Thursday, July 30, 2015

सज़ा या बदला


याकूब मेमन को आखिरकार फांसी दे दी गई। तीन अदालतों ने उसकी फांसी की सज़ा को सही ठहराया था। कानून की किताब में किसी अपराधी के लिए सज़ा के खिलाफ अपील के जितने तरीके हैं उन सबका इस्तेमाल किया गया। यहां तक कि सुप्रीम कोर्ट में तीन जजों की बेंच ने आधी रात को सुनवाई की। राष्ट्रपति ने दया याचिका ठुकरा दी थी और राज्यपाल ने भी इसे सही नहीं पाया था।

कई बुद्धिजीवी फांसी की सज़ा पर सवाल उठा रहे हैं। सवाल उठाने का उनका वाजिब हक है। इस पर अगर बहस की शुरुआत भी हो तो उसमें कोई दिक्कत नहीं। ये तर्क दिया जा रहा है कि किसी भी प्रजातांत्रिक सरकार को अपने किसी नागरिक के प्राण छीनने का अधिकार नहीं होना चाहिए। दूसरा तर्क ये है कि आँख के बदले आँख निकालने से तो सब अंधे हो जाएंगे। तीसरी बात ये है कि किसी को फांसी देना सज़ा नहीं बल्कि बदला लेना है और किसी भी चुनी हुई सरकार को ये अधिकार नहीं मिलना चाहिए।

ये दलीलें अपनी जगह पर सही हैं। पर ये नहीं भुलना चाहिए कि भारत उन देशों में है जहां मृत्युदंड दिया जाता है और इसका एकमात्र तरीका फांसी है। सुप्रीम कोर्ट कई बार स्पष्ट कर चुकी है कि मृत्युदंड दुर्लभतम मामलों में दिया जाएगा। न्यायिक प्रक्रिया चाहे लंबी और धीमी हो मगर उसमें इस बात की गुंजाइश रहती है कि कोई बेगुनाह फांसी के फंदे तक न पहुंच सके। जब तक कानून की पुस्तक में मृत्युदंड की सज़ा का प्रावधान है और न्यायालय इस बात से संतुष्ट है कि अपराध बेहद जघन्य है, न्यायाधीश ये सज़ा देते रहेंगे।

अब बात आती है बदले की। अगर सज़ा देना बदला लेना है तो फिर ये उपाय सुझाया जाए कि किसी अपराधी का क्या होना चाहिए। और सिर्फ मृत्युदंड की बदला क्यों, उम्र कैद या दस साल की या दूसरे तरह के आर्थिक दंड बदला क्यों नहीं माना जाएगा। या हम एक ऐसे समाज की कल्पना करना चाह रहे हैं जहां कोई अपराध हो ही न और अगर हो भी तो हम अपराधी को यह कहते हुए छोड़ दें कि उसे सज़ा देना का मतलब होगा कि हम उससे बदला चुका रहे हैं।

क्या सज़ा से अपराध रुकते हैं। शायद नहीं। जिसे अपराध करने हैं वो तो करता रहेगा। मगर सज़ा न देना उस अपराध के प्रति आँखें मूंदना है और शायद दूसरों को बढ़ावा देना भी कि चाहे कितना ही बड़ा अपराध करें, सज़ा नहीं होगी।


जाहिर है इन सवालों के जवाब आसान नहीं। पर इनके जवाब खोजने ही होंगे। हमारी कल्पना का समाज पाना बेहद मुश्किल है। मौजूदा समाज में तमाम तरह के अपराध भी होते रहेंगे। हर अपराध की लिए सज़ा भी जरूरी है ताकि कोई इन्हें फिर करने के बारे में सोच भी न सके।