संसद का शीतकालीन
सत्र 15 दिसंबर को शुरू होगा यानी गुजरात में मतदान खत्म होने के ठीक एक दिन बाद।
पिछले साल यह सत्र 16 नवंबर को शुरू हुआ था और 16 दिसंबर को समाप्त हुआ। यानी हम
यह मान कर चल सकते हैं कि अगर इस साल गुजरात विधानसभा चुनाव नहीं होता तो शीत सत्र
भी नवंबर के तीसरे सप्ताह में शुरू होकर दिसंबर के तीसरे सप्ताह में समाप्त होता।
लेकिन विधानसभा चुनाव की वजह से संसद सत्र देर से शुरू हो रहा है और समाप्त 5
जनवरी को होगा यानी अगले वर्ष। सवाल पूछा जा रहा है क्या एक राज्य के चुनाव की वजह
से संसद का कामकाज टाला जा सकता है। लेकिन सवाल ये भी है कि क्या एक राज्य के
चुनाव की वजह से संसद में सामान्य कामकाज हो सकता था?
यह सवाल इसलिए
क्योंकि इससे पहले भी संसद के कई सत्र विधानसभा चुनावों का अखाड़ा बन कर हंगामे की
भेंट चढ़ चुके हैं। कई बार तो राजनीतिक दलों में आपसी सहमति से यह तय हो गया कि
चूंकि राज्यों के चुनाव अधिक महत्वपूर्ण हैं इसलिए संसद का सत्र या तो छोटा कर
दिया गया या फिर टाल दिया गया। सबसे ताजा उदहारण यूपीए सरकार के वक्त 2011 का है।
तब राजनीतिक दलों में सहमति बनी कि संसद के कामकाज से ज्यादा जरूरी पांच राज्यों
के विधानसभा चुनाव हैं इसलिए बजट सत्र छोटा कर दिया गया। सांसदों ने पाया कि
तमिलनाडु और पश्चिम बंगाल राज्यों के चुनाव में प्रचार के लिए समय नहीं मिल सकेगा
इसलिए बजट सत्र छोटा कर दिया गया।
यूपीए की एक और मिसाल
बेहद दिलचस्प है। 2008 में मॉनसून सत्र दिसंबर तक बढ़ा दिया गया था। यानी ठंड में
बारिश करा दी गई थी। इसके पीछे वजह यह थी कि मॉनसून सत्र में न्यूक्लियर डील के
विरोध में यूपीए सरकार के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव लाया गया था। नियमानुसार एक ही
सत्र में दो बार अविश्वास प्रस्ताव नहीं आ सकता इसलिए दोबारा अविश्वास प्रस्ताव से
बचने के लिए मॉनसून सत्र को दिसंबर तक खींच दिया गया था। इसी तरह तेलंगाना पर हो
रहे लगातार हंगामे के चलते यूपीए सरकार ने 2013 में शीत सत्र को दो दिन पहले ही
समाप्त कर दिया था।
हालांकि संसद सत्र
बुलाने या उसकी निश्चित अवधि रखने का कोई नियम नहीं है। नियम सिर्फ यह है कि दो
सत्रों के बीच छह महीने से अधिक का अंतर नहीं होना चाहिए। सरकारें अपनी सुविधा के
अनुसार सत्र कभी भी बुला सकती हैं और समय से पहले समाप्त भी कर सकती हैं। एनडीए
सरकार ने इसी बात का फायदा पिछले साल उठाया था जब बजट सत्र को दो हिस्सों में बांट
दिया था क्योंकि वो शत्रु परिसंपत्ति विधेयक को पारित नहीं करा पाई थी और दोबारा
अध्यादेश लाना चाहती थी।
लेकिन चुनावों का
असर सिर्फ संसद सत्र पड़ने पर ही सवाल क्यों उठाया जाता है। क्या हम यह नहीं देखते
हैं कि किस तरह बार-बार होने वाले चुनावों का सरकारों के काम पर असर पड़ता है। खजाने
पर बोझ पड़ता है और लोगों के कल्याण के लिए चल रही कई योजनाओं पर विपरीत असर होता
है। देश में हर वक्त कोई न कोई चुनाव कहीं न कहीं पर हो रहा होता है। पंचायत से
लेकर विधानसभाओं और लोक सभा के चुनाव तक। कहने के लिए विधानसभाओं और लोक सभा का
कार्यकाल पांच साल के लिए है लेकिन बीच-बीच में होने वाले उपचुनाव भी सरकारों के
हाथ बांधते हैं।
जाहिर है इसका सही
समाधान पूरे देश में एक साथ सारे चुनाव कराना है। इससे हर दो-तीन महीने में चुनाव
की वजह से होने वाली परेशानियों से छुटकारा पाया जा सकता है. परंतु इस समाधान को
विचारधारा का मुद्दा बना कर एक बड़ा तबका विरोध करता है। ऐसा नहीं है कि इसे लागू
करने में दिक्कतें नहीं हैं। इसका कम से कम अगले दस वर्ष का कैलेंडर बनाना होगा।
कई विधानसभाओं का कार्यकाल छोटा करना होगा तो कुछ का बढ़ाना होगा। लेकिन कहीं न
कहीं शुरुआत तो करनी होगी। अन्यथा चुनावों को लेकर संसद के कामकाज को लेकर
शिकायतें करने से कुछ हासिल नहीं होगा।
इसी के साथ संसद के
कामकाज का कैलेंडर बनाना और उसके कार्यदिवसों को तय करना होगा। संसद न सिर्फ कानून
बनाने का मंच है बल्कि सरकार की जवाबदेही और उसके कामकाज की पारदर्शिता को कसौटी
पर कसने का माध्यम भी है। न सिर्फ हर सत्र के शुरुआत और समापन की तारीखें तय हों
बल्कि कितने दिन काम हो, यह भी तय होना चाहिए। सांसदों को हंगामे के बजाए अपनी बात
तर्कों और तथ्यों से रखने के लिए भी प्रोत्साहित करने की आवश्यकता है। दिलचस्प बात
यह है कि पिछले चार साल यानी 2011 से 2016 के शीतकालीन सत्र के कामकाज का अगर
हिसाब लें तो पता चलता है कि सबसे कम काम शीत सत्रों में ही हुआ है। पिछले साल का
शीत सत्र इस लोक सभा का सबसे कम उत्पादक सत्र रहा है। हालांकि यह बहुत कुछ मुद्दों
पर भी निर्भर करता है परंतु सवाल यह भी है कि अगर संसद काम के बजाय सिर्फ शोर करने
के लिए है तो फिर क्या उसकी गरिमा कम नहीं हो रही है?
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