Friday, February 28, 2014

पासवान के पास आकर पास या फेल बीजेपी?


लुटियन दिल्ली बड़ी बेरहम है। हर तरफ फैले बड़े बंगले। कभी बंगलों की नजदीकियां रायसीना हिल की लड़ाई के लिए नए साथी दे देती है तो कई बार इस लड़ाई के लिए बंगलों के नजदीकियों के बावजूद दिलों में दूरियां हो जाती हैं। एक जनवरी 2004 को सोनिया गांधी अपने बंगले दस जनपथ से निकल कर पैदल चल दी थीं अपने पड़ोसी और बारह जनपथ में रहने वाले रामविलास पासवान के घर। नए साल के पहले दिन पड़ोसी से हाथ मिला कर यूपीए की नींव रखी और पाँच महीने बाद अटल बिहारी वाजपेयी जैसे दिग्गज को सात रेसकोर्स रोड से छह ए कृष्णा मेनन मार्ग भेज दिया।
इसी लुटियन दिल्ली में बृहस्पतिवार का दिन रहा पासवान के नाम। जनपथ से अशोक रोड तक का सफर। नरेंद्र मोदी के लिए सीएम से पीएम तक का उम्मीद का सफर। पासवान के लिए सांप्रदायिकता से धर्मनिरपेक्षता और फिर सांप्रदायिकता तक का सफर। राजनीति का विचित्र संयोग देखिए। ये सब घटनाक्रम उस दिन हुआ जिसके ठीक बारह साल पहले गुजरात के गोधरा में साबरमती ट्रेन जलाई गई। जिसके बाद राज्य में दंगे हुए। जिसके मद्देनजर रामविलास पासवान ने कुछ महीनों बाद नरेंद्र मोदी को हटाने की मांग करते हुए अटल बिहारी वाजपेयी सरकार से इस्तीफा दिया। हालांकि जानकार कहते हैं कि पासवान इसलिए नाराज थे क्योंकि उनसे दूरसंचार मंत्रालय छीन लिया गया था।
बहरहाल बीजेपी ने पासवान से हाथ मिला कर एक तीर से दो शिकार किए हैं। बिहार में नीतीश कुमार के साथ सत्रह साल चला गठबंधन सामाजिक आधार पर काफी मजबूत था। लेकिन नीतीश के जाने के बाद एनडीए से कुछ पिछ़ड़ी और अतिपिछड़ी जातियां, महादलित और पसमांदा मुस्लिम छिटक गए। बीजेपी को इस बात का एहसास है कि अगर उसे राज्य में बड़ी संख्या में लोक सभा सीटें जीतनी हैं तो मोदी के नाम के अलावा सोशल इंजीनियरिंग का भी ध्यान रखना होगा। पार्टी नेताओं का दावा है कि राज्य में मोदी की हवा है। लेकिन खुद नरेंद्र मोदी कहते हैं कि अगर टायर को हवा में लेकर खड़े हो जाओ तो उसमें अपने-आप हवा नहीं भर जाती। टायर में हवा तभी भर पाएगी जब पोलिंग बूथ पर काम हो और लोगों को मतदान केंद्रों तक लाया जाए। यानी इशारा साफ है कि बीजेपी को अपने वोटों का प्रतिशत बढ़ाने के लिए सामाजिक दायरा बढ़ाना जरूरी है। पार्टी ने बिहार में पासवान से हाथ मिला कर यही किया है।
पिछले लोक सभा चुनाव में बीजेपी को नीतीश के साथ रह कर 14 फीसदी वोट मिले थे। जबकि पासवान को लालू के साथ रह कर करीब सात फीसदी वोट। दिलचस्प बात ये है कि लालू के साथ गठबंधन में पासवान को 40 में से 12 सीटों पर लड़ने का मौका मिला था। लेकिन वो एक भी नहीं जीत पाए। बीजेपी के साथ गठबंधन की नींव रखने वाले पासवान के बेटे चिराग अनौपचारिक चर्चाओं में कहते हैं कि लालू प्रसाद ने पर्दे के पीछे खेल खेला और अपने यादव वोट को पासवान के पास नहीं जाने दिया। जबकि पासवान ने हर सीट पर अपने समर्थकों के वोट आरजेडी को दिलवाए। लालू से रिश्ते टूटने में ये आरोप भी हावी रहा है।
बीजेपी नेताओं का मानना है कि करीब 15 सीटें ऐसी हैं जहां पचास हजार से दो लाख तक पासवान वोट हैं। पासवान हों या मायावती, ये दोनों अपने दलित समर्थकों के वोट ट्रांसफर करवाने की हैसियत रखते हैं। लिहाज़ा पासवान और उपेंद्र कुशवाहा के साथ बीजेपी तीस फीसदी का निर्णायक आंकड़ा पार कर सकती है। इसीलिए उसने बिहार में अब सामाजिक न्याय का एक बहुरंगी गठबंधन तैयार कर लिया है।
बीजेपी को दूसरा फायदा राष्ट्रीय स्तर पर होता दिख रहा है। उसे लग रहा है कि पासवान के साथ आने से नरेंद्र मोदी की सांप्रदायिक छवि को लेकर संभावित सहयोगियों की सोच बदलेगी और चुनाव से पहले और चुनाव के बाद इन दलों की बीजेपी से जुड़ने की झिझक दूर होगी। बीजेपी की नज़रें अब पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी, उड़ीसा में नवीन पटनायक और असम में असम गण परिषद पर टिक गई हैं। असम में उसका एजीपी से चुनाव पूर्व गठबंधन संभव है तो वही टीएमसी और बीजेडी के साथ उसे चुनाव के बाद समर्थन की उम्मीद है। तमिलनाडु में एमडीएमके, पीएमके और डीएमडीके साथ बात चल ही रही है। और पासवान के साथ गठबंधन होने के बारह घंटों के भीतर ही डीएमके प्रमुख एम करुणानिधि का बयान भी आ गया है जिसमें उन्होंने नरेंद्र मोदी की जमकर तारीफ की है। बीजेपी को लगता है कि पासवान के साथ गठबंधन से उसके पक्ष में बैंडवेगन प्रभाव काम करेगा। वैसे भी लुटियन दिल्ली में पासवान के बारे में कहा जाता है कि जिधर हवा बह रही होती है, पासवान वहीं होते हैं।


मोदी, मुस्लिम और माफ़ी!!!


राष्ट्रीय मुस्लिम मंच और बीजेपी के अल्पसंख्यक मोर्चे के एक कार्यक्रम में पार्टी अध्यक्ष राजनाथ सिंह ने बेहद प्रभावी भाषण दिया। बीजेपी और देश के सबसे बड़े अल्पसंख्यक तबके मुसलमानों के बीच के तनावपूर्ण रिश्तों को राजनाथ सिंह ने अपने ढंग से नए सिरे से परिभाषित करने की कोशिश की। बीजेपी को लेकर उनकी आशंकाओं को दूर करने का प्रयास किया और नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री बनाने के लिए उनका समर्थन मांगा।
लेकिन मीडिया का पूरा ध्यान राजनाथ सिंह के माफ़ी वाले बयान पर रहा। ये स्वाभाविक भी है। क्योंकि एक बड़े तबके को लगता है कि जब तक बीजेपी मुसलमानों को लेकर अपने रवैये को नहीं बदलती, तब तक मुसलमान उस पर भरोसा नहीं कर सकते। बीजेपी और मुसलमानों के बीच अविश्वास की खाई इतनी गहरी है कि पार्टी के कई बड़े नेता ये कहते मिल जाएंगे कि पार्टी चाहे सिर के बल खड़ी हो जाए, उसे मुसलमानों का वोट कभी नहीं मिल सकता। वहीं, कई मुस्लिम नेता भी ये कहते हैं कि बीजेपी चाहे कुछ कर ले, मुसलमान हमेशा उसी पार्टी को रणनीतिक ढंग से वोट करेगा जो बीजेपी को हरा सके।
क्या कभी ऐसा हो सकता है कि बीजेपी और मुसलमानों के बीच अविश्वास की ये खाई भर पाए? बीजेपी बीच-बीच में ऐसे संकेत देती भी है कि वो अपनी और से पूरी कोशिश कर रही है। लेकिन हकीकत यही है कि जब भी उसने ऐसी कोशिश की है, पार्टी पर हावी कट्टरपंथी खेमा उसे अपने कदम पीछे खींचने के लिए मजबूर कर देता है। राजनाथ सिंह के माफी वाले बयान के बाद पार्टी की ओर से दी गई सफाई को इसी तरह देखा जा रहा है। बीजेपी के उदारवादी नेता मानते हैं कि राजनाथ सिंह के बयान से न सिर्फ पार्टी ने मुसलमानों की तरफ दोस्ती का हाथ बढ़ाया था, बल्कि ऐसे संभावित सहयोगियों को भी इशारा किया था जो नरेंद्र मोदी की कट्टरपंथी छवि के कारण बीजेपी के साथ नहीं आना चाह रहे हैं।
मुसलमानों को साथ लेने की बीजेपी की कोशिशें इसलिए भी ज्यादा गंभीर नहीं दिखती हैं क्योंकि पार्टी चुनाव के वक्त ही उन्हें लुभाने का प्रयास करते दिखती है। बीजेपी के प्रति मुसलमानों के अविश्वास की एक बड़ी वजह बीजेपी के राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के साथ अटूट रिश्ते हैं। ये बात अलग है कि खुद आरएसएस मुसलमानों से रिश्तों को मधुर करने के प्रयास में लगा है। राजनाथ सिंह जिस कार्यक्रम में बोले, उसके आयोजकों में से एक राष्ट्रीय मुस्लिम मंच आरएसएस का ही एक अंग है।

आज इंडियन एक्सप्रेस में गुजरात बीजेपी की वापी इकाई का एक दिलचस्प विज्ञापन छपा है। इसमें तीन प्रमुख मुस्लिम शख्सियतों के बयानों का जिक्र कर देश भर के मुसलमानों से कहा गया है कि वो नरेंद्र मोदी पर भरोसा करें क्योंकि गुजरात में उनकी तरक्की हुई है। ये विज्ञापन और राजनाथ सिंह का माफी वाला बयान बताता है कि बीजेपी इस लोक सभा चुनाव के मद्देनज़र एक बार फिर मुसलमानों को लुभाने में लगी है। लेकिन इसके लिए वो कितनी गंभीर है, इसका संकेत शायद इस बात से भी मिले कि उसके उम्मीदवारों की सूची में कितने मुसलमान रहते हैं।

Wednesday, February 26, 2014

क्या है मोदीत्व?



अगर नरेंद्र मोदी प्रधानमंत्री बनते हैं तो वो देश को कैसे चलाएंगे? बिगड़ी अर्थव्यवस्था को पटरी पर लाने का उनका नुस्खा क्या है? महंगाई, बेरोजगारी, गरीबी, अशिक्षा, छुआछुत, सांप्रदायिकता, आतंकवाद जैसी समस्याओं से वो कैसे निपटेंगे? कृषि, मजदूर, ग्रामीणों, राष्ट्रीय सुरक्षा, विदेशी नीति, शासन व्यवस्था, प्रशासनिक ढांचा, संघीय ढांचा जैसे महत्वपूर्ण विषयों पर उनकी क्या सोच है?
इन तमाम विषयों पर नरेंद्र मोदी के विचारों की अभी सिर्फ झलक ही देखने को मिली हैं- देश के अलग-अलग हिस्सों में हो रही उनकी रैलियों के भाषणों में या फिर हाल ही में दिल्ली के रामलीला मैदान पर बीजेपी की राष्ट्रीय परिषद की बैठक में उनके भाषण में। करीब सवा घंटे के इस भाषण में मोदी ने तमाम विषयों पर अपनी सोच की झलक दिखाई।
हालांकि बीजेपी का अपना घोषणापत्र आना अभी बाकी है। घोषणापत्र या संकल्प पत्र सामान्य तौर पर किसी भी पार्टी के लिए एक पवित्र ग्रंथ होना चाहिए क्योंकि चुनाव में जाने से पहले इसी के माध्यम से वो जनता से वादे करती है और जनता इसी के आधार पर उसे सरकार में भेजने या न भेजने का फैसला करती है। ये बात अलग है कि ज्यादातर पार्टियां अपने घोषणापत्रों में किए गए वादों को पूरा नहीं कर पाती।
बीजेपी का घोषणापत्र जब आएगा, तब आएगा। लेकिन नरेंद्र मोदी की सोच को सिलसिलेवार ढंग से पिरोना शुरू हो गया है। मोदी की इसी सोच को लेकर दिल्ली में कल एक पुस्तक मोदीत्व जारी की गई। व्यक्तिवादी राजनीति का विरोध करने वाली बीजेपी फिलहाल नमो नमो का जाप करने में व्यस्त है। इसीलिए उसे नरेंद्र मोदी के विचारों को मोदीत्व का नाम देने से परहेज नहीं है। ये नाम बीजेपी के लिए इसलिए भी अनुकूल है क्योंकि वो हिंदूत्व की राजनीति करती है और इसे एक राजनीतिक अवधारणा माना जाता है।
बहरहाल, इस पुस्तक में विभिन्न महत्वपूर्ण विषयों पर नरेंद्र मोदी की सोच को संकलित किया गया है। शुरुआत धर्मनिरपेक्षता से ही की गई है। मोदी ने धर्मनिरपेक्षता को अपने ढंग से परिभाषित किया है और इसका अर्थ पहले भारत बताया है। सर्व धर्म समभाव से लेकर भगवदगीता में श्रीकृष्ण के उपदेश और महात्मा गांधी से लेकर ईसा मसीह तक सबका जिक्र कर ये बताया गया है कि देश सब धर्मों से ऊपर है। पुस्तक में सम्राट अशोक का उदहारण हैं जिन्होंने कुएँ बनाए ताकि बौद्ध या गैर बौद्ध सभी उनका प्रयोग कर सके। नेपोलियन के नेपोलीओनिक कोड का जिक्र कर बताया गया है कि गुजरात में उसका पालन किया जा रहा है जिसमें सरकारी नीतियों का लाभ बजाए किसी विशेष समुदाय को पहुंचाने के सभी नागरिकों को दिया जाता है।
मोदीत्व सरकार चलाने में आम लोगों की भागीदारी की बात करता है और न्यूनतम सरकार और अधिकतम शासन का सिद्धांत प्रतिपादित करता है। दिलचस्प बात ये है कि इस पुस्तक में इसके लिए ब्राजील के पोर्टो एलेगरे शहर की नगरपालिका में सहभागी बजट का उदहारण दिया गया है। दिल्ली में बनी आम आदमी पार्टी की सरकार भी यही उदाहरण देती थी और इसके द्वारा मोहल्ला सभाओं को अधिक अधिकार देने का विधेयक भी इसी उद्देश्य से लाया गया था। मोदीत्व स्कूलों के प्रबंधन के लिए ब्रिटन के विद्यालयों के प्रबंधन को रोल मॉडल मानता है जिसमें स्कूलों से जुड़े आम लोगों को प्रबंधन में हिस्सेदारी दी गई है। इससे मिलता-जुलता प्रयोग भी दिल्ली में आम आदमी पार्टी की सरकार ने किया था।
मोदीत्व इशारा करता है कि अगर मोदी प्रधानमंत्री बने तो एयर इंडिया जैसे सफेद हाथी बंद हो सकते हैं। भारतीय रेल का चरणबद्ध ढंग से निजीकरण हो सकता है। बंदरगाहों, हवाईअड्डों, सड़कों के निर्माण में निजी क्षेत्र की भागीदारी बढ़ सकती है क्योंकि मोदीत्व मानता है कि सरकार के व्यवसाय में होने का कोई मतलब नहीं है। इसके लिए मोदी के रोल मॉडल शेरशाह सूरी और ब्रिटन की पूर्व प्रधानमंत्री मार्गरेट थैचर हैं। शेरशाह ने सन् 1556 में हुमांयू की मौत के बाद बिगड़ी अर्थव्यवस्था को सुधारने के लिए कई उपाय किए जिनमें कारोबार में सरकार के दखल को कम करना भी शामिल था और इससे अर्थव्यवस्था सुधरी। वहीं थैचर ने 70 के दशक में सिक मैन ऑफ यूरोप के नाम से बदनाम ब्रिटन में प्रतियोगिता बढ़ा कर गैर मुख्य क्षेत्रों से सरकार के दखल को कम किया और इस तरह अर्थव्यवस्था को पटरी पर लाईं।
मजबूत संघीय ढांचे की वकालत करते हुए मोदीत्व राज्यों को अधिक स्वायत्तता देने की बात करता है। इसके लिए मोदी के रोल मॉडल प्राचीन हिंदू और बौद्ध ग्रंथों के साथ मुगल बादशाह जहांगीर भी हैं जिन्होंने प्रांतों को स्वायत्तता देने के लिए कई सुधार किए थे।
वोट बैंक की राजनीति खत्म करने के लिए मोदीत्व बादशाह अकबर की बात करता है जिन्होंने कहा था कि अल्लाह ने उन्हें मुसलमान या हिंदुओं की नहीं बल्कि सारे भारतीयों की सेवा करने का निर्देश दिया है।
मोदीत्व के हिसाब से आतंकवाद को खत्म करने का एक तरीका पर्यटन को बढ़ाना भी हो सकता है। खेतों की उपज को सीधे फैक्ट्री तक पहुँचाने के तरीके विकसित करना, गांवों को गांव-शहर के रूप में विकसित करना ताकि शहरों के लिए पलायन कम हो सके, बूंद खेती यानी ड्राप इरीगेशन को मजबूत करना, आईटी उद्योग पर जोर देना, आम लोगों में शिक्षा के प्रचार-प्रसार के लिए यूनिवर्सिटी को कैंपस से बाहर ले जाना जैसे सुझाव शामिल हैं।
मोदीत्व एक बार फिर कहता है कि गांवों में स्वच्छता के लिए जरूरी है कि देवालयों से पहले शौचालयों को तरजीह दी जाए। मंदिर बनाने के लिए लाखों रुपए खर्च होते हैं मगर बड़ी संख्या में ऐसे लोग हैं जिनके पास शौचालय बनाने के लिए पैसे नहीं हैं। मोदीत्व कहता है कि सरकार को बड़े पैमाने पर शौचालय बनाने चाहिएं।
कम्यूनिस्ट देशों की अवधारणा जनसमूह के द्वारा सामूहिक उत्पादन की प्रशंसा मोदीत्व में की गई है। इसके लिए चीन में डेंग जाइओपिंग के आर्थिक सुधारों का जिक्र भी किया गया है। मोदीत्व सार्वजनिक परियोजनाओं में जनता की भागीदारी की बात भी करता है।
इस पुस्तक में ये जोर दिया गया है जो भी विचार मोदी ने रखे हैं उन सभी को उन्होंने सफलतापूर्वक गुजरात में लागू किया है। यानी अगर उन्हें मौका मिलता है तो वो पूरे देश में इसे लागू कर सकते हैं।  


मोदी का मिशन 26



बीजेपी लोक सभा चुनाव के लिए 272+ के मिशन के साथ मैदान में उतरी है। यानी अपने बूते लोक सभा में बहुमत पाने का लक्ष्य। 1984 के चुनाव के बाद से किसी एक दल को लोक सभा में बहुमत नहीं मिला है। इसीलिए इस लक्ष्य को अगर असंभव नहीं तो बेहद कठिन ज़रूर माना जा रहा है। अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में भी बीजेपी 182 सीटों से आगे नहीं बढ़ पाई थी। ऐसे में नरेंद्र मोदी की अगुवाई में बीजेपी ने एक बेहद कठिन लक्ष्य निर्धारित किया है।
लेकिन मोदी इस बड़े लक्ष्य के साथ एक छोटे मगर महत्वपूर्ण लक्ष्य के लिए भी काम कर रहे हैं। ये है मिशन 26 यानी गुजरात की सभी 26 लोक सभा सीटों को बीजेपी के खाते में डालना। अगर सितंबर 1996 से मार्च 1998 तक की अवधि छोड़ दें, तो गुजरात में बीजेपी मार्च 1995 से ही सत्ता में है। उत्तर भारत की पार्टी कही जाने वाली बीजेपी के लिए ये एक बहुत बड़ी उपलब्धि है। नरेंद्र मोदी सात अक्तूबर 2001 से लगातार मुख्यमंत्री बने हुए हैं।
गुजरात दंगों के बाद से नरेंद्र मोदी गुजराती अस्मिता की बात करते रहे हैं। उनका कोई भी बयान पहले पाँच करोड़ गुजराती और अब छह करोड़ गुजरातियों का जिक्र किए बिना पूरा नहीं होता है। अब इसी गुजराती अस्मिता को मोदी नए ढंग से परिभाषित करने में लगे हैं। यानी किसी गुजराती का देश का प्रधानमंत्री बनना।
इसी गुजराती अस्मिता को राष्ट्रीय स्तर पर उन्होंने सरदार वल्लभभाई पटेल के साथ पेश किया है। वो कहते रहे हैं कि सरदार पटेल के साथ अन्याय हुआ क्योंकि भारत के स्वतंत्र होने के बाद सरदार पटेल को प्रधानमंत्री बनना था। लेकिन उनकी जगह जवाहर लाल नेहरू को प्रधानमंत्री बनवाया गया। मोरारजी देसाई ज़रूर ऐसे गुजराती थे जो दो साल तक प्रधानमंत्री रहे। लेकिन जनता पार्टी के अंदरूनी मतभेदों के चलते उन्हें अपना कार्यकाल पूरा करने का मौका नहीं मिला।
2007 के गुजरात विधानसभा चुनावों के वक्त बीजेपी ने आनन-फानन में लाल कृष्ण आडवाणी को अपना प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित किया। इस दलील के साथ कि लोक सभा में गुजरात का प्रतिनिधित्व करने वाले एक नेता को पीएम उम्मीदवार घोषित करने से विधानसभा चुनाव में बीजेपी को फायदा होगा। हालांकि कुछ पार्टी नेता दबी जुबान में कहते हैं कि असली मकसद ये था कि कहीं 2007 के चुनाव में जीतने के बाद नरेंद्र मोदी पीएम पद के दावेदार न हो जाएं। इसके बावजूद 2009 के लोक सभा चुनाव में गुजरात में बीजेपी 26 में से सिर्फ 15 सीटें ही जीत पाई थी।
2012 के विधानसभा चुनाव के प्रदर्शन के हिसाब से बीजेपी 22 लोक सभा सीटें जीतने की स्थिति में है। थोड़ा और ज़ोर लगाने से बीजेपी पाटन, दाहोद और बनासकांठा सीटें भी जीत कर ये आंकड़ा 25 तक पहुँचा सकती है। पार्टी इन्हीं कोशिशों में लगी है। मोदी से बगावत कर अलग पार्टी बनाने वाले केशूभाई पटेल की गुजरात परिवर्तन पार्टी का बीजेपी में विलय हो गया है। सोमवार को ही दो और कांग्रेसी विधायक ने विधानसभा से इस्तीफा देकर बीजेपी का दामन थाम लिया। पिछले एक साल में सात कांग्रेस विधायक और एक सांसद बीजेपी में शामिल हो चुके हैं।
व्यक्तिगत तौर पर नरेंद्र मोदी के लिए ये जरूरी है कि बीजेपी गुजरात में अब तक का सबसे बेहतरीन प्रदर्शन करे। वो खुद भी गुजरात से ही लोक सभा का चुनाव लड़ने जा रहे हैं। संभावना है कि वो अहमदाबाद पूर्व या फिर वडोदरा से लोक सभा का चुनाव लड़ें। ज़ाहिर है मोदी के लिए मिशन 272+ की ही तरह गुजरात का मिशन 26 भी बेहद महत्वपूर्ण है।





गठबंधन की तलाश में जुटी बीजेपी



‘’बीजेपी मज़बूत होगी तो सहयोगी पार्टियां खुद ब खुद चली आएंगी।‘’ ये कहना था बीजेपी के शीर्ष रणनीतिकारों का। लेकिन चुनाव नजदीक आते ही पार्टी ने कई राज्यों में छोटे-छोटे गठबंधन करना शुरू कर दिया है। इन चुनाव पूर्व गठबंधनों की खास बात ये है कि बीजेपी मिल कर चुनाव लड़ना चाहती है। इन सहयोगी पार्टियों के साथ सीटों का बंटवारा करने में उसे दिक्कत नहीं है।

बीजेपी ने बिहार में रामविलास पासवान की लोक जनशक्ति पार्टी के साथ सीटों के तालमेल की बात शुरू की है। पासवान की लाल प्रसाद की राष्ट्रीय जनता दल और कांग्रेस के साथ बात चल रही थी। लेकिन सीटों की संख्या और पसंद को लेकर बात अभी तक नहीं बन पाई है। इस बीच पासवान ने बीजेपी के साथ भी चर्चा शुरू की और बीजेपी ने पासवान को लेकर उत्साह दिखाया है। पासवान के साथ आने से नरेंद्र मोदी को व्यक्तिगत तौर पर भी फायदा होगा क्योंकि गुजरात दंगों के बाद वाजपेयी मंत्रिमंडल से इस्तीफा देने वाले पासवान सबसे पहले मंत्री थे। राज्य में उनके करीब सात-आठ फीसदी वोट हैं।

असम में बीजेपी एक बार फिर असम गण परिषद के साथ चुनावी गठबंधन करना चाह रही है। पिछले लोक सभा चुनाव में इसी गठबंधन के चलते बीजेपी ने राज्य में चार सीटें जीती थीं। लेकिन एजीपी को सिर्फ एक सीट मिली थी। एजीपी को लगता है कि उसके वोट तो बीजेपी को ट्रांसफर हो जाते हैं मगर बीजेपी के वोट उसे नहीं मिल पाते। इसलिए वो तालमेल के लिए इच्छुक नहीं है। लेकिन बीजेपी का कहना है कि हाल में असम और पूर्वोत्तर के अन्य राज्यों में नरेंद्र मोदी की रैलियों में जुटी भारी भीड़ बताती है कि वहां के लोग मोदी को प्रधानमंत्री देखना चाहते हैं। इसीलिए एजीपी और बीजेपी साथ आ सकते हैं।

उत्तर प्रदेश में बीजेपी कुछ छोटी-छोटी पार्टियों से तालमेल कर सकती है। महाराष्ट्र में शिवसेना, आरपीआई अठवले और स्वाभिमानी शेतकारी संगठन के साथ महागठबंधन बन चुका है।

कोशिश है कांग्रेस विरोधी वोटों के बंटवारे को रोकने की। और पूरे देश में ये संदेश देने की भी कि मोदी को नेता घोषित करने के बावजूद बीजेपी खुद को सेक्यूलर कहने वाली कई पार्टियों के लिए अछूत नहीं है।