सांसों की उलझी-सुलझी लड़ियों का है जीवन नाम
बनते-मिटते और सिमटते सपनों का है जीवन नाम
Tuesday, March 30, 2010
Sunday, March 28, 2010
मजहदी-बिरजू होते रहेंगे
देहरादून से ननद की बेटी की शादी में दिल्ली आई थी मजहदी.
करोलबाग से रिश्तेदार के घर होने के बाद बल्लीमारान वापस जा रहे थे.
राजीव चौक मेट्रो स्टेशन पर आगे खड़ी थी मजहदी.
अचानक धक्का लगा.
नीचे पटरियों पर गिर गई.
बिरजू काम की तलाश में अपना घर-बार छोड़ कर दिल्ली आया था.
जहांगीरपुरी में रुका था अपने किसी परिचित के पास.
राजीव चौक पर मेट्रो पकड़ने गया.
किसी ने कहा जल्दी जाओ मेट्रो छूट जाएगी.
भागा तो खुद को संभाल नहीं पाया.
पैर फिसला, संतुलन बिगड़ा और सामने खड़ी एक लड़की के साथ पटरियों पर गिर गया.
केंद्रीय सचिवालय से आ रही मेट्रो ने लड़की और बिरजू को चपेट में ले लिया.
दोनों के पैर कट गए.
अब हम जानते हैं कि ये लड़की मजहदी थी जो बिरजू के साथ मेट्रो की पटरियों पर गिर गई.
आज दैनिक भास्कर में इसकी विस्तृत ख़बर छपी है धनंजय कुमार नाम के संवाददाता की.
घटना परसों की है. कल के अख़बारों में भी छपी. लेकिन कोई रिपोर्टर इसे प्रेम प्रसंग का नतीजा बता रहा था तो कोई एक तरफा मुहब्बत की दास्तां का दुखत अंत भी.
न बिरजू मजहदी को जानता है और न ही मजहदी बिरजू को.
पत्रकारिता के स्तर पर टिप्पणी करने का मेरा कोई मकसद नहीं है क्योंकि ऐसे विषयों पर कई ज्ञानी लोग दिन-रात बड़े-बड़े होटलों से लेकर चाय की दुकान तक भाषण देते रहते हैं. इनमें से ज़्यादातर के चैनल्स और अख़बारों में वही सब कुछ दिखता और छपता है जिसके खिलाफ वो बोलते हैं.
मुझे तो दुख है इस हादसे पर.
दिल्ली को वर्ल्ड क्लास सिटी बनाने के लिए, सड़कों से ट्रैफिक कम करने के लिए मेट्रो लाई गई.
मेट्रो ने वाकई दिल्ली की जीवन शैली बदल दी है. अब कई लोग दफ्तर जाने के लिए कार का नहीं बल्कि मेट्रो का सहारा लेते हैं.
ये समय बचाती है. ऊर्जा बचाती है. सफर आरामदेह बनाती है. ताकि ट्रैफिक के शोर-गुल से बच कर आरामदेह एयरकंडीशन्ड कोच में सफर कर आप जब दफ्तर पहुंचे तो शांत दिमाग से अपने दिन और काम की शुरुआत कर सकें.
डीयू की दौड़ लगाने वाले हज़ारों स्टुडेंट्स के लिए मेट्रो वरदान साबित हुई है. कामकाजी महिलाओं के लिए भी जहां वो बस में मनचलों की नज़रों और छेड़छाड़ से बचते हुए आरक्षित सीट पर बैठ कर सफर करती हैं.
एक नई मेट्रो कल्चर भी विकसित हुई है. मैंने अभी तक कुल दो बार मेट्रो का सफर किया है. मैंने देखा कि किस तरह से ज़्यादातर लड़के-लड़कियां अपने मोबाइल फोन या आईपोड का हैंड्स फ्री कानों में लगा कर या तो गाने सुनते रहते हैं या फिर जोड़े बना कर दीन-दुनिया से बेखबर आपस में बातचीत में मशगूल रहते हैं.
महिलाओं और बुजुर्गों को सीट मांगनी नहीं पड़ती है बल्कि कुछ ठीढ नौजवानों को छोड़ ज़्यादातर खुद ही उठ कर उन्हें अपनी सीट ऑफर कर देते हैं.
लेकिन इस कल्चर में एक बड़ी कमी दिखाई देती है. अगर ऐसा न होता तो मजहदी बिरजू की दुर्घटना नहीं हुई होती.
बिरजू ने जब पूछा कि जहांगीरपुरी की मेट्रो कब और कहां से जाएगी तो बताने वाले को शायद ये बताने का वक्त नहीं मिला कि एक मेट्रो छूट भी जाए तो दूसरी थोड़ी देर में आ जाएगी. इसका वक्त नोटिस बोर्ड पर लिखा है. मेट्रो समय पर चलती है. अगर एक में भीड़ हो तो आप दूसरी मेट्रो का इंतजा़र कर सकते हैं. उसमें निश्चित तौर पर जगह मिल जाएगी.
मेट्रो का इंतजार करने के लिए ज़रूरी नहीं है कि पीली लाइन पार कर बिल्कुल पटरियों से सट कर खड़े हों. पीली लाइन पटरियों से कम से कम आधा मीटर दूर होती है. यात्रियों को इस लाइन के पीछे ही खड़े होना चाहिए.
ये बातें कौन सिखाएगा. ज़िम्मेदारी तो मेट्रो की ही है. आधी दिल्ली को चाहे अब मेट्रो की सवारी की आदत पड़ गई हो लेकिन अब भी बाहर से आने वाले बड़े लोग हैं जो शायद पहली बार मेट्रो में सफर कर रहे हों.
इन लोगों को जानकारी देने के लिए क्या इंतज़ाम किया है मेट्रो ने.
मैं अपना ही किस्सा बताता हूं. मुझे विकासपुरी जाना था. मैंने मेट्रो की वेबसाइट पर जाकर रूट पता करने की कोशिश की कि वसुंधरा गाजियाबाद से विकासपुरी जाने के लिए कौन सा रास्ता बेहतर होगा या कहां से मेट्रो पकड़नी होगी.
मुझे कोई जानकारी नहीं मिली. फिर अपने सिटी ब्यूरो के एक सहयोगी को फोन कर पूछा तब उसने बताया कि आनंद विहार से जाना बेहतर होगा. सीधे गाड़ी विकासपुरी जाएगी और रास्ते में कहीं बदलना नहीं है.
आनंद विहार मेट्रो स्टेशन पर पार्किंग न करें ये सलाह भी दे दी लिहाजा मैंने पैसेफिक मॉल पर 20 रुपए देकर गाड़ी खड़ी की.
स्टेशन पर गया तो रूट देखना चाहता था लेकिन टिकट के लिए लंबी लाइन लगी थी इसलिए पहले उसी में लग गया. टिकट के काउंटर पर लिखा था यहां पूछताछ मना है.
फिर भी, मैंने उससे पूछा. उसने गुस्से में देख कर कहा आप इतने रुपए का टिकट ले लीजिए और गाड़ी सीधे विकासपुरी ही जाएगी.
लंदन में मेट्रो जिसे ट्यूब कहते हैं का अनुभव बिलकुल अलग है.
वहां वेबसाइट पर बसों पर और ट्यूब स्टेशनों पर हर जगह मैप मिल जाएगा. पॉकेट मैप जिसे आप लेकर जेब में घूम सकते हैं.
टिकट के लिए लंबी लाइन लगने का मतलब ही नहीं है. स्टेशन पर वेंडिग मशीन लगी होती हैं जिनसे आप क्रेडिट या डेबिट कार्ड से पूरे दिन का, अलग-अलग ज़ोन का, या पूरे सप्ताह का और पूरे महीने का भी पास ले सकते हैं.
यहां टिकट लेने जाएंगे तो छुट्टे पैसे भी मांगते हैं. वहां पर छुट्टे पैसे देने के लिए मशीन भी लगी हुई है.
हर तरफ मौजूद सिक्यूरिटी गार्ड आपकी मदद करते हैं. आपको अगर रास्ता समझ न आए तो किसी सहयात्री से पूछ सकते हैं. मुस्कान के साथ लोग आपकी मदद कर देंगे.
स्टेशन पर यलो लाइन के पीछे खड़े होने के लिए बार-बार एनाउंसमेंट होता है. गाड़ी आती है कहा जाता है माइंड द गैप जो वहां के युवाओं के लिए टीशर्ट पर लिखवाने का एक स्लोगन भी बन गया है.
ट्यूब की फ्रिकवेंसी भी पीक आवर्स पर हर एक मिनट पर है और ऑफ पीक आवर्स में दो से चार मिनट.
इनमें से कुछ चीज़ें दिल्ली मेट्रो में भी है. गार्ड यहां भी प्लेटफॉर्म पर तैनात हैं जो लोगों को पटरियों से दूर खड़े रहने के लिए कहते हैं. एनाउंसमेंट यहां भी होता है. तो फिर ऐसे हादसे क्यों होते हैं.
क्यों टिकट काउंटर पर लिखा है पूछताछ मना है. क्यों टिकट के लिए लगती हैं लंबी लाइनें. क्यों ऑटोमैटिक वेंडिग मशीन नहीं लगाई गई हैं स्टेशनों पर. क्यों मेट्रो का ज़्यादातर हिस्सा ओवरग्राउंड है अंडरग्राउंड नहीं.
दिल्ली का लैंड स्केप बदनुमा कर दिया है ओवरग्राउंड मेट्रो ने. सड़कों पर आने-जाने वालों का जीवन मुहाल हुआ वो अलग क्योंकि एक-एक डेढ़-डेढ़ साल से सड़कों पर मेट्रो का काम चल रहा है.
अंडर ग्राउंड मेट्रो को बढ़ावा क्यों नहीं दिया सरकार ने. क्यों सिर्फ़ लुटेन्स ज़ोन में है अंडर ग्राउंड मेट्रो. क्या इसलिए कि वहां रहने वाले और हिंदुस्तान के आकाओं को ज़मीन के ऊपर भड़भड़ाती निकलती मेट्रो नागवार गुजरती. या धरोहर के नाम पर सैंकड़ों एकड़ जमीन पर रहने वाले कुछ सौ विशिष्ट परिवारों को अपनी सुविधा बाकी कीड़े-मकोड़ों की तुलना में ज़्यादा ज़रूरी लगती है.
ये कुछ तकलीफदेह सवाल हैं.
मैं मेट्रो का बहुत बड़ा पक्षधर हूं. मैं चाहता हूं कि मेट्रो मेरे घर वसुंधरा के पास भी आए ताकि मैं अपनी गाड़ी घर पर खड़ी कर मेट्रो से ही दफ्तर आऊ-जाऊं. लेकिन यात्रियों की सुविधाओं और उनकी जागरूकता को बढ़ाने के लिए जब तक मेट्रो कड़े कदम नहीं उठाता तब तक मजहदी और बिरजू जैसे हादसे होते रहेंगे.
करोलबाग से रिश्तेदार के घर होने के बाद बल्लीमारान वापस जा रहे थे.
राजीव चौक मेट्रो स्टेशन पर आगे खड़ी थी मजहदी.
अचानक धक्का लगा.
नीचे पटरियों पर गिर गई.
बिरजू काम की तलाश में अपना घर-बार छोड़ कर दिल्ली आया था.
जहांगीरपुरी में रुका था अपने किसी परिचित के पास.
राजीव चौक पर मेट्रो पकड़ने गया.
किसी ने कहा जल्दी जाओ मेट्रो छूट जाएगी.
भागा तो खुद को संभाल नहीं पाया.
पैर फिसला, संतुलन बिगड़ा और सामने खड़ी एक लड़की के साथ पटरियों पर गिर गया.
केंद्रीय सचिवालय से आ रही मेट्रो ने लड़की और बिरजू को चपेट में ले लिया.
दोनों के पैर कट गए.
अब हम जानते हैं कि ये लड़की मजहदी थी जो बिरजू के साथ मेट्रो की पटरियों पर गिर गई.
आज दैनिक भास्कर में इसकी विस्तृत ख़बर छपी है धनंजय कुमार नाम के संवाददाता की.
घटना परसों की है. कल के अख़बारों में भी छपी. लेकिन कोई रिपोर्टर इसे प्रेम प्रसंग का नतीजा बता रहा था तो कोई एक तरफा मुहब्बत की दास्तां का दुखत अंत भी.
न बिरजू मजहदी को जानता है और न ही मजहदी बिरजू को.
पत्रकारिता के स्तर पर टिप्पणी करने का मेरा कोई मकसद नहीं है क्योंकि ऐसे विषयों पर कई ज्ञानी लोग दिन-रात बड़े-बड़े होटलों से लेकर चाय की दुकान तक भाषण देते रहते हैं. इनमें से ज़्यादातर के चैनल्स और अख़बारों में वही सब कुछ दिखता और छपता है जिसके खिलाफ वो बोलते हैं.
मुझे तो दुख है इस हादसे पर.
दिल्ली को वर्ल्ड क्लास सिटी बनाने के लिए, सड़कों से ट्रैफिक कम करने के लिए मेट्रो लाई गई.
मेट्रो ने वाकई दिल्ली की जीवन शैली बदल दी है. अब कई लोग दफ्तर जाने के लिए कार का नहीं बल्कि मेट्रो का सहारा लेते हैं.
ये समय बचाती है. ऊर्जा बचाती है. सफर आरामदेह बनाती है. ताकि ट्रैफिक के शोर-गुल से बच कर आरामदेह एयरकंडीशन्ड कोच में सफर कर आप जब दफ्तर पहुंचे तो शांत दिमाग से अपने दिन और काम की शुरुआत कर सकें.
डीयू की दौड़ लगाने वाले हज़ारों स्टुडेंट्स के लिए मेट्रो वरदान साबित हुई है. कामकाजी महिलाओं के लिए भी जहां वो बस में मनचलों की नज़रों और छेड़छाड़ से बचते हुए आरक्षित सीट पर बैठ कर सफर करती हैं.
एक नई मेट्रो कल्चर भी विकसित हुई है. मैंने अभी तक कुल दो बार मेट्रो का सफर किया है. मैंने देखा कि किस तरह से ज़्यादातर लड़के-लड़कियां अपने मोबाइल फोन या आईपोड का हैंड्स फ्री कानों में लगा कर या तो गाने सुनते रहते हैं या फिर जोड़े बना कर दीन-दुनिया से बेखबर आपस में बातचीत में मशगूल रहते हैं.
महिलाओं और बुजुर्गों को सीट मांगनी नहीं पड़ती है बल्कि कुछ ठीढ नौजवानों को छोड़ ज़्यादातर खुद ही उठ कर उन्हें अपनी सीट ऑफर कर देते हैं.
लेकिन इस कल्चर में एक बड़ी कमी दिखाई देती है. अगर ऐसा न होता तो मजहदी बिरजू की दुर्घटना नहीं हुई होती.
बिरजू ने जब पूछा कि जहांगीरपुरी की मेट्रो कब और कहां से जाएगी तो बताने वाले को शायद ये बताने का वक्त नहीं मिला कि एक मेट्रो छूट भी जाए तो दूसरी थोड़ी देर में आ जाएगी. इसका वक्त नोटिस बोर्ड पर लिखा है. मेट्रो समय पर चलती है. अगर एक में भीड़ हो तो आप दूसरी मेट्रो का इंतजा़र कर सकते हैं. उसमें निश्चित तौर पर जगह मिल जाएगी.
मेट्रो का इंतजार करने के लिए ज़रूरी नहीं है कि पीली लाइन पार कर बिल्कुल पटरियों से सट कर खड़े हों. पीली लाइन पटरियों से कम से कम आधा मीटर दूर होती है. यात्रियों को इस लाइन के पीछे ही खड़े होना चाहिए.
ये बातें कौन सिखाएगा. ज़िम्मेदारी तो मेट्रो की ही है. आधी दिल्ली को चाहे अब मेट्रो की सवारी की आदत पड़ गई हो लेकिन अब भी बाहर से आने वाले बड़े लोग हैं जो शायद पहली बार मेट्रो में सफर कर रहे हों.
इन लोगों को जानकारी देने के लिए क्या इंतज़ाम किया है मेट्रो ने.
मैं अपना ही किस्सा बताता हूं. मुझे विकासपुरी जाना था. मैंने मेट्रो की वेबसाइट पर जाकर रूट पता करने की कोशिश की कि वसुंधरा गाजियाबाद से विकासपुरी जाने के लिए कौन सा रास्ता बेहतर होगा या कहां से मेट्रो पकड़नी होगी.
मुझे कोई जानकारी नहीं मिली. फिर अपने सिटी ब्यूरो के एक सहयोगी को फोन कर पूछा तब उसने बताया कि आनंद विहार से जाना बेहतर होगा. सीधे गाड़ी विकासपुरी जाएगी और रास्ते में कहीं बदलना नहीं है.
आनंद विहार मेट्रो स्टेशन पर पार्किंग न करें ये सलाह भी दे दी लिहाजा मैंने पैसेफिक मॉल पर 20 रुपए देकर गाड़ी खड़ी की.
स्टेशन पर गया तो रूट देखना चाहता था लेकिन टिकट के लिए लंबी लाइन लगी थी इसलिए पहले उसी में लग गया. टिकट के काउंटर पर लिखा था यहां पूछताछ मना है.
फिर भी, मैंने उससे पूछा. उसने गुस्से में देख कर कहा आप इतने रुपए का टिकट ले लीजिए और गाड़ी सीधे विकासपुरी ही जाएगी.
लंदन में मेट्रो जिसे ट्यूब कहते हैं का अनुभव बिलकुल अलग है.
वहां वेबसाइट पर बसों पर और ट्यूब स्टेशनों पर हर जगह मैप मिल जाएगा. पॉकेट मैप जिसे आप लेकर जेब में घूम सकते हैं.
टिकट के लिए लंबी लाइन लगने का मतलब ही नहीं है. स्टेशन पर वेंडिग मशीन लगी होती हैं जिनसे आप क्रेडिट या डेबिट कार्ड से पूरे दिन का, अलग-अलग ज़ोन का, या पूरे सप्ताह का और पूरे महीने का भी पास ले सकते हैं.
यहां टिकट लेने जाएंगे तो छुट्टे पैसे भी मांगते हैं. वहां पर छुट्टे पैसे देने के लिए मशीन भी लगी हुई है.
हर तरफ मौजूद सिक्यूरिटी गार्ड आपकी मदद करते हैं. आपको अगर रास्ता समझ न आए तो किसी सहयात्री से पूछ सकते हैं. मुस्कान के साथ लोग आपकी मदद कर देंगे.
स्टेशन पर यलो लाइन के पीछे खड़े होने के लिए बार-बार एनाउंसमेंट होता है. गाड़ी आती है कहा जाता है माइंड द गैप जो वहां के युवाओं के लिए टीशर्ट पर लिखवाने का एक स्लोगन भी बन गया है.
ट्यूब की फ्रिकवेंसी भी पीक आवर्स पर हर एक मिनट पर है और ऑफ पीक आवर्स में दो से चार मिनट.
इनमें से कुछ चीज़ें दिल्ली मेट्रो में भी है. गार्ड यहां भी प्लेटफॉर्म पर तैनात हैं जो लोगों को पटरियों से दूर खड़े रहने के लिए कहते हैं. एनाउंसमेंट यहां भी होता है. तो फिर ऐसे हादसे क्यों होते हैं.
क्यों टिकट काउंटर पर लिखा है पूछताछ मना है. क्यों टिकट के लिए लगती हैं लंबी लाइनें. क्यों ऑटोमैटिक वेंडिग मशीन नहीं लगाई गई हैं स्टेशनों पर. क्यों मेट्रो का ज़्यादातर हिस्सा ओवरग्राउंड है अंडरग्राउंड नहीं.
दिल्ली का लैंड स्केप बदनुमा कर दिया है ओवरग्राउंड मेट्रो ने. सड़कों पर आने-जाने वालों का जीवन मुहाल हुआ वो अलग क्योंकि एक-एक डेढ़-डेढ़ साल से सड़कों पर मेट्रो का काम चल रहा है.
अंडर ग्राउंड मेट्रो को बढ़ावा क्यों नहीं दिया सरकार ने. क्यों सिर्फ़ लुटेन्स ज़ोन में है अंडर ग्राउंड मेट्रो. क्या इसलिए कि वहां रहने वाले और हिंदुस्तान के आकाओं को ज़मीन के ऊपर भड़भड़ाती निकलती मेट्रो नागवार गुजरती. या धरोहर के नाम पर सैंकड़ों एकड़ जमीन पर रहने वाले कुछ सौ विशिष्ट परिवारों को अपनी सुविधा बाकी कीड़े-मकोड़ों की तुलना में ज़्यादा ज़रूरी लगती है.
ये कुछ तकलीफदेह सवाल हैं.
मैं मेट्रो का बहुत बड़ा पक्षधर हूं. मैं चाहता हूं कि मेट्रो मेरे घर वसुंधरा के पास भी आए ताकि मैं अपनी गाड़ी घर पर खड़ी कर मेट्रो से ही दफ्तर आऊ-जाऊं. लेकिन यात्रियों की सुविधाओं और उनकी जागरूकता को बढ़ाने के लिए जब तक मेट्रो कड़े कदम नहीं उठाता तब तक मजहदी और बिरजू जैसे हादसे होते रहेंगे.
Friday, March 26, 2010
पंक्चर का चक्कर
कार, बाइक, स्कूटर, साइकल. कभी-कभी बस और ट्रक भी.
चलते चलते पंक्चर क्यों हो जाते हैं.
दरअसल, इसलिए क्योंकि कई बार सड़कों पर पड़ी कीलें उनमें चुभ जाती हैं. सख्त रबर को भेद कर पतली ट्यूब में घुस जाती हैं और इसलिए गाड़ियां पंक्चर हो जाती हैं.
लेकिन कीलों का सड़क पर क्या काम. कीलें सड़कों पर क्यों बिखरी होती हैं.
कील लोहे से बनती हैं. इनका आकार अलग-अलग होता है. एक तरफ ठोकने के लिये सिरा होता है तो दूसरा सिरा नुकीला होता है ताकि वो आसानी से घुस सकें.
कीलों का इस्तेमाल आम तौर पर फर्नीचर बनाने वाले कारीगर करते हैं. घरों में भी कीलों का इस्तेमाल होता है जैसे दीवारों पर फोटो टांगने के लिए या बाथरूम में कपड़े टांगने के लिए भी कीलें ठोक ली जाती हैं.
यानी कीलें या तो घरों में मिलनी चाहिएं या फिर कारपेंटरों के यहां. फिर सड़कों पर क्यों बिखरी होती हैं. अगर सड़कों पर बिखरी न मिलें तो टायर चाहे किसी का भी हो, पंक्चर होगा ही नहीं. क्योंकि बबूल के कांटे चाहे कितने ही तीखे हों, टायर के मोटे रबर को नहीं भेद पाते बल्कि टायर पड़ते ही टूट जाते हैं.
कील पर अगर सड़क पर समतल पड़ी हों तो उनके टायर को भेदने की संभावना कम होती है. लेकिन पंक्चर के वक्त देखिएगा कीलें सीधे ही टायर में घुसी दिखती हैं जैसे किसी ने उन्हें सड़क पर सीधा खड़ कर छोड़ दिया हो और उनके ऊपर से गाड़ी निकलते ही कील अंदर, टायर पंक्चर और थोड़ी दूर जाकर आपकी गाड़ी खड़ी हो गई.
फिर तलाशिए मैकेनिक को. वो दिन में खूब दिखाई देंगे. बल्कि थोड़ी-थोड़ी दूर पर ही आपको पंक्चर सुधारने वाले मैकेनिक मिल जाएँगे. गाड़ी को या तो वहां तक धकेल कर ले जाएं या फिर हिम्मत हो तो किनारे खड़ी कर स्टेपनी चेंज करें और फिर पंक्चर टायर को उसके यहां बनवाने के लिए ले जाएं.
मैकेनिक भी कमाल के होते हैं. सड़क किनारे दूर से ही एक बड़ा टायर ज़मीन पर गड़ा मिल जाएगा. समझ जाइए वहीं मैकेनिक है जो पंक्चर ठीक करेगा. किनारे पर जोड़-तोड़ कर बनाया एक छोटा सा कमरा जिसमें टायर, ट्यूब वगैरह का ढेर लगा है. पास में जमीन में खुदे एक गड्डे में पानी भरा होगा. एक बड़ा सा सिलेंडर लगा होगा जिसके बगल में एक पुराना जनरेटर जो मैकेनिक के इशारा करते ही धक-धक कर चलने लगता है और बड़े सिलेंडर में हवा भरने लगती है. कम से कम 15 मिनट लगते हैं कार का पंक्चर बनाने में. मुझे इस बात की बहुत शिकायत है कि मैकेनिक को पंक्चर बनाने के सिर्फ़ दस रुपए मिलते हैं. कम से कम 100 रुपया मिलना चाहिए एक पंक्चर ठीक करने का. आखिर उसमें इतनी मेहनत जो लगती है.
वो पहले आपकी गाड़ी में जैक लगा कर टायर निकालेगा. फिर खूब ताकत लगा कर टायर को अलग-अलग जगह से ठोक-पीट कर ट्यूब बरामद करेगा. फिर ट्यूब में हवा भर कर जमीन में बने गड्डे में भरे पानी में डुबो कर देखेगा. फिर पंक्चर कहां हुआ इसकी पहचान करेगा. फिर हवा निकालेगा, फिर पंक्चर की जगह पर चिपकाने वाली ट्यूब से रबर का छोटा सा टुकड़ा चिपकाएगा. फिर हवा भरेगा, फिर पानी में डुबो कर देखेगा कि पंक्चर ठीक से लगा या नहीं. फिर हवा निकालेगा, फिर ट्यूब को टायर में घुसोएगा. फिर हवा भरेगा. फिर उसे कार में लगाएगा. फिर जैक हटाएगा. और आप उसे दस रुपए देकर खुशी-खुशी अपने रास्ते निकल लेंगे.
ये बहुत मेहनत का काम है. हम आप नहीं कर सकते. दरअसल, ये श्रम इतना कठिन होने के बावजूद बहुत सस्ता है लिहाजा हम इसकी कद्र नहीं करते.
वैसे सवाल अब भी यही है कि सड़कों पर कीलें क्यों पाई जाती हैं.
हमें हर चीज़ में साज़िश नज़र आती है. इसमें भी कई लोगों का यह कहना है कि ज़्यादातर कारें वहीं पंक्चर होती हैं जहां आस-पास मैकेनिक की दुकान हो. यानी उनका आरोप है कि मैकेनिक ही सड़कों पर कीलें बिखेर देते हैं ताकि गाड़ियां पंक्चर हों और उनकी रोज़ी-रोटी चलती रहे. मैं इससे इत्तफाक नहीं रखता. मैं मानता हूं कि सड़कों पर कीलों का पाया जाना महज़ संयोग है और कीलें सड़कों पर नहीं होंगी तो न तो आपका टायर पंक्चर होगा और न ही आप मैकेनिक के पास जाएंगे.
Monday, March 01, 2010
ऐसे खेली होली!
शुरुआत बहुत धीमी थी. बेहद शालीन. इंटरकॉम पर एक-दो फोन होली की बधाई देते हुए. यानी सोसायटी के भीतर से ही. मोबाइल कल रात से ही बरबरा रहा था. लगातार मैसेज पर मैसेज. होली की बधाई पर बधाई. सारे मित्रों को बहुत धन्यवाद. ये जानते हुए भी कि टेलीकॉम प्रोवाइडर खून चूसने को तैयार हैं. एसएमएस का दाम बढ़ा दिया. फिर भी एसएमएस किया. ये मेरा हमेशा का ऊसूल है कि कोई भी मैसेज आए जवाब ज़रूर देता हूं. कोई मिस्ड कॉल हो तो उसे भी पलट कर फोन करता हूँ. लेकिन कई मेरे मित्र ऐसे भी हैं खासतौर से काम से जुड़े जो एसएमएस और मिस्ड कॉल का जवाब देना अपनी शान के खिलाफ समझते हैं. बहरहाल उन्हें भी होली मुबारक हो.
फिर बाबू ने ज़िद पकड़ी तो धीरे-धीरे उसे तैयार किया. पूरी तरह से लैस. अंदर स्वेटर, उस पर बरसाती जो अनुपम ने बेल्जियम से लाकर दी थी. ऊपर से एक पुराना लाल रंग का कुर्ता. बाबू की पिचकारी के लिए दो अलग-अलग बाल्टियों में रंग भी तैयार कर लिए. एक हरा एक लाल. एक प्लेट में दो रंग की गुलाल भी सजा लीं. चंदन का टीका लगाने की भी पूरी तैयारी कर ली.
शास्ताजी फिर पिचकारी लेकर निकल पड़े मैदान में. मैं भी अपने पुराने कपड़ों की तलाश में अलमारी खंगालने लगा. एक पुराना लाल रंग का कुर्ता पकड़ में आया जो कभी सात आठ साल पहले फैब इंडिया से लिया था. अब बदरंग हो चला था. लिहाज़ा उस पर नए रंग चढ़ाने का फैसला किया. एक पुरानी जींस भी मिल गई. यानी अब मैं होली खेलने के लिए पूरी तरह से तैयार था.
बाबू धीरे-धीरे रंग में आते गए. आने-जाने वालों पर पिचकारी से रंग छोड़ा और बदले में किसी ने रंग डाला तो खूब मज़े से लगवा भी लिया. ये कायदे से उनकी पहली होली रही. इससे पहले नाना के घर पर रहते थे और मम्मी के साथ होली के रंगों से बचते रहे.
मुझे भी परिसर में परिचित मिलते रहे. बड़े सम्मान के साथ एक-दूसरे के चेहरों पर गुलाल लगाना और फिर तीन बार गले मिलना. ये तीन बार गले मिलने का फंडा मुझे समझ में नहीं आया. एक बार या दो बार क्यों नहीं तीन बार क्यों. या फिर चार बार क्यों नहीं मिलते गले. बहरहाल, गुलाल का सिलसिला चलता रहा, चेहरा कभी लाल, कभी पीला तो कभी हरा होता रहा. बाल भी जो अब उम्र से पहले ही सफेद हो चले हैं, उन्हें भी अपना रंग बदलने का मौक़ा मिला. आइने में अपनी शक्ल देखी तो अच्छी लगी. चेहरे के रंग दिल के भीतर गहरे तक उतर गए.
फिर समां बदला. जो गले मिल कर गुलाल लगा रहे थे, धीरे-धीरे आक्रामक होते गए. गुलाल की जगह पक्के रंगों ने ले ली. उनकी शिकायत थी बदन पर अब भी कई ऐसे स्पॉट हैं जहाँ रंग नहीं लगा है. गुलाल के रंगों की उनके सामने कोई औकात नहीं थी. उनका कहना था रंग ऐसे लगें जो पक्के हों और कभी न छूटें. यानी मेरे पास मानसिक रूप से इस आक्रमण के लिए तैयार होने के अलावा कोई और चारा नहीं था.
फिर ये आक्रमण धीरे-धीरे हिंसा का रूप लेता गया. सिर्फ पक्के रंग लगाने से ही काम नहीं चला. अब सिलसिला बदल चुका था. अब बारी थी एक-दूसरे को गीला करने की. सूखी होली का दौर ख़त्म हो चला था. अब रंगों से भरी बाल्टियों से भिगोना शुरू हुआ. मुझे भी भिगोया गया और मैं भी इसमें पीछे नहीं रहा.
लेकिन भांग और कई लोगों पर दूसरे आधुनिक ढंग का नशा हावी हो चला था. इस बीच बाबू भी पाइप के पानी से भीग चुके थे. मुझे लगा अब होली ख़त्म करने का वक्त आ गया है. लिहाज़ा मैं उनका हाथ पकड़ कर घर की ओर चला. लेकिन कुछ लोगों ने फिर घेर लिया. इस बार का आक्रमण बेहद चौंकाने वाले ढंग से किया गया था और मैं मानसिक रूप से इसके लिए बिलकुल भी तैयार नहीं था.
दरअसल, पाइप से बिखरे पानी से लॉन में पड़ी मिट्टी बेहद गीली और चिकनी हो चली थी. वो कीचड़ का तालाब कइयों के मन को भाने लगा. ये होली का आखिरी दौर था और अब सब को उसमें डुबोने का कार्यक्रम चल निकला था. मुझे भी उसमें शामिल होने के लिए जबरन उठाया गया. जब मैंने देखा कि बचने का कोई चारा नहीं है तो मैं खुशी-खुशी कीचड़ के समुद्र में डूबने को तैयार हो गया. मैंने अपने स्लीपर्स उतारे और इससे पहले कि मुझे कोई घसीटता मैं खुद ही कीचड़ में जाकर लेट गया. एक शख्स ने बहुत प्यार से मुझे अपने कान बंद करने की नसीहत दी और दूसरे ने आँखें ताकि मिट्टी आँख और कान में न चली जाए. फिर हुई ढंग से रगड़ाई. कुछ लोगों ने यह कह कर हौंसला भी बढ़ाया कि घबराने की कोई बात नहीं है- ये मड बाथ है. हर्बल है. फाइव स्टार में इसका बहुत पैसा लगता है. यहाँ हम आपको मुफ्त में ये सेवा दे रहे हैं.
मुझे वाकई बहुत मज़ा आया. अपने गांव की होली याद आ गई. हमारे यहाँ धुलेंडी पर पानी, गीले रंग वगैरह तो होता था लेकिन उसके दो या तीन दिन बाद काछी मोहल्ले वालों की होली देखने का अलग मज़ा आता था. वो नशे में धुत्त हो कर सिर्फ़ कीचड़ में होली खेलते थे. हम दूर से देखते थे. हमें उसमें शामिल होने की मनाही थी. और अब इतने साल बाद कीचड़ में हर्बल होली खेलने का मैंने मज़ा ले लिया.
शुक्र रहा कि महिलाओं और बच्चों की मौजूदगी की वजह से बात कीचड़ होली पर ही ख़त्म हो गई. नहीं तो मेरा मन तो कपड़ा फाड़ होली शुरू करने के लिए भी ललचाने लगा था. वाकई होली ही वो त्यौहार है जिसमें जो जैसा चाहे वैसा कर सकता है. कोई बुरा नहीं मानता.
बुरा न मानो होली है. HAPPY HOLI.
फिर बाबू ने ज़िद पकड़ी तो धीरे-धीरे उसे तैयार किया. पूरी तरह से लैस. अंदर स्वेटर, उस पर बरसाती जो अनुपम ने बेल्जियम से लाकर दी थी. ऊपर से एक पुराना लाल रंग का कुर्ता. बाबू की पिचकारी के लिए दो अलग-अलग बाल्टियों में रंग भी तैयार कर लिए. एक हरा एक लाल. एक प्लेट में दो रंग की गुलाल भी सजा लीं. चंदन का टीका लगाने की भी पूरी तैयारी कर ली.
शास्ताजी फिर पिचकारी लेकर निकल पड़े मैदान में. मैं भी अपने पुराने कपड़ों की तलाश में अलमारी खंगालने लगा. एक पुराना लाल रंग का कुर्ता पकड़ में आया जो कभी सात आठ साल पहले फैब इंडिया से लिया था. अब बदरंग हो चला था. लिहाज़ा उस पर नए रंग चढ़ाने का फैसला किया. एक पुरानी जींस भी मिल गई. यानी अब मैं होली खेलने के लिए पूरी तरह से तैयार था.
बाबू धीरे-धीरे रंग में आते गए. आने-जाने वालों पर पिचकारी से रंग छोड़ा और बदले में किसी ने रंग डाला तो खूब मज़े से लगवा भी लिया. ये कायदे से उनकी पहली होली रही. इससे पहले नाना के घर पर रहते थे और मम्मी के साथ होली के रंगों से बचते रहे.
मुझे भी परिसर में परिचित मिलते रहे. बड़े सम्मान के साथ एक-दूसरे के चेहरों पर गुलाल लगाना और फिर तीन बार गले मिलना. ये तीन बार गले मिलने का फंडा मुझे समझ में नहीं आया. एक बार या दो बार क्यों नहीं तीन बार क्यों. या फिर चार बार क्यों नहीं मिलते गले. बहरहाल, गुलाल का सिलसिला चलता रहा, चेहरा कभी लाल, कभी पीला तो कभी हरा होता रहा. बाल भी जो अब उम्र से पहले ही सफेद हो चले हैं, उन्हें भी अपना रंग बदलने का मौक़ा मिला. आइने में अपनी शक्ल देखी तो अच्छी लगी. चेहरे के रंग दिल के भीतर गहरे तक उतर गए.
फिर समां बदला. जो गले मिल कर गुलाल लगा रहे थे, धीरे-धीरे आक्रामक होते गए. गुलाल की जगह पक्के रंगों ने ले ली. उनकी शिकायत थी बदन पर अब भी कई ऐसे स्पॉट हैं जहाँ रंग नहीं लगा है. गुलाल के रंगों की उनके सामने कोई औकात नहीं थी. उनका कहना था रंग ऐसे लगें जो पक्के हों और कभी न छूटें. यानी मेरे पास मानसिक रूप से इस आक्रमण के लिए तैयार होने के अलावा कोई और चारा नहीं था.
फिर ये आक्रमण धीरे-धीरे हिंसा का रूप लेता गया. सिर्फ पक्के रंग लगाने से ही काम नहीं चला. अब सिलसिला बदल चुका था. अब बारी थी एक-दूसरे को गीला करने की. सूखी होली का दौर ख़त्म हो चला था. अब रंगों से भरी बाल्टियों से भिगोना शुरू हुआ. मुझे भी भिगोया गया और मैं भी इसमें पीछे नहीं रहा.
लेकिन भांग और कई लोगों पर दूसरे आधुनिक ढंग का नशा हावी हो चला था. इस बीच बाबू भी पाइप के पानी से भीग चुके थे. मुझे लगा अब होली ख़त्म करने का वक्त आ गया है. लिहाज़ा मैं उनका हाथ पकड़ कर घर की ओर चला. लेकिन कुछ लोगों ने फिर घेर लिया. इस बार का आक्रमण बेहद चौंकाने वाले ढंग से किया गया था और मैं मानसिक रूप से इसके लिए बिलकुल भी तैयार नहीं था.
दरअसल, पाइप से बिखरे पानी से लॉन में पड़ी मिट्टी बेहद गीली और चिकनी हो चली थी. वो कीचड़ का तालाब कइयों के मन को भाने लगा. ये होली का आखिरी दौर था और अब सब को उसमें डुबोने का कार्यक्रम चल निकला था. मुझे भी उसमें शामिल होने के लिए जबरन उठाया गया. जब मैंने देखा कि बचने का कोई चारा नहीं है तो मैं खुशी-खुशी कीचड़ के समुद्र में डूबने को तैयार हो गया. मैंने अपने स्लीपर्स उतारे और इससे पहले कि मुझे कोई घसीटता मैं खुद ही कीचड़ में जाकर लेट गया. एक शख्स ने बहुत प्यार से मुझे अपने कान बंद करने की नसीहत दी और दूसरे ने आँखें ताकि मिट्टी आँख और कान में न चली जाए. फिर हुई ढंग से रगड़ाई. कुछ लोगों ने यह कह कर हौंसला भी बढ़ाया कि घबराने की कोई बात नहीं है- ये मड बाथ है. हर्बल है. फाइव स्टार में इसका बहुत पैसा लगता है. यहाँ हम आपको मुफ्त में ये सेवा दे रहे हैं.
मुझे वाकई बहुत मज़ा आया. अपने गांव की होली याद आ गई. हमारे यहाँ धुलेंडी पर पानी, गीले रंग वगैरह तो होता था लेकिन उसके दो या तीन दिन बाद काछी मोहल्ले वालों की होली देखने का अलग मज़ा आता था. वो नशे में धुत्त हो कर सिर्फ़ कीचड़ में होली खेलते थे. हम दूर से देखते थे. हमें उसमें शामिल होने की मनाही थी. और अब इतने साल बाद कीचड़ में हर्बल होली खेलने का मैंने मज़ा ले लिया.
शुक्र रहा कि महिलाओं और बच्चों की मौजूदगी की वजह से बात कीचड़ होली पर ही ख़त्म हो गई. नहीं तो मेरा मन तो कपड़ा फाड़ होली शुरू करने के लिए भी ललचाने लगा था. वाकई होली ही वो त्यौहार है जिसमें जो जैसा चाहे वैसा कर सकता है. कोई बुरा नहीं मानता.
बुरा न मानो होली है. HAPPY HOLI.
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