मैं उन चार सौ
ज़्यादा पत्रकारों में शामिल हूं जो 25 अक्तूबर को दिल्ली के 9 अशोक रोड पर बीजेपी
अध्यक्ष अमित शाह के दीवाली मिलन कार्यक्रम में मौजूद थे। किसी बीजेपी नेता के बुलावे
पर इस तरह के कार्यक्रम में उपस्थित रहने का ये पहला मौका नहीं था। लाल कृष्ण
आडवाणी के घर होली पर, मुरली मनोहर जोशी के घर दीवाली पर, शाहनवाज़ हुसैन के घर ईद
पर पत्रकारों के इस तरह के जमावड़े लगते रहे हैं। लेकिन इस बार फर्क ये था कि ये
कार्यक्रम बीजेपी की सरकार बनने के बाद हो रहा था और इसमें प्रधानमंत्री नरेंद्र
मोदी भी आए।
दरअसल, 15 अक्तूबर
को जब महाराष्ट्र और हरियाणा विधानसभा चुनावों के लिए मतदान चल रहा था उसी दौरान
पार्टी अध्यक्ष अमित शाह ने अनौपचारिक रूप से बीजेपी कवर करने वाले तमाम
संवाददाताओं से मुलाकात की। तब कई संवाददाताओं ने शाह से कहा कि जब से मोदी
प्रधानमंत्री बने हैं, उनसे मुलाकात नहीं हो पाई है। न ही संवाद का कोई सिलसिला
कायम हो पाया है। इस पर शाह ने वादा किया कि बहुत जल्दी ही मोदी पत्रकारों से
मिलेंगे।
25 अक्तूबर के
दीवाली मिलन के लिए पाँच सौ से ज्यादा संपादकों और संवाददातोँ को न्योता भेजा गया
था। प्रधानमंत्री आए और पहले मंच से दस मिनट का भाषण दिया। इस पूरे कार्यक्रम का
प्रसारण दूरदर्शन मल्टी कैमरा सेटअप के साथ कर रहा था। बाद में मंच से नीचे उतर कर
सभी संपादकों और संवाददाताओं से मिलने लगे। इसी दौरान कुछ पत्रकारों ने उनके साथ
सेल्फी ली। दूरदर्शन ने ये तस्वीरें लाइव दिखाईं और कई पत्रकारों ने फेसबुक और
ट्विटर जैसे सोशल मीडिया पर मोदी के साथ अपनी सेल्फी डाल दी। इसके बाद सोशल मीडिया
पर हंगामा हो गया। कई लोगों ने, जिनमें अधिकांश पत्रकार ही हैं, सेल्फी खींचने पर अपने
साथियों की आलोचना की और सवाल उठाया कि आखिर असाइनमेंट पर मौजूद पत्रकार आखिर इस
तरह किसी नेता के साथ फोटो कैसे खिंचवा सकते हैं। कुछ पत्रकारों ने ये कह कर भी
आलोचना की कि किसी भी संपादक या संवाददाता ने मोदी से कोई सवाल नहीं पूछा और
दीवाली मिलन से कोई खबर नहीं बनी।
मेरी व्यक्तिगत राय
में कुछ संपादकों और संवाददाताओं का प्रधानमंत्री मोदी के साथ इस तरह एक-दूसरे पर
गिरते-पड़ते सेल्फी खींचना पत्रकारिता के मापदंडों पर खरा नहीं उतरता। लेकिन इसे
मैं तात्कालिक उत्साह का परिणाम मानकर खारिज करने के पक्ष में हूं। इसे बहाना बना
कर सारे पत्रकारों पर निशाना साधना और उनकी व्यावसायिक प्रतिबद्धता पर उंगली उठाना
ठीक नहीं है।
सोशल मीडिया के दौर
में आज हर कोई फेसबुक-ट्विटर पर है। मैंने हाल की अपनी अमेरिका यात्रा पर पचासों
सेल्फियां लीं और उन्हें सोशल मीडिया पर डाल दिया। जहां तक सवाल प्रधानमंत्री या
किसी बड़ी शख्सियत के साथ फोटो खिंचवाने का है, इस मामले में मैं पत्रकारिता के
पुराने स्कूल का छात्र हूं, जहां इसे ठीक नहीं माना जाता है और इसीलिए मैंने मोदी
के साथ सेल्फी नहीं ली। मगर कई बड़े पत्रकारों की किताबों में जवाहर लाल नेहरु से
लेकर लाल बहादुर शास्त्री और इंदिरा गांधी से लेकर राजीव गांधी तक तमाम
प्रधानमंत्रियों के साथ उनके फोटो शान से दिखाए जाते हैं। सोशल मीडिया पर ही कई
वरिष्ठ पत्रकार अपने पुराने दिनों की याद ताजा करते हुए उन मशहूर लोगों के साथ की
अपनी तस्वीरें साझा करते हैं जिनसे वो कभी मिले होंगे।
आलोचना का दूसरा
हिस्सा मोदी से सवाल न पूछने को लेकर है। ये जानते हुए भी कि ये कोई प्रेस
कांफ्रेंस नहीं थी, कई संपादक और संवाददाताओं ने महत्वपूर्ण विषयों को लेकर मोदी
से उस वक्त बातचीत की जब वो मंच से नीचे उतर कर उनसे मिलने आए। इसमें सरकार की
नीतियां या आने वाले संसद सत्र के बारे में सवाल थे। मोदी ने हंस कर तमाम सवाल टाल
दिए।
महत्वपूर्ण नेताओं
के साथ इस तरह की अनौपचारिक मुलाकातें पत्रकारों के लिए कोई नई बात नहीं है।
कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी के साथ भी संपादकों और पत्रकारों की इस तरह की भेंट
होती रही है। पर वहां शायद सुरक्षा कारणों से मोबाइल ले जाने की अनुमति न होने से
सेल्फी न खिंच पाई हो। कांग्रेस के मीडिया सेल की कमान संभालने के बाद वीरप्पा
मोइली ने जब पत्रकारों को आमंत्रित किया तो वहां राहुल गांधी अचानक पहुंच गए थे।
उन्हें अपने बीच पाकर कुछ पत्रकारों में गिरने-पड़ने की वैसी ही होड़ लगी थी जैसी
मोदी को अपने बीच पाकर कुछ पत्रकारों में दिखी।
पत्रकारिता में
नैतिकता को लेकर बहस पुरानी है। सरकारी खर्च पर विदेश यात्रा कर सरकार का भोंपू बनना,
सरकारी घरों में रहना, विचारधारा या किसी अन्य फायदे की उम्मीद के चलते किसी
पार्टी या नेता के नजदीक आना और टेलीविजन स्टुडियो में उसका अघोषित प्रवक्ता बनना,
पत्रकारिता में ऐसी तमाम खामियां हैं जो मेरी नजर में शायद किसी नेता के साथ फोटो
खिंचवाने से ज्यादा गंभीर और बड़ी हैं। पर ये अच्छी बात है कि ‘सेल्फी कांड’ के बाद इन तमाम
विषयों पर एक सार्थक बहस शुरु हुई है।
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