इसे परपीड़ा से मिला आनंद कहा जा सकता है। लेकिन क्या वाकई ऐसा है? क्या हमारा शोषित, दबा-कुचला वर्ग नोट बंदी को एक तरह का अघोषित अमीर-गरीब का वर्ग संघर्ष मान कर इसमें अपनी जीत देख रहा है। इसकी अधिक अच्छी व्याख्या तो समाजशास्त्री कर सकते हैं। लेकिन साठ के दशक में सोवियत संघ की जिन साम्यवादी नीतियों से प्रभावित होकर पहले प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरु ने वामपंथी समाजवाद के रास्ते पर ले जाने का प्रयास किया, क्या ये उसी दिशा में उठाया गया कदम है? कतई नहीं। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को नजदीक से जानने का दावा करने वाले कुछ बीजेपी नेता उनके इस फैसले में प्रख्यात समाजवादी और नेहरु की नीतियों के विरोधी रहे राम मनोहर लोहिया की छाप जरूर देखते हैं।
ये दूर की कौड़ी नहीं है। लोहिया के विचारों और मोदी के फैसलों में सामंजस्य के बारे में करीब से अध्ययन करने की आवश्यकता है अन्यथा नोटबंदी हो या फिर मोदी सरकार के गरीबों के हितों में लिए गए अन्य दूसरे फैसले, उनका निष्पक्ष और संतुलित विश्लेषण नहीं हो सकेगा। मिसाल के तौर पर देखें कि राम मनोहर लोहिया कहते थे- "सरकार को अमीरों की आय पर नहीं उनके खर्च पर टैक्स लगाना चाहिए। इससे जो पैसा बनेगा इससे एक सिंचाई योजना बना कर खेतों तक पानी पहुंचा दो। किसानों का विकास अपने-आप ही हो जाएगा।" कोई हैरानी नहीं है कि नोट बंदी के बाद आय कर कानून में संशोधन का जो बिल मोदी सरकार लाई है उसमें गरीब कल्याण कोष बनाने की बात कही गई है। इसमें काला धन छुपा कर रखने वालों को पचास फीसदी टैक्स देकर बाकी 25 फीसदी पैसा गरीब कल्याण कोष में चार साल सरकार के पास रखने का प्रस्ताव है। इस पर सरकार कोई ब्याज नहीं देगी और बिल में साफ कहा गया है कि इस रकम का इस्तेमाल गरीबों और किसानों की भलाई के लिए किया जाएगा। जबकि 25 फीसदी पैसा तुरंत लिया जा सकता है।
इसी तरह लोहिया संपत्ति के मोह के खिलाफ थे। उनका मानना था कि इससे देश में अमीर और गरीब के बीच की खाई बढी है। वो अमीर और गरीब के बीच दीवार गिराने के पक्ष में रहे। उनका मानना था कि वंचितों की संख्या बहुत ज्यादा है और ऐसा करना उनके हक में होगा। लोहिया के समाजवाद को मानने वाले बीजेपी के हुकुम देव नारायण यादव जैसे खांटी नेता कहते हैं कि नोट बंदी का समर्थन देश के वो 85 फीसदी वंचित, गरीब, शोषित और पीड़ित और निम्न मध्य वर्ग के लोग कर रहे हैं जो अपना जीवन ईमानदारी की कमाई से गुजारते हैं। लेकिन पीएम मोदी की भ्रष्टाचार और काला धन विरोधी मुहिम के कामयाब होने के लिए ये जरूरी है कि पार्टी, सरकार और नौकरशाही का चेहरा बदले।
राजनीतिक हलकों में प्रधानमंत्री मोदी के नोट बंदी को इंदिरा गांधी के गरीबी हटाओ से जोड़ कर देखा जा रहा है। ये भी कहा जा रहा है कि चंद राजाओं के प्रिवीपर्स की मामूली रकम खत्म कर इंदिरा गांधी ने देश के एक बड़े हिस्से को ये संदेश देने में कामयाबी हासिल की थी कि राजे-रजवाड़े और जमींदारों के दिन देश में लद चुके हैं और अब गरीबों की भलाई के काम होंगे। इंदिरा ने इसे एक बड़े राजनीतिक नारे में बदल दिया। इसी तरह से बैंकों के राष्ट्रीयकरण का फैसला कर इंदिरा गांधी ने चुनावी कामयाबी हासिल करने की दिशा में कदम बढ़ाया था। तब कॉग्रेस ने बैंकों के राष्ट्रीयकरण के फैसले को गरीबों के हित में किया गया एक बड़ा फैसला बताया और वो जनता के बीच इसे लेकर गई। नोट बंदी के फैसले को भी इसी तरह गरीबों के हित में लिया गया फैसला परिभाषित करने और लोगों के बीच ले जाने में प्रधानमंत्री तो आगे हैं। मगर उनकी पार्टी पीछे रह गई।
इसके पीछे एक और वजह मानी जा रही है। बीजेपी की पहचान मूल रूप से अगड़ी जातियों की पार्टी के रूप में रही है। इनमें भी ब्राह्मण और बनिया जातियों की पार्टी के रूप में बीजेपी के विरोधी उसे पेश करते रहे हैं। लेकिन पिछड़े समाज से आने वाले नरेंद्र मोदी ने एक ही झटके में बीजेपी की इस पहचान को उखाड़ फेंका है। अब हालत ये है कि पारंपरिक समर्थक माने जाने वाला व्यापारी तबका नोट बंदी से सबसे ज्यादा प्रभावित और नाराज है। जबकि बीजेपी के साथ अब तक सिर्फ हिंदुत्व के नाम पर जुड़ने वाला पिछड़ा वर्ग एक आर्थिक फैसले के चलते साथ खड़ा नजर आने लगा है। नरेंद्र मोदी सत्तर के दशक में इंदिरा गांधी के फैसलों की याद दिलाते दिख रहे हैं तो वहीं कुछ लोगों को उनमें लोहिया की समाजवादी सोच की झलक दिखने लगी है। एक समानता ये भी दिखती है कि जहां लोहिया देश में गैर कांग्रेसवाद के जनक माने जाते हैं वहीं नरेंद्र मोदी ने कॉग्रेस मुक्त भारत का नारा दिया।
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