ये पढ़ कर बहुत मज़ा आया कि करीना कपूर ने छह करोड़ रुपए का एक विज्ञापन इसलिए छोड़ दिया क्योंकि उसमें उन्हें एक ख़ास ब्रांड के चिकन का गुणगान करना था.
मज़ा तब दो गुना हो गया जब ये पढ़ा कि करीना दरअसल अब पूर्ण रूप से शाकाहारी हो गई हैं. उन्होंने माँसाहारी आहार का त्याग कर दिया.
उन्हें जिस व्यक्ति ने माँसाहारी भोजन की आदत छुड़वाई वो उसका भी त्याग कर चुकी हैं. यानी शाहिद कपूर.
लेकिन मज़ा जहाँ ख़त्म हुआ वहीं से सोच शुरू हो गई. ऊपर की पंक्तियां लिख कर भी मैंने दोबारा पढ़ी कि आखिर इस खबर में ऐसा क्या है कि मुझे झुलसाती गर्मी की एक दोपहर में ओरिएंट के पंखे की राहत देती ज़्यादा ठंडी नहीं फिर भी ठीक-ठाक हवाओं के नीचे बैठ कर अपने रविवार को खराब करने की सूझी कि मैं ब्लॉग लिखने बैठ गया.
वो भी तब कि जब मैंने कई महीनों से अपने ब्लॉग को खुद ही देखना छोड़ दिया था लिखने की बात तो दूर है और खासतौर से तब जब देश में पाँच राज्यों के विधानसभा चुनावों के नतीजे आए हैं और मेरे जैसे राजनीतिक जीव को सबसे पहली टिप्पणी इन नतीजों पर करनी चाहिए.
लेकिन मुझे इस खबर में ज़बर्दस्त अपील लगी.
शायद इसलिए कि किसी सेलेब्रेटी का किसी इश्यू के चलते करोड़ों का विज्ञापन हाथ से जाने देना वाकई बड़ी बात है. आज बड़े से बड़ा सेलेब्रेटी चड्ढी बनियान से लेकर तेल-कंघे पाउडर वगैरह बेचता नज़र आता है. जो वो बेचता है वो खुद उसे इस्तेमाल करता है या नहीं इसमें शक की कोई बात नहीं. क्योंकि मैं नहीं समझता कि अमिताभ बच्चन घर जाकर किसी ब्रांड का च्वयनप्राश खाकर बालों में किसी ऐसे तेल से मालिश कराते होंगे जिससे उनकी दिन भर की गर्मी काफूर हो जाती है.
या फिर शाहरुख खान या सलमान खान जो फिल्मी पर्दे पर शर्ट तक तो पहनते नहीं, घर जा कर इत्मिनान से अपनी शर्ट उतार कर अपने घरवालों को बताते होंगे कि देखो हमने फलां ब्रांड की बनियान और चड्ढी पहनी है.
ये बाज़ार के उसूल के खिलाफ है. और इस तरह के सवाल पूछना भी बेवकूफी है. कोई ये नहीं कहता कि जो सेलेब्रेटी जिस ब्रांड का प्रचार करता हो उसके लिए लाज़िमी है कि वो उनका इस्तेमाल भी करे. दरअसल, बाज़ार ऐसी भावनात्मक और दकियानूसी बातों से नहीं चलता. और अगर मैं भी यही सब बातें करने लगूं तो लगेगा मुझे तो बाज़ार की रत्ती भर भी समझ नहीं.
फिर, ये सारी बातें मैं क्यों लिख रहा हूं. आखिर करीना के चिकन का विज्ञापन न करने में क्या तुक है. वो भला चिकन न खाती हों लेकिन हाथ में चिकन लेग पकड़ कर दो लाइनों पर होंठ हिला देने में क्या परेशानी है कि "ये चिकन खाओ और मेरी तरह मस्त हो जाओ..." या फिर कोई इसी तरह की कुछ अलग लाइनें. ये दो लाइनें बोल दो और छह करोड़ रुपए घर बैठे-बिठाए मिल जाएंगे.
पर अचानक याद आया कुछ दिन पहले महेंद्र सिंह धौनी का शराब के एक ब्रांड का सरोगेट विज्ञापन करना. उसमें तो उनकी बहुत कमाई भी हुई. पर तभी आई एक दूसरी खबर से शायद धौनी का नशा उतर गया होगा जिसमें कहा गया था कि सचिन तेंदुलकर ने अपने जीवन में कभी भी शराब के किसी ब्रांड का विज्ञापन नहीं किया. सरोगेट विज्ञापन करना तो दूर की बात.
ये उन दिनों की बात है जब शराब, सिगरेट वगैरह के इश्तहारों पर इतनी सख्त पाबंदी नहीं थी कि इन कंपनियों को सरोगेट यानी फर्जी नामों से अपने विज्ञापन देने पड़े. सचिन उस ज़माने से खेल रहे हैं लेकिन उऩ्हें ये कभी ठीक नहीं लगा कि वो अपना नाम ऐसे किसी उत्पाद से न जुड़ने दें जो खासतौर से युवाओं के लिए गलत संदेश देता हो.
अब चिकन शराब या तंबाकू की तरह स्वास्थ्य के लिए खराब चीज़ तो है नहीं. बल्कि चिकन तो देश की बड़ी आबादी का मुख्य भोजन है. फिर करीना को क्या सूझी कि उसने ये विज्ञापन करने से मना कर दिया.
उसी खबर में ये रा़ज़ भी छिपा है. उसमें आगे लिखा है कि करीना ने जब से मांसाहारी भोजन छोड़ा उनकी काया सुडौल रहने लगी है. बल्कि ये भी लिख दिया कि करीना जब बीच में साइज़ ज़ीरो या शून्य काया हुईं तो उसके पीछे भी उनके शाकाहारी आहार का ही बड़ा रोल है.
यानी ये करीना की सोच है. उन्हें लगता है कि उनके शरीर में हुए बदलाव के पीछे उनके खान-पान के तौर-तरीके में बदलाव का बड़ा हाथ है. और वो नहीं चाहती हैं कि आज की लड़कियां चिकन-मटन खा कर फूल-कुप्पा हो कर घूमें.
लेकिन उन्होंने ये कैसे मान लिया कि जो लड़कियां या लड़के अपने "खाते-पीते घर के" बदन के साथ दिखते हैं वो सब मांसाहारी ही हैं. और कुपोषित नज़र आने वाले सारे लोग शाकाहारी हैं.
पर करीना ने जितना सोचा उतना ठीक सोचा. कम से कम दोहरे मापदंड तो नहीं अपनाए. जो चीज़ खुद इस्तेमाल नहीं करतीं उसके लिए विज्ञापन करना भी ठीक नहीं समझा.
बाकी जनता जाने और बाज़ार.
मज़ा तब दो गुना हो गया जब ये पढ़ा कि करीना दरअसल अब पूर्ण रूप से शाकाहारी हो गई हैं. उन्होंने माँसाहारी आहार का त्याग कर दिया.
उन्हें जिस व्यक्ति ने माँसाहारी भोजन की आदत छुड़वाई वो उसका भी त्याग कर चुकी हैं. यानी शाहिद कपूर.
लेकिन मज़ा जहाँ ख़त्म हुआ वहीं से सोच शुरू हो गई. ऊपर की पंक्तियां लिख कर भी मैंने दोबारा पढ़ी कि आखिर इस खबर में ऐसा क्या है कि मुझे झुलसाती गर्मी की एक दोपहर में ओरिएंट के पंखे की राहत देती ज़्यादा ठंडी नहीं फिर भी ठीक-ठाक हवाओं के नीचे बैठ कर अपने रविवार को खराब करने की सूझी कि मैं ब्लॉग लिखने बैठ गया.
वो भी तब कि जब मैंने कई महीनों से अपने ब्लॉग को खुद ही देखना छोड़ दिया था लिखने की बात तो दूर है और खासतौर से तब जब देश में पाँच राज्यों के विधानसभा चुनावों के नतीजे आए हैं और मेरे जैसे राजनीतिक जीव को सबसे पहली टिप्पणी इन नतीजों पर करनी चाहिए.
लेकिन मुझे इस खबर में ज़बर्दस्त अपील लगी.
शायद इसलिए कि किसी सेलेब्रेटी का किसी इश्यू के चलते करोड़ों का विज्ञापन हाथ से जाने देना वाकई बड़ी बात है. आज बड़े से बड़ा सेलेब्रेटी चड्ढी बनियान से लेकर तेल-कंघे पाउडर वगैरह बेचता नज़र आता है. जो वो बेचता है वो खुद उसे इस्तेमाल करता है या नहीं इसमें शक की कोई बात नहीं. क्योंकि मैं नहीं समझता कि अमिताभ बच्चन घर जाकर किसी ब्रांड का च्वयनप्राश खाकर बालों में किसी ऐसे तेल से मालिश कराते होंगे जिससे उनकी दिन भर की गर्मी काफूर हो जाती है.
या फिर शाहरुख खान या सलमान खान जो फिल्मी पर्दे पर शर्ट तक तो पहनते नहीं, घर जा कर इत्मिनान से अपनी शर्ट उतार कर अपने घरवालों को बताते होंगे कि देखो हमने फलां ब्रांड की बनियान और चड्ढी पहनी है.
ये बाज़ार के उसूल के खिलाफ है. और इस तरह के सवाल पूछना भी बेवकूफी है. कोई ये नहीं कहता कि जो सेलेब्रेटी जिस ब्रांड का प्रचार करता हो उसके लिए लाज़िमी है कि वो उनका इस्तेमाल भी करे. दरअसल, बाज़ार ऐसी भावनात्मक और दकियानूसी बातों से नहीं चलता. और अगर मैं भी यही सब बातें करने लगूं तो लगेगा मुझे तो बाज़ार की रत्ती भर भी समझ नहीं.
फिर, ये सारी बातें मैं क्यों लिख रहा हूं. आखिर करीना के चिकन का विज्ञापन न करने में क्या तुक है. वो भला चिकन न खाती हों लेकिन हाथ में चिकन लेग पकड़ कर दो लाइनों पर होंठ हिला देने में क्या परेशानी है कि "ये चिकन खाओ और मेरी तरह मस्त हो जाओ..." या फिर कोई इसी तरह की कुछ अलग लाइनें. ये दो लाइनें बोल दो और छह करोड़ रुपए घर बैठे-बिठाए मिल जाएंगे.
पर अचानक याद आया कुछ दिन पहले महेंद्र सिंह धौनी का शराब के एक ब्रांड का सरोगेट विज्ञापन करना. उसमें तो उनकी बहुत कमाई भी हुई. पर तभी आई एक दूसरी खबर से शायद धौनी का नशा उतर गया होगा जिसमें कहा गया था कि सचिन तेंदुलकर ने अपने जीवन में कभी भी शराब के किसी ब्रांड का विज्ञापन नहीं किया. सरोगेट विज्ञापन करना तो दूर की बात.
ये उन दिनों की बात है जब शराब, सिगरेट वगैरह के इश्तहारों पर इतनी सख्त पाबंदी नहीं थी कि इन कंपनियों को सरोगेट यानी फर्जी नामों से अपने विज्ञापन देने पड़े. सचिन उस ज़माने से खेल रहे हैं लेकिन उऩ्हें ये कभी ठीक नहीं लगा कि वो अपना नाम ऐसे किसी उत्पाद से न जुड़ने दें जो खासतौर से युवाओं के लिए गलत संदेश देता हो.
अब चिकन शराब या तंबाकू की तरह स्वास्थ्य के लिए खराब चीज़ तो है नहीं. बल्कि चिकन तो देश की बड़ी आबादी का मुख्य भोजन है. फिर करीना को क्या सूझी कि उसने ये विज्ञापन करने से मना कर दिया.
उसी खबर में ये रा़ज़ भी छिपा है. उसमें आगे लिखा है कि करीना ने जब से मांसाहारी भोजन छोड़ा उनकी काया सुडौल रहने लगी है. बल्कि ये भी लिख दिया कि करीना जब बीच में साइज़ ज़ीरो या शून्य काया हुईं तो उसके पीछे भी उनके शाकाहारी आहार का ही बड़ा रोल है.
यानी ये करीना की सोच है. उन्हें लगता है कि उनके शरीर में हुए बदलाव के पीछे उनके खान-पान के तौर-तरीके में बदलाव का बड़ा हाथ है. और वो नहीं चाहती हैं कि आज की लड़कियां चिकन-मटन खा कर फूल-कुप्पा हो कर घूमें.
लेकिन उन्होंने ये कैसे मान लिया कि जो लड़कियां या लड़के अपने "खाते-पीते घर के" बदन के साथ दिखते हैं वो सब मांसाहारी ही हैं. और कुपोषित नज़र आने वाले सारे लोग शाकाहारी हैं.
पर करीना ने जितना सोचा उतना ठीक सोचा. कम से कम दोहरे मापदंड तो नहीं अपनाए. जो चीज़ खुद इस्तेमाल नहीं करतीं उसके लिए विज्ञापन करना भी ठीक नहीं समझा.
बाकी जनता जाने और बाज़ार.
जबरदस्त
ReplyDeleteआन्दोलन:एक पुस्तक से
http://www.tatyatope.blogspot.com
बढिया है गुरु। वैसे सबकुछ जनता की सोच पर मत छोडिए। मुझे तो करीना फिल्म टशन में अच्छी लगी थी, खासकर ‘दिल डांस मारे’गीत में। लगता है इसी फिल्म से वह शाकाहारी हो गई थीं। चलिए, अच्छा लगा, लंबे दिनों बाद करीना के बहाने आपको पढ़कर।
ReplyDeleteWe have heard so much of hue and cry about Politicians not doing what they say,they do it only for satisfaction of people and own the responsibility(Most of them fails to fulfill) but celebrities in Ads do the same thing not only for them but ask people to do the same in which they are having no faith even from the very beginning.so if Karina has done this which I came to know through your blog is a ray of hope.
ReplyDelete@ Dr. Trivedi. Absolutely. When there is crisis of credibility everywhere: Politics, Judiciary, Bureaucracy and even Media, People will be judged by their deeds and not by mere words.
ReplyDeleteThanks a lot for comment.
Akhilesji. It felt nice to reach your blog on Karina. It is praiseworthy for a celebrity like Karina that she choose to be guided by her own conscience, rather than fall prey to lucre money. Morally, I agree that one should preach for only those things which one practices in his/her lives.
ReplyDeleteBut unfortunately morality has become a passe these days and money rules the roost. Anyway, keep on writing such nice things.
This comment has been removed by a blog administrator.
ReplyDeleteThanks Krishnaji for your kind words. I think by mistake you posted your comment twice, thats why I have removed one. I hope you won't mind. Thanks again. akhilesh
ReplyDeleteब्यवाहिरक जीवन और ब्यवायिक जीवन में नीतिगत समानता मनुष्य के ब्यतित्व को परिभाषित करती है,ऐसे में सेलेब्रेटी के ऐसे फैसले आमलोगों को नैतिक मूल्यों और ब्यवहारिक जीवन को दैनिक कामकाज में शामिल करने के लिए प्ररित करतें हैं। लिहाजा मुझे लगता है कि आपने अपना संडे गर्मी की इस तपीश में खराब नही किया है अपितु एक सेलेब्रेटी के वाजिब र्निणय को सही दिशा दी है , एक बहस को आगे बढाया है।
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