Thursday, January 09, 2014

पत्रकार या नेता?

नेता और पत्रकार का रिश्ता। राजनीति और पत्रकारिता का रिश्ता। जैसे फेवीकोल का मज़बूत जोड़। आसानी से टूटने वाला नहीं। 

स्वतंत्रता के आंदोलन में अख़बार निकालने वाले महापुरुष स्वाभाविक रूप से समाज में सक्रिय हुए और राजनीतिक दलों के साथ जुड़ कर देश सेवा करते रहे। आज़ादी के कुछ साल बाद तक राजनीति देश निर्माण का माध्यम रही और बड़े पत्रकार भी इससे जुड़ते रहे। 

लेकिन धीरे-धीरे समाज के साथ-साथ राजनीति में तमाम बुराइयाँ आती गईं और पत्रकारिता भी इससे अछूती नहीं रही। अब राजनीति व्यवसाय है और पत्रकारिता भी। पत्रकार अब भी राजनीति में आ रहे हैं। और आगे भी आते रहेंगे। 

Sunday, January 05, 2014

कैसे बना हमारा संविधान?

संविधान सभा की बैठक

हमारा संविधान दुनिया का सबसे बड़ा लिखित संविधान है. ये रातों-रात नहीं बन गया. इसके लिए देश को आजादी दिलाने वाले बड़े-बड़े धुरंधरों ने करीब तीन साल तक कड़ी मेहनत की.

सन् 1946. ये तय हो चुका था कि अंग्रेज़ बोरिया-बिस्तर उठा कर जाने वाले हैं.

अंग्रेजों के कैबिनेट मिशन और भारतीय नेताओं के बीच कई दौर की बातचीत के बाद तय हुआ कि संविधान बनाने के लिए संविधान सभा का गठन होगा.

प्रांतीय विधानसभाओं को संविधान सभा के सदस्यों को चुनने का अधिकार दिया गया. सामान्य सीटों पर कांग्रेस के सदस्यों ने भारी जीत हासिल की जबकि मुसलमानों के लिए आरक्षित सीटें मुस्लिम लीग ने जीत लीं.

राजे-रजवाड़ों को भी अपने नुमाइंदे भेजने को कहा गया.

संविधान सभा की पहली बैठक 9 दिसंबर 1946 को दिल्ली में हुई.

लेकिन छह महीनों बाद सिंध, पूर्वी बंगाल, पश्चिमी पंजाब, बलूचिस्तान और नॉर्थ वेस्ट फ्रंटियर राज्यों ने पाकिस्तान के लिए अपनी अलग संविधान सभा बना डाली.

इस तरह भारत की संविधान सभा में 271 सदस्य थे. मुस्लिम लीग के 28 सदस्य भी इसमें शामिल हुए और राजे-रजवाड़ों के 93 सदस्यों को नामांकित किया गया.

15 अगस्त 1947 को भारत आज़ाद हुआ. संविधान सभा देश की पहली संसद बनी.

डॉक्टर राजेंद्र प्रसाद इसके अध्यक्ष बने और बी एन राव संवैधानिक सलाहकार.

संविधान सभा ने दो साल 11 महीनों और 17 दिनों में 105 बैठकों में संविधान बनाया.

सभा ने 18 समितियाँ बनाईं जिन्होंने संविधान की अलग-अलग धाराओं पर काम किया.

फरवरी 1948 में डॉक्टर भीमराव अंबेडकर को ड्राफ्टिंग कमेटी का अध्यक्ष चुना गया.

इसी कारण उन्हें संविधान का निर्माता कहा जाता है. ये बात अलग है कि संविधान को अमली-जामा पहनाने में बी एन राव की सबसे बड़ी भूमिका रही.

साथ ही, जवाहरलाल नेहरू, वल्लभभाई पटेल, सी राजगोपालचारी, शरतचंद्र बोस, मौलाना आज़ाद, एस के सिन्हा, रफी अहमद किदवई, श्यामाप्रसाद मुखर्जी जैसे कई बड़े नेताओं ने आपसी मतभेदों को ताक पर रख कर काम किया.

ये कांग्रेस की दूरदर्शी सोच थी कि संविधान सभा में बहुमत होने के बावजूद कई विरोधी दलों के नेताओं को शामिल किया.

26 नवंबर 1949 को संविधान को अंतिम रूप दिया गया. उस दिन संसद भवन के बाहर बारिश हो रही थी. इसे शुभ संकेत माना गया.

संविधान को 26 जनवरी 1950 को सुबह दस बजकर 18 मिनट पर लागू किया गया. उसके बाद संविधान सभा अस्थाई संसद बन गई और 1952 में संविधान के तहत चुनाव करा कर पहली संसद बनाई गई.

26 जनवरी का दिन इसलिए चुना गया क्योंकि इसी दिन 1930 में कांग्रेस ने भारत के लिए पूर्ण स्वराज की घोषणा की थी और इसे आज़ादी के दिन के रूप में मनाना शुरू कर दिया.

ये बात अलग है कि देश को आज़ाद करने का दिन यानी 15 अगस्त अंग्रेजों ने चुना लेकिन आज़ाद भारत ने यही ठीक समझा कि अपना संविधान अपने आज़ादी के दिन ही लागू किया जाए.





Wednesday, January 01, 2014

प्रकाश स्तंभ है हमारा संविधान

डॉक्टर बी आर अंबेडकर, संविधान के वास्तुकार


भारत के संविधान के 65 साल पूरे होने जा रहे हैं। इन वर्षों में भारत की सबसे बड़ी कामयाबी यही रही है कि इस संविधान के चलते उसने स्वयं को प्रजातांत्रिक मुल्क बना कर रखा है। आखिर क्या है इस संविधान की खास बातें।

 प्रजातंत्र अगर भारत का धर्म है तो संविधान उसका ग्रंथ। ये भारत के सारे नागरिकों को बराबरी का अधिकार देता है। जाति, वर्ग, धर्म के आधार पर भेदभाव नहीं हो सकता। हर व्यक्ति को मौलिक अधिकार हासिल हैं। 

सबको सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक न्याय, अपनी बात रखने का अधिकार, धर्म और उपासना की आज़ादी और प्रतिष्ठा और अवसर में समानता। यानी सब बराबर और समान।

पिछले साठ साल में भारत में प्रजातंत्र ने कई उतार-चढ़ाव देखे. लेकिन भारत अगर मज़ूबत प्रजातांत्रिक देश बना रहा है तो उसके पीछे हमारा लिखित संविधान ही है।

इस संविधान के तीन प्रमुख खंभे हैं- 
1. विधायिका. यानी संसद और विधानसभाएं। इनका काम है कानून बनाना। ये ज़रूरत पड़ने पर संविधान में संशोधन भी कर सकती हैं।
2.   न्यायपालिका यानी अदालतें। ये कानून के अनुसार न्याय करती हैं। मौलिक अधिकारों की रक्षा का काम इनके हवाले है।
3. कार्यपालिका यानी नौकरशाही। ये सरकारी अफसर जो कद, ओहदों और ज़िम्मेदारियों में अलग-अलग होते हैं, संविधान के मुताबिक सरकार चलाते हैं।

कहने को मीडिया को चौथा खंभा कहा जाता है। लेकिन संविधान में उसे अलग से अधिकार हासिल नहीं है। सिर्फ़ बोलने और विचारों की आजादी से ही मीडिया की आजादी को जोड़ा जाता है।

हमारे संविधान की कई खासियतें हैं जैसे

-हर व्यक्ति को वोट देने का अधिकार है।
- उसे संसदीय प्रणाली के तहत अपनी पसंद के नुमाइंदे और सरकार को चुनने की आज़ादी है।
- संघीय ढांचा देश की एकता और अखंडता की गारंटी देता है।
- केंद्र और राज्यों के रिश्तों को साफ़ कर दोनों को साथ-साथ बढ़ने के अधिकार दिए गए हैं।
-अदालतें आज़ाद हैं।
-राजा-महाराजाओं का नहीं, कानून का राज होगा।
-भारत मज़हबी मुल्क नहीं बल्कि पंथनिरपेक्ष रहेगा।
  
पिछले साठ साल में इस संविधान में कई बार बदलाव किए गए हैं।

- संविधान में संशोधन का अधिकार भी संविधान ने ही दिया है।
- अब तक 95 संशोधन हो चुके हैं।
- संविधान को लागू करने के एक साल के भीतर ही यानी 1951 में पहली बार संशोधन किया गया।
- बाद में सुप्रीम कोर्ट ने इसे साफ करते हुए कहा कि बुनियादी ढांचे से छेड़-छाड़ किए बगैर संशोधन किया जाना चाहिए।
- बार-बार संविधान में संशोधन से तंग आकर दस साल पहले संविधान समीक्षा आयोग ही बना दिया गया था लेकिन उसकी सिफारिशें लागू नहीं की जा सकी हैं।

भारत आज विकसित देश होने की दिशा में कदम बढ़ा रहा है। हालांकि, आज भी गरीबी, अशिक्षा, असमानता, सांप्रदायिकता, क्षेत्रवाद, जंगलराज जैसी समस्यायें हैं। फिर भी, बहुत लोगों को लगता है कि इस अंधेरे से निकलने में हमारा संविधान लाइट हाऊस की तरह दिशा दिखाने का काम करता रहेगा।




बिजली के फैसले पर भी सवाल

दिल्ली में सरकार बनाने के बाद अरविंद केजरीवाल ने अपने एक और बड़े वादे को पूरा करने का दावा किया है। आप सरकार ने कल घरेलू उपभोक्ताओं के लिए बिजली दरों में पचास फीसदी कटौती करने का निर्णय किया।

लेकिन पानी की ही तरह बिजली के इस लोक लुभावन फैसले में भी बड़ा झोल है। 

आम आदमी पार्टी के घोषणापत्र में लिखा गया है कि सरकार बनने के बाद चार महीनों के भीतर आम लोगों के बिजली के बिल आधे हों, इसके लिए तीन बड़े कदम उठाए जाएंगे। ये कदम बताए गए हैं- 

1. बिजली कंपनियों का तीन महीनों के भीतर ऑडिट पूरा करना।
2. बिजली के बिल ठीक कराना। इसके लिए एक महीने के भीतर पूरी दिल्ली में अभियान चलाना
3. बिजली के मीटरों की किसी निष्पक्ष एजेंसी से जांच कराना। अगर मीटर तेज़ चलते पाए गए तो उस कंपनी के खिलाफ कार्रवाई करना।

लेकिन बजाए इन नीतिगत फैसलों को लागू करने के, आम आदमी पार्टी की सरकार ने शार्टकर्ट चुना। ताबड़तोड़ फैसलों करने के दबाव में आप सरकार ने वही कदम उठाए जो ऐसी पार्टियों की सरकारें उठाती हैं, जिन्हें वो भ्रष्ट कहती है। यानी सरकारी खजाने पर बोझ डाल कर सब्सिडी के ज़रिए बिजली के बिलों में कटौती।

गौरतलब है कि आम आदमी पार्टी के घोषणापत्र में कहीं नहीं लिखा गया है कि सब्सिडी के जरिए बिजली के बिलों में पचास फीसदी कटौती की जाएगी। लेकिन कुछ कर दिखाने की जल्दबाजी में आनन-फानन में सब्सिडी देने का एलान किया गया।

हर घर को सात सौ लीटर पानी हर रोज़ देने के वादे की तरह इस वादे को पूरा करने में कई कमियां साफ दिख रही हैं।

कल के फैसले के मुताबिक जिन घरों में दो सौ यूनिट खर्च होती है उन्हें प्रति यूनिट  2.70 रु के बजाए एक रुपए 95 पैसे देने होंगे। इस स्लैब में प्रति यूनिट दर 3.90 रु है मगर शीला दीक्षित सरकार ने पहले ही 1.20 रु की सब्सिडी दे रखी थी। यानी केजरीवाल सरकार ने अपनी ओर से पचहत्तर पैसे सब्सिडी बढ़ा दी है।

इसी तरह  200 से 400 यूनिट खपत करने वाले घरों को 5 रु प्रति यूनिट के बजाए 3.90 रु प्रति यूनिट देना होगा। इस स्लैब में प्रति यूनिट दर 5.80 रु है मगर शीला दीक्षित सरकार ने पहले ही 80 पैसे की सब्सिडी दे रखी थी। यानी केजरीवाल सरकार ने अपनी ओर से एक रुपए दस पैसे की सब्सिडी दी है।

अब सवाल ये है कि इससे फायदा किसे हुआ? जिन बिजली कंपनियों के खिलाफ मुहिम चला कर, मीटरों के कनेक्शन काट कर केजरीवाल जनता की आँखों के तारे बने, उनकी सेहत पर इससे कोई फर्क नहीं पड़ने वाला। क्योंकि सब्सिडी का पूरा बोझ सरकार के खजाने यानी करदाताओं की जेब से जाएगा। बिजली कंपनियों के ऑडिट के लिए सीएजी तैयार है मगर ये तब तक नहीं होगा जब तक उपराज्यपाल या राष्ट्रपति की ओर से सिफारिश नहीं की जाती।

केजरीवाल पर कम समय में ज्यादा करने का दबाव है। मगर इसके लिए उन्हें ईमानदारी और पारदर्शिता से कदम उठाने चाहिएं। उन्हें ये याद रखना चाहिए कि उनके फैसलों की आज चाहे मीडिया का एक बड़ा वर्ग उनकी पार्टी की जीत से सम्मोहित हो कर वाह-वाही कर रहा हो, मगर धीरे-धीरे ही सही, जब मीडिया के इस हिस्से की आँखों से पर्दा हटेगा, आप सरकार के फैसलों को भी कसौटी पर कसा जाएगा। और उन्हें आज नहीं तो कल आलोचनाओं का सामना करना पड़ेगा। बेहतर होगा वो इसकी आदत अभी से डाल लें। क्योंकि उनकी पार्टी को बहुत लंबा सफर तय करना है। अभी तो शुरुआत है।