अगर आप सोशल मीडिया
पर सक्रिय हैं और कुमार राज को नहीं जानते तो एक बार फिर जरा फेसबुक या ट्विटर पर
नजर डाल लें। कुमार राज छाया हुआ है।
कुमार राज सात साल
का बच्चा है जो नालंदा का रहने वाला है। उसने बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार की
मौजूदगी में शिक्षा व्यवस्था को लेकर अपनी समझ के हिसाब से कुछ कड़वी मगर सच बातें
कही हैं। चौरसिया सम्मेलन में भाषण देने के लिए कुमार राज को बुलाया गया था। कुमार
राज ने देश के हुक्मरानों को शिक्षा व्यवस्था पर आईना दिखाया है।
कुमार राज ने कहा कि
देश में दो तरह की शिक्षा व्यवस्था है। अमीरों के बच्चे प्राइवेट स्कूलों में
पढ़ने जाते हैं। गरीबों के बच्चे सरकारी स्कूलों में पढ़ते हैं। कोई भी डॉक्टर,
वकील या इंजीनियर यहां तक कि सरकारी स्कूल के शिक्षक भी अपने बच्चों को सरकारी
स्कूलों में नहीं पढ़ाना चाहते हैं। यही वजह है कि हम बच्चे हीन भावना का शिकार हो
जाते हैं। कुमार राज ने कहा कि अगर वो संयोग से प्रधानमंत्री बन गया तो देश में सभी
प्राइवेट स्कूल बंद करा देगा ताकि सभी बच्चे एक साथ सरकारी स्कूल में पढ़ सकें। वो
चाहें इंजीनियर का बच्चा हो या मजदूर का। तभी देश में समान शिक्षा लागू होगी।
कुमार राज की बातों
पर लोगों ने जम कर तालियां बजाईं। नीतीश कुमार शुरुआत में सिर झुकाए शायद कुछ
कागजों में खोए हुए थे। मगर तालियों की गूंज ने कुमार राज की बातों में उनकी
दिलचस्पी जगा दी। खासतौर से जब कुमार ने प्रधानमंत्री बनने के बाद प्राइवेट
स्कूलों को बंद कराने की बात कही, नीतीश कुमार भी मुस्कराए बिना नहीं रह सके। बाद
में किसी अख़बार में छपा कि उन्होंने शायद कुछ ऐसा कहा कि अगर चायवाला
प्रधानमंत्री बन सकता है तो पानवाला क्यों नहीं।
लेकिन बात चायवाले और
पानवाले की नहीं है। और न ही अकेले बिहार की शिक्षा व्यवस्था की क्योंकि सोशल
मीडिया पर कुमार राज के बहाने नीतीश कुमार और राज्य की शिक्षा व्यवस्था पर निशाना
साधा जा रहा है। ये शायद इसीलिए हो रहा है कि कुछ दिनों पहले बिहार के एक स्कूल की
तस्वीर ने खूब सुर्खियां बटोरी थीं जहां परीक्षा की दौरान नकल कराने के लिए लोग
जान हथेली पर रख कर स्कूल की तीसरी मंजिल तक चढ़ गए थे।
कुमार राज ने गहरे
सवाल उठाए हैं। उसकी सीधी-सरल भाषा झकझोर देती है। उसने एक कड़वी हकीकत बयान की
है। ये भारत और इंडिया का फर्क बताती है। ये फर्क अ-अनार का और ए फॉर एपल का है। और
ये भी कि किस तरह हीनभावना से ग्रसित भारत इंडिया बनने की चाह रखता है क्योंकि
सरकारी स्कूल के शिक्षक भी अपने बच्चों को प्राइवेट स्कूलों में ही भेज रहे हैं।
ये सिर्फ व्यक्तिगत आर्थिक सामाजिक क्षमता से अच्छी नौकरी जैसी कोई महत्वाकांक्षा
पूरी करने की सोच भर नहीं है। बल्कि एक बड़े अंतर को पाटने की इच्छा है।
ये अंतर धीरे-धीरे बड़ा
होता गया है। हालांकि इस समझने में शायद उन लोगों को ज्यादा देर लगी जिनकी पृष्ठभूमि
ग्रामीण, आंचलिक या फिर आर्थिक रूप से कमजोर है। शिक्षा के महत्व का सबको अहसास
है। अमीर से लेकर गरीब-मजूदर तक। परंतु आर्थिक विषमता ने समाज में जिस तरह की
असमानता पैदा की है वह रोज के आचार-व्यवहार से लेकर हर तरह के स्वभाव में दिखाई
देती है। ये एक अलग किस्म का छुआछूत है जो बचपन को प्राइवेट और सरकारी स्कूलों में
बांट देता है। हीन भावना भी यहीं से घर करना शुरू करती है। बचपन से जवानी और फिर
नौकरी से लेकर पेंशन तक हर जगह यह हीन भावना साथ चलती रहती है। कॉल सेंटर से आए
फोन पर अंग्रेजी में बात न कर सकने की झुंझलाहट, किसी अपरिचित व्यक्ति की ओर से
अंग्रेजी में हुए संवाद की शुरुआत का जवाब न दे पाने की विवशता जैसी वो तमाम बातें
हैं जो शायद सरकारी स्कूल के शिक्षक तक को अपने बच्चों को प्राइवेट स्कूल भेजने पर
मजबूर कर रही हैं।
मगर कुमार राज ने जो
रास्ता सुझाया है वो सही नहीं है। प्राइवेट स्कूलों को बंद करना इस खाई को पाटने
का तरीका नहीं हो सकता। कुमार राज ने सिर्फ बिहार की नहीं बल्कि पूरे देश की
शिक्षा व्यवस्था पर सवाल उठाया है। पर ऐसा क्यों है कि सरकारी स्कूलों से पढ़ कर
निकले बच्चे भी ऊंची जगहों पर पहुँचते हैं। आईआईटी, आईआईएम, सिविल सेवा हर जगह ऐसे
लोगों की भरमार है जो टाटपट्टियों पर बैठ कर पढ़-लिखने के बाद वहां पहुँचे हैं।
प्राइवेट स्कूलों की
फीस भर पाना हर किसी के बस की बात नहीं है। अगर आसपास के सरकारी स्कूलों में अच्छी
शिक्षा मिले तो शायद लोग उसका विकल्प चुनने से नहीं हिचकिचाएंगे। कुमार राज ने
बीमारी की ओर इशारा तो कर दिया है। अब उसके इलाज की जिम्मेदारी हुक्मरानों की है।
ऐसा नहीं है कि उन्हें बीमारी और उसके इलाज के बाते में पता नहीं। लेकिन हर जगह
सियासत की बात करने वाले शायद जानबूझकर उस ओर ध्यान देना नहीं चाहते। वरना न तो
चौरसिया समाज का सम्मेलन बुलाने की जरूरत पड़ती और न ही कुमार राज की प्रधानमंत्री
बनने की इच्छा को चायवाले और पानवाले से जोड़ने की।