Monday, March 01, 2010

ऐसे खेली होली!

शुरुआत बहुत धीमी थी. बेहद शालीन. इंटरकॉम पर एक-दो फोन होली की बधाई देते हुए. यानी सोसायटी के भीतर से ही. मोबाइल कल रात से ही बरबरा रहा था. लगातार मैसेज पर मैसेज. होली की बधाई पर बधाई. सारे मित्रों को बहुत धन्यवाद. ये जानते हुए भी कि टेलीकॉम प्रोवाइडर खून चूसने को तैयार हैं. एसएमएस का दाम बढ़ा दिया. फिर भी एसएमएस किया. ये मेरा हमेशा का ऊसूल है कि कोई भी मैसेज आए जवाब ज़रूर देता हूं. कोई मिस्ड कॉल हो तो उसे भी पलट कर फोन करता हूँ. लेकिन कई मेरे मित्र ऐसे भी हैं खासतौर से काम से जुड़े जो एसएमएस और मिस्ड कॉल का जवाब देना अपनी शान के खिलाफ समझते हैं. बहरहाल उन्हें भी होली मुबारक हो.

फिर बाबू ने ज़िद पकड़ी तो धीरे-धीरे उसे तैयार किया. पूरी तरह से लैस. अंदर स्वेटर, उस पर बरसाती जो अनुपम ने बेल्जियम से लाकर दी थी. ऊपर से एक पुराना लाल रंग का कुर्ता. बाबू की पिचकारी के लिए दो अलग-अलग बाल्टियों में रंग भी तैयार कर लिए. एक हरा एक लाल. एक प्लेट में दो रंग की गुलाल भी सजा लीं. चंदन का टीका लगाने की भी पूरी तैयारी कर ली.

शास्ताजी फिर पिचकारी लेकर निकल पड़े मैदान में. मैं भी अपने पुराने कपड़ों की तलाश में अलमारी खंगालने लगा. एक पुराना लाल रंग का कुर्ता पकड़ में आया जो कभी सात आठ साल पहले फैब इंडिया से लिया था. अब बदरंग हो चला था. लिहाज़ा उस पर नए रंग चढ़ाने का फैसला किया. एक पुरानी जींस भी मिल गई. यानी अब मैं होली खेलने के लिए पूरी तरह से तैयार था.

बाबू धीरे-धीरे रंग में आते गए. आने-जाने वालों पर पिचकारी से रंग छोड़ा और बदले में किसी ने रंग डाला तो खूब मज़े से लगवा भी लिया. ये कायदे से उनकी पहली होली रही. इससे पहले नाना के घर पर रहते थे और मम्मी के साथ होली के रंगों से बचते रहे.

मुझे भी परिसर में परिचित मिलते रहे. बड़े सम्मान के साथ एक-दूसरे के चेहरों पर गुलाल लगाना और फिर तीन बार गले मिलना. ये तीन बार गले मिलने का फंडा मुझे समझ में नहीं आया. एक बार या दो बार क्यों नहीं तीन बार क्यों. या फिर चार बार क्यों नहीं मिलते गले. बहरहाल, गुलाल का सिलसिला चलता रहा, चेहरा कभी लाल, कभी पीला तो कभी हरा होता रहा. बाल भी जो अब उम्र से पहले ही सफेद हो चले हैं, उन्हें भी अपना रंग बदलने का मौक़ा मिला. आइने में अपनी शक्ल देखी तो अच्छी लगी. चेहरे के रंग दिल के भीतर गहरे तक उतर गए.

फिर समां बदला. जो गले मिल कर गुलाल लगा रहे थे, धीरे-धीरे आक्रामक होते गए. गुलाल की जगह पक्के रंगों ने ले ली. उनकी शिकायत थी बदन पर अब भी कई ऐसे स्पॉट हैं जहाँ रंग नहीं लगा है. गुलाल के रंगों की उनके सामने कोई औकात नहीं थी. उनका कहना था रंग ऐसे लगें जो पक्के हों और कभी न छूटें. यानी मेरे पास मानसिक रूप से इस आक्रमण के लिए तैयार होने के अलावा कोई और चारा नहीं था.

फिर ये आक्रमण धीरे-धीरे हिंसा का रूप लेता गया. सिर्फ पक्के रंग लगाने से ही काम नहीं चला. अब सिलसिला बदल चुका था. अब बारी थी एक-दूसरे को गीला करने की. सूखी होली का दौर ख़त्म हो चला था. अब रंगों से भरी बाल्टियों से भिगोना शुरू हुआ. मुझे भी भिगोया गया और मैं भी इसमें पीछे नहीं रहा.

लेकिन भांग और कई लोगों पर दूसरे आधुनिक ढंग का नशा हावी हो चला था. इस बीच बाबू भी पाइप के पानी से भीग चुके थे. मुझे लगा अब होली ख़त्म करने का वक्त आ गया है. लिहाज़ा मैं उनका हाथ पकड़ कर घर की ओर चला. लेकिन कुछ लोगों ने फिर घेर लिया. इस बार का आक्रमण बेहद चौंकाने वाले ढंग से किया गया था और मैं मानसिक रूप से इसके लिए बिलकुल भी तैयार नहीं था.

दरअसल, पाइप से बिखरे पानी से लॉन में पड़ी मिट्टी बेहद गीली और चिकनी हो चली थी. वो कीचड़ का तालाब कइयों के मन को भाने लगा. ये होली का आखिरी दौर था और अब सब को उसमें डुबोने का कार्यक्रम चल निकला था. मुझे भी उसमें शामिल होने के लिए जबरन उठाया गया. जब मैंने देखा कि बचने का कोई चारा नहीं है तो मैं खुशी-खुशी कीचड़ के समुद्र में डूबने को तैयार हो गया. मैंने अपने स्लीपर्स उतारे और इससे पहले कि मुझे कोई घसीटता मैं खुद ही कीचड़ में जाकर लेट गया. एक शख्स ने बहुत प्यार से मुझे अपने कान बंद करने की नसीहत दी और दूसरे ने आँखें ताकि मिट्टी आँख और कान में न चली जाए. फिर हुई ढंग से रगड़ाई. कुछ लोगों ने यह कह कर हौंसला भी बढ़ाया कि घबराने की कोई बात नहीं है- ये मड बाथ है. हर्बल है. फाइव स्टार में इसका बहुत पैसा लगता है. यहाँ हम आपको मुफ्त में ये सेवा दे रहे हैं.

मुझे वाकई बहुत मज़ा आया. अपने गांव की होली याद आ गई. हमारे यहाँ धुलेंडी पर पानी, गीले रंग वगैरह तो होता था लेकिन उसके दो या तीन दिन बाद काछी मोहल्ले वालों की होली देखने का अलग मज़ा आता था. वो नशे में धुत्त हो कर सिर्फ़ कीचड़ में होली खेलते थे. हम दूर से देखते थे. हमें उसमें शामिल होने की मनाही थी. और अब इतने साल बाद कीचड़ में हर्बल होली खेलने का मैंने मज़ा ले लिया.

शुक्र रहा कि महिलाओं और बच्चों की मौजूदगी की वजह से बात कीचड़ होली पर ही ख़त्म हो गई. नहीं तो मेरा मन तो कपड़ा फाड़ होली शुरू करने के लिए भी ललचाने लगा था. वाकई होली ही वो त्यौहार है जिसमें जो जैसा चाहे वैसा कर सकता है. कोई बुरा नहीं मानता.

बुरा न मानो होली है. HAPPY HOLI.

4 comments:

  1. ye dastan kuch kuch Barsane aur Goverdhan Ki Holi Jaisi Hai.......Wah.. Kya Baat Hai.. Jaan Na Pehchan Hum Tere Mehman....Holi hi aisa mauka hai jab anjan admi bhi aap par apna hath saaf kar deta hai aur aap jante hue bhi khinse niporte reh jaate hain...aur uska shukriya bhi ada karte hain....Wakai...Holi Holi Hai.....

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  2. होली का त्यौहार तो ऐसा ही है...इसमें भला कौन बुरा मानेगा.


    ये रंग भरा त्यौहार, चलो हम होली खेलें
    प्रीत की बहे बयार, चलो हम होली खेलें.
    पाले जितने द्वेष, चलो उनको बिसरा दें,
    खुशी की हो बौछार,चलो हम होली खेलें.


    आप एवं आपके परिवार को होली मुबारक.

    -समीर लाल ’समीर’

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  3. बढ़िया प्रस्तुति ,आप एवं आपके परिवार को होली मुबारक.

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  4. प्रवीणजी आपको होली की बहुत-बहुत बधाई.
    उड़ान जी और महेंद्रजी आपका भी बहुत-बहुत धन्यवाद. हौंसला बढ़ाने के लिए शुक्रिया. आगे भी मिलते रहेंगे.

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