दिल्ली में विदेश मंत्रालय कार्यालय में विदेश मंत्रालय के तत्वावधान में भोपाल के माखनलाल चतुर्वेदी पत्रकारिता और संचार विश्वविद्यालय ने अख़बारों में हिंदी की शुद्धता पर एक विमर्श का आयोजन किया। मुझे नहीं पता कि इसमें मुझे क्यों बुला लिया गया? शायद इसलिए कि मैं कभी-कभी सोशल मीडिया पर हिंदी की अशुद्धियों की चर्चा करता हूँ। कुछ अख़बारों की इसलिए भी आलोचना करता हूँ कि वो जानबूझकर अंग्रेजी के शब्दों का प्रयोग करते हैं जबकि उनके लिए हिंदी के आसान शब्द उपलब्ध हैं।
इस विषय पर सरकार को चिंता है ये अच्छी बात है। मगर इस चिंता को व्यक्त करने और उसे दूर करने का तरीक़ा भी सरकारी है। सरकार का हस्तक्षेप हो या न हो, इस पर भी बहस हो सकती है। आख़िर ये तो पूछा ही जा सकता है कि कौन सा अखबार क्या लिखेगा, कौन सी भाषा में लिखेगा, हिंदी में अंग्रेजी के शब्द घुसाएगा या नहीं, आख़िर ये सब जानने में और तय करने में सरकार की दिलचस्पी का क्या मतलब है?
एक हिंदीप्रेमी होने के नाते विदेश मंत्री सुषमा स्वराज की चिंताएँ वाजिब हैं। ख़ासतौर से तब जबकि उनकी हिंदी के साथ अन्य भारतीय भाषाओं पर पकड़ समय-समय पर सामने आती रही है। हिंदी अख़बारों में अंग्रेजी शब्दों के प्रयोग पर उनका विरोध किसी आम पाठक जैसा ही विरोध है। वो पाठक जो हिंदी को जीता है, हिंदी से प्रेम करता है और उसके साथ हो रहे खिलवाड़ पर उसे खीज आती है।
दरअसल, पिछले साल भोपाल में विश्व हिंदी सम्मेलन में कई चर्चाओं में ये बात सामने आई कि हिंदी अखबार धड़ल्ले से अंग्रेजी के शब्दों का प्रयोग कर रहे हैं। विदेश मंत्रालय ने इस कार्यक्रम का आयोजन किया था। इसके बाद इस विश्वविद्यालय से कहा गया कि वो इसे ठीक करने के रास्ते सुझाए। विश्वविद्यालय ने शोध किया। आठ अख़बारों के अध्ययन के बाद अंग्रेजी के करीब १५ हज़ार ऐसे शब्दों की सूची बनाई जिन्हें हिंदी के इन बड़े अख़बारों ने अपनी ख़बरों में प्रयोग किया। इन शब्दों का श्रेणीवार बँटवारा किया गया। कुछ ऐसे शब्द जो अब हिंदी में मान लिए गए हैं। कुछ ऐसे जिन्हें इस्तेमाल न किया जाता तो ठीक होता और कुछ ऐसे जिन्हें ज़बरन ठूँसा गया।
आज के विमर्श की योजना ये थी कि जो लोग इस काम से जुड़े हैं उनसे सीधे बात की जाए। कुछ पत्रकारों को बुलाया गया। इसमें टीवी के एंकर और रिपोर्टर भी थे। सुषमा स्वराज ने बताया कि उन्हें हिंदी अख़बारों का अंग्रेजी शब्दों में प्रयोग क्यों अखरता है। फिर उन्होंने कार्यक्रम के बारे में बताया और कहा कि सिर्फ पत्रकारों को ही नहीं अख़बारों और चैनलों के मालिकों और संपादकों को भी बुलाया गया है जो एक अलग कक्ष में हैं। उन्होंने कहा कि यही बातें उनसे भी की जाएंगी क्योंकि निर्णय उनके स्तर पर होते हैं।
इस बीच, संपादक और मालिक क़िस्म के कुछ लोग जो शायद ग़लती से इन पत्रकारों के कमरे में आ गए थे, उन्हें धीरे-धीरे दूसरे कक्ष में ले जाया गया। सुषमा स्वराज अपनी बात खत्म करते ही दूसरे कक्ष में चली गईं। पत्रकारों से कहा गया कि वो सुझाव देते रहें कि हिंदी का सुनहरा युग वापस कैसे लाया जाए। कुछ पत्रकार हिंदी को समृद्ध करने के नुस्ख़े बताते रहे। उन्हें सुनने के लिए हॉल में १५-२० लोग थे। इनमें विश्वविद्यालय के नोएडा कैंपस के कर्मचारी और वो पत्रकार भी शामिल थे जो अपनी बारी आने के इंतज़ार में थे।
ये पूरी तरह सरकारी तरीक़ा है। पहली बात तो ये कि कोई सरकार अगर ये सोचती है कि उसके कहने से मीडिया अपनी भाषा बदल लेगा तो ये उसकी ग़लतफ़हमी है। न तो ये बताना सरकार का काम है और न ही सरकार की सुनना मीडिया का काम। मेरा मानना है कि जो हिंदी अखबार ऐसा करते हैं वो धीरे-धीरे खुद ही लाइन पर आ जाएँगे क्योंकि जनता उन्हें ऐसा करने के लिए मजबूर कर देगी। और अगर उनके अखबार की बिक्री में बढ़ोत्तरी होती रहेगी तो कल से वो खबरों को देवनागरी के बजाए रोमन में भी लिखना शुरू कर सकते हैं। अगर मीडिया बाजार की दुहाई देकर हिंदी पर अत्याचार कर रहा है तो उसे ये नहीं भूलना चाहिए कि पाठक और दर्शक वर्ग ही ये बाजार तैयार कर रहा है।
रही बात सरकार की तो ऐसे सरकारी कर्मकांडों से हिंदी की दशा सुधरना दूर की बात है। वर्ना हर साल चौदह सितंबर को क्या होता है, ये सब जानते हैं। हिंदी दिवस पर हिंदी की चिंदी उड़ाकर उसकी बिंदी पहन ली जाती है। एक दिन के लिए महारानी और बाकी ३६४ दिनों के लिए सरकारी दफ़्तरों में अंग्रेजी के सेविका। कुछ ऐसी है हमारी सरकारी हिंदी!! पर ऐसे विदेश मंत्रालय में जहाँ अंग्रेजी के बिना पत्ता भी नहीं हिलता और अगर ग़लती से हिंदी घुस भी आए तो उसे दुत्कार दिया जाता है, वहाँ हिंदी पर ये चिंतन स्वागतयोग्य अवश्य है।