Thursday, January 15, 2015

बीजेपी का 'ब्रह्मास्त्र' हैं किरण बेदी

पोस्टर पर मोदी का ही नाम रहेगा। नारों में भी मोदी ही छाएंगे। प्रचार भी मोदी के इर्द-गिर्द ही रहेगा। चुनाव मोदी के नाम पर ही लड़ेगी बीजेपी। लेकिन अब केजरीवाल अगर चाहें तो ऑटो के पीछे लगे पोस्टरों से जगदीश मुखी का रुआंसा चेहरा हटा कर अपने सामने किरण बेदी का फोटो लगा कर दिल्ली की जनता से पूछ सकते हैं कि वो किसी मुख्यमंत्री के रूप में देखना चाहेगी? उन्हें या किरण बेदी को?

बीजेपी की यही मंशा है। किरण बेदी को बिना मुख्यमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित किए केजरीवाल के हाथों से ये मुद्दा छीनना कि नरेंद्र मोदी तो मुख्यमंत्री बनेंगे नहीं। अगर बीजेपी को बहुमत मिलता है तो बेदी सीएम बनेंगी या नहीं ये बाद की बात है। पार्टी इस बारे में कोई भी फैसला अपनी संख्या देख कर ही करेगी। अगर पूर्ण बहुमत मिलता है तो संभवतः किरण बेदी के नाम पर विचार हो सकता है नहीं तो बीजेपी के पुराने नेताओं में से भी किसी को मौका मिल सकता है।

दरअसल, बीजेपी किरण बेदी को पिछले विधानसभा चुनाव से पहले भी अपने साथ लाना चाहती थी। लेकिन तब उनकी अपनी शर्तें थीं जिन्हें लेकर बीजेपी बहुत उत्साहित नहीं हुई। पर पार्टी को ये समझ में आ गया कि अगर डॉक्टर हर्षवर्धन को इस बार चेहरा नहीं बनाना है तो फिर अरविंद केजरीवाल की ईमानदार छवि से लड़ने के लिए उसे ऐसे ही लोग चाहिएं जो केजरीवाल को सामने-सामने जवाब दे सकें। सोच-समझ कर एक के बाद ऐसे लोगों से संपर्क किया गया। अण्णा हजारे के साथ सक्रिय रहे अश्विनी उपाध्याय को बीजेपी ने साथ लेकर मैदान में उतारा। प्रेस में वो रोज़ सवाल पूछ कर केजरीवाल पर निशाना साध रहे हैं। शाज़िया इल्मी को भी इसी रणनीति के तहत साथ लाया जा रहा है।

किरण बेदी, शाज़िया इल्मी और अश्विनी उपाध्याय को साथ लेने के पीछे मकसद भी यही है। ये दिखाना कि जिस रास्ते पर अण्णा हजारे चले थे केजरीवाल उससे भटक गए हैं। अगर ऐसा नहीं है तो फिर उनके साथ के ये तमाम लोग बीजेपी के साथ क्यों आ रहे हैं। वो चाहे भ्रष्टाचार का मुद्दा हो या फिर महिला सुरक्षा या फिर सुशासन, इन तमाम मुद्दों पर किरण बेदी अरविंद केजरीवाल के सामने कड़ी चुनौती पेश कर सकती हैं।


पर ये तय है कि बीजेपी अभी किरण बेदी को लेकर सस्पेंस बना कर रखना चाहती है। पार्टी अध्यक्ष अमित शाह ने इसका इशारा दिया भी और कहा कि आगे भी खबरें मिलती रहेंगी। लेकिन ये जरूर है कि अगर किरण बेदी चुनाव मैदान में उतरती हैं तो इसका सीधा मतलब यही होगा कि वो बीजेपी की सरकार बनने की सूरत में मुख्यमंत्री पद की प्रबल दावेदार होंगी। नरेंद्र मोदी और अमित शाह की जोड़ी राज्यों में मुख्यमंत्रियों बनाने में स्थापित मानदंडों को तोड़ कर आगे बढ़ रहे हैं। वो चाहे महाराष्ट्र में ब्राह्मण मुख्यमंत्री देना हो, हरियाणा में गैर जाट या फिर झारखंड में गैर आदिवासी। दिल्ली में भी अगर ऐसा ही कुछ हो तो हैरानी नहीं होगी।

Monday, January 12, 2015

मोदी ही लगाएंगे दिल्ली में बीजेपी की नैय्या पार

क्या बीजेपी की दिल्ली यूनिट पार्टी की देश भर की सारी यूनिट में सबसे निकम्मी है? मैंने बीजेपी के एक बड़े नेता से कुछ दिनों पहले पूछा। जवाब आया नहीं। पहले नहीं दूसरे नंबर की। पहले नंबर पर हरियाणा यूनिट है। लेकिन वहां हमने अपने बूते पर सरकार बना ली जिसके बारे में हम कभी सपने में भी नहीं सोच सकते थे। इसलिए दिल्ली में स्थानीय कार्यकर्ता या नेता चाहें या न चाहें, दिल्ली की जनता हमारी सरकार बनवाएगी और वो भी मोदी के नाम पर।

मोदी के नाम को लेकर बीजेपी नेतृत्व का यही आत्मविश्वास है जिसने उसे दिल्ली में जोड़-तोड़ की सरकार बनाने से रोक दिया और उसने राज्य में नए सिरे से चुनाव कराने का फैसला किया। वर्ना आधा दर्जन विधायकों का इंतज़ाम करना कोई बड़ी बात नहीं थी खासतौर से तब जब केंद्र में बीजेपी की सरकार बन चुकी थी। इसके लिए बीच में दो-तीन बार तो बात काफी आगे बढ़ भी गई थी। दिल्ली बीजेपी के लिए एक मृगमरीचिका साबित हो रहा है। जहां से पार्टी 1998 में सत्ता से बाहर हुई तो अभी तक वापस नहीं आ पाई है। पार्टी ने तमाम कोशिशें करके देख लीं। लेकिन सत्ता में नहीं आ पाई।    

फिर वैसा ही हो रहा है। एक बार फिर दिल्ली बीजेपी के कार्यकर्ता और नेता हाथ पर हाथ रखे बैठे हैं। इसका सबूत है बीजेपी के सांसदों की दिल्ली के गली-मोहल्लों में हुई नुक्कड़ सभाएं। इसके पीछे इरादा था जमीनी कार्यकर्ताओं को गतिशील बनाना। उन्हें चुनाव के लिए तैयार करना। मगर कार्यकर्ता से लेकर प्रदेश नेतृत्व और सांसदों में भी इसे लेकर उदासीनता दिखाई दी। कार्यकर्ता नुक्कड़ सभाओं के लिए कई जगहों पर भीड़ नहीं जुटा पाए। प्रदेश नेतृत्व सांसदों की सभाओं के तालमेल का काम ठीक से नहीं कर पाया। और तीन मंत्रियों समेत 22 सांसद समय देने के बावजूद सभाओं में नहीं गए। यही हाल रामलीला मैदान पर हुई नरेंद्र मोदी की सभा का रहा जहां दिल्ली बीजेपी एक लाख लोग जुटाने का लक्ष्य पूरा नहीं कर सकी।

दिल्ली बीजेपी की असली समस्या नेतृत्व की है। पार्टी आलाकमान ने यहां सारे मोहरे आज़मा कर देख लिए मगर उसे संगठन में जान फूंकने में कामयाबी नहीं मिल पाई है। पंजाबी बनिया नेतृत्व को बढ़ाने पर पूरबिया कार्यकर्ता नाराज़ होता है मगर वहां आलाकमान को कोई ऐसा नेता नहीं मिलता जिसे कमान सौंपी जा सके। दिल्ली के मतदाताओं के बदलते स्वरूप और उनकी आकांक्षाओं को पूरा करने में भी बीजेपी कामयाब नहीं हो सकी है। आलाकमान को ये भरोसा ही नहीं है कि उसके पास अरविंद केजरीवाल का मुकाबला करने के लिए कोई चेहरा है। इसलिए उसने नरेंद्र मोदी के नाम पर ही चुनाव लड़ने का फैसला किया है।

और यही वजह है कि बीजेपी दिल्ली में लंबे समय बाद कामयाब होने जा रही है। मोदी ने रामलीला मैदान की रैली में यह कह कर कि जो देश का मूड है वही दिल्ली का मूड है, दिल्ली के मतदाताओं के सामने साफ विकल्प भी पेश कर दिया है। दिल्ली में अमूमन यही होता आया है कि यहां के मतदाता, जिनमें बड़ी संख्या में सरकारी कर्मचारी और मध्य वर्ग के लोग हैं, हमेशा उसी पार्टी को वोट देते हैं जिसकी केंद्र में सरकार होती है। 1998 में ऐसा नहीं हुआ था क्योंकि तब प्याज़ की बढ़ी कीमतों से नाराज़ लोगों ने दिल्ली की बीजेपी सरकार के साथ केंद्र की वाजपेयी सरकार के खिलाफ भी वोट दिया था।

लेकिन इस बार ऐसा नहीं होगा। दिसंबर 2013 में आम आदमी पार्टी ने शानदार प्रदर्शन किया और बीजेपी बहुमत से दूर रह गई। लेकिन सिर्फ चार महीने बाद दिल्ली की सातों लोक सभा सीटों पर बीजेपी ने बड़े अंतर से जीत हासिल की। बीजेपी ने साठ विधानसभा सीटें जीतीं। आम आदमी पार्टी के वोट ज़रूर बढ़े मगर जो दस सीटें उसने जीतीं उनमें आठ वो थीं जहां कांग्रेस और दूसरी पार्टियों के विधायक हैं। बीजेपी को विधानसभा में जहां 33 फीसदी वोट मिले थे वो 13 फीसदी बढ़ कर 46 फीसदी पहुंच गए। आम आदमी पार्टी के वोट 29.49 से बढ़ कर 32.9 हुए जबकि कांग्रेस 24.5 से घट कर 15.1 फीसदी पर रह गई। दिल्ली में लोक सभा के नतीजे अगर विधानसभा के ठीक उलट आए तो इसकी वजह यही थी कि बीजेपी ने ये चुनाव पूरी तरह से मोदी के नाम पर और उन्हें प्रधानमंत्री बनवाने के लिए लड़े।

हाल ही में हुए महाराष्ट्र, हरियाणा, झारखंड और जम्मू-कश्मीर विधानसभा चुनावों के नतीजे बताते हैं कि मोदी का जादू बरकरार है। इन राज्यों में लोक सभा चुनावों की तुलना में विधानसभा चुनावों में बीजेपी के वोट प्रतिशत और सीटों में गिरावट जरूर आई है मगर विधानसभा चुनावों में हावी स्थानीlय मुद्दों और ताकतवर उम्मीदवारों के मद्देनजर ऐसा होता है। इन सभी राज्यों में विपक्ष बिखरा हुआ था। दिल्ली में भी ऐसा ही है। चाहे कांग्रेस तीसरे पायदान पर खड़ी हो फिर भी वो ऐसी पार्टी नहीं है जिसे पूरी तरह से नज़रअंदाज़ कर दिल्ली नतीजों का पूर्वानुमान किया जाए और इसीलिए यहां के नतीजों पर कांग्रेस का प्रदर्शन भी असर डालेगा क्योंकि बीजेपी विरोधी वोट आम आदमी पार्टी और कांग्रेस में विभाजित होंगे।

दिल्ली को लेकर बीजेपी की रणनीति का अंदाज़ा किराड़ी सीट से लगाया जा सकता है। बीजेपी के दबदबे वाली इस सीट पर आम आदमी पार्टी लोक सभा चुनाव में आगे हुई। अनाधिकृत कॉलोनियों को लेकर बीजेपी ने इसके बाद बड़ा फैसला किया और इस तरह उसकी कोशिश आम आदमी पार्टी के इस वोट बैंक में भी सेंध लगाने की है।


दिल्ली में बीजेपी की नैय्या नरेंद्र मोदी पार लगाने जा रहे हैं। पार्टी उन्हीं के नाम पर चुनाव लड़ रही है तो इसके पीछे वजह भी यही है। बीजेपी  को ये एहसास है कि अगर उसे दिल्ली में सत्ता से वनवास खत्म करना है तो उसे मोदी के नाम का ही सहारा है। 

Friday, January 09, 2015

क्योंकि अब इसी का ज़माना है

पेरिस में शार्ली एबदो पर हमले को लेकर यहां भीषण प्रतिक्रिया हो रही है। हर कोई अपनी राय रख रहा है। जो क्षुब्ध हैं वो भी और जो इसे जायज़ मानते हैं वो भी। पेशावर में बच्चों के पाशविक नरसंहार पर यहां आंसूओं का सैलाब बह उठा। देश-विदेश की घटनाओं की सूचनाएं और उन पर प्रतिक्रियायें सबसे पहले यहीं आ रही हैं। यहां उभरती आम लोगों की भावनाएं हुक्मरानों को अपने फैसले बदलने पर मजबूर कर रही हैं। ये सोशल मीडिया या न्यू मीडिया का युग है।

एक जनवरी को मैंने ट्विटर पर अपने मित्रों को नववर्ष की शुभकामनायें सोशल मीडिया के ज़रिए सशक्त बने रहने के साथ दी थीं। आम लोगों के सशक्तीकरण का इससे बेहतर कोई माध्यम नहीं हो सकता। ऐसा नहीं है कि लोग अखबारों-टीवी, जिन्हें एमएसएम यानी मेनस्ट्रीम मीडिया कहा जाता है, को सूचना के माध्यम के तौर पर इस्तेमाल नहीं कर रहे हैं। लेकिन ये कहना गलत है कि वो पूरी तरह से उस पर निर्भर हैं। बल्कि सोशल मीडिया की तीखे तेवरों के बाद एमएसएम से कथित निष्पक्षता का वो झीना आवरण भी गिरता जा रहा है जिसे ओढ़ कर वो पिछले कई दशकों से पाठकों और दर्शकों को प्रभावित करते आ रहे थे।

किशोरावस्था में अखबारों में पत्र संपादक के नाम लिखा करता था। कभी छपता था कभी नहीं छपता था। वो पाठकों से सीधे संवाद का अखबारों का इकलौता माध्यम था। धीरे-धीरे उसकी अहमियत कम होती गई। अखबार पाठकों से दूर होते गए। पत्र संपादक के नाम अब भी छपते हैं मगर उनकी जगह सिमटती चली गई। टेलीविजन में दो तरफा संवाद की कोई गुंजाइश ही नहीं है। वहां ये जानने या समझने का कोई जरिया नहीं है कि दर्शक किसी समाचार या विचार के बारे में क्या सोच रहा है। अगर किसी माध्यम से दर्शक अपनी बात पहुंचाना भी चाहे, जैसे कई बार न्यूज़ रूम में संपादकों के नाम पत्र आते हैं या फिर टेलीफोन कॉल, तो उन्हें सुनने या पढ़ने का कोई इंतज़ाम नहीं है और न ही किसी की उनमें दिलचस्पी होती है।

लेकिन सोशल मीडिया में ऐसा नहीं है। यहां आप अपनी बातों के लिए जवाबदेह तो हैं ही खुद को माइक्रोस्कोप में परखने के लिए भी तैयार रहना पड़ता है। यहां निष्पक्षता के मापदंड अलग हैं। यहां पोल खुलने में देर नहीं लगती। सोशल मीडिया ने मोबाइल पकड़े हर हाथ को अपनी बात कहने की आजादी दे दी है। लोकतंत्र का विस्तार कर दिया है या यूं कहें कि मीडिया का लोकतंत्रीकरण कर दिया है। ये साबित कर दिया है कि चाहे अखबार हो टीवी या फिर कोई सूचना का कोई अन्य परंपरागत माध्यम, वो सिर्फ माध्यम ही है। और बदलते समय और तकनीक के साथ उसकी जगह कोई और ले लेगा।

मान लीजिए कहीं कोई बड़ी घटना होती है। उसकी सूचना आप तक कैसे पहुंचेगी? अगर आप टीवी के सामने होंगे तो शायद वहां किसी चैनल पर फ्लैश चले। पर आप एक वक्त में एक ही चैनल देख सकते हैं और अगर उस चैनल ने वो खबर नहीं चलाई तो आप शायद अनभिज्ञ ही रह जाएं। वैसे भी कोई पूरे वक्त टीवी नहीं देखता है। अखबार अगले दिन आएगा। कोई जरूरी नहीं कि आप अपने घर जो अखबार मंगाते हों उसमें उसका जिक्र हो।

सोशल मीडिया के साथ ये समस्यायें नहीं हैं। ट्विटर और फेसबुक पर जानकारी देने वाले सिर्फ एमएसएम ही नहीं हैं। समाचार एजेंसियों को फॉलो कर भी जानकारियां पहले हासिल की जा सकती हैं। ऐसा भी होता आया है कि व्यक्तिगत स्रोतों से कई बार खबरें पहले सोशल मीडिया पर ब्रेक होती हैं और एमएसएम को इसके बारे में बाद में पता चलता है। हकीकत तो ये है कि आजकल हर न्यूज़ रूम में सोशल मीडिया की मॉनिटरिंग होती है और ये भी समाचारों का एक बड़ा स्रोत बन गया है।

दूसरा सोशल मीडिया का विचार पक्ष है। देश-दुनिया की हर घटना पर सबसे पहले प्रतिक्रिया सोशल मीडिया पर ही होती है। यहां हर खबर को देखने का आम लोगों का नज़रिया है जो वो बेबाक ढंग से रखते हैं। एक पक्षीय और एक तरफा समाचार और विचार पेश कर निष्पक्षता का ढोल पीटने और खुद को पाक साफ दिखाने का ढोंग करने वालों की यहां अच्छे से खबर ली जाती है। कई बार ये प्रतिक्रियायें असंयत, हिंसक, असभ्य और व्यक्तिगत हो जाती हैं जो किसी को भी असहज कर सकती हैं।

बावजूद इसके ये ऐसा माध्यम है जिसे नजरअंदाज करने से अब काम नहीं चलेगा। ये जनता की अदालत है। जिसमें फरियादी, वकील और जज जनता ही है न कि खुद को भगवान से कम न समझने वाले मुट्ठी भर लोग!!


Thursday, January 08, 2015

पीके की घर वापसी (भाग-2)

(पिछले ब्लॉग में आपने पढ़ा था कि धरती नाम के गोले पर नरक काटने के बाद पीके जब वापस अपने गोले पर गया तो क्या हुआ। अब आगे पढ़िए)

दोस्तों को पीके की कहानी सुन कर बहुत मज़ा आया। पर उनके मन में कई सवाल उठने लगे। एक ने पूछा क्यों बे! तू खुद एयर पोर्ट से घर जाते वक्त टिपोरी देव के यहां मत्था टेक कर आया। बेचारे धरती वालों को क्यों उलजूलूल का ज्ञान दे रहा था। दूसरे से भी नहीं रहा गया। वो पूछ ही बैठा कि धरती नाम के गोले पर लोग चर्च में शादी करने जाते हैं तो क्या मैरिज रजिस्ट्रार भी वहीं बैठता है। तीसरे ने मज़े लेने के लिए पूछा राजस्थान की तपती गर्मी में लोग शीशे बंद कर कार में ऐसा क्या करते हैं कि वो कार नाचने लगती हैं पर गर्मी का उन पर कोई असर नहीं होता। पीके तूने बताया कि लॉक अप में जाने के लिए तूने पेशाब की। जिस शहर की हर सड़क पेशाब की बदबू से लिपटी है क्योंकि हज़ारों लोग सड़कों पर ही निपटते हैं वहां तूझे सिर्फ इसी जुर्म में कोई पुलिसवाला लॉक अप में क्यों बंद करेगा भाई।

पीके अपने दिमाग पर ज़ोर डालने लगा पर उसे तुरंत कोई जवाब नहीं सूझे। आखिर में उसने तंग हो कर कहा भेजा लुल मत करो। इस पर दोस्त ने पूछ लिया तू छह घंटे तक सेक्स वर्कर का हाथ पकड़ कर बैठा रहा जिससे तूने भोजपुरी सीखी। पर तू ये नहीं सीख पाया कि कंडोम क्या है और बेचारी जगत जननी के न्यूज़ चैनल के दफ्तर में आधे घंटे तक कंडोम दिखा-दिखा कर सबको शर्मिंदा करता रहा। पीके चुप रहा। फिर एक नया सवाल आया। स्टेशन पर इतना भीषण विस्फोट हुआ कि तेरे सामने खड़ा भैरो सिंह मर गया पर तू सही सलामत वापस आ गया। ये कैसे हुआ। काफी देर से चुप एक दोस्त ने पूछा यार पीके ये बता कि सरफराज हर रोज कराची से बेल्जियम में पाकिस्तानी एंबेसी में फोन कर पूछता था कि जग्गू का फोन आया या नहीं। मगर जैसा तूने बताया कि धरती नाम के गोले पर एक गूगल बाबा भी है। इंटरनेट और स्मार्ट फोन का ज़माना है। क्या वो गूगल या यूट्यूब पर जा कर जग्गू के बारे में सर्च नहीं कर सकता था खासतौर से तब जब जग्गू एक न्यूज चैनल में काम करती थी। बेचारा रोज़ बेकार में ही आईएसडी पर पैसे बिगाड़ता था।

फिर एक नया सवाल आया। पीके कॉलेज के सामने तूने पत्थर पर पान का कत्था लपेट कर भगवान बनाया। परीक्षा देने जा रहे स्टूडेंट प्रणाम करने लगे, चढ़ावा देने लगे। तूने कहा देखो इनका डर। तूने ये नहीं देखा कि ये डर है या फिर उम्मीद, आस्था या विश्वास। तूझे वहां कुछ फर्जी बाबा मिले तो तूने सोचा भगवान से कनेक्शन बिठाने वाले सारे ऐसे ही हैं। पर क्या वहां ऐसे लोग नहीं थे जो कहते हैं कि भगवान हर जगह है। हर प्राणी में भी। कण-कण में भी। जिस मजहब में तैंतीस करोड़ देवताओं की बात होती है वहां एक पत्थर को पूजने पर तूने हैरान हो कर इतना बवाल क्यों काटा बे।

एक दूसरे दोस्त ने कहा तूने दुकानदार की बात पर भरोसा किया जो भगवान की मूर्तियां बेच रहा था। क्या तूने ये पता करने की कोशिश की कि सारे लोग ऐसे ही हैं या कुछ ऐसे भी हैं जो भगवान से मिलने का रास्ता बताते हैं। तूने ये नहीं सोचा कि लोगों को मुसीबत में भगवान ही क्यों याद आता है। अगर लोगों को उस पर भरोसा है तो इसमें इतना परेशान होने की क्या बात है। तूने तपस्वी का भांडा फोड़ अच्छा किया। हमें पता लगा कि वहां कुछ बाबा ऐसे भी हैं जो टीवी पर लोगों को ये बोल कर बेवकूफ बनाते हैं कि समोसा खाओ तो कृपा हो जाएगी। पर तू ये क्यों भूल गया कि उस धरती पर ज़्यादातर लोग सच्चे हैं, तपस्वी की तरह मक्कार या झूठे नहीं। तू ये क्यों मान बैठा कि धरती पर सब लोग ईश्वर, अल्लाह या गॉड को मानते हैं। कई ऐसे भी हैं जो किसी को नहीं मानते और उन्हें कोई इसके लिए जबर्दस्ती नहीं करता।

पीके इन सवालों से तंग हो चुका था। उसने झुंझलाहट में पूछा तुम सब तो मुझसे इस तरह से सवाल कर रहे हो जैसे मैंने कोई गलत काम कर दिया हो। मैं तो सिर्फ तपस्वी को एक्पोज़ करना चाहता था ताकि जग्गू के करीब जा सकूं। वापसी का रिमोट तो बहाना था असली इरादा तो जग्गू के नजदीक रहना था। तुम ही बताओ अपने गोले पर ऐसी कोई टीवी रिपोर्टर होगी जो सड़क चलते किसी भी आदमी को स्टोरी की चाह में अपने घर पर ले आए और उसके साथ खूब नाचे।  

दोस्त खिलखिलाकर हंस पड़े। एक ने पीके के कंधे पर हाथ मार कर कहा साले। हम तो वाकई लुल ही निकले। तू तो बड़ा स्मार्ट है रे। दूसरे ने आँख मारी और बोला अब तू घर जा कर क्या करेगा। भाभी तो बहुत गुस्से में है। पीके सोच में पड़ गया। बोला वाकई यार अब तो घर जाने का कोई मतलब नहीं है। बाकी दोस्त भी तफरीह के मूड में आ गए। बोले चल यार पीके। चल हम सब चलते हैं। एक बार फिर धरती नाम के गोले पर। हम भी मौज करके आते हैं आखिर ऐसे बेवकूफ कहां मिलेंगे जो अपना मज़ाक उड़वाने के भी पैसे देते हों।


अब इंतज़ार कीजिए बड़े पर्दे पर पीके 2 का।। 

Tuesday, January 06, 2015

पीके की घर वापसी (भाग 1)

धरती नाम के गोले पर नरक काटने के बाद पीके अपने गोले के लिए निकल गया है। हालांकि धरती पर पीके का कहर अब भी भारत नाम के एक देश पर दिखाई दे रहा है जहां सड़कों पर वानर सेना पीके-पीके चिल्ला रही है। गेरुए वस्त्र धारण करने वाले और लंबी-लंबी दाढ़ी वाले कुछ भीमकाय महानुभाव आए-दिन पीके को गरिया रहे हैं। पीके अपने पीछे एक तूफान छोड़ गया। एक जलजला बन कर आया पीके और उसके चले जाने के बाद भी उसके झटके भारतवासियों को अभी तक लग रहे हैं।

लेकिन पीके जब अपने गोले पहुंचा तो क्या हुआ? ये बात अधिक समय तक रहस्य नहीं रह सकी। खासतौर से खोजी पत्रकारिता के इस युग में जहां निराशा में आया कुत्ता तीन बार आत्महत्या करने की कोशिश करे और टीवी पर ये ब्रेकिंग न्यूज़ बने। ऐसे युग में जहां टीवी का संपादक ट्रैक सूट में अपने कारोबारी मित्र का फ्रेंडली इंटरव्यू करे और महिला रिपोर्टर को त्रिशूल के हमले से बने तीन निशानों को दिखाने के लिए ट्रैक सूट उतारकर पिछवाड़ा दिखाने के लिए उत्साह में आ जाए। जहां महिला रिपोर्टर अपने संपादक को इस बात के लिए गले लगा ले कि उसका स्टोरी आइडिया मंजूर हो गया हो। आखिर वहां ये खोज निकालना कौन सी बड़ी बात है कि जब पीके अपने गोले पर वापस पहुंचा तो क्या हुआ?

विश्वस्त सूत्रों के हवाले से पता चला है कि पीके जैसे ही अपने यान में चढ़ा, उसकी उसके गोले वालों ने ज़बर्दस्त धुनाई कर दी। पीके को पटक-पटक कर मारा गया। उसके कान ऐंठे गए। एक साथ वाला तो उसे गिरा कर उसकी पीठ पर सवार हो गया और तब तक पीके पर घूंसे बरसाता रहा जब तक पीके ने हाथ जोड़ कर अपने जान की खैर नहीं मांगी। पीके गालों पर चिपके भगवान के स्टिकर दिखा कर उन्हें कहता रहा कि वो चांटे नहीं खा सकता है क्योंकि उसने अपना सिक्यूरिटी सिस्टम बनाया है लेकिन उसके गोले वालों को न तो ये समझ में आया कि वो क्या कह रहा है और न ही वो उसकी बात मानने को तैयार हुए।

सूत्रों के मुताबिक पीके के गोलेवाले उससे इस बात पर खफा थे कि वो मुंह में लाल रंग की कोई चीज़ लगातार चबा रहा था और उसके बाद उसने लाल रंग की लंबी धार अपने मुंह से अंतरिक्ष यान में छोड़ दी थी। फिर वो यान की दीवार की तरफ मुंह कर खड़ा हो गया और उसने वहां वही हरकत की जो लाल किले की दीवार पर खुद को गिरफ्तार कराने के लिए की थी। बीच-बीच में वो लुल-लुल भी बोलता जा रहा था जिसे समझने के लिए पीके के गोलेवालों को उसका हाथ पकड़ना पड़ा और उसके बाद उनके सामने पीके की सारी कहानी साफ हुई।

बहरहाल पिटाई और धुनाई के बाद पीके से गले मिल गिले-शिकवे दूर किए गए। उसके शरीर से चिपकी कुछ विचित्र चीज़ें यान में ही उतरा ली गईं। पीके ने बताया कि धरती नाम के गोले पर इन्हें कपड़े कहते हैं। लेकिन गले में टेपरिकार्डर लटका रहा क्योंकि पीके ने कहा कि ये चीज़ उसके बेहद करीब है। लंबी यात्रा के बाद पीके और उसके साथी अपने घर वापस पहुंचे। वहां एयरपोर्ट पर पीके का भव्य स्वागत हुआ और उसे जुलुस की शक्ल में घर ले जाया गया। रास्ते में कई टिपोरी (पीके के गोले पर एक ही देवता है। वो स्थान जहां उनकी पूजा होती है उसे टिपोरी कहते हैं) आए। जुलुस हर टिपोरी पर रुका जहां पीके ने दंडवत प्रणाम कर अपने गोले के आराध्य देव को सुरक्षित घर वापस आने के लिए धन्यवाद दिया।

घर पहुंचते ही पीके के आधा दर्जन बच्चे उसके पैरों से लिपट गए। पत्नी दीवार की ओट से मंद-मंद मुस्करा कर पीके का स्वागत कर रही थी। बच्चों का एक ही सवाल था- पापा हमारे लिए क्या लाए।। पीके के गले में लटके टेपरिकार्डर की तरफ सब अचानक लपके और उससे छेडछाड़ करने लगे। तब तक बीवी पीके के लाए दोनों संदूकों का पोस्टमार्टम कर चुकी थी। उसमें से दो छोटे-छोटे डंडों के ढेर सारे पैकेट (जिनके बारे में बाद में समझ में आया कि वो बैटरी नाम की कोई चीज़ थी) और छोटे-छोटे डिब्बे जिनमें आमने-सामने दो छेद थे (पीके ने बाद में बताया कि उन्हें टेप कहते हैं) निकाल लिए।

बच्चे टेप रिकार्डर से खेलने लगे। अचानक एक का हाथ प्ले बटन पर पड़ा और जगत जननी साहनी उर्फ जग्गू की आवाज़ पूरे घर में गूंजने लगी। देखते ही देखते पीके की बीवी के चेहरे के भाव बदलने लगे। फिर तो वही हुआ। हर टेप में सिर्फ उसी की आवाज़। पीके की बीवी अब तक रणचंडी का रूप धर चुकी थी। उसके चेहरे से आग बरस रही थी। उसके हाथ में जो भी आया वो उसने पीके पर बरसाना शुरू कर दिया। पीके के पास सफाई देने का मौका भी नहीं था। वो कुछ सुनने को तैयार नहीं थी। पीके अपने घर से जान बचाने के लिए भागा।

भागते-भागते पीके अपने ठिए पर पहुंच गया। ये वही जगह थी जहां वो अपने मित्रों के साथ बैठ कर गपशप करता था और सुरुर में आने के लिए सारे मित्र एक खास किस्म के द्रव्य का सेवन करते थे। सारे मित्र ये जानने के लिए उत्सुक थे कि पीके ने धरती पर क्या गुल खिलाए। पीके विस्तार से अपनी कहानी बताने लगा....


इसके बाद क्या हुआ ये जानने के लिए कुछ समय इंतज़ार कीजिए.....

Monday, January 05, 2015

एक क्रांतिकारी नेता का चिंतन

 मुझे भूमि अधिग्रहण कानून पर लाए गए अध्यादेश पर एतराज़ है। मुझे पर्यावरण कानूनों में किए जा रहे बदलाव भी पसंद नहीं हैं। मैं नहीं चाहता कि श्रम कानूनों में बदलाव किए जाएं। मुझे मेक इन इंडिया अभियान पर बुनियादी आपत्तियां हैं। बीमा क्षेत्र में सुधारों और विदेशी निवेश की सीमा बढ़ाने पर मेरा विरोध जारी है। मुझे ये पसंद नहीं है कि सरकार रक्षा और रेल जैसे महत्वपूर्ण क्षेत्रों में विदेशी निवेश लाए। संसद में मेरे सांसदों ने इन तमाम फैसलों का जमकर विरोध किया। सरकार को इन तमाम फैसलों को लागू करने के लिए बिल पास कराने से रोका और मजबूरी में उसे इनके लिए अध्यादेश लाने पर मजबूर किया।

लेकिन मेरी एक समस्या है।

मैंने अपने राज्य में निवेशकों को लुभाने के लिए ग्लोबल इंवेस्टर समिट बुलाई है। मैं चाहता हूं कि विदेशी निवेशक मेरे राज्य में नए कारखाने, इंफ्रास्ट्रक्चर खड़ा करने में पैसा लगाएं ताकि मेरे राज्य की आर्थिक तरक्की हो सके। युवाओं को रोजगार मिल सके। सेवा क्षेत्र का विस्तार हो सके। किसानों को फसलों के लिए नई तकनीक मिल सके। उन्हें उनकी उपज का सही मूल्य मिल सके। मजदूरों को उनकी मेहनत का सही पारिश्रमिक मिल सके। उनके काम करने के तौर-तरीकों में सकारात्मक परिवर्तन हो सके।

मैं इस इनवेस्टर समिट में क्या भाषण दूं?

मेरा भाषण कुछ इस तरह हो सकता है-
सम्मानीय उद्योगपतियों और विदेश से पधारे माननीय अतिथिगण। क्रांति की इस धरती पर आपका स्वागत है। मैं चाहता हूं कि आप सब यहां आएं और विकास की नई इबारत लिखने में हमारा सहयोग करें। आप जानते हैं कि केंद्र की निरंकुश सरकार किसानों और मजदूरों के खिलाफ काम कर रही है। उन्होंने किसानों की जमीन हड़पने के लिए पिछली सरकार के भूमि अधिग्रहण कानून को सिरे से पलट दिया है। हमारी सरकार इस काले अध्यादेश को अपने यहां लागू नहीं होने देगी।

आप आएं और यहां उद्योग लगाएं। लेकिन चूंकि मेरी सरकार किसानों से ज़मीन का अधिग्रहण नहीं करेगी इसलिए मैं चाहता हूं कि आप अपने साथ ज़मीन भी लाएं। मैं नहीं चाहता हूं कि पुराने श्रम कानून बदल कर श्रमिकों के हक मारे जाएं लिहाज़ा आप अपने मजदूर भी अपने साथ ही लाएं। मुझे पर्यावरण की बहुत चिंता है। इसलिए मेरी आपसे अपील है कि आप यहां उद्योग लगाने से पहले आबो-हवा भी लेकर आएं। मैं नहीं चाहता कि आपके कारखाने के लिए कच्चा माल लाने और उत्पाद ले जाने के लिए सड़क बनाने के वास्ते किसानों की जमीन हथियाई जाए इसलिए आप कच्चा माल भी अपने साथ ही लाएं। लेकिन एक बात का खास ध्यान रखें कि जो भी माल आप यहां काम करके कमाएंगे उस पर पहला हक मेरा होगा।

आप पूछ सकते हैं कि ये क्या बात हुई? हम ज़मीन अपने साथ कैसे ला सकते हैं? आबो-हवा, मजदूर, कच्चा माल ये सब कैसे साथ ला सकते हैं? ये कैसे हो सकता है कि आपकी कमाई पर पहला हक मेरा होगा? आप ये भी कह सकते हैं कि जहां मेरी सरकार की बड़ी इमारतें बनीं हैं, मंत्रियों-संत्रियों के रहने के लिए आलीशान बंगले बने हैं क्या वो ज़मीन कभी किसानों से नहीं ली गई थी। क्या पक्की सड़कें बनेंगी, बड़े राजमार्ग बनेंगे तो राज्य के लोगों का भला नहीं होगा। अगर कच्चा माल राज्य के ही लोगों से लेंगे तो उन्हें तरक्की का मौका नहीं मिलेगा?  ये कैसे हो सकता है कि पर्यावरण को नुकसान पहुंचाए बिना विकास न हो बल्कि ये पूछ सकते हैं कि बिना पर्यावरण को नुकसान पहुँचाए संतुलित विकास कैसे हो?

आप कहीं ये न बोल दें कि जमीन वापस करने का अभियान सरकार से ही क्यों न शुरू किया जाए। क्यों न बड़े दफ्तरों, बंगलों और दूसरी इमारतों को गिरा कर यहां फिर खेती शुरू की जाए। हम जिन कारों या दूसरे वाहनों का इस्तेमाल करते हैं वो भी किसी न किसी की जमीन लेकर बनाए गए किसी कारखाने में ही उत्पादित हुई हैं इसलिए हम इन्हें छोड़ कर पैदल ही चलना शुरू कर दें। बेहतर जीवन, रोजी-रोटी और सिर पर छत की आस लिए शहरों की ओर आ रहे लोगों को यहां आने से रोक दें। बढ़ती आबादी के लिए नई बस्तियां बनाने का काम छोड़ दें। लोगों को बेहतर स्वास्थ्य और शिक्षा मिल सके इसके लिए अस्पताल और नए स्कूल-कालेज बनाने का काम भी न किया जाए क्योंकि आखिर इस सबके लिए भी तो ज़मीन चाहिए। अब जमीन किसी कारखाने में तो पैदा हो नहीं सकती तो इसका और क्या उपाय हो सकता है।

लेकिन मुझे इन सब बातों से फर्क नहीं पड़ता। जब तक मुझे 35-40 फीसदी वोट अपने एजेंडे पर चल कर ही मिल रहे हैं तो मैं विकास के इस प्रपंच से दूर रहना ही पसंद करूंगा। न तो मुझे और न ही मेरे लोगों को इन झांसों में डालिए। हम तो विरोध का काला झंडा फहराते रहेंगे। यहां भी और दिल्ली में भी।