80 के दशक की यादें ताज़ा हो गईं.
तब गांव में एक बड़े हॉल में एक टीवी पर वीडियो फिल्में देखने जाता था.
चाहे शक्ति कपूर हो, अमरीश पुरी या फिर कोई दूसरा ऐसा ही विलन.
पंद्रह रील तक हीरो पिटता था और आखिरी रील में जैसे ही हीरो के हाथ चलने लगते थे तब हॉल में लोग सीटियां और तालियाँ बजाते थे.
आज पीपली लाइव देखी तो फिर वो पुराने दिन सामने आ गए.
इस फिल्म में न कोई हीरो है न कोई हीरोइन. कोई है तो वो है विलन जो कई शक्लों में दर्शकों के सामने आता है.
लेकिन हाल की फिल्मों में विलन के किरदार निभाते रहे नेता, अफसर और पुलिस इस फिल्म में हाशिए पर दिखाए देते हैं.
विलन नंबर 1 है इलैक्ट्रॉनिक मीडिया. 24 घंटे के न्यूज़ चैनल. नाक फुलाते, गुस्से में गुर्राते उनके संपादक और दुनिया भर की बकवास कर 24 घंटे के न्यूज़ चैनलों का पेट भरते रिपोर्टर.
हॉल में जब-जब तालियां बजीं वो तब बजीं जब कुमार दीपक ने बकवास की.
यानी दर्शकों को भी समझ में आने लगा है कि वो टीवी पर जो देखते हैं उसके पीछे किस तरह टीआरपी बढ़ाने का षडयंत्र है, कैसे विरोधी चैनल की स्टोरीज़ से होड़ लगी है और न्यूज़रूम में आखिर क्या होता है.
गिरती टीआरपी के बीच एक चालू पुर्ज़ा रिपोर्टर आइडिया लेकर आता है.... सैफ अली खान ने एक छोटी बच्ची को किस किया.
फिर देखिए न्यूज़ रूम में कैसे इस खबर को तानने के लिए एक के बाद एक आइडियाज़ सामने आते जाते हैं.
करीना कपूर से शुरू हो कर बात शर्मिला टैगोर तक पहुँच जाती है. लेकिन इससे पहले कि इस ऐतिहासिक ख़बर पर काम शुरू हो, पीपली गांव में नत्थे का ड्रामा शुरू हो जाता है.
मुख्यमंत्री के इलाके में पड़ता है पीपली गांव और वहां उप चुनाव की तैयारियां हैं.
मुख्यमंत्री के दिल्ली आने पर उसकी बाइट के लिए स्टार रिपोर्टर कुमार दीपक की पेशकश... मुख्यमंत्री के गाड़ी से निकलते ही रिपोर्टर का उनका पैर छूना और फिर एक बाइट के लिए पहला सवाल ही प्रायोजित सा.
दूसरी तरफ़, अंग्रेज़ी चैनलों के भीतर चल रहा ड्रामा भी बेहद सटीक ढंग से पेश किया गया है.
पहली हेडलाइन शिल्पा शेट्टी की... दूसरी कोई और और तीसरी किसानों की आत्महत्या की.
स्टुडियो में ब्रेक में कृषि मंत्री का आना. एंकर से अपने घर पार्टी में न आने की बात पूछना. एंकर का मुंह बना कर कहना कि तबीयत खराब थी और मंत्री का ये कहना कि तुम दूसरे की पार्टी में तो गई थी. फिर एंकर का कहना उसी के बाद हुई तबीयत खराब.
अनुषा रिज़वी टीवी में कई साल तक काम कर चुकी हैं. आज के इलैक्ट्रॉनिक मी़डिया की बिल्कुल सटीक तस्वीर खींची है.
इसीलिए इस फिल्म में विलन नंबर 1 है खबरिया चैनल.
याद कीजिए वो दृश्य. नत्था गायब है. कुमार दीपक जबरन अपने कैमरामैन को टॉवर पर चढ़ाता है. देश भर के दर्शकों को ये दिखाने के लिए कैसे आज भी देश की 70 फीसदी आबादी पखाने के लिए खेतों में जाती है.
आज के चैनलों में ऐसे रिपोर्टरों की भरमार है. खुद गांव से आते हैं. लेकिन गांव को शहरी दर्शकों को बेचने की कला में माहिर हो गए हैं.
फिर, कैमरामैन को दिखता है नत्था पखाना करते हुए. वो हकबकाते हुए नीचे उतारा जाता है और फिर सारे कैमरे भागते हैं खेतों की ओर. दिशा मैदान के लिए नहीं बल्कि दिशा मैदान करते हुए नत्था को कैमरे में कैप्चर करने के लिए.
और नत्था के गायब होने के बाद कुमार दीपक ने नत्थे के पखाने का जो मनोविश्लेषण किया है उसे देख कर शायद बड़े से बड़ा मनोचिकित्सक भी शर्म से डूब कर मर जाए.
कुमार दीपक कहता है पखाना देख कर अंदाज़ा लगाया जा सकता है कि मरीज़ के दिल में क्या चल रहा है. अगर एक ही रंग का हो तो समझ सकते हैं कि मन में एक ही भाव है. लेकिन नत्था का पखाना कई रंगों का है.
पूरा हॉल रिपोर्टर के इस विश्लेषण से पहले तो चकित सा दिखा. फिर ज़ोर की हँसी जिसमें हास्य रस से अधिक वीभत्स रस का भाव और रिपोर्टर के इस अनूठे विश्लेषण के प्रति अवज्ञा और व्यंग्य दिखा.
इस फिल्म में लोग तालियां तब नहीं बजाते हैं जब जिलाधिकारी या बीडीओ मूर्खों जैसी बात करते हैं. या फिर नेता अपनी रोटियां सेंकने के लिए नत्था का अपने-अपने ढंग से इस्तेमाल करते हैं. हाँ एक बार तब सारे लोग ज़ोर से ज़रूर हँसे जब कृषि सचिव बार-बार यही रट लगता है कि हमें हाई कोर्ट के निर्देश का इंतज़ार है.
लेकिन तालियाँ तब बजती हैं जब चैनलों के रिपोर्टर पीपली गाँव से लाइव रिपोर्टिंग करते हैं. जब नत्था के पड़ोसी, उसके दोस्तों यहाँ तक की बकरियों से बाइट लेने की कोशिश करते हैं. इन तालियों में गूंज वही है जो मैं बचपन में गाँव में वीसीआर पर फिल्में देखते वक्त शक्ति कपूर, अमरीश पुरी या प्राण को पिटते वक्त सुना करता था.
और, इंग्लिश चैनल की रिपोर्टर स्ट्रिंगर विजय के बारे में पूछती है कि वो दिख नहीं रहा. फिर जब आखिर में उसकी गाड़ी रवाना होती है तब नत्था के घर के बाहर मेला उठ चुका होता है. इधर-उधर बिखऱी मिनरल वॉटर की बोतलें, पेप्पी, कॉफी के खाली ग्लास ये कहानी कह चुके होते हैं कि पीपली की त्रासदी सिर्फ एक मनोरंजन का ज़रिया था. वो भी उस हिंदुस्तान के लिए जिसे अपने ड्राइंग रूम में बैठ कर एक किसान की आत्महत्या की कहानी में उतनी ही दिलचस्पी थी जितनी की किसी सीरियल में कि आगे क्या होगा.
तो क्या इलैक्ट्रॉनिक मीडिया नया विलन है? इससे पहले रामगोपाल वर्मा की फिल्म देखी थी रण. तब भी हॉल में कुछ ऐसा ही नज़ारा था.
प्रजातंत्र में जनता का भरोसा पहले नौकरशाहों से उठा तो नेताओं पर टिक गया. नेताओं से उठा तो न्यायपालिका पर टिक गया. और न्यायपालिका से भरोसा उठने के बाद ताकतवर मीडिया में लोगों को उम्मीद की किरण नज़र आई. पर अब मी़डिया भी विलन बनता जा रहा है. प्रजातंत्र के चारों खंबे अगर हिल गए तो आगे क्या होगा... मैं इस पर कुछ नहीं कह सकता... आप क्या कहते हैं....
Monday, August 23, 2010
Thursday, August 05, 2010
इस खेल को कामयाब करो!
तो क्या भारत की नाक कटनी तय है?
अगर ऐसा हुआ तो कम से कम एक इंसान तो बहुत खुश होगा. उसका नाम है मणिशंकर अय्यर.
आखिर वो सार्वजनिक रूप से बोल भी चुके हैं कि अगर कॉमनवेल्थ गेम्स नाकाम होते हैं तो इससे उन्हें बहुत खुशी होगी.
लगता है हालात उसी दिशा में जा रहे हैं. सिर्फ साठ दिन बचे हैं कॉमनवेल्थ गेम्स होने में. अखबार-टीवी भ्रष्टाचार, घपलों और घोटालों की ख़बरों से भरे पड़े हैं.
अय्यर की बददुआयें रंग ला रही हैं. अय्यर का श्राप पूरा होता दिख रहा है.
लेकिन इससे फायदा किसे है.
आप पूछ सकते हैं गेम करवाने से किसे फायदा है. क्यों करोड़ों रुपए खर्च कर कॉमनवेल्थ गेम कराये जा रहे हैं जबकि भारत की आधी आबादी अब भी भूखी सोती है.
क्यों बदसूरत दिल्ली की प्लास्टिक सर्जरी कर उसकी शक्ल बदली जा रही है. वो भी ऐसी सर्जरी जिसका प्लास्टर कुछ दिनों बाद उखड़ जाएगा और दिल्ली पहले से भी ज्यादा बदसूरत नज़र आएगी.
मुझे तो लगता है कि गेम्स होने चाहिएं और बिल्कुल कामयाब भी होने चाहिएं.
मैं अय्यर की बातों से इत्तफाक नहीं रखता. बल्कि मुझे तो लगता है कि यूपीए-1 में बतौर खेल मंत्री खुद अय्यर ने गेम्स को कामयाब बनाने के लिेए कोई दिलचस्पी नहीं दिखाई और इसी का नतीजा है कि आज सबके मन में शंका है कि आखिर ये गेम्स कामयाब हो पाएंगे या नहीं.
सुरेश कलमाड़ी और उनके गुर्गों के भ्रष्टाचार की कहानियां तो गेम्स खत्म होने के बाद भी चलती रहेंगी.
लेकिन अभी सबकी जिम्मेदारी ये है कि गेम्स को कामयाब बनाने के लिए जी-तोड़ मेहनत करें.
प्रधानमंत्री और सोनिया गांधी की चुप्पी से मुझे हैरानी है. ये कोई नीतिगत फैसला नहीं है कि अगर सब तरफ आलोचना हो तो बाद में कांग्रेस पार्टी कह दे कि सोनियाजी की ये राय नहीं थी और उससे उन्हें अलग कर ले.
गेम्स अगर नाकाम होते हैं तो सबकी नाक कटेगी. आखिर पश्चिमी देशों के मीडिया में तो अब भी यही बात होती है कि भारत चाहे विकसित देश बनने की दिशा में कदम आगे बढ़ा रहा हो लेकिन उसके पैरों में वो ताकत नहीं है जो उसे इस मैराथन को पूरा करने के लायक बना सके.
मुझे नहीं लगता है कि गेम्स कामयाब हो भी गए तो पश्चिमी मीडिया की भारत के बारे में ये सोच बदलेगी.
लेकिन अगर नाकाम रहे तो समझ लें कि ये हमला और तेज़ होगा.
तो अब तो नाक का सवाल है. चाहे आपको ये गेम्स पसंद हों या न हों, लेकिन अब इसके अलावा कोई चारा नहीं है कि इन्हें हर हाल में कामयाब बनाया जाए.
अगर ऐसा हुआ तो कम से कम एक इंसान तो बहुत खुश होगा. उसका नाम है मणिशंकर अय्यर.
आखिर वो सार्वजनिक रूप से बोल भी चुके हैं कि अगर कॉमनवेल्थ गेम्स नाकाम होते हैं तो इससे उन्हें बहुत खुशी होगी.
लगता है हालात उसी दिशा में जा रहे हैं. सिर्फ साठ दिन बचे हैं कॉमनवेल्थ गेम्स होने में. अखबार-टीवी भ्रष्टाचार, घपलों और घोटालों की ख़बरों से भरे पड़े हैं.
अय्यर की बददुआयें रंग ला रही हैं. अय्यर का श्राप पूरा होता दिख रहा है.
लेकिन इससे फायदा किसे है.
आप पूछ सकते हैं गेम करवाने से किसे फायदा है. क्यों करोड़ों रुपए खर्च कर कॉमनवेल्थ गेम कराये जा रहे हैं जबकि भारत की आधी आबादी अब भी भूखी सोती है.
क्यों बदसूरत दिल्ली की प्लास्टिक सर्जरी कर उसकी शक्ल बदली जा रही है. वो भी ऐसी सर्जरी जिसका प्लास्टर कुछ दिनों बाद उखड़ जाएगा और दिल्ली पहले से भी ज्यादा बदसूरत नज़र आएगी.
मुझे तो लगता है कि गेम्स होने चाहिएं और बिल्कुल कामयाब भी होने चाहिएं.
मैं अय्यर की बातों से इत्तफाक नहीं रखता. बल्कि मुझे तो लगता है कि यूपीए-1 में बतौर खेल मंत्री खुद अय्यर ने गेम्स को कामयाब बनाने के लिेए कोई दिलचस्पी नहीं दिखाई और इसी का नतीजा है कि आज सबके मन में शंका है कि आखिर ये गेम्स कामयाब हो पाएंगे या नहीं.
सुरेश कलमाड़ी और उनके गुर्गों के भ्रष्टाचार की कहानियां तो गेम्स खत्म होने के बाद भी चलती रहेंगी.
लेकिन अभी सबकी जिम्मेदारी ये है कि गेम्स को कामयाब बनाने के लिए जी-तोड़ मेहनत करें.
प्रधानमंत्री और सोनिया गांधी की चुप्पी से मुझे हैरानी है. ये कोई नीतिगत फैसला नहीं है कि अगर सब तरफ आलोचना हो तो बाद में कांग्रेस पार्टी कह दे कि सोनियाजी की ये राय नहीं थी और उससे उन्हें अलग कर ले.
गेम्स अगर नाकाम होते हैं तो सबकी नाक कटेगी. आखिर पश्चिमी देशों के मीडिया में तो अब भी यही बात होती है कि भारत चाहे विकसित देश बनने की दिशा में कदम आगे बढ़ा रहा हो लेकिन उसके पैरों में वो ताकत नहीं है जो उसे इस मैराथन को पूरा करने के लायक बना सके.
मुझे नहीं लगता है कि गेम्स कामयाब हो भी गए तो पश्चिमी मीडिया की भारत के बारे में ये सोच बदलेगी.
लेकिन अगर नाकाम रहे तो समझ लें कि ये हमला और तेज़ होगा.
तो अब तो नाक का सवाल है. चाहे आपको ये गेम्स पसंद हों या न हों, लेकिन अब इसके अलावा कोई चारा नहीं है कि इन्हें हर हाल में कामयाब बनाया जाए.
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