Monday, April 20, 2015

जमीन के बिना विकास नहीं

अधिग्रहण का मतलब ही है जबरन लेना। ये भी तय मानिए कि बिना जमीन छीने विकास नहीं हो सकता। कुछ अपवादों को छोड़ दें, तो ये भी तय है कि इस विकास का फायदा उन्हें भी मिलता है जिनसे जमीन छीनी जाती है। किसानी फायदे का सौदा नहीं रहा। कभी बारिश के लिए भगवान भरोसे और जब बारिश न हो, या ज्यादा हो तो मदद के लिए सरकार भरोसे। कभी उपज का सही दाम नहीं मिलता। पुराने जमाने में साहूकारों और अब बैंकों के हाथों शोषण के लिए मजबूर। बढ़ता परिवार और छोटे होते खेत दो वक्त की रोजी-रोटी के लिए भी इंतजाम नहीं कर पा रहे। किसानी में साठ फीसदी से ज्यादा देश की आबादी लगी है। मगर इसमें भी आधे से ज़्यादा मजदूर हैं जिनमें वंचितों, दलितों और शोषितों की संख्या ज़्यादा है।


ये कुछ ऐसी दलीलें हैं जो भूमि अधिग्रहण कानून के विवाद की पृष्ठभूमि में सुनाई दे रही हैं। इन दलीलों में कितना दम है यह कह पाना मुश्किल है। पर ये ज़रूर है कि अर्थव्यवस्था के विकास के लिए अब दूसरे तरीकों पर अमल करने का वक्त जरूर आ गया है।

कुछ महत्वपूर्ण आंकड़ों पर नज़र डालें-

निर्माण क्षेत्र में महज 15 फीसदी आबादी लगी है। जीडीपी में इसका योगदान 16 फीसदी है। जबकि कृषि क्षेत्र में साठ फीसदी आबादी लगी है और जीडीपी में इसका योगदान 18 फीसदी है। 2020 तक भारत की 65 फीसदी आबादी युवा होगी। हर साल एक करोड़ युवाओं को रोजगार की तलाश होती है। इनमें बड़ी संख्या उन अकुशल या कम कुशल युवाओं की है जो गांवों से शहरों की ओर पलायन करता है। 2030 तक भारत की 40 फीसदी आबादी शहरों में रह रही होगी।

ये आंकड़ें क्या बताते हैं? इशारा साफ है कि अगर गांवों से शहरों की ओर पलायन रोकना है तो गांवों और कस्बों में ही रोजगार के अवसरों का निर्माण करना होगा। खेती में नए रोजगार नहीं बन सकते। निर्माण क्षेत्र को बढ़ावा देकर ही गांवों के युवाओं को रोजगार मिल सकता है। सेवा क्षेत्र में नए रोजगार के सृजन की संभावना कम है। और निर्माण क्षेत्र को बढ़ावा देने के लिए नए उद्योग-धंधे तब तक नहीं लग सकते जब तक उनके लिए जमीन मुहैया नहीं कराई जाए।

एक और रास्ता खेती के धंधे को फायदे का सौदा बनाना है। मॉनसून पर निर्भरता को कम करने के लिए सिंचाई का रकबा बढ़ाना। मध्य प्रदेश में कृषि उत्पादन दर 18-20 फीसदी होने के पीछे वहां सिंचित भूमि का विस्तार होना है। देश के उन बंजर और सूखे इलाकों में जहां उद्योग-धंधे नहीं लग सकते और न ही खेती हो सकती है, नहरों के जरिए पानी पहुंचाना ही नए रास्ते खोल सकता है। कच्छ, बुंदेलखंड और विदर्भ के इलाकों में ऐसा करने से किसानों को फायदा होगा। लेकिन बिना जमीन लिए नहर भी नहीं बनाई जा सकती।

यहां एक बात और भी ध्यान देने की है। खेती की मजदूरी में लगे दलितों और वंचितों को भी उनका हक, आत्म सम्मान और आजीविका दिलाने में औद्योगिकीकरण मददगार साबित हो सकता है। बाबा साहेब अंबेडकर भी छुआछूत मिटाने और दलितों को उनका अधिकार दिलाने के लिए आर्थिक सशक्तीकरण और औद्योगिकीकरण को एक बड़ा हथियार मानते थे।

बहरहाल ये सब बातें अपनी जगह हैं। मगर अभी तो भूमि अधिग्रहण एक बड़ा सियासी मुद्दा बन गया है। विपक्षी दल किसानों को ये समझाने में काफी हद तक कामयाब रहे हैं कि उनकी जमीनें छीनी जा रही हैं। वहीं बचाव की मुद्रा में आई सरकार समझ नहीं पा रही है कि अपनी बात किसानों तक कैसे पहुँचाई जाए।


Thursday, April 16, 2015

'गड़बड़ है 0+0=0 का अमित शाह का गणित'

बिहार में बीजेपी के सहयोगी दलों ने कहा है कि राज्य में लालू प्रसाद और नीतीश कुमार की पार्टियों के विलय को नजरअंदाज करना ठीक नहीं होगा और बीजेपी अकेले इनका मुकाबला नहीं कर सकती। राष्ट्रीय लोक समता पार्टी के नेता और केंद्रीय मंत्री उपेंद्र कुशवाहा का ये भी मानना है कि राज्य में चुनाव की रणनीति बनाने में बीजेपी अपने सहयोगी दलों की भी राय ले।

सोमवार को अंबेडकर जयंती पर बिहार में चुनाव अभियान की शुरुआत करते हुए बीजेपी अध्यक्ष अमित शाह ने लालू और नीतीश दोनों को शून्य बताया था। शाह ने कहा था कि ये दोनों शून्य हैं और दो शून्य मिल कर शून्य ही बनता है। लेकिन कुशवाहा इस आकलन से सहमत नहीं हैं।

उपेंद्र कुशवाहा ने एनडीटीवी से कहा कि अगर बीजेपी के लोग ऐसा कह रहे हैं तो जमीनी सच्चाई से इनकार कर रहे हैं। ऐसा करना युद्ध के मैदान में उचित नहीं होता है। ये बात सही है कि लालू और नीतीश की ताकत पहले जैसी नहीं रही है। पर साथ आने से मजबूती आ जाएगी। हवा में बात करने से रणनीति नहीं बन पाएगी।

कुशवाहा का आकलन सही भी है। क्योंकि हकीकत ये है कि मोदी लहर के बावजूद लोक सभा चुनाव में इन दोनों ही नेताओं के पैर नहीं उखड़े थे। चाहे दोनों की ही लोक सभा में सीटें न के बराबर आईं मगर वोटों में ज्यादा नुकसान नहीं हुआ। वो भी तब जबकि दोनों ही अलग-अलग चुनाव लड़ रहे थे।

लोक सभा चुनाव में लालू प्रसाद की राष्ट्रीय जनता दल को करीब 20 फीसदी वोट मिले जबकि नीतीश कुमार की जनता दल यूनाइटेड ने 16 फीसदी वोट हासिल किए। इस तरह दोनों के वोट मिला कर 36 फीसदी बनते हैं। अगर कांग्रेस पार्टी को मिले 9 फीसदी वोट मिला दिए जाएं तो बीजेपी विरोधी मोर्चे ने पिछले लोक सभा चुनाव में 45 फीसदी वोट हासिल किए वो भी तब ये सब अलग-अलग चुनाव मैदान में थे। जबकि एनडीए को 39 फीसदी वोट मिले थे। कुछ ही महीने बाद हुए विधानसभा उपचुनावों में इन दलों के साथ आने से तस्वीर पूरी तरह बदल गई।

अब हालात बदल गए हैं। लालू और नीतीश औपचारिक रूप से साथ आ गए हैं। कमजोर नेतृत्व और बिगड़े हालात से जूझ रही कांग्रेस के पास अलग चुनाव लड़ने का विकल्प नहीं है। ऐसे में लालू-नीतीश की नई पार्टी का कांग्रेस और दूसरे विपक्षी दलों के साथ चुनाव पूर्व गठबंधन हो सकता है जो बीजेपी को भारी पड़ सकता है।

कुशवाहा कहते हैं कि बीजेपी के लिए बिहार में अकेले अपने बूते पर कभी भी अच्छी स्थिति नहीं थी। एनडीए के लिए भी तब स्थिति ठीक थी जब लालू और नीतीश अलग थे। लेकिन अब स्थिति बदल गई है। बीजेपी के लिए आसान नहीं है पर एनडीए के लिए मुश्किल नहीं है।

इसीलिए कुशवाहा चाहते हैं कि बीजेपी बिहार के बारे में कोई भी रणनीति बनाते समय अपने सहयोगी दलों को भरोसे में ले। पूछने पर वो ये सीधा जवाब नहीं देते कि क्या एनडीए को नीतीश के मुकाबले मुख्यमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित करना चाहिए। उनका कहना है कि इस बारे में जो भी फैसला हो वो सहयोगी दलों के साथ बैठक कर होना चाहिए।

शाह ने दो शून्यों के जोड़ की बात चाहे एक जुमले के तौर पर कही हो, मगर ये एक बेहतरीन रणनीतिकार होने की उनकी छवि से मेल नहीं खाती। हो सकता है वो ये कह कर अपने कार्यकर्ताओं का मनोबल उठाना चाह रहे हों मगर जिस तरह से उनके अपने ही सहयोगी इस बात को खारिज कर रहे हैं, उससे साफ है कि बिहार में बीजेपी को अभी एक लंबी और कठिन लड़ाई के लिए तैयार रहना चाहिए।