Monday, April 26, 2010

कॉर्बेट में कुछ पल




वैसे गए तो बाघ देखने. लेकिन उसके पदचिन्ह देख कर वापस आ गए. रास्ते में हिरण, मोर, जंगली मुर्गा, हाथी वगैरह ज़रूर दिखे. आप भी देखें कुछ रंग जिम कॉर्बेट के.

Sunday, April 25, 2010

आया है मुझे फिर याद वो ज़ालिम- गुज़रा ज़माना कॉलेज का

मेरे दोस्त मनीष नागर ने होल्कर साइंस कॉलेज होस्टल के दिनों की कुछ यादगार तस्वीरें फेसबुक पर लगाई थीं. मैं वहीं से उधार ले कर इन्हें अपने ब्लॉग पर चस्पा कर रहा हूं. वो दिन भूले नहीं भूलते. हर मोड़ पर नज़रें एक बार पीछे घुमा कर देख लेता हूँ. कोई पुराना हमसफर आवाज़ न दे रहा हो. जीवन की उतार-चढ़ाव, फिसलन और रपटीली राहों पर कई बार ऊपर-नीचे इधर-उधर होना लगा रहता है. लेकिन वो लम्हे कभी नहीं भूलते जब किशोरावस्था से जवानी में कदम रख रहे होते हैं. दोस्ती के नए मतलब समझ में आते हैं. नए दोस्त भी मिलते हैं. इनमें से कुछ जिंदगी भर के लिए होते हैं तो कुछ समय की झीनी चादर में छिप जाते हैं. पर कभी-कभी बहुत मन होता है इस चादर को हटाने का. घड़ी की सुइयाँ पीछे घुमाने का. एक बार फिर रेड बिल्डिंग के सामने दौड़ लगाने का. सीढ़ियों पर बैठ कर गप्पे लड़ाने का. भंवरकुआँ पर समोसे और चाय का नाश्ते करने जाने का. वगैरह वगैरह.

Thursday, April 15, 2010

तू मेरी वूफर... मैं तेरा एंप्लीफायर

ये नया गाना है जो आज कल एफ एम रेडियो के हर चैनल पर गूंज रहा है.

इमरान खान नाम का गायक है. ट्यून कैची है इसलिए यू ट्यूब पर सर्च किया और मिल भी गया.

एम्सटर्डम जाने वाले हाई वे पर एक बेहद कीमती कार दौड़ रही है. इमरान खान गाड़ी चला रहे हैं. ओवरस्पीड है इसलिए दो पुलिस वाले पीछा भी करते हैं.

इमरान खान गाना गाने में मसरूफ हैं. इसलिए पुलिस वालों को नज़रअंदाज़ कर देते हैं. गाने के बोल कुछ-कुछ समझने की कोशिश भी करता हूं. कह रहा है 200 की स्पीड पर गाड़ी चला रहा है वगैरह वगैरह.

200 की स्पीड यानी किलोमीटर नहीं माइल. 200 माइल प्रति घंटा यानी करीब 350 किलोमीटर प्रति घंटा.

एम्सटर्डम जाने वाली चिकनी और रपटीली राहों पर फिसलती गाड़ी, पुलिस की दो गाड़ियां पीछा करती हुईं. एक वृद्ध दंपति नक्शा पकड़ते हुए रास्ता ढूंढने के लिए सड़क पर खड़े हैं. इमरान की गाड़ी और उसके पीछे पुलिस की दो गाड़ियां फर्र से निकल जाती हैं.

फिर इमरान पहुंचता है एक नाइट क्लब में. ज़्यादातर नौजवान सन ग्लासेज़ लगाए हुए हैं. रात में चश्मा समझ में नहीं आया. शायद फैशन हो.

पर मैं ये सब इसलिए लिख रहा हूं कि कैसे लड़के-लड़कियों के रिश्तों को परिभाषित करने के लिए नई-नई उपमाएं तलाशी जा रही हैं.

नई पौध की ये टैक सेवी सोच गानों में भी दिखती है. तू मेरी वूफर मैं तेरा एंप्लीफायर.

वैसे वूफर और एंप्लीफायर दोनों ही आवाज़ बढ़ाने के काम में आते हैं. यानी वूफर या एंप्लीफायर में से कोई एक भी हो तो भी काम चल जाता है.

पहले की फिल्मों में इन्हीं रिश्तों को कुछ अलग ढंग से रखा जाता था.

पर अब ज़माना बदल गया है.

अब नए गाने आने वाले दिनों में शायद कुछ इस तरह भी लिखे जाएं.

-तू मेरी हार्ड डिस्क... मैं तेरा सॉफ्टवेयर...

- तू मेरी आईपॉड..... मैं तेरा हैंड्स फ्री...

- तू मेरी कोच्ची... मैं तेरा शशि थरूर...

या

- तू मेरी आईपीएल... मैं तेरा ललित मोदी...

मुझे उस दिन का इंतजार रहेगा.. और आपको?

पुनश्च:  

हो सकता है इस गाने के बोल के शब्द इधर-उधर हो गए हों क्योंकि मुझे पूरी तरह से समझ में नहीं आया. जितना आया- वैसे लिख दिया.

Thursday, April 08, 2010

डटे रहो चिदंबरम

बहुत दिनों बाद हिंदुस्तान को ऐसा गृह मंत्री मिला है.

तुलना कीजिए चिंदबरम की सीरियल ड्रेसर शिवराज पाटिल से.
मुझे याद है राज्य सभा में नक्सलवाद पर बहस के बाद बतौर गृह मंत्री पाटिल का जवाब.
थोड़े बहुत शब्द इधऱ-उधर हो सकते हैं लेकिन लब्बो-लुआब यही है.
माननीय सभापति महोदय. मैंने सबकी बातें ध्यान से सुनीं. ये बहुत गंभीर समस्या है. जो मर रहे हैं (सुरक्षा बल) वो भी हमारे भाई हैं. जो मार रहे हैं (माओवादी) वो भी हमारे भाई हैं. और वो (विपक्षी बेंचों की ओर इशारा कर) जो इस पर सवाल उठा रहे हैं वो भी हमारे भाई हैं।

साईं भक्त पाटिल को माओवादी समस्या एकता कपूर के कहानी घर घर की सीरियल की तरह नज़र आती थी. भाई भाई आपस में लड़ रहे हैं. महाभारत हो रही है. गृह मंत्री धृतराष्ट्र की तरह बैठा है. न कुछ देख सकता है और न ही कुछ कर सकता है.

और एक फोटो देखिए आज छपा है. शायद इंडियन एक्सप्रेस में. राष्ट्रपति भवन में पद्म पुरस्कार समारोह. गृह मंत्री पी चिदंबरम सिर झुकाए अकेले कुर्सी पर सोच में बैठे हैं. इससे पहले जगदलपुर में प्रेस कांफ्रेंस में आवाज़ भारी हो गई थी. आँखों की कोर नम हो चली थीं.

राजनेताओं को गाली बकना हम लोगों की अब आदत है. हमें हर नेता चोर-उचक्का, बेईमान, भ्रष्टाचारी, पाखंडी और भी पता नहीं क्या क्या लगता  है.

शायद इसीलिए किसी की इतनी तारीफ आप शायद पचा न पाएं. लेकिन सच्चे दिल से चिदंबरम को सलाम करने को जी चाहता है.

गलतियां चिदंबरम ने भी की हैं. दंतेवाड़ा के हमले के तुरंत बाद ये कहना कि कहीं न कहीं कोई भयंकर भूल हो गई, एक तरह से सीआरपीएफ के जवानों की शहादत पर सवाल उठाना था. अगर गलती थी भी तो हर जवान की नहीं थी. किसी एक या दो बड़े अफसर की हो सकती है. लेकिन सारे जवानों की शहादत पर सवाल नहीं उठाया जा सकता.

26 नवंबर के मुंबई हमले के बाद पाटिल की विदाई हुई. पेशे से वकील, अर्थ शास्त्र के जानकार और कई बार देश का बजट पेश कर चुके चिदंबरम ने कांटों का ताज पहना. गृह मंत्री बने.

एक साल तक देश की आंतरिक सुरक्षा व्यवस्था को चौकस करने में लगे रहे. गृह मंत्रालय का ढांचा बदलने की और नई जांच एजेंसी बनाने की कोशिशें भी रंग लाईं.

मुंबई हमले के बरसी पर मुंह से निकला किस्मत थी कि कोई हमला नहीं हुआ तो इसके पीछे उनकी पुख्ता जानकारियां थीं कि तमाम कोशिशों के बावजूद सुरक्षा व्यवस्था में ढीलपोल बरकरार है जो रातों रात ठीक होने वाली नहीं है.

पुणे ब्लास्ट हुआ और अब माथे पर नया कलंक लगा है दंतेवाड़ा में 76 जवानों की निर्मम और बर्बर हत्या.

याद कीजिए... गृह मंत्री बनने के बाद से माओवादियों के प्रति यूपीए सरकार की नीतियों में बुनियादी बदलाव आया. अब कोई उन्हें रास्ते से भटका भाई नहीं कहता. बल्कि देश का दुश्मन बताता है. यहां तक कि अंदर ही अंदर चिदंबरम का विरोध करने वाली और अब तक माओवादियों पर थोड़ी नर्मी बरतने वाली कांग्रेस पार्टी भी अब मानती है कि माओवादियों को जड़ से खत्म करना ही होगा.

लेकिन कैसे करे चिदंबरम इस नई चुनौती का सामना. दिल से कोशिश की है माओवादियों से लड़ने की. झोला छापों ने तो उनके खिलाफ मुहिम छेड़ी हुई है.

अपनी ओर से कोशिश कर माओवाद प्रभावित राज्यों के मुख्यमंत्रियों की बैठक बुलाई. एक बार नहीं कई बार. पहले झारखंड के शिबू सोरेन पतली गली से निकल लिए तो बाद में नीतीश कुमार भी. बुद्धदेव भट्टाचार्य को तो ममता बनर्जी के आगे कुछ दिखता ही नहीं है. ले दे के नवीन पटनायक और रमन सिंह दो मुख्यमंत्री हैं जो चिदंबरम के साथ डटे हुए हैं.

रमन सिंह तो इस हद तक कि चाहे छत्तीसगढ़ पुलिस का एक ही हेड कांस्टेबल सीआरपीएफ के साथ रहा और शहीद हुआ लेकिन जब चिदंबरम ने कहा कि ये केंद्र और राज्य सरकार का साझा अभियान था तो रमन सिंह ने भी हां में हां मिलाने में देरी नहीं की.

ऑपरेशन ग्रीन हंट का नाम चिदंबरम ने नहीं दिया. छत्तीसगढ़ पुलिस ने ही दिया. आज मीडिया इसी की चर्चा करता है और चिदंबरम इस नाम से बचते हैं.

अब क्या करेंगे चिदंबरम. कम से कम इतना तो करो कि माओवादियों को देश की संप्रभु सरकार को चुनौती देकर समानांतर सरकार चलाने वाले विदेशी विचारधारा से प्रेरित घुसपैठिए मानो.

या फिर कहो कि ये भी आतंकवादी हैं. बेकसूर लोगों का खून माओवादियों ने भी कम नहीं बहाया है.

आतंकवाद विरोधी जो कानून आप बम विस्फोट कर बेगुनाह लोगों की जान लेने वाले आतंकवादियों पर लगाते हैं वही कानून अब माओवादियों पर भी लगाओ.

राज्य सरकारों से बात कर माओवादियों के खिलाफ एक साझा नया सुरक्षा बल तैयार करो. सीआरपीएफ का काम देश में कानून व्यवस्था बनाए रखने का है... छिप कर गुरिल्ला युद्ध करने वाले माओवादियों से मुकाबला करने का नहीं.  खुफिया तंत्र को मजबूत करो. नक्सली इलाकों के लिए अलग तंत्र तैयार किया जाए. इस काम में थोड़ा समय ज़रूर लगेगा लेकिन अब वक्त आर या पार की लड़ाई का है. झुकने का नहीं.

माओवादियों के चंगुल वाले इलाके को धीरे-धीरे कर छुड़वाओ. जो जो इलाका भारत के पास वापस आता जाए (भारत ही बोलना होगा क्योंकि इनकी समानांतर सरकार में भारतीय संविधान के लिए जगह नहीं है. इनकी लड़ाई संविधान के खिलाफ है, हमारी सरकार के खिलाफ है. इस लिहाज से तो ये देश द्रोही ही हुए) उसे अधिकार में लेकर वहां स्थानीय प्रशासन को मजबूत करो. विकास की रोशनी उन इलाकों तक पहुँचाओं जो आजादी के साठ साल बाद भी बुनियादी सुविधाओं के लिए तरस रहे हैं. हमारे आदिवासी भाइयों के लिए तमाम सुविधाएं मुहैया कराओ. असली भाई आदिवासी हैं न कि उन्हें बरगलाने वाले माओवादी. आम लोगों के लिए चलाई जा रही तमाम योजनाओं का वहां सीधा क्रियान्वयन सुनिश्चित कराओ.

ये सब करने में चिदंबरम के रास्ते में कई मुश्किलें आएंगे. उनकी अपनी पार्टी से ही विरोध की आवाज़ें उठने लगेंगी. लेकिन पिछले करीब डेढ़ साल में चिदंबरम ने जिस हौंसले और दूरदृष्टि का परिचय दिया है उम्मीद है वो आगे भी ऐसा ही करते रहेंगे. इसलिए डटे रहो चिदंबरम.
न दैन्यं, न पलायनं

Wednesday, April 07, 2010

बुढ़ापा

बाल पक जाएंगे.
दाँत गिर जाएंगे.
पोपले मुंह से निकलेंगी हिसहिसाती आवाज़ें
जिनका मतलब जिसकी जो समझ में आए लगा ले.
'पापा आप बूढ़े हो जाओगे तब मेरे क्या होगे.
क्या तब भी आप मेरे पापा ही रहोगे.'
बचपन के इन सवालों पर जवानी में आती है हँसी
लेकिन सामने खड़ा बुढ़ापा दिखाता है कई हकीकतें.
डरावनी शक्लें लिए खड़ा होता है सामने भविष्य.
इसके डर से आज भी हैरान परेशान है.
कहता है तू कल की क्यों सोचता है.
मैं आज हूं मुझे जी भर के जी ले.

फिर अखबार के पन्नों पर दिखते हैं विज्ञापन.
अपने बुढ़ापे को सुरक्षित करने के लिए अपनाएं पेंशन प्लान.
या विशेषज्ञों के वो लेख जो कहते हैं आपको बुढ़ापे में चाहिए होंगे 10 करोड़ रुपए.
ताकि संतानों की पढ़ाई का खर्चा उठा सकें और अपना बुढ़ापा खुशी-खुशी बिता सकें..
बुढापे के सुखी जीवन की चिंता में आज जवानी में हो रहे हैं बाल सफेद.
जवानी के दिन दुख में बिताओ ताकि बुढ़ापे में सुख चैन से जी सको.
ऐसे ही एक दिन धीमे कदमों से बुढ़ापा दे देगा दस्तक.
क्या बुढ़ापा रोकने का भी है कोई पेंशन प्लान. कोई एसआईपी. जो सलवटों को मिटा दे और दे सुकून आज को जीने का....

Tuesday, April 06, 2010

कोई मोमबत्ती इनके लिए भी है क्या?

सोचिए उन 76 जवानों के परिवारवालों के बारे में. उन पर क्या गुजर रही होगी.
कइयों के छोटे बच्चे होंगे.. कुछ की बेटियां हाथ पीले करने के इंतज़ार में होंगी तो किसी के माता-पिता इलाज के लिए बेटे की घर-वापसी का रास्ता देख रहे होंगे.
लेकिन अब देश के अलग-अलग हिस्सों के लिए वाया रायपुर कॉफिन में कैद जवानों के शव रवाना किए जाएंगे.
मीडिया पहले से ही इन्हें शहीद कह रहा है. जब अपने-अपने घरों की चौखट लांघ कर ये शव करीबियों के पास पहुंचेगे तो उन्हें कोई शहीद या सीआरपीएफ की वर्दी पहने जवान नहीं बल्कि कोई बेटा, कोई पति या कोई पिता नज़र आएगा.
वो अपनी ज़िम्मेदारी पूरी कर रहे थे. वो ज़िम्मेदारी जो उन्हें भारत सरकार ने सौंपी थी.
वो भारत सरकार जो अभी तक ये तय नहीं कर पा रही है कि नक्सली रास्ते से भटके हमारे भाई हैं या फिर निर्दोषों का खून बहाने वाले वहशी दरिंदे. या फिर आतंकवादी.

कोई है एक अरब 20 करोड़ आबादी वाले इस मुल्क में जो इन 74 जवानों के लिए भी मोमबत्ती जलाएगा.
कोई है जो इनकी शहादत का बदला लेगा. इनके बलिदान को सिर्फ अखबारों की सुर्खियों तक ही सीमित नहीं रहने देगा.
कोई है जो इन तथा कथित भटके भाइयों को सही रास्ते पर लाने के लिए आगे आएगा.
या हम पंगु हो चुके हैं. हमें अपने आगे कुछ नहीं दिखता. हम अपने मुल्क के बारे में नहीं सोचते. हमें भारतीय होने पर अब क्या शर्म आती है.

कायरों की तरह जंगल में छिप कर गुरिल्ला वार कर रहे हैं. हिम्मत है तो सीधे-सीधे आमने-सामने की लड़ाई क्यों नहीं लड़ते ये बुजदिल. इनमें और आतंकवादियों में क्या फर्क है. इनका लड़ाई का तरीका भी तो वैसा ही है जैसा कश्मीर में लड़ रहे आतंकवादियों का है. या फिर गाहे-बगाहे मासूमों को अपने बम विस्फोटों से शिकार बनाने वाले आतंकवादियों का.

ये कहते हैं हम बेगुनाहों की जान नहीं लेते. जो हमारी जान लेने आता है हम उसी पर हमला करते हैं. झारखंड का वो टीचर शायद माओवादियों की जान लेने गया था जिसका सिर धड़ से काट कर अलग कर दिया गया. या वो मासूम आदिवासी जिन्हें नक्सलियों ने मुखबिर होने के शक में चौराहे पर मौत के घाट उतार दिया वो सब शायद नक्सलियों की जान लेने गए थे.

घात लगा कर अपने ही मुल्क के लोगों पर हमला करते हैं. उन लोगों पर जो पूरे जी जान से देश की सुरक्षा का ज़िम्मा अपने कंधों पर लिए हैं.

भोले-भाले आदिवासियों के अधिकारों के नाम पर पिछले चालीस साल से देश को गुमराह किया जा रहा है. इनका असली मकसद आखिर है क्या.

क्या आदिवासियों के हक को छीनने का काम ये नक्सली नहीं कर रहे हैं. अगर उन तक विकास की रोशनी नहीं पहुंच रही है तो इसके लिए कुछ हद तक जिम्मेदारी नक्सलियों की भी तो है. क्या ये अपने दम पर इनके गांवों में इन्हें आधुनिक शिक्षा, रोजगार के अवसर, बेहतर स्वास्थ्य सेवा वगैरह दे सकते हैं. क्यों सरकारी सुविधाओं को आदिवासियों तक नही पहुंचने दिया जा रहा है. अगर सरकार आदिवासियों की भलाई के लिए कुछ करे तो कहोगे उन्हें बरगलाया जा रहा है.

अगर भ्रष्टाचार और शोषण से लडाई के नाम पर आपने आदिवासियों के हक के लिए बंदूक उठाई है तो आप क्या कर रहे हैं. क्यों आप उन खदान मालिकों से हर महीने टैक्स वसूलते हैं जिन्हें आप शोषक बता कर जिनके खिलाफ आप इतने समय से तथाकथित युद्ध छेड़े हैं. आपमें और गली के गुंडे में फर्क क्या है. वो हफ्ता वसूलता है तो आप महीना.

कहां है नक्सलियों के मानवाधिकारों की वकालत करने वाले वो लोग जिन्हें नक्सलियों के बारे में गृह मंत्री पी चिदंबरम के बयान तेजाब की तरह जलाते हैं. कहां है वो लोग जो नक्सलियों के साथ बिताए अपने वक्त को बड़ी खूबसूरती से पत्रकारिता का नाम दे कर 20-20 पन्ने काले कर देते हैं ताकि नक्सलियों के लिए देश में सहानुभूति बढ़ाई जा सके. क्या अब उन्हें इन 74 परिवारों के मानवाधिकारों की परवाह नहीं. क्या ये जवान इंसान नहीं थे. इनके भी कोई हक थे या नहीं.

पत्रकारिता, शिक्षण और समाज सेवा में ऐसे लोग बैठे हैं जो नक्सलियों के लिए बेहद सहानुभूति रखते हैं. खुल कर सामने क्यों नहीं आते कायरों. बुजदिलों की तरह पीछे से छिप कर क्यों वार करते हो. ये समझ लेना... ये भारत है.... पाकिस्तान और चीन जैसे बड़े बड़े मुल्क बाल बांका तक नहीं कर पाए हैं. तो तुम किस खेत की मूली हो. हमारा संविधान अगर हमें आजादी और अधिकारों की गारंटी देता है तो तुम लोग इन अधिकारों का बेजा फायदा उठा रहे हो. तुम हमारे सिस्टम का एक हिस्सा बन कर बैठे हो ताकि उसे अंदर से खोखला कर सको. तुम्हें सब पहचानते हैं. तुम्हारी विचारधारा तो तुम्हें इस संविधान में भरोसा नहीं रखने को कहती है. तुम तो इस संविधान को ही पलटना चाहते हो. तुम अपनी नई कहानी लिखना चाहते हो.

क्या हुआ नेपाल में.... क्या तीर मार लिया नक्सलियों ने... कौन सी क्रांति कर देश का भला कर दिया.... अगर सोचते हो भारत में भी ऐसा ही कर पाओगे तो बड़ी भूल कर रहे हो.

याद रखना...

समर शेष है नहीं पाप का भागी केवल व्याघ्र
जो तटस्थ हैं समय लिखेगा उनका भी अपराध