Friday, September 12, 2014

शीला की बात पर हंगामा क्यों


पंद्रह साल तक दिल्ली की गद्दी संभालने वाली पूर्व मुख्यमंत्री शीला दीक्षित ने कहा है कि अगर बीजेपी सरकार बनाने की स्थिति में पहुंच गई है तो उसे सरकार बना लेनी चाहिए। उन्होंने ये भी कहा है कि किसी भी दल का कोई विधायक चुनाव नहीं चाहता है। कांग्रेस के प्रवक्ता इस बयान से सदमे में चले गए और आम आदमी पार्टी ने आरोप लगाया कि बीजेपी और शीला मिले हुए हैं।

सवाल ये है कि इस पर हंगामा क्यों? कम से कम कांग्रेस और आम आदमी पार्टी तो इस बयान पर सवाल न ही उठाए तो बेहतर है। पिछले साल दिसंबर में नतीजे आने के बाद जब ये साफ हुआ कि किसी दल को बहुमत नहीं मिलेगा तब बीजेपी ने सबसे बड़े दल के रूप में उभरने के बावजूद सरकार नहीं बनाने का फैसला किया। तब आम आदमी पार्टी ने कांग्रेस के समर्थन से सरकार बनाई। ये कहते हुए कि दिल्ली की जनता से पूछ कर ही उसने ये फैसला किया है।

इस कथित जनमत सर्वेक्षण के बूते आम आदमी पार्टी ने उस कांग्रेस के साथ हाथ मिलाया जिसके बारे में आप प्रमुख अरविंद केजरीवाल ने चुनाव से पहले अपने बच्चों की कसम खा कर कहा था कि वो कभी कांग्रेस के साथ नहीं जाएंगे। सिर्फ 49 दिनों में उन्होंने सरकार से इस्तीफा दे दिया क्योंकि उन्हें ये गलतफहमी हो गई थी कि पूरा देश दिल्ली की तरह ही है और दिल्ली की ही तरह देश की जनता भी लोक सभा चुनाव में उन्हें हाथों-हाथ ले लेगी।

लोक सभा चुनाव में दिल्ली की सभी सातों सीटों पर बीजेपी ने बड़े अंतर से जीत हासिल की है। अगर इन्हें विधानसभा सीटों में देखा जाए तो बीजेपी ने दिल्ली की सत्तर में से 60 विधानसभा सीटों पर जीत हासिल की है। निश्चित तौर पर ये जनादेश आम आदमी पार्टी के उस कथित जनमत सर्वेक्षण से अधिक प्रामाणिक है जिसके आधार पर उसने कांग्रेस से हाथ मिला कर दिल्ली में सरकार बनाई थी। अगर बीजेपी इसे दिल्ली की जनता की इच्छा के रूप में पेश करे तो इस पर आपत्ति नहीं होनी चाहिए।

ये सही है कि बीजेपी चाहे सबसे बड़े दल के रूप में उभरी हो लेकिन वो बहुमत से दूर है। विधानसभा में वो बहुमत सभी साबित कर पाएगी जब कांग्रेस या आम आदमी पार्टी के कुछ विधायक उसे समर्थन दे। या फिर गैर हाजिर रह कर बीजेपी को अल्पमत की सरकार चलाने के लिए मौका दे। इसके पीछे जोड़-तोड़ या खरीद-फरोख्त के आरोप भी लगे हैं जिन्हें बेबुनियाद नहीं कहा जा सकता।

सवाल ये है कि अगर दिल्ली में विधानसभा चुनाव करा लिए जाए तो क्या गारंटी है कि किसी एक दल को बहुमत मिल ही जाएगा और जो नतीजे दिसंबर में आए वैसे ही दोबारा नहीं आएंगे। फर्ज करें अगर दोबारा त्रिशंकु विधानसभा बनती है तो क्या एक बार फिर राष्ट्रपति शासन की नौबत नहीं आएगी। दूसरा पक्ष विधायकों का है। शीला दीक्षित सही कहती हैं कि किसी भी पार्टी का कोई विधायक चुनाव नहीं चाहता है। आम आदमी पार्टी को भी अपने विधायकों से ईमानदारी से पूछना चाहिए कि वो क्या चाहते हैं। किसी विधायक के पास जनता के बीच जाकर दोबारा वोट मांगने का कोई नैतिक आधार नहीं है क्योंकि उसके पास दिखाने के लिए कोई काम नहीं है। कांग्रेस में भी चुनाव की मांग वही लोग कर रहे हैं जो विधानसभा का चुनाव हार गए और जिन्हें लगता है कि दोबारा चुनाव से शायद वो विधानसभा में पहुंच सकें।

सबसे बड़ी पार्टी अगर सरकार बनाती है तो ऐसा कोई पहली बार नहीं होगा। 1991 में कांग्रेस ने लोक सभा में सबसे बड़ी पार्टी के रूप में उभरने के बाद अल्प मत की सरकार चलाई और बाद में बहुमत का जुगाड़ किया। सबसे बड़ी पार्टी के रूप में उभरने के नाते ही 1996 में शंकर दयाल शर्मा ने अटल बिहारी वाजपेयी को सरकार बनाने का मौका दिया था। अगर उप राज्यपाल सबसे बड़े दल के नाते बीजेपी को सरकार बनाने के लिए मौका देना चाहते हैं तो इसमें कुछ भी असंवैधानिक नहीं है। शीला दीक्षित भी यही कह रही हैं। वही शीला दीक्षित जिनके बारे में कहा जाने लगा है कि दिल्ली के लोग उन्हें मिस करने लगे हैं।


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