अधिग्रहण
का मतलब ही है जबरन लेना। ये भी तय मानिए कि बिना जमीन छीने विकास नहीं हो सकता।
कुछ अपवादों को छोड़ दें,
तो ये भी तय है कि इस विकास का फायदा
उन्हें भी मिलता है जिनसे जमीन छीनी जाती है। किसानी फायदे का सौदा नहीं रहा। कभी
बारिश के लिए भगवान भरोसे और जब बारिश न हो, या
ज्यादा हो तो मदद के लिए सरकार भरोसे। कभी उपज का सही दाम नहीं मिलता। पुराने
जमाने में साहूकारों और अब बैंकों के हाथों शोषण के लिए मजबूर। बढ़ता परिवार और
छोटे होते खेत दो वक्त की रोजी-रोटी के लिए भी इंतजाम नहीं कर पा रहे। किसानी में
साठ फीसदी से ज्यादा देश की आबादी लगी है। मगर इसमें भी आधे से ज़्यादा मजदूर हैं
जिनमें वंचितों, दलितों और शोषितों की संख्या ज़्यादा है।
ये
कुछ ऐसी दलीलें हैं जो भूमि अधिग्रहण कानून के विवाद की पृष्ठभूमि में सुनाई दे
रही हैं। इन दलीलों में कितना दम है यह कह पाना मुश्किल है। पर ये ज़रूर है कि
अर्थव्यवस्था के विकास के लिए अब दूसरे तरीकों पर अमल करने का वक्त जरूर आ गया है।
कुछ
महत्वपूर्ण आंकड़ों पर नज़र डालें-
निर्माण क्षेत्र में
महज 15 फीसदी आबादी लगी है। जीडीपी में इसका योगदान 16 फीसदी है। जबकि कृषि क्षेत्र में साठ फीसदी आबादी लगी है और जीडीपी
में इसका योगदान 18 फीसदी है। 2020 तक भारत की 65 फीसदी
आबादी युवा होगी। हर साल एक करोड़ युवाओं को रोजगार की तलाश होती है। इनमें बड़ी
संख्या उन अकुशल या कम कुशल युवाओं की है जो गांवों से शहरों की ओर पलायन करता है।
2030 तक भारत की 40 फीसदी आबादी शहरों में रह रही होगी।
ये आंकड़ें क्या
बताते हैं? इशारा साफ है कि अगर गांवों से शहरों की ओर
पलायन रोकना है तो गांवों और कस्बों में ही रोजगार के अवसरों का निर्माण करना
होगा। खेती में नए रोजगार नहीं बन सकते। निर्माण क्षेत्र को बढ़ावा देकर ही गांवों
के युवाओं को रोजगार मिल सकता है। सेवा क्षेत्र में नए रोजगार के सृजन की संभावना
कम है। और निर्माण क्षेत्र को बढ़ावा देने के लिए नए उद्योग-धंधे तब तक नहीं लग
सकते जब तक उनके लिए जमीन मुहैया नहीं कराई जाए।
एक और रास्ता खेती
के धंधे को फायदे का सौदा बनाना है। मॉनसून पर निर्भरता को कम करने के लिए सिंचाई
का रकबा बढ़ाना। मध्य प्रदेश में कृषि उत्पादन दर 18-20 फीसदी होने के पीछे वहां
सिंचित भूमि का विस्तार होना है। देश के उन बंजर और सूखे इलाकों में जहां
उद्योग-धंधे नहीं लग सकते और न ही खेती हो सकती है, नहरों के जरिए पानी पहुंचाना
ही नए रास्ते खोल सकता है। कच्छ, बुंदेलखंड और विदर्भ के इलाकों में ऐसा करने से
किसानों को फायदा होगा। लेकिन बिना जमीन लिए नहर भी नहीं बनाई जा सकती।
यहां एक बात और भी
ध्यान देने की है। खेती की मजदूरी में लगे दलितों और वंचितों को भी उनका हक, आत्म
सम्मान और आजीविका दिलाने में औद्योगिकीकरण मददगार साबित हो सकता है। बाबा साहेब
अंबेडकर भी छुआछूत मिटाने और दलितों को उनका अधिकार दिलाने के लिए आर्थिक
सशक्तीकरण और औद्योगिकीकरण को एक बड़ा हथियार मानते थे।
बहरहाल ये सब बातें
अपनी जगह हैं। मगर अभी तो भूमि अधिग्रहण एक बड़ा सियासी मुद्दा बन गया है। विपक्षी
दल किसानों को ये समझाने में काफी हद तक कामयाब रहे हैं कि उनकी जमीनें छीनी जा
रही हैं। वहीं बचाव की मुद्रा में आई सरकार समझ नहीं पा रही है कि अपनी बात
किसानों तक कैसे पहुँचाई जाए।