Friday, February 28, 2014

पासवान के पास आकर पास या फेल बीजेपी?


लुटियन दिल्ली बड़ी बेरहम है। हर तरफ फैले बड़े बंगले। कभी बंगलों की नजदीकियां रायसीना हिल की लड़ाई के लिए नए साथी दे देती है तो कई बार इस लड़ाई के लिए बंगलों के नजदीकियों के बावजूद दिलों में दूरियां हो जाती हैं। एक जनवरी 2004 को सोनिया गांधी अपने बंगले दस जनपथ से निकल कर पैदल चल दी थीं अपने पड़ोसी और बारह जनपथ में रहने वाले रामविलास पासवान के घर। नए साल के पहले दिन पड़ोसी से हाथ मिला कर यूपीए की नींव रखी और पाँच महीने बाद अटल बिहारी वाजपेयी जैसे दिग्गज को सात रेसकोर्स रोड से छह ए कृष्णा मेनन मार्ग भेज दिया।
इसी लुटियन दिल्ली में बृहस्पतिवार का दिन रहा पासवान के नाम। जनपथ से अशोक रोड तक का सफर। नरेंद्र मोदी के लिए सीएम से पीएम तक का उम्मीद का सफर। पासवान के लिए सांप्रदायिकता से धर्मनिरपेक्षता और फिर सांप्रदायिकता तक का सफर। राजनीति का विचित्र संयोग देखिए। ये सब घटनाक्रम उस दिन हुआ जिसके ठीक बारह साल पहले गुजरात के गोधरा में साबरमती ट्रेन जलाई गई। जिसके बाद राज्य में दंगे हुए। जिसके मद्देनजर रामविलास पासवान ने कुछ महीनों बाद नरेंद्र मोदी को हटाने की मांग करते हुए अटल बिहारी वाजपेयी सरकार से इस्तीफा दिया। हालांकि जानकार कहते हैं कि पासवान इसलिए नाराज थे क्योंकि उनसे दूरसंचार मंत्रालय छीन लिया गया था।
बहरहाल बीजेपी ने पासवान से हाथ मिला कर एक तीर से दो शिकार किए हैं। बिहार में नीतीश कुमार के साथ सत्रह साल चला गठबंधन सामाजिक आधार पर काफी मजबूत था। लेकिन नीतीश के जाने के बाद एनडीए से कुछ पिछ़ड़ी और अतिपिछड़ी जातियां, महादलित और पसमांदा मुस्लिम छिटक गए। बीजेपी को इस बात का एहसास है कि अगर उसे राज्य में बड़ी संख्या में लोक सभा सीटें जीतनी हैं तो मोदी के नाम के अलावा सोशल इंजीनियरिंग का भी ध्यान रखना होगा। पार्टी नेताओं का दावा है कि राज्य में मोदी की हवा है। लेकिन खुद नरेंद्र मोदी कहते हैं कि अगर टायर को हवा में लेकर खड़े हो जाओ तो उसमें अपने-आप हवा नहीं भर जाती। टायर में हवा तभी भर पाएगी जब पोलिंग बूथ पर काम हो और लोगों को मतदान केंद्रों तक लाया जाए। यानी इशारा साफ है कि बीजेपी को अपने वोटों का प्रतिशत बढ़ाने के लिए सामाजिक दायरा बढ़ाना जरूरी है। पार्टी ने बिहार में पासवान से हाथ मिला कर यही किया है।
पिछले लोक सभा चुनाव में बीजेपी को नीतीश के साथ रह कर 14 फीसदी वोट मिले थे। जबकि पासवान को लालू के साथ रह कर करीब सात फीसदी वोट। दिलचस्प बात ये है कि लालू के साथ गठबंधन में पासवान को 40 में से 12 सीटों पर लड़ने का मौका मिला था। लेकिन वो एक भी नहीं जीत पाए। बीजेपी के साथ गठबंधन की नींव रखने वाले पासवान के बेटे चिराग अनौपचारिक चर्चाओं में कहते हैं कि लालू प्रसाद ने पर्दे के पीछे खेल खेला और अपने यादव वोट को पासवान के पास नहीं जाने दिया। जबकि पासवान ने हर सीट पर अपने समर्थकों के वोट आरजेडी को दिलवाए। लालू से रिश्ते टूटने में ये आरोप भी हावी रहा है।
बीजेपी नेताओं का मानना है कि करीब 15 सीटें ऐसी हैं जहां पचास हजार से दो लाख तक पासवान वोट हैं। पासवान हों या मायावती, ये दोनों अपने दलित समर्थकों के वोट ट्रांसफर करवाने की हैसियत रखते हैं। लिहाज़ा पासवान और उपेंद्र कुशवाहा के साथ बीजेपी तीस फीसदी का निर्णायक आंकड़ा पार कर सकती है। इसीलिए उसने बिहार में अब सामाजिक न्याय का एक बहुरंगी गठबंधन तैयार कर लिया है।
बीजेपी को दूसरा फायदा राष्ट्रीय स्तर पर होता दिख रहा है। उसे लग रहा है कि पासवान के साथ आने से नरेंद्र मोदी की सांप्रदायिक छवि को लेकर संभावित सहयोगियों की सोच बदलेगी और चुनाव से पहले और चुनाव के बाद इन दलों की बीजेपी से जुड़ने की झिझक दूर होगी। बीजेपी की नज़रें अब पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी, उड़ीसा में नवीन पटनायक और असम में असम गण परिषद पर टिक गई हैं। असम में उसका एजीपी से चुनाव पूर्व गठबंधन संभव है तो वही टीएमसी और बीजेडी के साथ उसे चुनाव के बाद समर्थन की उम्मीद है। तमिलनाडु में एमडीएमके, पीएमके और डीएमडीके साथ बात चल ही रही है। और पासवान के साथ गठबंधन होने के बारह घंटों के भीतर ही डीएमके प्रमुख एम करुणानिधि का बयान भी आ गया है जिसमें उन्होंने नरेंद्र मोदी की जमकर तारीफ की है। बीजेपी को लगता है कि पासवान के साथ गठबंधन से उसके पक्ष में बैंडवेगन प्रभाव काम करेगा। वैसे भी लुटियन दिल्ली में पासवान के बारे में कहा जाता है कि जिधर हवा बह रही होती है, पासवान वहीं होते हैं।


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