हमारा लोकतंत्र संसदीय लोकतंत्र से बदल कर न्यायिक लोकतंत्र में तब्दील होता जा रहा है जो कि एक शुभ संकेत नहीं है। हमारे संविधान निर्माताओं ने बहुत सोच-समझ कर लोकतंत्र के सभी स्तंभों के लिए अपनी जवाबदेही और सीमाएं तय की थीं। वे नहीं चाहते थे कि कोई एक अंग किसी दूसरे अंग के कामकाज में हस्तक्षेप करे। इनमें आपसी संतुलन बनाए रखने की व्यवस्था की गई थी। लेकिन हाल के कुछ वर्षों में हुई कुछ घटनाएं बता रही हैं कि शायद यह संतुलन बिगड़ रहा है।
सबसे बड़ा सवाल जजों की नियुक्ति को लेकर था। अभी की व्यवस्था में जजों की नियुक्ति जज ही करते हैं। इनमें कई बार पक्षपात के आरोप लगते हैं। भाई-भतीजावाद के भी कई मामले सामने आए हैं। क्षेत्रीय असंतुलन भी एक बड़ा विषय है। यही वजह है कि संसद ने जजों की नियुक्ति के लिए एक आयोग बनाने का बिल सर्वानुमति से पारित किया। लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने इसे खारिज कर दिया। आखिर क्यों हमारी अदालतें नहीं चाहती हैं कि जजों की नियुक्ति की प्रक्रिया पारदर्शी और जवाबदेही हों।
हाल में आए कुछ निर्णय यह सोचने पर मजबूर करते हैं कि क्या अदालतें अनावश्यक रूप से धार्मिक मामलों में दखल नहीं दे रही हैं। दिल्ली के प्रदूषण को कम करने के लिए अचानक कह दिया गया कि पटाखों की बिक्री पर रोक लगा दीजिए। यह सब मानते हैं कि पटाखों से हवा जहरीली होती है। लेकिन हवा तो कारों से भी जहरीली होती है। पटाखे साल में एक बार चलते हैं लेकिन कारें रोज चलती हैं और उनकी संख्या रोज बढ़ती है। क्या बेहतर नहीं होगा कि लोगों को स्वयं ही इसके लिए जागरुक किया जाता। स्कूलों में बच्चों को अब पटाखों से होने वाले नुकसान के बारे में सिखाया जाता है। कई बच्चे खुद ही अपने अभिभावकों से कहने लगे हैं कि वे दीपावली पर पटाखे नहीं चलाएंगे। इस फैसले से एक बड़े वर्ग में यह संदेश चला गया कि अदालत उनकी धार्मिक भावनाओं को चोट पहुंचा रही हैं। हालांकि यह एक अलग बहस है कि पटाखे किसी धर्म का हिस्सा नहीं हैं। बल्कि वे उत्सव मनाने का जरिया मात्र हैं। और यह तरीका समय के साथ जागरूकता आने पर बदल सकता है। यह फैसला करते वक्त यह भी नहीं सोचा गया कि जिन व्यापारियों ने पटाखे खरीद लिए थे उनका क्या होगा। उन्हें हुए नुकसान की भरपाई कौन करेगा। अदालत के इस फैसले के बावजूद दिल्ली में खूब पटाखे बिके और चले। इससे यह भी साफ हुआ कि अदालतों को ऐसे फैसले नहीं देने चाहिए जिन्हें लागू ही नहीं किया जा सके।
हाल ही में सुप्रीम कोर्ट ने एक और फैसला किया। यह केरल में सबरीमाल मंदिर में 10–50 वर्ष की महिलाओं के प्रवेश की अनुमति देने का था। इस मंदिर में यह रोक पिछले आठ सौ साल से चली आ रही थी। इसके पीछे मान्यता यह थी कि मंदिर के मुख्य देवता अयप्पा ब्रह्मचारी हैं और रजस्वला स्त्रियों के गर्भगृह में जाने से उनका ब्रह्मचर्य भंग होगा। सुप्रीम कोर्ट ने महिलाओं को वहां जाने की अनुमति देते हुए उनकी समानता की बात की। इससे किसी को विरोध नहीं है। भारत में विदेशी आक्रामणकारियों से स्त्रियों की सुरक्षा के उद्देश्य से कई कुरीतियों का जन्म पिछले आठ सौ साल में हुआ और यह कुरीतियां महिलाओं के दर्जे को नीचे कर देती हैं। लेकिन इससे पहले भारतीय समाज में महिलाओं का स्थान काफी ऊंचा रहा है। चाहे हमारा समाज पितृसत्तात्मक रहा लेकिन महिलाओं को आदर-सम्मान देने में कभी हिचक नहीं रही। यत्र नार्यस्तु पूज्यंते, रमंते तत्र देवता यानी जहां नारियों की पूजा होती है वहां देवताओं का वास होता है- इस सोच के साथ हमारा समाज चलता रहा है। जिन कुरीतियों का जिक्र मैंने किया उन्हें दूर करने के लिए समाज के भीतर से ही आवाजें उठीं। राजा राममोहन राय, स्वामी दयानंद सरस्वती और ईश्वर चंद विद्यासागर जैसे महापुरुषों और समाजसुधारकों ने इनमें से कई कुरीतियों का खात्मा जनचेतना के जरिए कराया। सती प्रथा, बाल विवाह जैसी अमानवीय प्रथाओं को खत्म करने के लिए अंग्रेजों को कानून का सहारा भी लेना पड़ा।
लेकिन क्या मंदिर के गर्भगृह में महिलाओं के प्रवेश पर पाबंदी क्या एक कुप्रथा है। यह एक परंपरा है। यह सही है कि देश, काल और परिस्थिति के अनुसार परंपराएं भी बदती रहती हैं। सबरीमला के गर्भगृह में भी रजस्वला महिलाओं का प्रवेश देर-सवेर होता ही। इसके लिए समाज के भीतर से ही आवाजें उठने लगी थीं। लेकिन क्या धार्मिक परंपराओं का निर्वहन किस तरह से किया जाए, इसमें अदालतों की कोई भूमिका होनी चाहिए या नहीं। मेरे विचार से नहीं। क्योंकि किसी भी धर्म के अनुयाइयों में यह संदेश नहीं जाना चाहिए कि उनके साथ भेदभाव किया जा रहा है। हैरानी नहीं है कि सबरीमाल का फैसला आते ही कुछ लोगों ने यह पूछना शुरू कर दिया कि मस्जिदों में औरतों को नमाज पढ़ने की अनुमति अदालतें कब दिलवाएंगी।
इस संदर्भ में जस्टिस इंदु मल्होत्रा के फैसले का जिक्र करना जरूरी है। पांच जजों की पीठ में वे ऐसे अकेली जज थीं जिन्होंने सबरीमाल मंदिर के गर्भगृह में रजस्वा महिलाओं को अनुमति देने के खिलाफ फैसला किया। उन्होंने कहा कि देश में पंथनिरपेक्ष माहौल बनाये रखने के लिये गहराई तक धार्मिक आस्थाओं से जुड़े विषयों के साथ छेड़छाड़ नहीं की जानी चाहिए। उनका मानना था कि 'सती' जैसी सामाजिक कुरीतियों के अलावा यह तय करना अदालत का काम नहीं है कि कौन सी धार्मिक परंपराएं खत्म की जाएं। उन्होंने कहा कि भगवान अय्यप्पा के श्रद्धालुओं के पूजा करने के अधिकार के साथ समानता के अधिकार का टकराव हो रहा है। इस मामले में मुद्दा सिर्फ सबरीमाला तक सीमित नहीं है। इसका अन्य धार्मिक स्थलों पर भी दूरगामी प्रभाव पड़ेगा।
इसीलिए बेहतर होगा कि अदालतें स्वयं ही तय करें कि उनकी सक्रियता का क्या पैमाना हो और उन्हें किस हद तक हस्तक्षेप करना है। मंदिर-मस्जिद,चर्च या गुरुद्वारे के कामकाज में सरकारों और अदालतों का दखल धर्मनिरपेक्षता के सिद्धांत के खिलाफ है। सरकारें जिस तरह से मंदिरों के संचालन में दखल देती हैं वह भी एक बड़ा मुद्दा है जो देर-सवेर गंभीर रूप लेगा। इसी तरह से सरकारों की ओर से आम लोगों को तीर्थयात्रा कराने के लिए भेजना भी पंथनिरपेक्षता के अनुकूल नहीं है। यह सब बातें जितनी जल्दी हल हो जाएं उतना अच्छा है।