जिस देश में बड़े पर्यटक स्थलों पर मूत्र त्याग के लिए भी अब 5 रुपए लगते हैं और एक रुपए की कोई औकात नहीं रह गई है, वहां छुट्टा पैसा सबसे बड़ी राष्ट्रीय समस्या के रूप में उभर कर सामने आया है। इसी देश में नेशनल हाईवे अथॉरिटी ऑफ इंडिया राजमार्गों पर गाड़ी चलाने वालों से अपेक्षा करती है कि वो उन्हें छुट्टे पैसे देंगे। इसीलिए टोल दरें 41, 61, 72, 108, 143, 215, 231 और 346 रुपए रखी गई है। उस पर तुर्रा ये है कि चालकों से अपील की गई है कि वो छुट्टे पैसे तैयार रखें ताकि टोल चुकाते वक्त ज्यादा वक्त न लगे।
लेकिन देश के
राजमार्गों को गली-मोहल्ले से भी बदतर बना कर रख देने वाले नौकरशाहों और राजनेताओं
से किसी भी तरह की संवेदना की अपेक्षा रखना ही बेमानी है। गांव-शहरों के
गली-मोहल्ले में तो कम से कम चार-पाँच साल में एक बार खड़ंजे का काम हो जाता है,
नालियां बन जाती हैं, पत्थर के टाइल लग जाते हैं। मगर राजमार्गों पर डामरीकरण तो
दूर की बात फटी कमीज पर पैबंद लगाना यानी पेचवर्क भी नहीं हो पाया है।
जिस जयपुर-दिल्ली
हाईवे पर चार-पाँच घंटों में यात्रा पूरी हो जाती थी वहां अब 8-9 घंटे लगना सामान्य
बात है। इस पर भी टोल लगाया गया है। नेशनल हाईवे 3 यानी आगरा-मुंबई राजमार्ग पर
मध्य प्रदेश में इतने बड़े गड्ढे हैं कि उनके रास्ते कुछ ट्रक भी पाताल पहुँच चुके
हैं। हाल में नेशनल हाईवे 21 से मनाली जाना हुआ। इसकी बुरी हालत देख कर बीच में कई
बार ख्याल आया कि गाड़ी वापस घुमा ली जाए। स्वारघाट जहां कठिन चढ़ाई है, छोटी
गाड़ियों को ट्रकों के रहमो-करम पर रहना पड़ता है। धुआँ छोड़ते और आराम से चलते इन
ट्रकों से आगे निकलते वक्त ये भी ध्यान रखना पड़ता है कि छोटी गाड़ी का टायर किसी
बड़े गड्ढे में फंस कर न रह जाए। इसी तरह बिलासपुर से मंडी तक राजमार्ग आकाशगंगा
की भांति दिखाई देता है जिसमें छोटे-बड़े कई गड्ढे तारों की तरह बिछे हैं।
ऐसा क्यों है कि जब
राजमार्गों को चौड़ा करने और उनके रख-रखाव का ज़िम्मा निजी कंपनियों को दिया गया
तो वहां ज़्यादा शिकायतें नहीं मिलीं (जयपुर-दिल्ली हाईवे को छोड़)। जबकि जिस
सरकारी महकमे के हवाले ये काम छोड़ा गया है तो वहां भगवान ही मालिक नज़र आता है। हज़ारों
करोड़ रुपए के सालाना बजट वाले एनएचआईए का काम कई सवाल खड़े करता है।
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