दिल्ली के जवाहरलाल
नेहरु स्टेडियम में नौ अगस्त को राष्ट्रीय परिषद की बैठक में अपने अध्यक्षीय भाषण
में बीजेपी अध्यक्ष अमित शाह ने महाराष्ट्र और हरियाणा चुनावों को लेकर पार्टी की
रणनीति का संकेत दे दिया था। लेकिन तब अधिकांश राजनीतिक विश्लेषक इसे पकड़ पाने
में नाकाम रहे। अगर शिवसेना तब शाह के शब्दों को गौर से सुन रही होती तो शायद वो
सीटों के बंटवारे को लेकर बीजेपी के साथ न तो इस तरह उलझी होती और न ही गठबंधन
टूटने की नौबत आती।
शाह ने अपने भाषण
में चार राज्यों के विधानसभा चुनावों के संदर्भ में कहा था कि इन सभी राज्यों में
सरकार बनाने का बीड़ा पार्टी को उठाना होगा। लेकिन शाह सिर्फ यहीं नहीं रुके।
सुराज्य देने के बारे में उन्होंने एक महत्वपूर्ण बात कही। उन्होंने कहा “भाजपा कार्यकर्ता के नाते सभी
देशवासियों को सुराज्य देना हमारा परम कर्तव्य है। मगर इस कर्तव्य का पालन तभी हो
पाएगा जब कश्मीर से कन्याकुमारी और कच्छ से कोहिमा तक हर प्रदेश में भाजपा या
भाजपा के नेतृत्व वाली सरकारें होंगी।“
जरा शब्दों पर गौर फरमायें।
शाह साफ कह रहे थे कि या तो भाजपा की सरकार हो या फिर भाजपा की अगुवाई वाली सरकार।
यानी अगर गठबंधन की सरकार भी बनी तो उसकी अगुवाई भाजपा ही करेगी। ये केंद्र में
अपने बूते पर बहुमत हासिल करने वाली पार्टी का अध्यक्ष अपने कार्यकर्ताओं के लिए
एक बड़ा लक्ष्य तय कर रहा है। वो साफ कह रहे हैं कि केंद्र में सबसे बड़ी पार्टी
अब राज्यों में छोटे और क्षेत्रीय दलों की पिछलग्गू नहीं बनी रहेगी। वो अपनी ताकत
के हिसाब से हक मांगेगी। एक जाति, क्षेत्र, भाषा या धर्म की राजनीति करने वाली,
वंशवाद पर चलने वाली क्षेत्रीय पार्टियों के सामने बीजेपी अब नए अवतार में आएगी।
और ऐसा ही हुआ।
महाराष्ट्र में लोक सभा चुनावों में अपने हिस्से को कम कर शिवसेना और सहयोगी दलों
को ज्यादा सीटें देने वाली बीजेपी ने शिवसेना को इस बार याद दिलाया कि राज्य में
उसका आधार मजबूत हुआ है। लंबी बातचीत के बाद आखिरकार बीजेपी ने शिवसेना के सामने
147-127-14 का फार्मूला रखा। गौरतलब है कि बीजेपी ने पिछले विधानसभा चुनाव में 119
सीटों पर चुनाव लड़ा था। पार्टी सिर्फ 8 सीटें अधिक चाहती थी और वो ये भी चाहती थी
कि शिवसेना सहयोगी दलों को अपने कोटे से 14 सीटें दे ठीक वैसे ही जैसे बीजेपी ने
लोक सभा चुनाव में सीटों का अपना हिस्सा कम करे। लेकिन उद्धव 151 से नीचे जाने के
लिए किसी सूरत में तैयार नहीं हुए। यानी ये कहा जा सकता है कि चार सीटों के लिए
शिवसेना और आठ सीटों के लिए बीजेपी ने ये गठबंधन तोड़ दिया। मगर असली पेंच
मुख्यमंत्री पद को लेकर ही रहा क्योंकि शिवसेना को लगता था कि कम सीटों पर लड़ने
के बावजूद बीजेपी उससे ज्यादा सीटें जीत कर मुख्यमंत्री पद पर दावेदारी कर सकती
है।
हरियाणा की कहानी तो
और भी दिलचस्प है। गैर जाट वोटों की किलाबंदी करने के लिए बीजेपी ने कुछ साल पहले
कुलदीप विश्नोई के साथ विचित्र समझौता किया। सिर्फ एक सांसद वाली एक छोटी क्षेत्रीय
पार्टी के साथ लोक सभा- विधानसभा चुनाव के काफी पहले ही समझौता हो गया कि लोक सभा
में बीजेपी 8 और हरियाणा जनहित कांग्रेस 2 सीटों पर लड़ेगी। जबकि विधानसभा में
दोनों 45-45 सीटों पर चुनाव लड़ेंगी और ढ़ाई-ढ़ाई साल के लिए दोनों पार्टियों का
मुख्यमंत्री होगा। तब भी कई लोगों को लगा कि बीजेपी ने विश्नोई को उनकी ताकत से
ज्यादा दे दिया। लेकिन लोक सभा चुनाव में आए नतीजों ने इसकी पुष्टि की जब बीजेपी
ने 8 में से सात सीटें जीत लीं। मगर मोदी लहर के बावजूद विश्नोई की पार्टी दोनों
सीटें हार गई।
इसके बावजूद बीजेपी
ने गैर जाट वोटों के बिखराव को रोकने के लिए विश्नोई के सामने 20 विधानसभा सीटों
की पेशकश की। पार्टी ने ये भी कहा कि उप मुख्यमंत्री का पद हरियाणा जनहित कांग्रेस
को दिया जा सकता है। लेकिन विश्नोई इसके लिए तैयार नहीं हुए। नतीजे तो रविवार को आएंगे।
मगर एक्ज़िट पोल विश्नोई की पार्टी को लेकर बहुत अच्छी तस्वीर नहीं दे रहे हैं।
उन्हें शून्य से लेकर पाँच सीटें मिलने की संभावना जताई जा रही है। यानी जो पार्टी
अपने बूते पर हरियाणा में पाँच सीट भी नहीं जा पा रही है उसे पता नहीं क्या सोच कर 45 सीटें देने का करार
कर लिया गया था।
यही अमित शाह की
बीजेपी है। उत्तराखंड, बिहार और उसके बाद उत्तर प्रदेश के उपचुनावों में हुई हार
को भुला कर हरियाणा और महाराष्ट्र के नतीजों का इंतज़ार कर रही इस बीजेपी को भरोसा
है कि रविवार के बाद से इस नई बीजेपी की रफ्तार और तेज होगी। ये जरूर है कि पश्चिम
बंगाल, तमिलनाडु, ओडीशा जैसे राज्यों में शायद बीजेपी या बीजेपी के नेतृत्व की
सरकार बनाने का उनका लक्ष्य असंभव लगता है। मगर हरियाणा और महाराष्ट्र में अगर
बीजेपी अपने बूते सरकार बनाने में कामयाब होती है तो झारखंड और जम्मू-कश्मीर के
चुनावों में पार्टी नए हौंसले के साथ मैदान में उतरेगी। और बाद में होने वाले
बिहार, उत्तर प्रदेश जैसे राज्यों के लिए उसे नई ऊर्जा और ताकत मिलेगी। पार्टी का
लक्ष्य ‘कांग्रेस मुक्त राज्य सभा’ है। सरल भाषा में कहे तो वो चाहती है कि राज्य
सभा में उसे खुद बहुमत मिले ताकि अगले लोक सभा चुनाव से पहले अपने हिसाब से संसद
में कानून बनवा सके। इसके लिए भी राज्यों की लड़ाई जीतना उसके लिए जरूरी है। शाह
इसी दिशा में काम कर रहे हैं।
No comments:
Post a Comment