पाटीदार अनामत
(आरक्षण) आंदोलन समिति के नेता हार्दिक पटेल ने कहा है कि कांग्रेस गुजरात में
पाटीदारों को आरक्षण देने पर सहमत हो गई है। इसके लिए फार्मूला तैयार हो गया है और
विशेष कैटेगरी बनाकर आरक्षण दिया जाएगा। पटेल का कहना है कि इस फार्मूले के तहत राज्य
में दलित, आदिवासी और पिछड़े वर्ग को मिल रहे मौजूदा 49% आरक्षण को नहीं छेड़ा जाएगा बल्कि पचास फीसदी से ऊपर आरक्षण मिलेगा।
पटेल ये भी कहते हैं कि संविधान में कहीं नहीं लिखा है कि पचास फीसदी से अधिक
आरक्षण नहीं दिया जा सकता। पटेल ने कांग्रेस के वरिष्ठ नेता कपिल सिब्बल से बातचीत
के बाद ये ऐलान किया है। सिब्बल फार्मूले का खुलासा करने के बजाए सिर्फ इतना कहते
हैं कि संविधान के दायरे में रह कर आरक्षण दिया जाएगा।
जब पटेल कहते हैं कि
संविधान में कहीं नहीं लिखा है कि पचास फीसदी से अधिक आरक्षण नहीं दिया जा सकता और
कानून तथा संविधान के जानकार कपिल सिब्बल इस पर खामोश रहते हैं तो समझ जाना चाहिए
कि मामला इतना आसान नहीं है। क्योंकि शायद सिब्बल भी जानते हैं कि चुनाव में जाने
से पहले पाटीदार मतदाताओं को भरोसा दिलाने के लिए चाहे आरक्षण का लॉलीपाप थमा दिया
जाए लेकिन इसे लागू करना असंभव है। विशेष कैटेगरी बनाने के लिए आयोग का गठन ऐसा
वादा है जो आरक्षण की दिशा में तो ले जाता है लेकिन उसे पूरा नहीं करते। पूरा कर
भी नहीं सकते क्योंकि अदालतें ऐसा नहीं होने देंगी।
पचास फीसदी से अधिक
आरक्षण करने के लिए तमिलनाडु का उदाहरण बार-बार दिया जाता है। यह कहा जाता है कि
तमिलनाडु की ही तरह आरक्षण बढ़ा कर 69 फीसदी कर इसे संविधान की नौवीं अनुसूची में
रखा जा सकता है ताकि अदालतें इसकी पड़ताल न कर सकें। हालांकि इस पर सुप्रीम कोर्ट
का अंतिम फैसला अभी आना बाकी है। कांग्रेस गुजरात में संविधान के अनुच्छेद 31 सी
की तहत आरक्षण देना चाह रही है। यह अनुच्छेद नौवीं अनुसूची का मुख्य हिस्सा है
जिनके तहत बनाए गए कानूनों की वैधता को अदालतों में चुनौती नहीं दी जा सकती है।
लेकिन आज टाइम्स ऑफ इंडिया में छपी रिपोर्ट के मुताबिक 11 जनवरी 2007 को आई आर
कोइल्हो मामले में आए सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद ऐसा हो पाना संभव नहीं है।
इसमें कहा गया है कि अगर कोई कानून संविधान के मूल ढांचे से छेड़छाड करता पाया गया
तो उसे नौवीं अनुसूची के तहत सुरक्षा प्रदान नहीं होगी।
लेकिन सिर्फ
कॉंग्रेस ही नहीं, आरक्षण को चुनावी हथकंडे के तौर पर इस्तेमाल करने में बीजेपी या
अन्य राजनीतिक दल भी पीछे नहीं हैं। इससे बड़ी विडंबना नहीं हो सकती कि बीजेपी
हार्दिक पटेल के दावों की पोल खोलने के लिए सुप्रीम कोर्ट के जिस ताजा आदेश का
हवाला दे रही है वो उसके अपने ही शासन वाले राज्य राजस्थान का है। वहां गुर्जरों
को पांच फीसदी आरक्षण देने का राज्य सरकार का फैसला सुप्रीम कोर्ट ने इसी महीने यह
कहते हए रोक दिया कि ऐसा करने से आरक्षण की पचास फीसदी की सीमा पार हो जाएगी। गुजरात
बीजेपी सरकार ने ही पिछले दरवाजे से पटेलों को आरक्षण देने की कोशिश की थी। तब छह
लाख रुपए तक वार्षिक आमदनी पाने वाले गरीब सवर्णों को दाखिले में दस फीसदी आरक्षण
के लिए अध्यादेश लाया गया था लेकिन ये अदालतों में नहीं टिक सका था।
आरक्षण को वोट पाने
का राजनीतिक हथियार बनाने का यह खेल देश को पीछे ले जा रहा है। आरक्षण का झांसा
देकर और झूठे वादे कर चुनावों में वोट तो हासिल हो सकते हैं लेकिन इससे आरक्षण की
मूल सोच को बहुत गहरी ठेस पहुँचती है। सामाजिक और शैक्षणिक रूप से पिछडों को
आरक्षण देने के विचार के पीछे भारतीय समाज की गहरी समझ और उसके अंतर्विरोधों को
दूर करने की इच्छा रही है। हालांकि सुप्रीम कोर्ट ने इंदिरा साहनी मामले में
स्पष्ट किया कि आरक्षण देने का आधार आर्थिक रूप से पिछड़ा नहीं हो सकता लेकिन
ओबीसी आरक्षण में भी क्रीमी लेयर का प्रावधान यही सोच कर किया गया कि आरक्षण हक के
तौर पर नहीं बल्कि हक लेने के हथियार के तौर पर होना चाहिए। पचास फीसदी की सीमा भी
इसी फैसले में बांधी गई थी। इसके पीछे सोच यह रही है कि पचास फीसदी से अधिक आरक्षण
देने का मतलब होगा रिवर्स डिस्क्रिमिनेशन। मतलब ये कि आरक्षण लोगों को ऊपर से नीचे
लाने का जरिया बन जाएगा न कि नीचे से ऊपर ले जाने का।
चाहे गुजरात में
पाटीदार आंदोलन हो या राजस्थान में गुर्जर या फिर महाराष्ट्र में मराठा आंदोलन, शिक्षा
और नौकरियों में आरक्षण इन समस्याओं का न तो फौरी समाधान है और न ही दीर्घकालीन। खेती
से जुड़ी इन जातियों की समस्या का मूल कारण खेती में देश भर में आया संकट है।
परिवार बढ़ता गया है और खेत का आकार कम होता चला गया है। खेती से होने वाली आमदनी
कम हो रही है। रोजगार के अवसर नहीं हैं। सरकारी नौकरियों में ही सुरक्षित भविष्य
नजर आता है। देश के अलग-अलग राज्यों में आरक्षण के लिए नए सिरे से उठी मांग के
पीछे यही कारण है।
पर ये ऐसी समस्या है
जिसका हल तुरंत नहीं होने वाला है। शायद इसीलिए राजनीतिक दलों को लगता है कि
समस्याओं के दीर्घकालीन हल के बारे में बात करने या उस दिशा में काम करने के बजाए
चुनावों में वोट पाने का एक ही तरीका है- आरक्षण का झूठा वादा। यह जानते हुए भी कि
अदालतों में यह नहीं टिक सकेगा, राजनीतिक दलों में ऐसे वादे करना आम बात हो गई है।
पर सवाल ये है कि आम लोग हकीकत जानते हुए भी कब तक झांसों का शिकार होते रहेंगे?
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