मगर ये एक बेहतरीन रणनीतिकार होने की उनकी छवि से मेल नहीं खाती। हो सकता है वो ये कह कर अपने कार्यकर्ताओं का मनोबल उठाना चाह रहे हों मगर जिस तरह से उनके अपने ही सहयोगी इस बात को खारिज कर रहे हैं, उससे साफ है कि बिहार में बीजेपी को अभी एक लंबी और कठिन लड़ाई के लिए तैयार रहना चाहिए।


Sunday, February 08, 2015

मांझी की नैय्या, बीजेपी की पतवार

बिहार को लेकर बीजेपी कहती है कि उसकी रणनीति इंतजार करो और देखो है। लेकिन हकीकत में बीजेपी की कोशिश है नीतीश कुमार को सत्ता का लालची व्यक्ति साबित करना। नीतीश कुमार राष्ट्रीय राजनीति में नरेंद्र मोदी के उभार के बाद से ही एक के बाद एक लगातार गलतियां करते जा रहे हैं। बिहार के मुख्यमंत्री जीतन राम मांझी को हटा कर खुद फिर से मुख्यमंत्री बनना उनकी एक और गलती बताई जा रही है।

लोक सभा चुनाव में नरेंद्र मोदी के हाथों मिली करारी हार के बाद नीतीश कुमार ने इस्तीफा देकर महादलित वर्ग के जीतन राम मांझी को ये सोच कर मुख्यमंत्री बनाया था कि वो भरत की तरह राम की खड़ाऊ सिंहासन पर रख कर शासन चलाएंगे और जिस दिन नीतीश इशारा करेंगे, मांझी उनके लिए कुर्सी खाली कर देंगे। लेकिन ऐसा नहीं हुआ।

बीजेपी के भीतर ये सोच है कि मांझी सरकार को बचाने के लिए पार्टी सीधे तौर पर कोई कोशिश करती हुई नहीं दिखाई दे। क्योंकि पार्टी नेताओं को लगता है कि ऐसा करने पर मांझी सरकार की अलोकप्रियता और नाकामी की बीजेपी भी हिस्सेदार बन जाएगी। लेकिन मांझी को सामने रख कर बीजेपी नीतीश पर हमले करते रहेगी। राम विलास पासवान, शाहनवाज हुसैन और गिरिराज सिंह के मांझी के समर्थन में और उनकी महादलित के नेता के रुप में उभारने के बयान इसी रणनीति के तहत आए हैं।

इस बीच प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भी मांझी से मुलाकात कर बिहार में संदेश दे दिया है कि बीजेपी चाहे मांझी को नाकाम मुख्यमंत्री माने लेकिन आने वाले वक्त में पार्टी उनका इस्तेमाल खासतौर से महादलित वोटों को अपने साथ लाने में कर सकती है। इस मुलाकात ने भविष्य में मांझी के बीजेपी के साथ आने के रास्ते भी खोल दिए हैं।

मांझी अब विधानसभा में बहुमत साबित करने को कह रहे हैं। ये संभावना कम ही है कि बीजेपी विधानसभा में उन्हें खुल कर समर्थन दे। या तो उनके विश्वास मत पर मतदान की नौबत ही नहीं आएगी क्योंकि मांझी इससे पहले भी इस्तीफा दे सकते हैं।

तब तक बीजेपी नीतीश पर हमले करते रहेगी। पार्टी कह चुकी है कि वो राज्य में चुनाव चाहती है जो वैसे भी इस साल के अंत में होने हैं। राष्ट्रपति शासन का विकल्प भी खुला रखा जा रहा है। इस बीच, नीतीश कुमार सरकार बनाने के लिए राजभवन से राष्ट्रपति भवन तक दौड़ लगाएंगे। विधायकों की परेड कराएंगे। लालू-मुलायम भी उनके साथ रहेंगे। ये सब करने पर बीजेपी उन पर सत्ता का लालची होने का आरोप लगाएगी।

अधिक संभावना यही है कि राज्य में चुनाव तय समय पर यानी दीवाली और छठ के आसपास हों। गर्मी में चुनाव की संभावना कम है क्योंकि चुनाव आयोग तब तक तैयारी नहीं कर पाएगा। बारिश में राज्य के कई इलाके बाढ़ प्रभावित होते हैं। हर लिहाज़ से अक्तूबर-नवंबर चुनाव के लिए सही बैठता है।

राज्यपाल की भूमिका बेहद अहम है। वो जो भी फैसला करेंगे वो संवैधानिक मान्यताओं के हिसाब से तो होगा ही उसके पीछे जेडीयू को बीजेपी की राजनीति भी नजर आएगी। नीतीश कुमार को मुख्यमंत्री पद की शपथ दिलाने में वैसे कोई अड़चन नहीं होनी चाहिए क्योंकि विधायक उनसे साथ ज्यादा हैं। पर ये फैसला होगा भी या नहीं और होगा तो कब होगा ये देखना दिलचस्प रहेगा क्योंकि इसी फैसले की बुुनियाद पर बिहार की आगे की राजनीति तय होगी।

Thursday, January 15, 2015

बीजेपी का 'ब्रह्मास्त्र' हैं किरण बेदी

पोस्टर पर मोदी का ही नाम रहेगा। नारों में भी मोदी ही छाएंगे। प्रचार भी मोदी के इर्द-गिर्द ही रहेगा। चुनाव मोदी के नाम पर ही लड़ेगी बीजेपी। लेकिन अब केजरीवाल अगर चाहें तो ऑटो के पीछे लगे पोस्टरों से जगदीश मुखी का रुआंसा चेहरा हटा कर अपने सामने किरण बेदी का फोटो लगा कर दिल्ली की जनता से पूछ सकते हैं कि वो किसी मुख्यमंत्री के रूप में देखना चाहेगी? उन्हें या किरण बेदी को?

बीजेपी की यही मंशा है। किरण बेदी को बिना मुख्यमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित किए केजरीवाल के हाथों से ये मुद्दा छीनना कि नरेंद्र मोदी तो मुख्यमंत्री बनेंगे नहीं। अगर बीजेपी को बहुमत मिलता है तो बेदी सीएम बनेंगी या नहीं ये बाद की बात है। पार्टी इस बारे में कोई भी फैसला अपनी संख्या देख कर ही करेगी। अगर पूर्ण बहुमत मिलता है तो संभवतः किरण बेदी के नाम पर विचार हो सकता है नहीं तो बीजेपी के पुराने नेताओं में से भी किसी को मौका मिल सकता है।

दरअसल, बीजेपी किरण बेदी को पिछले विधानसभा चुनाव से पहले भी अपने साथ लाना चाहती थी। लेकिन तब उनकी अपनी शर्तें थीं जिन्हें लेकर बीजेपी बहुत उत्साहित नहीं हुई। पर पार्टी को ये समझ में आ गया कि अगर डॉक्टर हर्षवर्धन को इस बार चेहरा नहीं बनाना है तो फिर अरविंद केजरीवाल की ईमानदार छवि से लड़ने के लिए उसे ऐसे ही लोग चाहिएं जो केजरीवाल को सामने-सामने जवाब दे सकें। सोच-समझ कर एक के बाद ऐसे लोगों से संपर्क किया गया। अण्णा हजारे के साथ सक्रिय रहे अश्विनी उपाध्याय को बीजेपी ने साथ लेकर मैदान में उतारा। प्रेस में वो रोज़ सवाल पूछ कर केजरीवाल पर निशाना साध रहे हैं। शाज़िया इल्मी को भी इसी रणनीति के तहत साथ लाया जा रहा है।

किरण बेदी, शाज़िया इल्मी और अश्विनी उपाध्याय को साथ लेने के पीछे मकसद भी यही है। ये दिखाना कि जिस रास्ते पर अण्णा हजारे चले थे केजरीवाल उससे भटक गए हैं। अगर ऐसा नहीं है तो फिर उनके साथ के ये तमाम लोग बीजेपी के साथ क्यों आ रहे हैं। वो चाहे भ्रष्टाचार का मुद्दा हो या फिर महिला सुरक्षा या फिर सुशासन, इन तमाम मुद्दों पर किरण बेदी अरविंद केजरीवाल के सामने कड़ी चुनौती पेश कर सकती हैं।


पर ये तय है कि बीजेपी अभी किरण बेदी को लेकर सस्पेंस बना कर रखना चाहती है। पार्टी अध्यक्ष अमित शाह ने इसका इशारा दिया भी और कहा कि आगे भी खबरें मिलती रहेंगी। लेकिन ये जरूर है कि अगर किरण बेदी चुनाव मैदान में उतरती हैं तो इसका सीधा मतलब यही होगा कि वो बीजेपी की सरकार बनने की सूरत में मुख्यमंत्री पद की प्रबल दावेदार होंगी। नरेंद्र मोदी और अमित शाह की जोड़ी राज्यों में मुख्यमंत्रियों बनाने में स्थापित मानदंडों को तोड़ कर आगे बढ़ रहे हैं। वो चाहे महाराष्ट्र में ब्राह्मण मुख्यमंत्री देना हो, हरियाणा में गैर जाट या फिर झारखंड में गैर आदिवासी। दिल्ली में भी अगर ऐसा ही कुछ हो तो हैरानी नहीं होगी।

Monday, January 12, 2015

मोदी ही लगाएंगे दिल्ली में बीजेपी की नैय्या पार

क्या बीजेपी की दिल्ली यूनिट पार्टी की देश भर की सारी यूनिट में सबसे निकम्मी है? मैंने बीजेपी के एक बड़े नेता से कुछ दिनों पहले पूछा। जवाब आया नहीं। पहले नहीं दूसरे नंबर की। पहले नंबर पर हरियाणा यूनिट है। लेकिन वहां हमने अपने बूते पर सरकार बना ली जिसके बारे में हम कभी सपने में भी नहीं सोच सकते थे। इसलिए दिल्ली में स्थानीय कार्यकर्ता या नेता चाहें या न चाहें, दिल्ली की जनता हमारी सरकार बनवाएगी और वो भी मोदी के नाम पर।

मोदी के नाम को लेकर बीजेपी नेतृत्व का यही आत्मविश्वास है जिसने उसे दिल्ली में जोड़-तोड़ की सरकार बनाने से रोक दिया और उसने राज्य में नए सिरे से चुनाव कराने का फैसला किया। वर्ना आधा दर्जन विधायकों का इंतज़ाम करना कोई बड़ी बात नहीं थी खासतौर से तब जब केंद्र में बीजेपी की सरकार बन चुकी थी। इसके लिए बीच में दो-तीन बार तो बात काफी आगे बढ़ भी गई थी। दिल्ली बीजेपी के लिए एक मृगमरीचिका साबित हो रहा है। जहां से पार्टी 1998 में सत्ता से बाहर हुई तो अभी तक वापस नहीं आ पाई है। पार्टी ने तमाम कोशिशें करके देख लीं। लेकिन सत्ता में नहीं आ पाई।    

फिर वैसा ही हो रहा है। एक बार फिर दिल्ली बीजेपी के कार्यकर्ता और नेता हाथ पर हाथ रखे बैठे हैं। इसका सबूत है बीजेपी के सांसदों की दिल्ली के गली-मोहल्लों में हुई नुक्कड़ सभाएं। इसके पीछे इरादा था जमीनी कार्यकर्ताओं को गतिशील बनाना। उन्हें चुनाव के लिए तैयार करना। मगर कार्यकर्ता से लेकर प्रदेश नेतृत्व और सांसदों में भी इसे लेकर उदासीनता दिखाई दी। कार्यकर्ता नुक्कड़ सभाओं के लिए कई जगहों पर भीड़ नहीं जुटा पाए। प्रदेश नेतृत्व सांसदों की सभाओं के तालमेल का काम ठीक से नहीं कर पाया। और तीन मंत्रियों समेत 22 सांसद समय देने के बावजूद सभाओं में नहीं गए। यही हाल रामलीला मैदान पर हुई नरेंद्र मोदी की सभा का रहा जहां दिल्ली बीजेपी एक लाख लोग जुटाने का लक्ष्य पूरा नहीं कर सकी।

दिल्ली बीजेपी की असली समस्या नेतृत्व की है। पार्टी आलाकमान ने यहां सारे मोहरे आज़मा कर देख लिए मगर उसे संगठन में जान फूंकने में कामयाबी नहीं मिल पाई है। पंजाबी बनिया नेतृत्व को बढ़ाने पर पूरबिया कार्यकर्ता नाराज़ होता है मगर वहां आलाकमान को कोई ऐसा नेता नहीं मिलता जिसे कमान सौंपी जा सके। दिल्ली के मतदाताओं के बदलते स्वरूप और उनकी आकांक्षाओं को पूरा करने में भी बीजेपी कामयाब नहीं हो सकी है। आलाकमान को ये भरोसा ही नहीं है कि उसके पास अरविंद केजरीवाल का मुकाबला करने के लिए कोई चेहरा है। इसलिए उसने नरेंद्र मोदी के नाम पर ही चुनाव लड़ने का फैसला किया है।

और यही वजह है कि बीजेपी दिल्ली में लंबे समय बाद कामयाब होने जा रही है। मोदी ने रामलीला मैदान की रैली में यह कह कर कि जो देश का मूड है वही दिल्ली का मूड है, दिल्ली के मतदाताओं के सामने साफ विकल्प भी पेश कर दिया है। दिल्ली में अमूमन यही होता आया है कि यहां के मतदाता, जिनमें बड़ी संख्या में सरकारी कर्मचारी और मध्य वर्ग के लोग हैं, हमेशा उसी पार्टी को वोट देते हैं जिसकी केंद्र में सरकार होती है। 1998 में ऐसा नहीं हुआ था क्योंकि तब प्याज़ की बढ़ी कीमतों से नाराज़ लोगों ने दिल्ली की बीजेपी सरकार के साथ केंद्र की वाजपेयी सरकार के खिलाफ भी वोट दिया था।

लेकिन इस बार ऐसा नहीं होगा। दिसंबर 2013 में आम आदमी पार्टी ने शानदार प्रदर्शन किया और बीजेपी बहुमत से दूर रह गई। लेकिन सिर्फ चार महीने बाद दिल्ली की सातों लोक सभा सीटों पर बीजेपी ने बड़े अंतर से जीत हासिल की। बीजेपी ने साठ विधानसभा सीटें जीतीं। आम आदमी पार्टी के वोट ज़रूर बढ़े मगर जो दस सीटें उसने जीतीं उनमें आठ वो थीं जहां कांग्रेस और दूसरी पार्टियों के विधायक हैं। बीजेपी को विधानसभा में जहां 33 फीसदी वोट मिले थे वो 13 फीसदी बढ़ कर 46 फीसदी पहुंच गए। आम आदमी पार्टी के वोट 29.49 से बढ़ कर 32.9 हुए जबकि कांग्रेस 24.5 से घट कर 15.1 फीसदी पर रह गई। दिल्ली में लोक सभा के नतीजे अगर विधानसभा के ठीक उलट आए तो इसकी वजह यही थी कि बीजेपी ने ये चुनाव पूरी तरह से मोदी के नाम पर और उन्हें प्रधानमंत्री बनवाने के लिए लड़े।

हाल ही में हुए महाराष्ट्र, हरियाणा, झारखंड और जम्मू-कश्मीर विधानसभा चुनावों के नतीजे बताते हैं कि मोदी का जादू बरकरार है। इन राज्यों में लोक सभा चुनावों की तुलना में विधानसभा चुनावों में बीजेपी के वोट प्रतिशत और सीटों में गिरावट जरूर आई है मगर विधानसभा चुनावों में हावी स्थानीlय मुद्दों और ताकतवर उम्मीदवारों के मद्देनजर ऐसा होता है। इन सभी राज्यों में विपक्ष बिखरा हुआ था। दिल्ली में भी ऐसा ही है। चाहे कांग्रेस तीसरे पायदान पर खड़ी हो फिर भी वो ऐसी पार्टी नहीं है जिसे पूरी तरह से नज़रअंदाज़ कर दिल्ली नतीजों का पूर्वानुमान किया जाए और इसीलिए यहां के नतीजों पर कांग्रेस का प्रदर्शन भी असर डालेगा क्योंकि बीजेपी विरोधी वोट आम आदमी पार्टी और कांग्रेस में विभाजित होंगे।

दिल्ली को लेकर बीजेपी की रणनीति का अंदाज़ा किराड़ी सीट से लगाया जा सकता है। बीजेपी के दबदबे वाली इस सीट पर आम आदमी पार्टी लोक सभा चुनाव में आगे हुई। अनाधिकृत कॉलोनियों को लेकर बीजेपी ने इसके बाद बड़ा फैसला किया और इस तरह उसकी कोशिश आम आदमी पार्टी के इस वोट बैंक में भी सेंध लगाने की है।


दिल्ली में बीजेपी की नैय्या नरेंद्र मोदी पार लगाने जा रहे हैं। पार्टी उन्हीं के नाम पर चुनाव लड़ रही है तो इसके पीछे वजह भी यही है। बीजेपी  को ये एहसास है कि अगर उसे दिल्ली में सत्ता से वनवास खत्म करना है तो उसे मोदी के नाम का ही सहारा है। 

Friday, January 09, 2015

क्योंकि अब इसी का ज़माना है

पेरिस में शार्ली एबदो पर हमले को लेकर यहां भीषण प्रतिक्रिया हो रही है। हर कोई अपनी राय रख रहा है। जो क्षुब्ध हैं वो भी और जो इसे जायज़ मानते हैं वो भी। पेशावर में बच्चों के पाशविक नरसंहार पर यहां आंसूओं का सैलाब बह उठा। देश-विदेश की घटनाओं की सूचनाएं और उन पर प्रतिक्रियायें सबसे पहले यहीं आ रही हैं। यहां उभरती आम लोगों की भावनाएं हुक्मरानों को अपने फैसले बदलने पर मजबूर कर रही हैं। ये सोशल मीडिया या न्यू मीडिया का युग है।

एक जनवरी को मैंने ट्विटर पर अपने मित्रों को नववर्ष की शुभकामनायें सोशल मीडिया के ज़रिए सशक्त बने रहने के साथ दी थीं। आम लोगों के सशक्तीकरण का इससे बेहतर कोई माध्यम नहीं हो सकता। ऐसा नहीं है कि लोग अखबारों-टीवी, जिन्हें एमएसएम यानी मेनस्ट्रीम मीडिया कहा जाता है, को सूचना के माध्यम के तौर पर इस्तेमाल नहीं कर रहे हैं। लेकिन ये कहना गलत है कि वो पूरी तरह से उस पर निर्भर हैं। बल्कि सोशल मीडिया की तीखे तेवरों के बाद एमएसएम से कथित निष्पक्षता का वो झीना आवरण भी गिरता जा रहा है जिसे ओढ़ कर वो पिछले कई दशकों से पाठकों और दर्शकों को प्रभावित करते आ रहे थे।

किशोरावस्था में अखबारों में पत्र संपादक के नाम लिखा करता था। कभी छपता था कभी नहीं छपता था। वो पाठकों से सीधे संवाद का अखबारों का इकलौता माध्यम था। धीरे-धीरे उसकी अहमियत कम होती गई। अखबार पाठकों से दूर होते गए। पत्र संपादक के नाम अब भी छपते हैं मगर उनकी जगह सिमटती चली गई। टेलीविजन में दो तरफा संवाद की कोई गुंजाइश ही नहीं है। वहां ये जानने या समझने का कोई जरिया नहीं है कि दर्शक किसी समाचार या विचार के बारे में क्या सोच रहा है। अगर किसी माध्यम से दर्शक अपनी बात पहुंचाना भी चाहे, जैसे कई बार न्यूज़ रूम में संपादकों के नाम पत्र आते हैं या फिर टेलीफोन कॉल, तो उन्हें सुनने या पढ़ने का कोई इंतज़ाम नहीं है और न ही किसी की उनमें दिलचस्पी होती है।

लेकिन सोशल मीडिया में ऐसा नहीं है। यहां आप अपनी बातों के लिए जवाबदेह तो हैं ही खुद को माइक्रोस्कोप में परखने के लिए भी तैयार रहना पड़ता है। यहां निष्पक्षता के मापदंड अलग हैं। यहां पोल खुलने में देर नहीं लगती। सोशल मीडिया ने मोबाइल पकड़े हर हाथ को अपनी बात कहने की आजादी दे दी है। लोकतंत्र का विस्तार कर दिया है या यूं कहें कि मीडिया का लोकतंत्रीकरण कर दिया है। ये साबित कर दिया है कि चाहे अखबार हो टीवी या फिर कोई सूचना का कोई अन्य परंपरागत माध्यम, वो सिर्फ माध्यम ही है। और बदलते समय और तकनीक के साथ उसकी जगह कोई और ले लेगा।

मान लीजिए कहीं कोई बड़ी घटना होती है। उसकी सूचना आप तक कैसे पहुंचेगी? अगर आप टीवी के सामने होंगे तो शायद वहां किसी चैनल पर फ्लैश चले। पर आप एक वक्त में एक ही चैनल देख सकते हैं और अगर उस चैनल ने वो खबर नहीं चलाई तो आप शायद अनभिज्ञ ही रह जाएं। वैसे भी कोई पूरे वक्त टीवी नहीं देखता है। अखबार अगले दिन आएगा। कोई जरूरी नहीं कि आप अपने घर जो अखबार मंगाते हों उसमें उसका जिक्र हो।

सोशल मीडिया के साथ ये समस्यायें नहीं हैं। ट्विटर और फेसबुक पर जानकारी देने वाले सिर्फ एमएसएम ही नहीं हैं। समाचार एजेंसियों को फॉलो कर भी जानकारियां पहले हासिल की जा सकती हैं। ऐसा भी होता आया है कि व्यक्तिगत स्रोतों से कई बार खबरें पहले सोशल मीडिया पर ब्रेक होती हैं और एमएसएम को इसके बारे में बाद में पता चलता है। हकीकत तो ये है कि आजकल हर न्यूज़ रूम में सोशल मीडिया की मॉनिटरिंग होती है और ये भी समाचारों का एक बड़ा स्रोत बन गया है।

दूसरा सोशल मीडिया का विचार पक्ष है। देश-दुनिया की हर घटना पर सबसे पहले प्रतिक्रिया सोशल मीडिया पर ही होती है। यहां हर खबर को देखने का आम लोगों का नज़रिया है जो वो बेबाक ढंग से रखते हैं। एक पक्षीय और एक तरफा समाचार और विचार पेश कर निष्पक्षता का ढोल पीटने और खुद को पाक साफ दिखाने का ढोंग करने वालों की यहां अच्छे से खबर ली जाती है। कई बार ये प्रतिक्रियायें असंयत, हिंसक, असभ्य और व्यक्तिगत हो जाती हैं जो किसी को भी असहज कर सकती हैं।

बावजूद इसके ये ऐसा माध्यम है जिसे नजरअंदाज करने से अब काम नहीं चलेगा। ये जनता की अदालत है। जिसमें फरियादी, वकील और जज जनता ही है न कि खुद को भगवान से कम न समझने वाले मुट्ठी भर लोग!!


Thursday, January 08, 2015

पीके की घर वापसी (भाग-2)

(पिछले ब्लॉग में आपने पढ़ा था कि धरती नाम के गोले पर नरक काटने के बाद पीके जब वापस अपने गोले पर गया तो क्या हुआ। अब आगे पढ़िए)

दोस्तों को पीके की कहानी सुन कर बहुत मज़ा आया। पर उनके मन में कई सवाल उठने लगे। एक ने पूछा क्यों बे! तू खुद एयर पोर्ट से घर जाते वक्त टिपोरी देव के यहां मत्था टेक कर आया। बेचारे धरती वालों को क्यों उलजूलूल का ज्ञान दे रहा था। दूसरे से भी नहीं रहा गया। वो पूछ ही बैठा कि धरती नाम के गोले पर लोग चर्च में शादी करने जाते हैं तो क्या मैरिज रजिस्ट्रार भी वहीं बैठता है। तीसरे ने मज़े लेने के लिए पूछा राजस्थान की तपती गर्मी में लोग शीशे बंद कर कार में ऐसा क्या करते हैं कि वो कार नाचने लगती हैं पर गर्मी का उन पर कोई असर नहीं होता। पीके तूने बताया कि लॉक अप में जाने के लिए तूने पेशाब की। जिस शहर की हर सड़क पेशाब की बदबू से लिपटी है क्योंकि हज़ारों लोग सड़कों पर ही निपटते हैं वहां तूझे सिर्फ इसी जुर्म में कोई पुलिसवाला लॉक अप में क्यों बंद करेगा भाई।

पीके अपने दिमाग पर ज़ोर डालने लगा पर उसे तुरंत कोई जवाब नहीं सूझे। आखिर में उसने तंग हो कर कहा भेजा लुल मत करो। इस पर दोस्त ने पूछ लिया तू छह घंटे तक सेक्स वर्कर का हाथ पकड़ कर बैठा रहा जिससे तूने भोजपुरी सीखी। पर तू ये नहीं सीख पाया कि कंडोम क्या है और बेचारी जगत जननी के न्यूज़ चैनल के दफ्तर में आधे घंटे तक कंडोम दिखा-दिखा कर सबको शर्मिंदा करता रहा। पीके चुप रहा। फिर एक नया सवाल आया। स्टेशन पर इतना भीषण विस्फोट हुआ कि तेरे सामने खड़ा भैरो सिंह मर गया पर तू सही सलामत वापस आ गया। ये कैसे हुआ। काफी देर से चुप एक दोस्त ने पूछा यार पीके ये बता कि सरफराज हर रोज कराची से बेल्जियम में पाकिस्तानी एंबेसी में फोन कर पूछता था कि जग्गू का फोन आया या नहीं। मगर जैसा तूने बताया कि धरती नाम के गोले पर एक गूगल बाबा भी है। इंटरनेट और स्मार्ट फोन का ज़माना है। क्या वो गूगल या यूट्यूब पर जा कर जग्गू के बारे में सर्च नहीं कर सकता था खासतौर से तब जब जग्गू एक न्यूज चैनल में काम करती थी। बेचारा रोज़ बेकार में ही आईएसडी पर पैसे बिगाड़ता था।

फिर एक नया सवाल आया। पीके कॉलेज के सामने तूने पत्थर पर पान का कत्था लपेट कर भगवान बनाया। परीक्षा देने जा रहे स्टूडेंट प्रणाम करने लगे, चढ़ावा देने लगे। तूने कहा देखो इनका डर। तूने ये नहीं देखा कि ये डर है या फिर उम्मीद, आस्था या विश्वास। तूझे वहां कुछ फर्जी बाबा मिले तो तूने सोचा भगवान से कनेक्शन बिठाने वाले सारे ऐसे ही हैं। पर क्या वहां ऐसे लोग नहीं थे जो कहते हैं कि भगवान हर जगह है। हर प्राणी में भी। कण-कण में भी। जिस मजहब में तैंतीस करोड़ देवताओं की बात होती है वहां एक पत्थर को पूजने पर तूने हैरान हो कर इतना बवाल क्यों काटा बे।

एक दूसरे दोस्त ने कहा तूने दुकानदार की बात पर भरोसा किया जो भगवान की मूर्तियां बेच रहा था। क्या तूने ये पता करने की कोशिश की कि सारे लोग ऐसे ही हैं या कुछ ऐसे भी हैं जो भगवान से मिलने का रास्ता बताते हैं। तूने ये नहीं सोचा कि लोगों को मुसीबत में भगवान ही क्यों याद आता है। अगर लोगों को उस पर भरोसा है तो इसमें इतना परेशान होने की क्या बात है। तूने तपस्वी का भांडा फोड़ अच्छा किया। हमें पता लगा कि वहां कुछ बाबा ऐसे भी हैं जो टीवी पर लोगों को ये बोल कर बेवकूफ बनाते हैं कि समोसा खाओ तो कृपा हो जाएगी। पर तू ये क्यों भूल गया कि उस धरती पर ज़्यादातर लोग सच्चे हैं, तपस्वी की तरह मक्कार या झूठे नहीं। तू ये क्यों मान बैठा कि धरती पर सब लोग ईश्वर, अल्लाह या गॉड को मानते हैं। कई ऐसे भी हैं जो किसी को नहीं मानते और उन्हें कोई इसके लिए जबर्दस्ती नहीं करता।

पीके इन सवालों से तंग हो चुका था। उसने झुंझलाहट में पूछा तुम सब तो मुझसे इस तरह से सवाल कर रहे हो जैसे मैंने कोई गलत काम कर दिया हो। मैं तो सिर्फ तपस्वी को एक्पोज़ करना चाहता था ताकि जग्गू के करीब जा सकूं। वापसी का रिमोट तो बहाना था असली इरादा तो जग्गू के नजदीक रहना था। तुम ही बताओ अपने गोले पर ऐसी कोई टीवी रिपोर्टर होगी जो सड़क चलते किसी भी आदमी को स्टोरी की चाह में अपने घर पर ले आए और उसके साथ खूब नाचे।  

दोस्त खिलखिलाकर हंस पड़े। एक ने पीके के कंधे पर हाथ मार कर कहा साले। हम तो वाकई लुल ही निकले। तू तो बड़ा स्मार्ट है रे। दूसरे ने आँख मारी और बोला अब तू घर जा कर क्या करेगा। भाभी तो बहुत गुस्से में है। पीके सोच में पड़ गया। बोला वाकई यार अब तो घर जाने का कोई मतलब नहीं है। बाकी दोस्त भी तफरीह के मूड में आ गए। बोले चल यार पीके। चल हम सब चलते हैं। एक बार फिर धरती नाम के गोले पर। हम भी मौज करके आते हैं आखिर ऐसे बेवकूफ कहां मिलेंगे जो अपना मज़ाक उड़वाने के भी पैसे देते हों।


अब इंतज़ार कीजिए बड़े पर्दे पर पीके 2 का।।