Thursday, November 06, 2014

मोदी से क्यों नहीं सीखते मंत्री?

पंद्रह अगस्त को जब नरेंद्र मोदी लाल किले पर झंडा फहराने पहुंचे तो राजनीतिक विश्लेषकों ने उनके भाषण से बड़ी-बड़ी उम्मीदें बांधीं। उन्हें लगा कि जो व्यक्ति बरसों से यहां पहुँचने का सपना देख रहा था, वो अपने पहले भाषण में बड़े मुद्दे उठाएगा, देश को नए सपने दिखाएगा, नए वादे करेगा, अरबों-खरबों की योजनाओं की बात करेगा। मगर ये क्या? मोदी तो खुले में शौच बंद करने और साफ-सफाई पर ज़ोर देते नज़र आए।

ये कोई बहस का विषय ही नहीं है कि खुले में शौच बंद करने और साफ-सफाई का मुद्दा कोई छोटा विषय है। ये उतना ही गंभीर और महत्वपूर्ण विषय है जितना कि देश में विदेशी निवेश को बढ़ावा देना या लाखों बेरोजगारों को नौकरी देना या फिर महंगाई कम कर लोगों को राहत देना। लेकिन सवाल ये है इस बारे में प्रधानमंत्री को बोलने की ज़रूरत क्यों महसूस हुई? क्या ये बात नीचे से शुरू नहीं होनी चाहिए थी?

हमारी शासन प्रणाली ब्रिटन के वेस्टमिंस्टर पद्धति पर आधारित है। प्रधानमंत्री मंत्रिमंडल का प्रमुख होता है। यानी वो बराबरी में पहला या फर्स्ट अमंग इक्वल्स है। ये सही है कि समय के साथ-साथ प्रधानमंत्री की ताकत बढ़ती गई है। ये व्यक्ति विशेष पर भी निर्भर करता है। भारत के संदर्भ में ये बात इसलिए भी महत्वपूर्ण है क्योंकि यहां सभी तरह के प्रधानमंत्री हुए हैं। कई ऐसे जिन्होंने अपनी ताकत का भरपूर इस्तेमाल किया और कुछ ऐसे भी जिन पर आरोप लगता रहा कि उन्होंने पद की गरिमा को घटाया।

मगर सवाल ये है जिस तरह से मोदी आम लोगों से जुड़ी छोटी-छोटी बातों की परवाह कर उन्हें राष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य में उठा रहे हैं ऐसा करने में उनके मंत्रिमंडल के कुछ साथी क्यों पीछे रह जाते हैं। मोदी ने एक ऐसी ही बात दस्तावेज़ों को अटेस्ट करने को लेकर की। लाखों लोग हर रोज़ फोटोकॉपियों और हलफनामों को सत्यापित कराने के लिए राजपत्रित अधिकारियों की खोज में भटकते हैं। अब ऐसा करना जरूरी नहीं रहा।

आपमें से कितने हैं जिन्हें कभी रेलवे स्टेशन पर ऐसा कुली मिला हो जो रेल मंत्रालय की तय की गई दरों के हिसाब से आपका सामान गाड़ी तक पहुँचा दे? आप किसी बुजुर्ग को गाड़ी तक पहुँचाना चाह रहे हों और व्हील चेयर मिल जाए और कुली उचित दर पर पहुंचा सके? क्या भारत में ऐसा हो पाना मुमकिन है कि आप बिना कुली की मदद लिए और सीढ़ियां चढ़े सीधे गाड़ी तक चले जाएं? आपकी यात्रा का अचानक कार्यक्रम बने और आप चाहे कुछ अधिक पैसे ही देकर सही, कनफर्म बर्थ लेकर ट्रेन की यात्रा कर सकें?

रेल भवन में बैठ कर बुलेट ट्रेन की योजना बनाने वाले रेल मंत्री क्या इन विषयों पर ध्यान नहीं दे सकते? क्या वे अपने अधिकारियों से सख्ती से वो काम नहीं करा सकते जो उनका दायित्व है। ऐसा क्यों होता है कि त्यौहार के मौके पर स्टेशनों पर भगदड़ जैसे हालात बनते हैं और रेल मंत्रालय पहले से अधिक गाड़ियों की व्यवस्था नहीं कर सकता।

हाईवे पर टोल के लिए एक अच्छी व्यवस्था शुरू की गई है। ई-टोल से लोगों की दिक्कतों का हल होगा। मगर ये अभी शुरुआती व्यवस्था है। एनएचएआई 22, 28, 32 रुपए इस तरह से टोल की दरें क्यों रखता है, 20, 30, 35 रुपए आदि क्यों नहीं? छुट्टे पैसों को लेकर विवाद, उनके बदले चिप्स या टॉफी पकड़ना और समय की बर्बादी क्या एक छोटा सा कदम उठा कर नहीं रोकी जा सकती?

हममें से कितने लोग इंटरनेट इस्तेमाल करने के लिए बीएसएनल की सेवाएं लेने का जोखिम उठा सकते हैं? ऐसा नहीं है कि निजी कंपनियों की सेवाओं से लोग संतुष्ट हैं। मगर इसके अलावा विकल्प ही क्या बचा है। मोदी जिस डिजीटल इंडिया की बात कर रहे हैं उसे बीएसएनएल गांव-गांव तक कैसे पहुँचाएगा?


लोगों के जीवन में बड़ी बातों के बजाए छोटी-छोटी बातों का अधिक असर होता है। लोगों की शिकायतें बड़े मुद्दों के बजाए अपने आसपास आ रही कठिनाइयों को लेकर होती है। इन्हीं से सरकार और नेताओं के बारे में उनकी राय बनती है। यही राय चुनावों के वक्त ईवीएम के जरिए दिखती है। ऐसा नहीं है कि नेता ये बात जानते नहीं। मगर जानते हुए भी अंजान बन कर वो किसी और का नहीं, अपना ही नुकसान कर रहे होते हैं।

Tuesday, November 04, 2014

अमेरिका डायरी -1 सीखने की 5 बातें

अमेरिका की अपनी संक्षिप्त यात्रा में मुझे कई बातें सीखने को मिलीं। ऐसी बातें जो हम अमेरिका और वहां के लोगों से सीख सकते हैं।

 
1. सफ़ाई- मुझे लगता है ये सिर्फ अमेरिका ही नहीं, बल्कि दक्षिण एशिया, अफ्रीका और दक्षिण अमेरिका के कई देशों को छोड़ पूरी दुनिया में देखने को मिलती है। वॉशिंगटन में मैं नेशनल मॉल पर घूम रहा था। थोड़ी दूर पर देखा कि एक व्यक्ति सड़क पर झुक कर किसी दूसरे व्यक्ति का अनजाने में हाथों से गिर गया बेकार कागज उठा रहा है। उसने इसे उठाया और इसे लेकर थोड़ी दूर चलता रहा। आगे डस्टबिन मिलने पर उसे डाल कर निकल गया। ये घटना बताती है कि स्वच्छता किस तरह से वहां के लोगों की सोच में बसी है।

 
2. कार पूल- अमेरिका में बसे मेरे मित्र प्रतीक ने मुझे वॉशिंगटन में अपने होटल से अपने साथ कार में लिया। ये इलाका बड़े सरकारी कार्यालयों का है। थोड़ी दूर आगे चलने पर सड़क के किनारे पंक्तिबद्ध लोगों को देखा। पूछने पर प्रतीक ने बताया कि ऐसी कार जिनमें ड्राइवर के अलावा कोई और नहीं है, वे इन लोगों को अपने साथ बिठा सकते हैं। हाई वे पर एक लेन सिर्फ उन कारों के लिए है जिनमें एक से अधिक व्यक्ति बैठे हों। इसे एचओवी यानी हाई आक्यूपेंसी व्हीकल लेन कहा जाता है। पीक आवर्स में जहां दूसरी लेन पर कारों की संख्या अधिक होने से भीड़ रहती है और समय खराब होता है, एचओवी का इस्तेमाल करने वाले फर्राटे से निकल सकते हैं। ईंधन, प्रदूषण, समय सब बचाने के लिए लोगों को प्रोत्साहित करने के लिए अमेरिकी सरकार की ओर से उठाया गया ये कदम है।

 
3. अमेरिकी झंडा- ये आपको हर जगह दिखेगा। सिर्फ सरकारी इमारतों के बाहर ही नहीं। बसों, कारों, साइकलों, घरों यहां तक कि लोगों की टोपियों के ऊपर भी एक छोटा अमेरिकी झंडा दिख जाता है। पूछने पर एक अमेरिकी ने बताया कि बहुत लंबी लड़ाई के बाद आज़ादी मिली। ये उसी की पहचान है। ये एहसास होता रहता है कि आजादी बहुत कीमती है, देश सबसे पहले है इसीलिए हर जगह झंडा लगाने का भाव अंदर से आता है। न्यूयॉर्क के सैंट्रल पार्क में मैंने देखा कि एक छोटा सा अमेरिकी झंडा जमीन पर गिरा हुआ था। एक व्यक्ति आया। उसने उसे उठा कर हाथों से साफ किया। अपनी टोपी पर लगाया और चल दिया।

 
4. स्कूली शिक्षा- प्रतीक ने बताया कि उनकी बेटियां प्रथा और प्रिशा नजदीक के स्कूलों में पढ़ती हैं। साप्ताहिक अवकाश में होम वर्क नहीं होता। सरकारी स्कूलों में कोई फीस नहीं है। स्कूल चाहे घऱ के पास हो मगर बीच में एक व्यस्त सड़क होने के कारण प्रथा के लिए घर पर ही स्कूल बस आती है। बड़ी कक्षाओं में अधिकतर पढ़ाई कंप्यूटर से है। बच्चों पर पढ़ाई का या फिर उम्मीदों का बोझ नहीं डाला जाता। बच्चों के लिए खेलने का पर्याप्त समय है। स्कूल में अंग्रेजी में पढ़ाई तो घर पर हिंदी या गुजराती बोलने का पूरा अवसर। आप कल्पना कर सकते हैं जिन बच्चों को शुरु से ही तीन-तीन भाषाओं में पारंगत होने का मौका मिलें, आगे जाकर उनका मानसिक विकास और ज्ञान अन्य बच्चों की तुलना में स्वाभाविक रूप से अधिक होगा।


5. होम लोन- अमेरिका में होम लोन पर ब्याज दर अधिकतम चार फीसदी के करीब है और वो भी तीस साल के लोन पर। दस साल के लिए मकान पर कर्ज तीन फीसदी तक मिल सकता है। पूछने पर पता चला कि लीमैन ब्रदर्स संकट के चलते अमेरिकी अर्थव्यवस्था लड़खड़ाने से पहले तो होम लोन पर ब्याज दर न के बराबर थी। इसी संकट से सबक लेते हुए ब्याज दरों में इजाफा हुआ मगर अब भी पहुंच के भीतर ही है। सबके सिर पर छत वहां भी नहीं है। मगर जिसकी क्षमता हो, उसे इन कम ब्याज दरों से अपना घर लेने में मदद जरूर मिलती है।

Monday, October 27, 2014

पहला पत्थर वो मारे...

मैं उन चार सौ ज़्यादा पत्रकारों में शामिल हूं जो 25 अक्तूबर को दिल्ली के 9 अशोक रोड पर बीजेपी अध्यक्ष अमित शाह के दीवाली मिलन कार्यक्रम में मौजूद थे। किसी बीजेपी नेता के बुलावे पर इस तरह के कार्यक्रम में उपस्थित रहने का ये पहला मौका नहीं था। लाल कृष्ण आडवाणी के घर होली पर, मुरली मनोहर जोशी के घर दीवाली पर, शाहनवाज़ हुसैन के घर ईद पर पत्रकारों के इस तरह के जमावड़े लगते रहे हैं। लेकिन इस बार फर्क ये था कि ये कार्यक्रम बीजेपी की सरकार बनने के बाद हो रहा था और इसमें प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भी आए।

दरअसल, 15 अक्तूबर को जब महाराष्ट्र और हरियाणा विधानसभा चुनावों के लिए मतदान चल रहा था उसी दौरान पार्टी अध्यक्ष अमित शाह ने अनौपचारिक रूप से बीजेपी कवर करने वाले तमाम संवाददाताओं से मुलाकात की। तब कई संवाददाताओं ने शाह से कहा कि जब से मोदी प्रधानमंत्री बने हैं, उनसे मुलाकात नहीं हो पाई है। न ही संवाद का कोई सिलसिला कायम हो पाया है। इस पर शाह ने वादा किया कि बहुत जल्दी ही मोदी पत्रकारों से मिलेंगे।

25 अक्तूबर के दीवाली मिलन के लिए पाँच सौ से ज्यादा संपादकों और संवाददातोँ को न्योता भेजा गया था। प्रधानमंत्री आए और पहले मंच से दस मिनट का भाषण दिया। इस पूरे कार्यक्रम का प्रसारण दूरदर्शन मल्टी कैमरा सेटअप के साथ कर रहा था। बाद में मंच से नीचे उतर कर सभी संपादकों और संवाददाताओं से मिलने लगे। इसी दौरान कुछ पत्रकारों ने उनके साथ सेल्फी ली। दूरदर्शन ने ये तस्वीरें लाइव दिखाईं और कई पत्रकारों ने फेसबुक और ट्विटर जैसे सोशल मीडिया पर मोदी के साथ अपनी सेल्फी डाल दी। इसके बाद सोशल मीडिया पर हंगामा हो गया। कई लोगों ने, जिनमें अधिकांश पत्रकार ही हैं, सेल्फी खींचने पर अपने साथियों की आलोचना की और सवाल उठाया कि आखिर असाइनमेंट पर मौजूद पत्रकार आखिर इस तरह किसी नेता के साथ फोटो कैसे खिंचवा सकते हैं। कुछ पत्रकारों ने ये कह कर भी आलोचना की कि किसी भी संपादक या संवाददाता ने मोदी से कोई सवाल नहीं पूछा और दीवाली मिलन से कोई खबर नहीं बनी।

मेरी व्यक्तिगत राय में कुछ संपादकों और संवाददाताओं का प्रधानमंत्री मोदी के साथ इस तरह एक-दूसरे पर गिरते-पड़ते सेल्फी खींचना पत्रकारिता के मापदंडों पर खरा नहीं उतरता। लेकिन इसे मैं तात्कालिक उत्साह का परिणाम मानकर खारिज करने के पक्ष में हूं। इसे बहाना बना कर सारे पत्रकारों पर निशाना साधना और उनकी व्यावसायिक प्रतिबद्धता पर उंगली उठाना ठीक नहीं है।

सोशल मीडिया के दौर में आज हर कोई फेसबुक-ट्विटर पर है। मैंने हाल की अपनी अमेरिका यात्रा पर पचासों सेल्फियां लीं और उन्हें सोशल मीडिया पर डाल दिया। जहां तक सवाल प्रधानमंत्री या किसी बड़ी शख्सियत के साथ फोटो खिंचवाने का है, इस मामले में मैं पत्रकारिता के पुराने स्कूल का छात्र हूं, जहां इसे ठीक नहीं माना जाता है और इसीलिए मैंने मोदी के साथ सेल्फी नहीं ली। मगर कई बड़े पत्रकारों की किताबों में जवाहर लाल नेहरु से लेकर लाल बहादुर शास्त्री और इंदिरा गांधी से लेकर राजीव गांधी तक तमाम प्रधानमंत्रियों के साथ उनके फोटो शान से दिखाए जाते हैं। सोशल मीडिया पर ही कई वरिष्ठ पत्रकार अपने पुराने दिनों की याद ताजा करते हुए उन मशहूर लोगों के साथ की अपनी तस्वीरें साझा करते हैं जिनसे वो कभी मिले होंगे।

आलोचना का दूसरा हिस्सा मोदी से सवाल न पूछने को लेकर है। ये जानते हुए भी कि ये कोई प्रेस कांफ्रेंस नहीं थी, कई संपादक और संवाददाताओं ने महत्वपूर्ण विषयों को लेकर मोदी से उस वक्त बातचीत की जब वो मंच से नीचे उतर कर उनसे मिलने आए। इसमें सरकार की नीतियां या आने वाले संसद सत्र के बारे में सवाल थे। मोदी ने हंस कर तमाम सवाल टाल दिए।

महत्वपूर्ण नेताओं के साथ इस तरह की अनौपचारिक मुलाकातें पत्रकारों के लिए कोई नई बात नहीं है। कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी के साथ भी संपादकों और पत्रकारों की इस तरह की भेंट होती रही है। पर वहां शायद सुरक्षा कारणों से मोबाइल ले जाने की अनुमति न होने से सेल्फी न खिंच पाई हो। कांग्रेस के मीडिया सेल की कमान संभालने के बाद वीरप्पा मोइली ने जब पत्रकारों को आमंत्रित किया तो वहां राहुल गांधी अचानक पहुंच गए थे। उन्हें अपने बीच पाकर कुछ पत्रकारों में गिरने-पड़ने की वैसी ही होड़ लगी थी जैसी मोदी को अपने बीच पाकर कुछ पत्रकारों में दिखी।


पत्रकारिता में नैतिकता को लेकर बहस पुरानी है। सरकारी खर्च पर विदेश यात्रा कर सरकार का भोंपू बनना, सरकारी घरों में रहना, विचारधारा या किसी अन्य फायदे की उम्मीद के चलते किसी पार्टी या नेता के नजदीक आना और टेलीविजन स्टुडियो में उसका अघोषित प्रवक्ता बनना, पत्रकारिता में ऐसी तमाम खामियां हैं जो मेरी नजर में शायद किसी नेता के साथ फोटो खिंचवाने से ज्यादा गंभीर और बड़ी हैं। पर ये अच्छी बात है कि सेल्फी कांड के बाद इन तमाम विषयों पर एक सार्थक बहस शुरु हुई है।

Thursday, October 23, 2014

How the BJP triumphed in Haryana


The real big story from the just concluded elections has emerged from Haryana, the state adjacent to Delhi, where the BJP crafted a winning electoral strategy on its own steam despite lacking a solid organisational base or a long-standing network. However, this story got overshadowed in the media due to the intense speculation over the developments in Maharashtra as a result of the peculiarly fractured mandate there. And yet the BJP’S triumph in Haryana is highly instructive as it reveals the various facets of the meticulous poll planning and management by the party’s new President, Amit Shah.

Shah had realised that the BJP had earlier made an unduly generous pact with Kuldeep Bishnoi of the HJP in the parliamentary elections by giving them more than their real strength. So, after taking over the reins of the party, Shah held fresh talks with Bishnoi and offered him 20 seats, instead of the 45 he had asked for, and the deputy chief ministership. Bishnoi rejected the offer and the BJP decided to go it alone.

But, the BJP neither had enough candidates, nor adequate organisational structure and workers to contest all the 90 seats. So, the party imported disgruntled leaders from other parties like the Congress and the INLD overnight and handed them tickets. How substantial is the clout of these outsiders can be gauged from the fact that of the 47 winning candidates of the BJP 17 have come from other parties. 

In a way, it was the same with the army of workers who, though belonging to the party, were brought in from other states. The election in-charge for the state was Kailash Vijayavargiya, a minister in the Madhya Pradesh government, and he had been accompanied by a large number of workers and leaders from there. Apart from Madhya Pradesh, MPs and MLAs from Punjab, Uttarakhand, Himachal Prasesh and Uttar Pradesh were also posted in the state. In-charge personnel as well as workers for each of the 90 seats were appointed in all the 22 district of the state and daily reports were obtained from them. The local in-charge from Haryana, Dr. Anil Jain was getting daily campaign reports from every seat in the evening and keeping the party high command informed of the day to day situation on the ground. A month and a half before the election, a fulltime in-charge had been appointed for every seat. The RSS had activated its swayamsewaks and given them the responsibility of mobilising workers for every booth. On the polling day, separate arrangements were made to bring voters to the booths.

The responsibility for overseeing the campaign efforts in the Dalit majority areas was entrusted to Dushyant Gautam of the Anusuchit Jati Morcha and other leaders. Every section of the Dalits was given special attention. For example, separate parleys were held with the two factions of the Jatavs to muster support for the party. Similarly, initiatives were undertaken to win over voters from other Dalit sections like the Valmikis, Khattiks, Dhaniks etc.  and the progress made was reviewed daily. Being mindful of the traditional animosity between the Jats and the Dalits every possible effort was made to ensure that the wooing of Dalits should not alienate Jats from the party. For instance a controversial Dalit leader who wanted to have his rally in a Jat-dominated areas was persuaded to hold it in the urban area adjoining Delhi.

Another challenge was to prevent the polarisation of Jat votes in favour of Om Prakash Chautala. It was to that end that the BJP gave 25 tickets to Jat candidates. The party strategists were well aware that the BJP’s image being that of catering to non-Jat castes in the state could drive the Jats away from it. To balance that impression, it gave a ticket to the wife of Chaudhary Virendra Singh, a powerful Jat leader imported from the Congress. Also, prominent roles were assigned to Chaudhary Virendra Singh, Captain Abhimanyu and Om Prakash Dhankad for campaigning in the Jat areas. The BJP’s intention was that its Jat candidates should win their seats on the basis of their own clout among the Jats so as to cut into the influence of Om Prakash Chautala who should not be the sole beneficiary of the caste loyalties. And the party did manage to breach the Jat vote bank to some extent. Six of its Jat candidates won the election. The party paid particular attention to the Jat youths because it realised that the Prime Minister Narendra Modi was very popular among them and this sympathy could be exploited in its favour.

All the same, the BJP was extremely cautious that this attempt to win favour with the Jats should not upset and alienate its core vote bank of the non-Jats in the state. In the last leg of the campaign when there were some reports in the media about Captain Abhimanyu becoming the likely chief minister, the party was quick to contradict this impression in order to prevent any unfavourable reaction from the non-Jat voters.  The party threw all its weight behind its 48 non-Jat candidates to ensure their success.
In order to get the support of the Dalits and non-Jats, the BJP sought the help of various sects, Deras and Babas that are quite popular among these sections in Haryana. The party identified the religious leaders having considerable influence in several areas. The Dera Sachcha Sauda’s last minute appeal in favour of the BJP drew considerable media attention, but the party also had many other religious gurus issue such appeals. The Dera Sachcha Sauda does have considerable following among the Dalits and the backward classes. However, it is a matter of analysis as to how much impact its appeal had in the BJP’s favour.

According to the BJP leaders it won only one seat of Tohana in the Sirsa region of the Dera’s influence. But the party could not win the seats of Dabwali, Kalawali and Rathia. Similarly, the Dera also has influence in Hisar but the BJP did not win there. Of the 17 reserved seats in the state, the BJP won only 9 and most of them are in the areas along the GT-Karnal road.

The attention given to the non-Jat votes paid off handsomely. Of the 47 newly elected party MLAs, 8 are Punjabis, 7 Vaishyas, 6 Yadavs, 4 Brahmins, 2 Sainis, 1 Sikh and 1 Roth. That is why the party wanted to make a non-Jat the chief minister. According to the BJP sources, it is evident that the non-Jat votes have been completely polarised in favour of the party, hence they cannot be ignored.

The party extensively used Video Raths for campaigning. It employed 90 such raths in the field, i.e. one for each seat. These raths equipped with GPS showed the PM Narendra Modi’s speeches and appeals to the voters. CDs of Modi’s address at the Madison Square Garden were distributed for use in the campaign. Prime time slots were purchased on local news channels to propagate the party’s message. According to strategists, the powerful impact the Prime Minister made in America and presented India as a rising power won a lot of support among the youth for the BJP.

The final weapon in the BJP’s armoury was to identify those weak seats where the margin of victory or defeat was going to be less than five thousand votes according to its assessment. The party made special preparations for these seats. The workers were given specific instructions to ensure that at least five thousand additional votes were cast in favour of its candidates. For this the responsibility was given to the workers in-charge of the pages of the voter list. One specific worker was assigned for every page and he was responsible to contact all the voters on that page, get them to the polling booths and have them cast their vote in BJP’s favour. These page in-charge people had the mobile number of the head of each family whom he could contact. 

Apart from keeping a close eye on the activities of the rival parties, their campaign and rallies, the BJP also paid heed to the Satta markets. Every evening information was gathered on the betting rates for different parties, the number of seats they were likely to win or the fortunes of individual candidates in the Satta markets operating in different cities. These reports were also being forwarded to the top leadership.


Many of these strategies have been employed by the adversaries of the BJP. But it can’t be denied that the BJP reaped rich dividends from the anti-incumbency atmosphere prevailing in the state. The voters were keenly looking for an alternative to the ten years’ rule of the Congress. By exploiting Narendra Modi’s popularity to the maximum the BJP tried to win the voters over and was successful to a huge extent in its attempt. It is this style of election management used by Amit Shah that gives considerable scope to decentralisation. It includes astute distribution of work among the leaders and the workers and keep track of its implementation, like the functional style of the CEO of a big company. Whether it is Narendra Modi or Amit Shah, both are used to functioning this way in Gujarat, and it is now being followed in other states as well.  

Tuesday, October 21, 2014

बीजेपी ने कैसे जीता हरियाणा?

दिल्ली से सटे हरियाणा में बीजेपी की अपने दम पर जीत इस विधानसभा चुनाव की बहुत बड़ी खबर है। महाराष्ट्र में बीजेपी के बहुमत से दूर रह जाने और सरकार को लेकर चल रही अटकलों में हरियाणा में बीजेपी की जीत की ये कहानी मीडिया की नजरों में नहीं आ सकी। लेकिन इस कहानी के कई महत्वपूर्ण पहलू हैं जो बीजेपी के नए अध्यक्ष अमित शाह के चुनाव प्रबंधन को बताते हैं।

शाह को ये एहसास था कि बीजेपी ने विश्नोई के साथ गैर बराबरी का समझौता किया और उन्हें उनकी हैसियत से ज़्यादा दे दिया। पार्टी की कमान संभालने के बाद उन्होंने विश्नोई से नए सिरे से बात की और 45 की जगह 20 सीटें और उपमुख्यमंत्री पद की पेशकश की। जिसे विश्नोई ने ठुकरा दिया और बीजेपी ने अकेले चुनाव लड़ने का फैसला किया।

लेकिन बीजेपी के पास सभी 90 सीटों पर चुनाव लड़ने के लिए न तो पर्याप्त संख्या में कार्यकर्ता थे और न ही संगठन और न ही उम्मीदवार। पार्टी ने बाहर से उम्मीदवार लिए। लोक सभा चुनाव की ही तरह कांग्रेस, इंडियन नेशनल लोकदल जैसी विरोधी पार्टियों से नेताओं को रातों-रात लाकर टिकट थमा दिया गया। बीजेपी पर बाहरी उम्मीदवारों का दबदबा किस कदर है इसका अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि पार्टी के 47 विधायकों में से 17 दूसरी पार्टियों से आए हैं।

यही हाल कार्यकर्ताओं का रहा। बीजेपी ने अन्य राज्यों से हरियाणा में अपने कार्यकर्ताओं की फौज तैनात कर दी। राज्य के चुनाव प्रभारी मध्य प्रदेश सरकार में मंत्री कैलाश विजयवर्गीय बनाए गए थे और वहां से बड़ी संख्या में कार्यकर्ता हरियाणा आए। मध्य प्रदेश के अलावा पंजाब, उत्तराखंड, हिमाचल और उत्तर प्रदेश जैसे राज्यों से भी सांसदों और विधायकों की तैनाती की गई। 90 सीटों और 22 ज़िलों में प्रभारी से लेकर कार्यकर्ता तक की तैनाती कर उनसे हर रोज अभियान की रिपोर्ट ली जाने लगी। हरियाणा के ही प्रभारी डॉक्टर अनिल जैन हर शाम को सीट वार रिपोर्ट ले कर पार्टी आलाकमान को सूचित कर रहे थे। डेढ़ महीने पहले से ही हर सीट पर एक-एक फुलटाइमर की नियुक्ति कर दी गई थी। आरएसएस के स्वयंसेवकों को सक्रिय कर बूथ पर कार्यकर्ताओं की फौज जुटाने का जिम्मा सौंप दिया गया था। मतदान के दिन अपने वोटरों को लाने के लिए अलग से व्यवस्था की गई।

दलित बहुल इलाकों में काम करने का जिम्मा पार्टी के अनुसूचित जाति मोर्चे के दुष्यंत गौतम और अन्य नेताओं को दिया गया। दलितों के हर तबके पर अलग से ध्यान दिया गया। मिसाल के तौर पर जाटवों के दो अलग गुटों से अलग-अलग तरह से बात कर बीजेपी के लिए समर्थन जुटाया गया। वाल्मिकी, खटीक, धनिक सब वर्गों के मतदाताओं को साथ लेने के लिए पहल की गई और हर दिन की प्रगति की समीक्षा की गई। जाटों और दलितों में परंपरागत अनबन को देखते हुए पूरी कोशिश की गई कि दलित वोट को साधने में कहीं जाट नाराज़ न हो जाएं। एक विवादास्पद दलित नेता जो अपनी एक सभा जाट बहुल इलाके में करना चाहते थे, उन्हें दिल्ली से सटे शहरी इलाके में अपना कार्यक्रम करने के लिए मनाया गया।

दूसरी चुनौती थी जाट वोटों के ओम प्रकाश चौटाला के समर्थन में ध्रुवीकरण को रोकने की। पार्टी ने इसके लिए 25 जाट उम्मीदवारों को टिकट दिया। बीजेपी के रणनीतिकारों को ये एहसास था कि पार्टी की छवि गैर जाट जातियों के समर्थक के तौर पर होने के वजह से जाट मतदाता छिटक सकते हैं। कांग्रेस से लाए गए चौधरी वीरेंद्र सिंह जैसे ताकतवर जाट नेता की पत्नी को टिकट दिया गया। प्रचार में चौधरी वीरेंद्र सिंह, कैप्टन अभिमन्यु और ओमप्रकाश धनकड़ को लगाया गया। बीजेपी की कोशिश थी कि ताकतवर जाट उम्मीदवार अपने बूते पर सीट निकालें ताकि चौटाला को नुकसान पहुंचाया जा सके और जाट वोट चौटाला के पक्ष में लामबंद न हो सके। जाट वोटों में पार्टी ने कुछ हद तक सेंध भी लगाई। पार्टी के छह जाट उम्मीदवार चुनाव जीते। जाट युवाओं की ओर खास तौर से ध्यान दिया गया। पार्टी को एहसास था कि युवाओं में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी बहुत लोक प्रिय हैं और इसका इस्तेमाल अपने पक्ष में हो सकता है।

लेकिन पार्टी ने ये ध्यान रखा कि जाटों को साथ लेने के प्रयास में कहीं उसका कोर वोट बैंक यानी गैर जाट छिटक न जाए। प्रचार के अंतिम चरण जब सूत्रों के हवाले से कैप्टन अभिमन्यु को मुख्यमंत्री बनाने की खबरें चलने लगीं तो गैर जाट मतदाताओं में इसकी विपरीत प्रतिक्रिया रोकने के लिए पार्टी ने खंडन करने में देर नहीं लगाई। 48 गैर जाट उम्मीदवारों को जिताने में पार्टी ने पूरी ताकत झोंक दी।

दलितों और गैर जाटों को साथ लेने के लिए बीजेपी ने हरियाणा में मशहूर अलग-अलग पंथों, डेरों और बाबाओं की भी मदद ली। बीजेपी ने उन धर्म गुरुओं की पहचान की जिनका कई इलाकों में असर था। डेरा सच्चा सौदा की ओर से आखिरी वक्त पर बीजेपी के पक्ष में जारी की गई अपील ने मीडिया का ध्यान खींचा लेकिन पार्टी ने इसके अलावा भी कई अन्य गुरुओं से अपील जारी करवाई। डेरा सच्चा सौदा का दलितों और पिछड़े वर्ग में खासा असर है। हालांकि ये विश्लेषण का विषय है कि बीजेपी को इससे वाकई कितना फायदा हुआ।

बीजेपी नेताओं के मुताबिक डेरे के असर वाले सिरसा में बीजेपी को सिर्फ एक सीट टोहाना में जीत मिली। डबवाली, कलावली और रठिया में जीत हासिल नहीं हुई। हिसार में भी प्रभाव है लेकिन वहां बीजेपी नहीं जीत पाई। राज्य की 17 आरक्षित सीटों में बीजेपी को 9 सीटों पर जीत मिली और वो भी अधिकांश जीटी-करनाल रोड के इलाके पर।

गैर जाट वोटों पर ध्यान बनाए रखने को बीजेपी को जबर्दस्त फायदा मिला। पार्टी के 47 विधायकों में 8 पंजाबी, 7 वैश्य, 6 यादव, 4 ब्राह्मण, 2 सैनी, एक सिख और एक रोड है। पार्टी इसीलिए गैर जाट से मुख्यमंत्री बनाना चाहती है। बीजेपी के मुताबिक चुनाव परिणामों से स्पष्ट है कि गैर जाट वोटों का बीजेपी के पक्ष में पूरी तरह से ध्रुवीकरण हुआ और इसीलिए इस वर्ग की उपेक्षा नहीं की जा सकती।

पार्टी ने प्रचार के लिए वीडियो रथ का इस्तेमाल किया। 90 वीडियो रथों को मैदान में उतार दिया गया यानी हर सीट पर एक। जीपीएस से तैनात इन रथों में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के भाषणों और अपीलों को दिखाया गया। न्यूयॉर्क के मेडिसन स्क्वेयर गार्डन पर दिए गए प्रधानमंत्री मोदी के भाषणों की सीडी बनवा कर बांटी गई। स्थानीय न्यूज चैनलों पर स्लॉट खरीद कर प्राइम टाइम पर दिखाया गया। रणनीतिकारों के मुताबिक मोदी ने जिस तरह अमेरिका की धरती पर मजबूती के साथ अपना पक्ष रखा और भारत को एक मजबूत ताकत के रूप में पेश किया, उससे युवाओं में बीजेपी को खूब समर्थन मिला।

बीजेपी के तरकश का ब्रह्मास्त्र था उन कमजोर सीटों की पहचान जहां उसके आकलन के मुताबिक हार-जीत का अंतर पांच हजार वोटों के भीतर रहने वाला था। बीजेपी ने ऐसी सीटों के लिए खास तैयारियां की। कार्यकर्ताओं को विशेष निर्देश दिए गए कि किस तरह से मतदान के दिन कम से कम पांच हजार वोट बीजेपी के पक्ष में डलवाए जाएं। इसकी जिम्मेदारी पन्ना प्रमुखों पर थी। यानी मतदाता सूची के हर पन्ने के लिए एक कार्यकर्ता जिम्मेदार जिसका काम था उस पन्ने पर जितने मतदाताओं के नाम थे उनसे संपर्क कर उन्हें मतदान केंद्रों तक लाना और उनसे वोट डलवाना। इन पन्ना प्रमुखों के पास हर परिवार के मुखिया का मोबाइल नंबर था जिससे वो संपर्क में रह सकें।

विरोधी पार्टियों की गतिविधियों, प्रचार और रैलियों आदि की जानकारियां जुटाने के अलावा बीजेपी ने सट्टा बाज़ार पर भी नजर रखी। पार्टी हर शाम को राज्य के अलग-अलग शहरों में चलने वाले सट्टा बाज़ार में किसी पार्टी को कितनी सीटें मिलने या किस उम्मीदवार की जीत या हार का क्या भाव है, इसकी भी जानकारी जुटा रही थी। इसकी रिपोर्ट भी हर रोज ऊपर तक भेजी जा रही थी।

इनमें से कई बातें ऐसी भी हैं जो बीजेपी की विरोधी पार्टियां भी इस्तेमाल करती आ रही हैं। लेकिन पार्टी को राज्य में बने कांग्रेस विरोधी माहौल का खूब फायदा मिला। कांग्रेस के दस साल के शासन के बाद मतदाता विकल्प ढूंढ रहे थे। बीजेपी ने मोदी की लोकप्रियता को आगे कर उन्हें अपनी ओर करने की कोशिश की जो काफी हद तक कामयाब रही। चुनावी प्रबंधन की ये अमित शाह की शैली ही है जिसमें काफी हद तक विकेंद्रीकरण की गुंजाइश होती है। इसमें नेताओं और कार्यकर्ताओं में काम बांट कर उसके क्रियान्वयन पर निगरानी रखना, किसी बड़ी कंपनी के सीईओ की शैली ही लगती है। मगर चाहे मोदी हों या फिर शाह दोनों ही गुजरात में इस तरह की शैली से काम करने के अभ्यस्त हो गए हैं जिसे अब दूसरे राज्यों में भी आज़माया जा रहा है।


Thursday, October 16, 2014

शाह की अगुवाई में नई बीजेपी


दिल्ली के जवाहरलाल नेहरु स्टेडियम में नौ अगस्त को राष्ट्रीय परिषद की बैठक में अपने अध्यक्षीय भाषण में बीजेपी अध्यक्ष अमित शाह ने महाराष्ट्र और हरियाणा चुनावों को लेकर पार्टी की रणनीति का संकेत दे दिया था। लेकिन तब अधिकांश राजनीतिक विश्लेषक इसे पकड़ पाने में नाकाम रहे। अगर शिवसेना तब शाह के शब्दों को गौर से सुन रही होती तो शायद वो सीटों के बंटवारे को लेकर बीजेपी के साथ न तो इस तरह उलझी होती और न ही गठबंधन टूटने की नौबत आती।

शाह ने अपने भाषण में चार राज्यों के विधानसभा चुनावों के संदर्भ में कहा था कि इन सभी राज्यों में सरकार बनाने का बीड़ा पार्टी को उठाना होगा। लेकिन शाह सिर्फ यहीं नहीं रुके। सुराज्य देने के बारे में उन्होंने एक महत्वपूर्ण बात कही। उन्होंने कहा भाजपा कार्यकर्ता के नाते सभी देशवासियों को सुराज्य देना हमारा परम कर्तव्य है। मगर इस कर्तव्य का पालन तभी हो पाएगा जब कश्मीर से कन्याकुमारी और कच्छ से कोहिमा तक हर प्रदेश में भाजपा या भाजपा के नेतृत्व वाली सरकारें होंगी।

जरा शब्दों पर गौर फरमायें। शाह साफ कह रहे थे कि या तो भाजपा की सरकार हो या फिर भाजपा की अगुवाई वाली सरकार। यानी अगर गठबंधन की सरकार भी बनी तो उसकी अगुवाई भाजपा ही करेगी। ये केंद्र में अपने बूते पर बहुमत हासिल करने वाली पार्टी का अध्यक्ष अपने कार्यकर्ताओं के लिए एक बड़ा लक्ष्य तय कर रहा है। वो साफ कह रहे हैं कि केंद्र में सबसे बड़ी पार्टी अब राज्यों में छोटे और क्षेत्रीय दलों की पिछलग्गू नहीं बनी रहेगी। वो अपनी ताकत के हिसाब से हक मांगेगी। एक जाति, क्षेत्र, भाषा या धर्म की राजनीति करने वाली, वंशवाद पर चलने वाली क्षेत्रीय पार्टियों के सामने बीजेपी अब नए अवतार में आएगी।

और ऐसा ही हुआ। महाराष्ट्र में लोक सभा चुनावों में अपने हिस्से को कम कर शिवसेना और सहयोगी दलों को ज्यादा सीटें देने वाली बीजेपी ने शिवसेना को इस बार याद दिलाया कि राज्य में उसका आधार मजबूत हुआ है। लंबी बातचीत के बाद आखिरकार बीजेपी ने शिवसेना के सामने 147-127-14 का फार्मूला रखा। गौरतलब है कि बीजेपी ने पिछले विधानसभा चुनाव में 119 सीटों पर चुनाव लड़ा था। पार्टी सिर्फ 8 सीटें अधिक चाहती थी और वो ये भी चाहती थी कि शिवसेना सहयोगी दलों को अपने कोटे से 14 सीटें दे ठीक वैसे ही जैसे बीजेपी ने लोक सभा चुनाव में सीटों का अपना हिस्सा कम करे। लेकिन उद्धव 151 से नीचे जाने के लिए किसी सूरत में तैयार नहीं हुए। यानी ये कहा जा सकता है कि चार सीटों के लिए शिवसेना और आठ सीटों के लिए बीजेपी ने ये गठबंधन तोड़ दिया। मगर असली पेंच मुख्यमंत्री पद को लेकर ही रहा क्योंकि शिवसेना को लगता था कि कम सीटों पर लड़ने के बावजूद बीजेपी उससे ज्यादा सीटें जीत कर मुख्यमंत्री पद पर दावेदारी कर सकती है।

हरियाणा की कहानी तो और भी दिलचस्प है। गैर जाट वोटों की किलाबंदी करने के लिए बीजेपी ने कुछ साल पहले कुलदीप विश्नोई के साथ विचित्र समझौता किया। सिर्फ एक सांसद वाली एक छोटी क्षेत्रीय पार्टी के साथ लोक सभा- विधानसभा चुनाव के काफी पहले ही समझौता हो गया कि लोक सभा में बीजेपी 8 और हरियाणा जनहित कांग्रेस 2 सीटों पर लड़ेगी। जबकि विधानसभा में दोनों 45-45 सीटों पर चुनाव लड़ेंगी और ढ़ाई-ढ़ाई साल के लिए दोनों पार्टियों का मुख्यमंत्री होगा। तब भी कई लोगों को लगा कि बीजेपी ने विश्नोई को उनकी ताकत से ज्यादा दे दिया। लेकिन लोक सभा चुनाव में आए नतीजों ने इसकी पुष्टि की जब बीजेपी ने 8 में से सात सीटें जीत लीं। मगर मोदी लहर के बावजूद विश्नोई की पार्टी दोनों सीटें हार गई।
इसके बावजूद बीजेपी ने गैर जाट वोटों के बिखराव को रोकने के लिए विश्नोई के सामने 20 विधानसभा सीटों की पेशकश की। पार्टी ने ये भी कहा कि उप मुख्यमंत्री का पद हरियाणा जनहित कांग्रेस को दिया जा सकता है। लेकिन विश्नोई इसके लिए तैयार नहीं हुए। नतीजे तो रविवार को आएंगे। मगर एक्ज़िट पोल विश्नोई की पार्टी को लेकर बहुत अच्छी तस्वीर नहीं दे रहे हैं। उन्हें शून्य से लेकर पाँच सीटें मिलने की संभावना जताई जा रही है। यानी जो पार्टी अपने बूते पर हरियाणा में पाँच सीट भी नहीं जा पा रही है उसे पता नहीं क्या सोच कर 45 सीटें देने का करार कर लिया गया था।

यही अमित शाह की बीजेपी है। उत्तराखंड, बिहार और उसके बाद उत्तर प्रदेश के उपचुनावों में हुई हार को भुला कर हरियाणा और महाराष्ट्र के नतीजों का इंतज़ार कर रही इस बीजेपी को भरोसा है कि रविवार के बाद से इस नई बीजेपी की रफ्तार और तेज होगी। ये जरूर है कि पश्चिम बंगाल, तमिलनाडु, ओडीशा जैसे राज्यों में शायद बीजेपी या बीजेपी के नेतृत्व की सरकार बनाने का उनका लक्ष्य असंभव लगता है। मगर हरियाणा और महाराष्ट्र में अगर बीजेपी अपने बूते सरकार बनाने में कामयाब होती है तो झारखंड और जम्मू-कश्मीर के चुनावों में पार्टी नए हौंसले के साथ मैदान में उतरेगी। और बाद में होने वाले बिहार, उत्तर प्रदेश जैसे राज्यों के लिए उसे नई ऊर्जा और ताकत मिलेगी। पार्टी का लक्ष्य कांग्रेस मुक्त राज्य सभा है। सरल भाषा में कहे तो वो चाहती है कि राज्य सभा में उसे खुद बहुमत मिले ताकि अगले लोक सभा चुनाव से पहले अपने हिसाब से संसद में कानून बनवा सके। इसके लिए भी राज्यों की लड़ाई जीतना उसके लिए जरूरी है। शाह इसी दिशा में काम कर रहे हैं।


Wednesday, October 01, 2014

मोदी की अमेरिका यात्रा के मायने


हम भारतीयों के लिए घर की मुर्गी दाल बराबर है। घरेलू प्रतिभाओं की कदर तभी होती है जब वो विदेश में अपना जलवा दिखाए या फिर विदेशी उसका लोहा माने। ओलंपिक में मेडल जीता खिलाड़ी, विदेशी फिल्म फेस्टीवल में नाम कमाई कोई फिल्म या परदेश में योग या आध्यात्म का झंडा फहराने वाला कोई योगी या साधु, भारत में उनका सम्मान बढ़ जाता है।

नेताओं के साथ बात उलट है। विदेश में उनका सम्मान इस बात से तय होता है कि भारत में उनकी क्या हैसियत है। ये अंतरराष्ट्रीय कूटनीति का नियम है। आज़ादी के आंदोलन के नायकों में से एक रहे जवाहर लाल नेहरू की अंतरराष्ट्रीय स्तर पर ख्याति पहले से ही थी। गुटनिरपेक्ष आंदोलन और पंचशील सिद्धांतों से वो एक अंतरराष्ट्रीय नेता के रूप में उभरे। इंदिरा गांधी और राजीव गांधी भी अलग-अलग कारणों से अंतरराष्ट्रीय मंचों पर लोकप्रिय रहे। उनके बाद अटल बिहारी वाजपेयी का नाम आता है जिन्हें अपनी उदार छवि, विदेशों में बसे भारतीयों और परमाणु परीक्षणों के चलते दुनिया भर में एक अलग पहचान मिली।

नरेंद्र मोदी का मामला थोड़ा अलग है। 2002 के गुजरात दंगों और उसके बाद उठे विवादों के चलते अंतरराष्ट्रीय मंचों पर उनका नाम बार-बार उछलता रहा। लेकिन उन्होंने गुजरात में निवेश बढ़ाने के लिए ग्लोबल समिट कर अपनी विवादास्पद छवि को बदलने की कोशिश की। अमेरिका और योरोप के कुछ देशों को छोड़ ज़्यादातर मुल्कों ने उनके साथ छुआछुत का रवैया खत्म कर दिया। जब लगा कि वो प्रधानमंत्री बन सकते हैं तो योरोप के बचे-खुचे देशों में भी उनसे हाथ मिलाने की होड़ लग गई। लेकिन गुजरात दंगों की वजह से 2005 से ही उन्हें वीजा न देने वाला अमेरिका दूर ही खड़ा रहा।

मोदी के संदर्भ में अमेरिका ने अपना रवैया ऐन वक्त पर बदला। चुनाव के दौरान जब ये एहसास हुआ कि मोदी की लोकप्रियता उनके विरोधियों से बहुत ज़्यादा है तब दोस्ती का हाथ बढ़ाया। मोदी के प्रति असहिष्णु रवैया रखने वाली राजदूत को अचानक हटा दिया। जीतने के बाद राष्ट्रपति ओबामा ने दो बार फोन किया। जब ये तय हो गया कि वो अमेरिका आएंगे तब दो वरिष्ठ मंत्रियों ने उनसे दिल्ली जाकर मुलाकात की।

इसीलिए मोदी के अमेरिकी दौरे का जहां उनके अपने लिए व्यक्तिगत तौर पर महत्व था, वहीं अमेरिका ने भी इस मौके का इस्तेमाल रिश्तों की खटास को दूर करने और उनके साथ नई समझ को विकसित करने के लिए किया। अमूमन संयुक्त राष्ट्र आम सभा के संबोधन के लिए आने वाले राष्ट्र प्रमुखों के साथ राष्ट्रपति ओबामा की मुलाकात नहीं होती, लेकिन मोदी के लिए खासतौर से हाथ बढ़ाया गया।

मोदी से ओबामा ने दो बार मुलाकात की। दोनों बार उन्हें व्हाइट हाउस बुलाया गया। पहली बार डिनर पर और दूसरी बार प्रतिनिधि स्तर की बातचीत के लिए। अमेरिकी उपराष्ट्रपति ने उन्हें लंच दिया। मेडिसन स्केवयर गार्डन पर मोदी के साथ मंच पर अमेरिकी कांग्रेस के कई सदस्य और सेनेटर दिखाई दिए।

ये आपसी समझ बढ़ाने की कवायद है। दोनों को एक-दूसरे की जरूरत है। अमेरिका डब्ल्यूटीओ पर भारत के रुख से नाखुश है तो मोदी नहीं चाहते कि अफगानिस्तान को लेकर अमेरिका जल्दबाजी में कोई फैसला करे। बिगड़ी अर्थव्यवस्था पटरी पर लाने के लिए मोदी को अमेरिकी निवेश की दरकार है तो वहीं अमेरिका को अपने यहां रोजगार बढ़ाने के लिए भारत में नए मौकों की। लेन-देन के इस कूटनीतिक खेल में आपसी हिस्सेदारी, नए रिश्ते, सहयोग जैसे मोटे-मोटे शब्द उछाल दिए जाते हैं। मगर ये जरूर है कि मोदी के लिए जिस तरह से अमेरिकी प्रशासन ने लाल कालीन बिछाया है, इसके पीछे बड़ी वजह भारत में उन्हें मिला जनता का अपार समर्थन और अगले पांच साल के लिए देश के सामने रखा विकास का एजेंडा है जिसमें अमेरिका को अपने लिए भी कारोबार की कई गुंजाइशें दिखती हैं।




Friday, September 12, 2014

शीला की बात पर हंगामा क्यों


पंद्रह साल तक दिल्ली की गद्दी संभालने वाली पूर्व मुख्यमंत्री शीला दीक्षित ने कहा है कि अगर बीजेपी सरकार बनाने की स्थिति में पहुंच गई है तो उसे सरकार बना लेनी चाहिए। उन्होंने ये भी कहा है कि किसी भी दल का कोई विधायक चुनाव नहीं चाहता है। कांग्रेस के प्रवक्ता इस बयान से सदमे में चले गए और आम आदमी पार्टी ने आरोप लगाया कि बीजेपी और शीला मिले हुए हैं।

सवाल ये है कि इस पर हंगामा क्यों? कम से कम कांग्रेस और आम आदमी पार्टी तो इस बयान पर सवाल न ही उठाए तो बेहतर है। पिछले साल दिसंबर में नतीजे आने के बाद जब ये साफ हुआ कि किसी दल को बहुमत नहीं मिलेगा तब बीजेपी ने सबसे बड़े दल के रूप में उभरने के बावजूद सरकार नहीं बनाने का फैसला किया। तब आम आदमी पार्टी ने कांग्रेस के समर्थन से सरकार बनाई। ये कहते हुए कि दिल्ली की जनता से पूछ कर ही उसने ये फैसला किया है।

इस कथित जनमत सर्वेक्षण के बूते आम आदमी पार्टी ने उस कांग्रेस के साथ हाथ मिलाया जिसके बारे में आप प्रमुख अरविंद केजरीवाल ने चुनाव से पहले अपने बच्चों की कसम खा कर कहा था कि वो कभी कांग्रेस के साथ नहीं जाएंगे। सिर्फ 49 दिनों में उन्होंने सरकार से इस्तीफा दे दिया क्योंकि उन्हें ये गलतफहमी हो गई थी कि पूरा देश दिल्ली की तरह ही है और दिल्ली की ही तरह देश की जनता भी लोक सभा चुनाव में उन्हें हाथों-हाथ ले लेगी।

लोक सभा चुनाव में दिल्ली की सभी सातों सीटों पर बीजेपी ने बड़े अंतर से जीत हासिल की है। अगर इन्हें विधानसभा सीटों में देखा जाए तो बीजेपी ने दिल्ली की सत्तर में से 60 विधानसभा सीटों पर जीत हासिल की है। निश्चित तौर पर ये जनादेश आम आदमी पार्टी के उस कथित जनमत सर्वेक्षण से अधिक प्रामाणिक है जिसके आधार पर उसने कांग्रेस से हाथ मिला कर दिल्ली में सरकार बनाई थी। अगर बीजेपी इसे दिल्ली की जनता की इच्छा के रूप में पेश करे तो इस पर आपत्ति नहीं होनी चाहिए।

ये सही है कि बीजेपी चाहे सबसे बड़े दल के रूप में उभरी हो लेकिन वो बहुमत से दूर है। विधानसभा में वो बहुमत सभी साबित कर पाएगी जब कांग्रेस या आम आदमी पार्टी के कुछ विधायक उसे समर्थन दे। या फिर गैर हाजिर रह कर बीजेपी को अल्पमत की सरकार चलाने के लिए मौका दे। इसके पीछे जोड़-तोड़ या खरीद-फरोख्त के आरोप भी लगे हैं जिन्हें बेबुनियाद नहीं कहा जा सकता।

सवाल ये है कि अगर दिल्ली में विधानसभा चुनाव करा लिए जाए तो क्या गारंटी है कि किसी एक दल को बहुमत मिल ही जाएगा और जो नतीजे दिसंबर में आए वैसे ही दोबारा नहीं आएंगे। फर्ज करें अगर दोबारा त्रिशंकु विधानसभा बनती है तो क्या एक बार फिर राष्ट्रपति शासन की नौबत नहीं आएगी। दूसरा पक्ष विधायकों का है। शीला दीक्षित सही कहती हैं कि किसी भी पार्टी का कोई विधायक चुनाव नहीं चाहता है। आम आदमी पार्टी को भी अपने विधायकों से ईमानदारी से पूछना चाहिए कि वो क्या चाहते हैं। किसी विधायक के पास जनता के बीच जाकर दोबारा वोट मांगने का कोई नैतिक आधार नहीं है क्योंकि उसके पास दिखाने के लिए कोई काम नहीं है। कांग्रेस में भी चुनाव की मांग वही लोग कर रहे हैं जो विधानसभा का चुनाव हार गए और जिन्हें लगता है कि दोबारा चुनाव से शायद वो विधानसभा में पहुंच सकें।

सबसे बड़ी पार्टी अगर सरकार बनाती है तो ऐसा कोई पहली बार नहीं होगा। 1991 में कांग्रेस ने लोक सभा में सबसे बड़ी पार्टी के रूप में उभरने के बाद अल्प मत की सरकार चलाई और बाद में बहुमत का जुगाड़ किया। सबसे बड़ी पार्टी के रूप में उभरने के नाते ही 1996 में शंकर दयाल शर्मा ने अटल बिहारी वाजपेयी को सरकार बनाने का मौका दिया था। अगर उप राज्यपाल सबसे बड़े दल के नाते बीजेपी को सरकार बनाने के लिए मौका देना चाहते हैं तो इसमें कुछ भी असंवैधानिक नहीं है। शीला दीक्षित भी यही कह रही हैं। वही शीला दीक्षित जिनके बारे में कहा जाने लगा है कि दिल्ली के लोग उन्हें मिस करने लगे हैं।


Tuesday, July 08, 2014

क्या पूरी होगी कुशाभाऊ ठाकरे की तलाश?

पचास साल के अमित अनिलचंद्र शाह कल बीजेपी के नए अध्यक्ष बन जाएंगे। पार्टी मुख्यालय पर दोपहर बारह बजे संसदीय बोर्ड की बैठक में उनके नाम पर मुहर लग जाएगी। उसके कुछ ही देर बाद उनके नाम का औपचारिक एलान भी कर दिया जाएगा। इस महीने के अंत या अगले महीने की शुरुआत में शाह अपनी नई टीम भी घोषित कर देंगे जो ज़ाहिर है बेहद युवा होने जा रही है। ये एक बदली बीजेपी की तस्वीर होगी।

अमित शाह के नाम को हरी झंडी देते वक्त राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की सोच ये रही है कि पार्टी के सत्ता में आने के बाद संगठन कहीं ढीला न पड़ जाए इसलिए इसे गतिशील बनाए रखने के लिए एक सक्रिय अध्यक्ष चाहिए। अमित शाह इस रोल में बिल्कुल फिट बैठते हैं क्योंकि सिर्फ नौ महीनों में उत्तर प्रदेश में नरेंद्र मोदी के नाम के सहारे उन्होंने बीजेपी का अब तक का सबसे बेहतरीन प्रदर्शन करके दिखाया है। बीजेपी ने राज्य की 80 में से 71 सीटें अपने बूते और सहयोगी अपना दल के साथ 73 सीटें जीती हैं। उन्हें इसी का पारिश्रमिक मिलने जा रहा है।

पार्टी के कुछ नेताओं के मन में ये सवाल थे कि क्या गुजरात से ही प्रधानमंत्री और पार्टी अध्यक्ष का होना ठीक रहेगा? लेकिन बाद में ये तय किया गया कि सिर्फ इसलिए शाह की दावेदारी नज़रअंदाज़ करना ठीक नहीं होगा क्योंकि वो और प्रधानमंत्री दोनों गुजरात से आते हैं। ये सवाल भी पूछे गए कि शाह के खिलाफ सोहराबुद्दीन की फर्जी मुठभेड़ का मामला चल रहा है और ऐसे में क्या उन्हें बीजेपी अध्यक्ष बनाना ठीक होगा। लेकिन इसके जवाब में दलील दी गई कि पार्टी हमेशा से इस मामले को राजनीति से प्रेरित मानती रही है लिहाज़ा इसका राजनीतिक असर नहीं होना चाहिए। कुछ नेताओं ने लाल कृष्ण आडवाणी का भी उदाहरण दिया जिन्होंने हवाला कांड में नाम आने के बाद लोक सभा से इस्तीफा दे दिया था मगर पार्टी अध्यक्ष बने रहे थे।

अमित शाह को ये जिम्मेदारी देने के पीछे खास वजह उनकी तुरत फैसले करने की क्षमता, संगठन पर उनकी पकड़ और उनके पीछे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का खुल कर समर्थन होना माना जा रहा है। दरअसल, बीजेपी में ये माना जाता रहा है कि अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार के वक्त कुछ ऐसे अध्यक्ष रहे जो अपेक्षाओं पर खरे नहीं उतर सके। इसके लिए खासतौर से बंगारू लक्ष्मण और के जनाकृष्णमूर्ति का नाम लिया जाता है। लेकिन इस बात पर आम राय है कि कुशाभाऊ ठाकरे जैसे कद्दावर नेता के अध्यक्ष रहते समय न सिर्फ संगठन ने गति पकड़ी बल्कि सरकार के कामकाज पर भी तीखी नज़रें लगी रहीं।


निष्काम कर्मयोगी के नाम से मशहूर ठाकरे को सख्त, अनुशासनप्रिय और संगठन पर पकड़ बना कर रखने वाले अध्यक्ष के रूप में याद रखा जाता है। कुछ मसलों पर पार्टी अध्यक्ष रहते हुए उन्होंने तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी से भी सवाल-जवाब किए थे। अब जबकि बीजेपी अपने बूते पर बहुमत पाकर केंद्र में सत्तारूढ़ हुई है, सवाल यह रहा था कि पार्टी को कैसा अध्यक्ष चाहिए। इसीलिए अमित शाह के कामकाज पर सबकी नज़रें लगी रहेंगी। इस बात की पूरी संभावना है कि बीजेपी अगला लोकसभा चुनाव भी उन्हीं की अगुवाई में लड़ेगी। अगले कुछ महीनों में होने जा रहे महाराष्ट्र, हरियाणा और झारखंड के विधानसभा चुनावों के नतीजे उनकी सफल रणनीतिकार की छवि की अगली परीक्षा होंगे। साथ ही ये भी देखा जाता रहेगा कि सरकार और संगठन में तालमेल बिठा पाने में वो किस हद तक कामयाब हो पाएंगे। सवाल ये भी है कि क्या अमित शाह के रूप में बीजेपी की अगले कुशाभाऊ ठाकरे की तलाश पूरी हो पाएगी?

Thursday, June 26, 2014

टोल 41 रुपए



जिस देश में बड़े पर्यटक स्थलों पर मूत्र त्याग के लिए भी अब 5 रुपए लगते हैं और एक रुपए की कोई औकात नहीं रह गई है, वहां छुट्टा पैसा सबसे बड़ी राष्ट्रीय समस्या के रूप में उभर कर सामने आया है। इसी देश में नेशनल हाईवे अथॉरिटी ऑफ इंडिया राजमार्गों पर गाड़ी चलाने वालों से अपेक्षा करती है कि वो उन्हें छुट्टे पैसे देंगे। इसीलिए टोल दरें 41, 61, 72, 108, 143, 215, 231 और 346 रुपए रखी गई है। उस पर तुर्रा ये है कि चालकों से अपील की गई है कि वो छुट्टे पैसे तैयार रखें ताकि टोल चुकाते वक्त ज्यादा वक्त न लगे।

लेकिन देश के राजमार्गों को गली-मोहल्ले से भी बदतर बना कर रख देने वाले नौकरशाहों और राजनेताओं से किसी भी तरह की संवेदना की अपेक्षा रखना ही बेमानी है। गांव-शहरों के गली-मोहल्ले में तो कम से कम चार-पाँच साल में एक बार खड़ंजे का काम हो जाता है, नालियां बन जाती हैं, पत्थर के टाइल लग जाते हैं। मगर राजमार्गों पर डामरीकरण तो दूर की बात फटी कमीज पर पैबंद लगाना यानी पेचवर्क भी नहीं हो पाया है।

जिस जयपुर-दिल्ली हाईवे पर चार-पाँच घंटों में यात्रा पूरी हो जाती थी वहां अब 8-9 घंटे लगना सामान्य बात है। इस पर भी टोल लगाया गया है। नेशनल हाईवे 3 यानी आगरा-मुंबई राजमार्ग पर मध्य प्रदेश में इतने बड़े गड्ढे हैं कि उनके रास्ते कुछ ट्रक भी पाताल पहुँच चुके हैं। हाल में नेशनल हाईवे 21 से मनाली जाना हुआ। इसकी बुरी हालत देख कर बीच में कई बार ख्याल आया कि गाड़ी वापस घुमा ली जाए। स्वारघाट जहां कठिन चढ़ाई है, छोटी गाड़ियों को ट्रकों के रहमो-करम पर रहना पड़ता है। धुआँ छोड़ते और आराम से चलते इन ट्रकों से आगे निकलते वक्त ये भी ध्यान रखना पड़ता है कि छोटी गाड़ी का टायर किसी बड़े गड्ढे में फंस कर न रह जाए। इसी तरह बिलासपुर से मंडी तक राजमार्ग आकाशगंगा की भांति दिखाई देता है जिसमें छोटे-बड़े कई गड्ढे तारों की तरह बिछे हैं।


ऐसा क्यों है कि जब राजमार्गों को चौड़ा करने और उनके रख-रखाव का ज़िम्मा निजी कंपनियों को दिया गया तो वहां ज़्यादा शिकायतें नहीं मिलीं (जयपुर-दिल्ली हाईवे को छोड़)। जबकि जिस सरकारी महकमे के हवाले ये काम छोड़ा गया है तो वहां भगवान ही मालिक नज़र आता है। हज़ारों करोड़ रुपए के सालाना बजट वाले एनएचआईए का काम कई सवाल खड़े करता है। 

Friday, May 23, 2014

मोदी से सहयोगी दलों की आस


बीजेपी को लोक सभा में अपने बूते पर बहुमत है। जबकि सहयोगियों के साथ उसकी संख्या 336 है। बीजेपी के अलावा एनडीए की ऐसी ग्यारह पार्टियां और हैं जिन्होंने लोक सभा में सीटें जीती हैं। इनमें शिवसेना और तेलुगु देशम पार्टी की संख्या दहाई में है। अब जबकि मंत्रिमंडल के गठन के लिए माथा-पच्ची शुरू हो गई है, सवाल है कितने सहयोगी दलों को मोदी सरकार में जगह मिलेगी और मंत्रिमंडल में उनकी कितनी हिस्सेदारी होगी।

मोदी सरकार में सहयोगी दलों को शामिल करने पर बातचीत का सिलसिला जल्दी ही शुरू होगा। सूत्रों के मुताबिक बीजेपी के सभी सहयोगी दलों को मोदी सरकार में जगह मिलने की संभावना है। सूत्रों के मुताबिक शिवसेना प्रमुख उद्धव ठाकरे नरेंद्र मोदी के शपथ ग्रहण समारोह में हिस्सा लेने के लिए 26 मई को दिल्ली आएंगे। अगर 26 को शपथ ग्रहण में सहयोगियों को भी शामिल करने का फैसला होता है तो इससे पहले उनसे बात हो सकती है।

जबकि तेलुगुदेशम पार्टी के प्रमुख चंद्रबाबू नायडू कल दिल्ली आ रहे हैं। वो मोदी से मिलेंगे। टीडीपी को एक कैबिनेट और दो राज्य मंत्री मिल सकते हैं। पार्टी के वरिष्ठ नेता अशोक गणपति राजू का नाम आगे है। बिहार में मध्यावधि चुनावों की संभावना के मद्देनज़र राम विलास पासवान की लोक जनशक्ति पार्टी और उपेंद्र कुशवाहा की राष्ट्रीय लोक समता पार्टी को हिस्सेदारी मिल सकती है। जबकि उत्तर प्रदेश से अपना दल की अनुप्रिया पटेल को भी बतौर राज्य मंत्री सरकार में लिया जा सकता है। अकाली दल एकमात्र ऐसा सहयोगी दल है जिसने सरकार में शामिल होने से इनकार कर दिया है। हालांकि बीजेपी उसे सरकार में शामिल होने का न्योता दे सकती है।

बीजेपी नेताओं के मुताबिक सहयोगी दलों को मंत्रिमंडल में जगह देने के लिए एक फार्मूले पर काम किया जा रहा है। इस फार्मूले से हर सहयोगी दल के न सिर्फ कैबिनेट और राज्य मंत्रियों की संख्या तय की जा रही है बल्कि ये भी तय हो रहा है कि किस पार्टी के कितने मंत्री बनाए जा सकते हैं। सूत्रों के मुताबिक अभी तक के फार्मूले के मुताबिक लोक सभा के तेरह सांसदों पर एक कैबिनेट मंत्री मिल सकता है। अगर मंत्रिमंडल का आकार छोटा कर सिर्फ पचास का रखा जाएगा तो हर सात सांसदों पर एक मंत्री बनेगा। जबकि सत्तर के मंत्रिमंडल पर यह संख्या पांच हो सकती है।

अगर मोदी मंत्रिमंडल सिर्फ पचास का रहता है तो देखा जाए कि किस पार्टी को कितना हिस्सा मिलेगा। तेलुगु देशम पार्टी को लोक सभा में 16 सीटें मिली हैं। इस लिहाज़ से उसका एक कैबिनेट और एक राज्य मंत्री बनता है। जबकि 18 सीटें हासिल करने वाली शिवसेना को एक कैबिनेट और दो राज्य मंत्री मिल सकते हैं। वैसे वाजपेयी सरकार में शिवसेना को ज्यादा हिस्सेदारी दी गई थी। लेकिन तब बीजेपी की सीटें 182 थीं। अब जबकि बीजेपी के पास 282 सीटें हैं, सहयोगी दलों की हिस्सेदारी अपने-आप कम हो जाएगी।

इस फार्मूले के मुताबिक सहयोगी दलों में शिवसेना और टीडीपी को छोड़ किसी अन्य दल के सांसद को कैबिनेट मंत्री नहीं बनाया जा सकता। अन्य सहयोगी दलों में लोक जनशक्ति पार्टी को छह, अकाली दल को चार, राष्ट्रीय लोक समता पार्टी को तीन, अपना दल को दो सीटें मिली हैं। जबकि नगा पीपुल्स फ्रंट, नेशनल पीपुल्स पार्टी, पीएमके, स्वाभिमानी पक्ष और ऑल इंडिया एनआर कांग्रेस को एक-एक सीटें मिली हैं।

इस तरह मोदी को ये तय करना होगा कि लोक सभा में संख्या बल कम होने के बावजूद क्या सहयोगी पार्टियों को क्षेत्रीय संतुलन और उनके नेताओं के कद के हिसाब से मंत्रिमंडल में जगह मिलनी चाहिए। मिसाल के तौर पर तेरह सांसदों पर एक कैबिनेट मंत्री के फार्मूले के मुताबिक छह सांसदों वाले राम विलास पासवान को कैबिनेट मंत्री नहीं बनाया जा सकता। लेकिन बिहार में संभावित मध्यावधि चुनाव, पासवान वोटों से मिली बीजेपी को शानदार कामयाबी और पासवान के अनुभव और वरिष्ठता को देखते हुए उन्हें कैबिनेट मंत्री बनाया जा सकता है। मोदी ने दलित एजेंडे पर खास ध्यान दिया है ऐसे में पासवान के दावे को नज़रअंदाज़ करना मुश्किल होगा।

इसी तरह से नागालैंड में 2003 से सत्तारूढ़ नगा पीपुल्स फ्रंट के दावे को दरकिनार करना मुश्किल होगा। जबकि नेशनल पीपुल्स पार्टी से पूर्व लोक सभा अध्यक्ष पी ए संगमा जीत कर आए हैं। उत्तर-पूर्व को प्रतिनिधित्व देने के लिए इन नेताओं की दावेदारी भी बनती है। तमिलनाडु से बीजेपी के अपने एक सांसद हैं जबकि पीएमके ने भी एक सीट जीती है। जबकि बगल के पुड्डुचेरी से भी बीजेपी के सहयोगी दल ऑल इंडिया एनआर कांग्रेस को कामयाबी मिली है। इसीलिए क्षेत्रीय संतुलन बिठाने के लिए ऊपर दिए फार्मूले को नज़रअंदाज़ भी किया जा सकता है।




Thursday, May 22, 2014

कसी सरकार की कवायद


नरेंद्र मोदी 26 मई को प्रधानमंत्री पद की शपथ लेंगे। लेकिन उन्होंने काम पहले ही शुरू कर दिया है। ऐसा शायद पहली बार हुआ है जब किसी नेता ने प्रधानमंत्री पद की शपथ लेने और राष्ट्रपति से सरकार बनाने के लिए निमंत्रण मिलने से पहले ही काम शुरू कर दिया हो। मोदी कैबिनेट सचिव और गृह सचिव से मिल चुके हैं। खबरों के मुताबिक उन्होंने इन दोनों ही आला अफसरों को कई महत्वपूर्ण काम करने के लिए कह दिया था। इसी तरह सरकार के गठन के लेकर भी उन्होंने पार्टी के कई वरिष्ठ नेताओं से मुलाकात की है।

माना जा रहा है कि मोदी सरकार देश के इतिहास की सबसे कसी हुई सरकार होगी। एक ऐसी सरकार जिसे न तो गठबंधन की मजबूरियों के नाम पर मनमाफिक मंत्रालय लेने के सहयोगी दलों के दबाव के आगे झुकने की मजबूरी है और न ही पार्टी के अंदरूनी समीकरणों में संतुलन बिठाने के लिए बुजुर्ग नेताओं को एडजस्ट करने का दबाव झेलना है। पचहत्तर पार कर चुके नेताओं के लिए राजभवनों के दरवाजे खोलने की तैयारी है। खुद मोदी 63 साल के हैं और उनकी सरकार में एक-दो अपवादों को छोड़ उम्र में उनसे बड़ा कोई नेता शायद ही मंत्री बनाया जाए।

सरकारी खर्चों में कटौती करने और काम में दक्षता और कुशलता बढ़ाने के लिए मंत्रालयों में कांट-छांट और उन्हें आपस में मिलाने की सबसे बड़ी कवायद की जा रही है। सूत्रों के मुताबिक मोदी सरकार के संभावित स्वरूप को लेकर कई महीनों से तैयारियां चल रही हैं। कई विकसित देशों की सरकारों के मॉडल का अध्ययन किया गया और एक मोटी रिपोर्ट तैयार की गई है। इसी रिपोर्ट के आधार पर चर्चा चल रही है कि कई गैरज़रूरी मंत्रालयों को खत्म किया जाएगा। कई मंत्रालयों को आपस में मिला दिया जाएगा और कई मंत्रालयों को निगमों में तबदील कर दिया जाएगा।

मिसाल के तौर पर गृह मंत्रालय से आंतरिक सुरक्षा को अलग करने का प्रस्ताव है। इस प्रस्ताव के तहत एक राज्य मंत्री को आंतरिक सुरक्षा का प्रभार देकर उसे सीधे प्रधानमंत्री कार्यालय के अधीन कर दिया जाएगा। मोदी सीधे-सीधे आईबी और एनआईए जैसी एजेंसियों के रोज़मर्रा के कामकाज पर नज़र रख सकेंगे। इसी तरह एक नया इंफ्रास्ट्रक्चर मंत्रालय बनाने का प्रस्ताव है। जिसमें भूतल परिवहन और जहाजरानी जैसे कई अन्य मंत्रालय मिलाए जा सकते हैं। इसमें रेल मंत्रालय को भी मिला कर यातायात मंत्रालय बनाने का भी प्रस्ताव था। लेकिन रेल मंत्रालय के भारी आकार को देखते हुए फिलहाल इसे अलग ही रखने का विचार है।

पेट्रोलियम और प्राकृतिक गैस, ऊर्जा, कोयला और गैर पारंपरिक ऊर्जा स्रोत जैसे अलग-अलग मंत्रालयों को मिला कर ऊर्जा मंत्रालय बनाया जा सकता है। जबकि ग्रामीण विकास और पंचायती राज मंत्रालयों को एक किया जा सकता है। इसी तरह उद्योग, वाणिज्य, कपड़ा व सूक्ष्म, लघु व मंझले उद्यम मंत्रालयों को मिला कर एक भारी-भरकम मंत्रालय बनाने का प्रस्ताव है। कृषि, खाद्य, खाद्य प्रसंस्करण, नागरिक उपभोक्ता और आपूर्ति मंत्रालयों को भी आपस में मिलाने की योजना है। एक प्रस्ताव ये भी है कि दूरसंचार, सूचना प्रौद्योगिकी और सूचना-प्रसारण मंत्रालयों को मिला कर एक नया मंत्रालय बनाया जाए। इसके पीछे सोच ये है कि जब क्षेत्र एक ही है तो उसे अलग-अलग विभागों में क्यों बांटा जाए।

कई गैर ज़रूरी मंत्रालयों को खत्म करने का भी प्रस्ताव है। ओवरसीज़ इंडियन जैसे मंत्रालयों की ज़रूरत महसूस नहीं की जा रही है। एक प्रस्ताव ये भी है कि कई मंत्रालयों को निगमों में तबदील कर दिया जाए और उनकी ज़िम्मेदारी टैक्नोक्रेट को दे दी जाए। इस तरह छह महीने के भीतर राज्य सभा या लोक सभा से चुन कर लाने के झंझट से बचा जा सकेगा। अल्पसंख्यक मामलों के मंत्रालय को भी आगे जा कर निगम में बदला जा सकता है। जबकि नदियों को जोड़ने या उन्हें साफ करने के लिए एक अलग मंत्रालय या निगम बनाने का भी प्रस्ताव है।

दरअसल, मंत्रालयों को बांट कर अलग-अलग पोर्टफोलियो बनाने की कवायद गठबंधन की राजनीति और वरिष्ठ नेताओं को खुश करने की रणनीति के तहत 90 के दशक में बनी अस्थिर सरकारों के दौर से शुरू हुई थी। किसी को अंदाज़ा नहीं रहा होगा कि चौरासी के बाद एक ऐसी स्थिर सरकार बनने जा रही है जो न सिर्फ एक ही पार्टी की है बल्कि उसे सहयोगी दलों के ब्लैक मेल के आगे भी नहीं झुकना है। मोदी के सामने कोई मजबूरी नहीं है कि रेल या रक्षा जैसे महत्वपूर्ण मंत्रालय किसी सहयोगी दल को खुश रखने के लिए दे दिए जाएं जैसा कि वाजपेयी सरकार के वक्त हुआ था। वैसे भी कहा जाता है कि गठबंधन राजनीति का सबसे बड़ा शिकार कोई मंत्रालय अगर हुआ है तो वह रेल मंत्रालय ही है।


कुल मिलाकर इसी पूरी कवायद को भूतो न भविष्यति के अंदाज़ में अंजाम दिया जा रहा है। मोदी मीन्स बिज़नेस के मंत्र के साथ आने वाले पाँच साल में काम का खाका तैयार किया जा रहा है। एक ऐसी सरकार की नींव रखी जा रही है जो 21वीं सदी में भारत को एक आर्थिक महाशक्ति बनाने के रास्ते पर मजबूती और तीव्र गति से लेकर जाए। इसीलिए कहा जा रहा है कि 26 तारीख को मंत्रिमंडल में जगह न मिलने से बीजेपी और सहयोगी दलों के कई नेताओं के चेहरे अगर लटके नज़र आएं तो हैरानी नहीं होगी।